हमारे लोकतंत्र का संकट / शिवदयाल
यह डिगती आस्थाओं का दौर है। इस शताब्दी की शुरूआत से लेकर अब तक एक पर एक जैसी घटनाएँ घटती चली गई हैं, उससे व्यवस्था पर से आम नागरिक का विश्वास घटता चला गया है। अब तो परदेस में भी कुछ होता है तो उसका असर अपने यहाँ होता है, भले वह असर हमेशा क्लेष पहुँचाने वाला ही होता हो। अमेरिका में 9/11 हो, यूरोप में मंदी हो, मध्यपूर्व में झगड़े-फसाद हों और तेल गर्म होने लगे, यहाँ तक कि बर्मा, यानी म्याँमार में भी यदि सामुदायिक हिंसा हो जाए तो उसकी आँच हमें झुलसाने लगती है। दुनिया भर की पीड़ा और त्रास को भारत जैसे चुम्बक की तरह अपनी ओर खींचता है।
और हमारा अपना हाल क्या है? दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र - सवा अरब लोगों का, छह-सात प्रतिशत की दर से बढ़ती अर्थव्यवस्था जिसकी अधिकांश आबादी को अब तक ’ट्रिकल डाउन’ का ही आसरा है। छीजते जाते संसाधन, बिगड़ता जाता पर्यावरण, जलावतनी और विस्थापन, एक-दूसरे को काटती और खारिज करती पहचानें, लगभग एक-तिहााई से भी अधिक भूभाग सैन्यबलों के भरोसे, और इतने पर भी धन और सुविधा की लिप्सा में डूबे हमारी करोड़पतियों की कुरू-सभा के सभासद जिनके महाअमाशयों में कुछ भी और कितना भी पचा लेने की क्षमता गुस्सा ही नहीं पैदा करती, भयाक्रांत भी कर देती है। भारत अब गरीबों का देश नहीं रहा, उसी प्रकार गाँवों का देश भी नहीं रहा। उसकी मासूमियत नहीं बची, सलोनापन नुच गया। यह एक नया देश बन रहा है हमारे सामने, हमारे होते और हम जैसे अपरिचिती में चले जा रहे हैं, नेपथ्य में। हमारे होने, न होने से जैसे इसे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। इस नये बनते देश में अब एक ही नागरिकता चलने वाली है - पूँजी की नागरिकता। यह विश्व नागरिकता होगी, इसमें कोई देश-बंधन नहीं होगा। जो निवेश कर सके, नागरिकता उसकी, चाहे देशी हो या विदेशी। और समाजवाद भी अब पूँजी का होगा पूँजी बढ़नी चाहिए, चाहे वह उद्यम से कमाई गई हो, चाहे कालाबाजारी, भ्रष्टाचार या लूटमार से। सब तरह की पूँजी का समान मूल्य । और तब नैतिकता भी पूँजी की। नैतिक वह जो धन से उपजा हो, शील से नहीं। शील तो रास्ते की शायद सबसे बड़ी रूकावट होगी।
तो क्या पैंसठ साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते हमारा लोकतंत्र विफल हो गया है? सोवियत समाजवाद भी तो सत्तर की आयु ही पार कर सका था। अगर गिरावट की गति यही रही तो कहना मुश्किल है किसकी आयु लंबी रहेगी इतिहास में। ऊपर जिन लक्षणों की चर्चा की गई है वे सचमुच विघटन के लक्षण हैं। यहाँ आकर संसदीय लोकतंत्र और राजनीति की सीमा साफ-साफ दिखाई दे रही है। यह वह प्रणाली है जिसे हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने अपनाया लेकिन जो बनी और विकसित हुई थी सर्वथा भिन्न, बल्कि विपरीत परिवेश में। आदमी की एक फितरत होती है, जिससे घृणा करता है, खुद वैसा ही बनता जाता है। जिस साम्राज्यवाद ने हमें दो सौ वर्षों तक पीसा, वह ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था की ही कोख से पैदा हुआ था - आजाद होते ही यह मोटी बात हमें याद न रही। हद तो यह कि एक आजाद देश के नागरिकों को भी गुलाम देश के कानूनों के अनुसार चलने के लिए बाध्य किया गया। क्या सचमुच आजादी के समय भी हममें आत्मगौरव का बोध कराने लायक कुछ भी नहीं था। वह ’भारत का प्राचीन गौरव’ ’भारत की महान सभ्यता और संस्कृति’, ’भारतीय चिंतन की विराटता’, आदि-आदि सिर्फ कहने की बातें थीं जिन्हें हमारे नायक आजादी के आंदोलन में लोगों में उत्साह जगाने के लिए दोहराते रहते थे? छोड़िए प्राचीन भारत के गौरव को, अपने पर अभिमान करने के लिए फिर भी हमारे पास सामा्राज्यवाद के खिलाफ सबसे विलक्षण संघर्ष की विरासत थी जो स्वतंत्रता के रूप में फलीभूत हुई थी, लेकिन आश्चर्य! अपनी राजव्यवस्था अपने अनुसार बसाने का आत्मविश्वास हममें नहीं था। हमारे नेताओं का इतिहास-बोध भी कितना खोखला था जो वे देश का विभाजन टाल नहीं सकें। एक हजार साल तक साथ रहते आए समुदायों को साथ-साथ रखने में नाकाम रहे। काँग्रेस वर्किग कमिटी के विभाजन का प्रस्ताव तो निर्विरोध ही पास हो गया था, मात्र काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया ने ही प्रस्ताव का विरोध किया।
भारत के आधुनिक इतिहास की ये घटनाएँ ऐसी हैं जो आने वाली पीढ़ियों को भी उद्वेलित करती रहेंगी - भारत का विभाजन और अपने ढंग की राजव्यवस्था का निर्माण कर सकने की अक्षमता। अब विचार करने पर लगाता है कि जो तबाही विभाजन के फैसले के बाद हुई उसके सामने मुस्लिम लीग की ’सीधी कार्रवाई’ और कथित ’सिविल वार’ कम ही ठहरती। लाख फसाद होने के बाद भी साथ रहने की आशा बची रहती। उसी तरह अगर हमारे राष्ट्र निर्माता अपने पूर्वजों की उपलब्ध्यिों पर दृष्टि डालते तो उन्हें मौर्यों, गुप्तों, चोलों, चालुक्यों और विजयनगर की राजव्यवस्था की ऊपरी संरचना के साथ ही भारतीय ग्राम्य व्यवस्था एवं लोकजीवन की उन परम्पराओं का भी कुछ बोध होता जो न केवल समुदायों को स्वायत्तता प्रदान करती थीं, बल्कि कहीं-न-कहीं राजसत्ता पर अंकुश रखती थीं, राजा को प्रजापालक बनने के लिए बाध्य भी करती थीं। इन परम्पराओं का विकास पश्चिम के ’प्रकृति-विजय’ की लालसा से नहीं बल्कि प्रकृति-मैत्री के भाव से हुआ था। गाँधी जी जब स्वराज्य की और ग्राम स्वराज्य की बात करते थे, उनका संकेत भारत की इसी परम्परा को आगे बढ़ाने के लिए होता था जो वास्तव में साम्राज्यवाद व औपनिवेशिक काल में जानबूझ कर नष्ट कर दी गई थीं। इन पर थोड़ी चर्चा आवश्यक है। हमें लोकतंत्र का अपना आधार खोजने के लिए अपने इतिहास के विकास का सूक्ष्म परीक्षण करना होगा। लगभग छह सौ वर्ष ईसा पूर्व उत्तर भारत में दो प्रकार की संस्थाएँ देखने को मिलती हैं - प्रजातंत्र और राजतंत्र । राजतंत्र मुख्यतः गंगा के मैदानों के केन्द्रित थे जबकि प्रजातंत्र इनकी उत्तरी परिधि पर। ऐसा माना जाता है कि प्रजातंत्र राजतंत्र से पहलीे की व्यवस्था है जिसपर कबिलाई संस्कृति का प्रभाव था और जिसमें लोगों ने अपनी प्राचीन और निरंतर चली आ रही परम्पराओं को सुरक्षित रखा था। प्रजातंत्र स्वाभाविक तौर पर राजतंत्र की कट्टरता के विरोधी थे। प्रजातंत्र में या तो कोई अकेला ’जन’ होता था, जैसे कि शाक्य, मल्ल आदि या ’जनों’ का कोई संघ जैसे ’वृज्जियों का संघ’। एक विचार यह है कि प्रजातंत्रों का जन्म वैदिक जनों से हुआ जिन्होंने अपनी परम्पराओं को बनाए रखा, फिर बाद में राजतंत्रों में इनका विलय होता गया। परिणामस्वरूप, जनों का जो एक लोकतंात्रिक ढाँचा हुआ करता था, वह तो नहीं रहा लेकिन जनों का प्रतिनिधित्व करने वाली ’परिषदों’ के द्वारा शासन का विचार बनाया गया। ऐसा माना जाता है कि राजतंत्रों में वैदिक कर्मकांडों की प्रतिष्ठा थी जबकि प्रजातंत्रों में सामान्यतः वैदिक आचार-विचारों का पालन नहीं किया जाता था। विचारों की स्वतंत्रता प्रजातंत्रों की विशेषता थी। बाद में बौद्ध एवं जैन धर्म के संस्थापक प्रजातंत्रों में ही जन्में जिन्होंने धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ लोगों को संगठित किया। बुद्ध ’शाक्य’ जन से थे जबकि महावीर ’ज्ञात्रिक’ जन से। ब्राह्मणेत्तर सिद्धांतों का विकास अधिकतर प्रजातंत्रों में ही हुआ। इन सिद्धांतों में बौद्धों का राज्य के उद्भव का सामाजिक संविदा का सिद्धांत सबसे महत्वपूर्ण था। बाद में अठारहवीं सदी में फ्रांस में रूसो ने इसे प्रतिपादित किया।
बौद्धों का आग्रह था कि न्याय और शासन के लिए किसी व्यक्ति को निर्वाचित किया जाना चाहिए और राजा का पद वंशानुगत नहीं होना चाहिए। ये सिद्धांत प्रजातांत्रिक व्यवस्था का पक्षपोषण करते थे। बाद में बाहरी आक्रमणों और प्रजातंत्रों के आंतरिक अंतर्विरोधों के कारण भी प्रजातंत्र विलुप्त होते गए। तब भी ईसा की चौथी शताब्दी तक कुछ प्रजातंत्रों के होने की जानकारी मिलती है। रोचक तथ्य यह है कि इस क्रम में प्रजातंत्रों और राजतंत्रों का एक-दूसरे में विलय अथवा परिवर्तन भी होता रहा। कम्बोज के राजतंत्र छोड़कर प्रजातंत्र अपनाने का उल्लेख मिलता है।
धीरे-धीरे राजतंत्रों में जनों के प्रति निष्ठा कम होती गई और इसके स्थान पर ’वर्ण-निष्ठा’ बढ़ती गई। साम्राज्यवादी क्षेत्र विस्तार की नीतियों के चलते लोकप्रिय परिषदें निर्बल हुईं। कृषि क्षेत्र पर बढती निर्भरता के कारण भी राजतंत्र लगातार मजबूत होते गए और राजा की दैवीय स्थिति संबंधी धारणा जोर पकड़ती गई। आखिरकार मौर्यकाल में राजतंत्र एक शक्तिशाली और सुसंगठित तंत्र के रूप में उभरा। मौर्यों ने एक पहली बार एक शक्तिशाली साम्राज्य का निर्माण किया जिसका प्रभाव सदियों तक भारत के राजनीतिक जीवन पर बना रहा। मौर्य साम्राज्य की राजव्यवस्था के नीतिकार कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत की झलक वर्तमान नौकरशाही में भी मिलती है। मौर्यकाल में राजधानी पर राजा का प्रत्यक्ष शासन होता था । चार प्रांतों के प्रमुख राजपुरुष होते थे, जबकि अपेक्षाकृत छोटी इकाइयों के राज्यपालों का चुनाव स्थानीय लोगों से किया जाता था। प्रत्येक प्रांत का उप-विभाजन जिलों में किया गया था और प्रत्येक जिला ग्राम समूहों में बँटा था। इससे कही-न-कहीं नीचे से नियंत्रण की भी व्यवस्था बनाई गई थी। वैसे मौर्यों की राजसभा में चार सौ चुने हुए सदस्य होते थे। राजसभा राजा पर कई बार अंकुश भी लगा सकती थी।
मौर्यो के बाद कुषाणों की राजव्यवस्था में प्रांतों की स्वायत इकाइयाँ थी, और प्रांतों के संघ से केन्द्र की शक्ति पर अंकुश लगता था। गुप्तकाल में भी लगभग यहीं व्यवस्था बनी रही। इस क्रम में महत्वपूर्ण बात यह है कि ऊपर के परिवर्तनों से प्रशासनिक ढाँचा बदलने के बाद भी गाँवों के प्रशासन पर शायद ही कोई अंतर पड़ा। भारतीय गाँव स्वायत इकाइयों के क्रम में विकसित हुए, गाँवों में बुनियादी स्तर पर एक राजनीतिक संगठन हमेशा बना रहा। गाँव के अपने कर्मचारी होते थे जो राजस्व वसूली के साथ ही जमीन की माप का काम भी करते थे। उत्तर भारत के ’पटवारी’ और उक्षिण भारत के ’कारनाम’ अब तक यह काम करते चले आ रहे हैं लेकिन भिन्न परिस्थितियों में। गाँवों के इस संगठन पर स्थानीय विवादों और झगड़ों के निपटारे का भी भार होता था। गाँवों की भूमिका क्या थी, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के पहले तक नियम हमारी ग्राम पंचायतों में ही बनते थे। उसके बाद औपानिवेशिक शासन ने अपने हित में ’विधि का शासन’ लागू किया। ग्राम-पंचायतों में बने नियम-कानून परम्पराओं के रूप में समुदाय द्वारा आत्मसात कर लिए जाते थे। राजाओं या राजसत्ता का इन में शायद ही कोई दखल हो सकता था, उनका अधिकार राजस्व पर होता था जो मुगलों के जमाने तक प्रायः एक चौथाई ही रहा। भूमि किसान की सम्पति थी राज की नहीं।
तुलना करने पर हम स्पष्ट देख सकते हैं कि भारत में राजतंत्रों में भी आमजन को जो मूलभूत अधिकार प्राप्त थे वह इंग्लैंड और फ्रांस में मैग्नाकार्टा और क्रांति-पश्चात की व्यवस्थाओं में भी सुलभ नहीं हो पाए। न यहाँ कोई ’अंधकार युग’ आया, न दास-प्रथा का उत्पीड़न हुआ। यहाँ की विशिष्ठ सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने राजाओं के लिए क्रूर होने की अनिवार्यता पैदा नहीं की । राजा और राजसता की आलोचना को आश्चर्य से नहीं देखा जाता था। विचार राज्यों की सीमाओं का अतिक्रमण करते थे और एक सांस्कृतिक धारा का निर्माण करते थे। इसीलिए भारत भले ही राजनीतिक रूप से एक नहीं रहा हो, सांस्कृतिक रूप से एक रहा। समय-समय पर चले उदारवादी आंदोलनों ने केवल जड़ता ही नहीं तोड़ी, भारत की सांस्कृतिक एकता को भी मजबूत किया। यह एक असाधारण बात लगती है कि भारत के ग्राम्य जीवन के साथ ही सांस्कृतिक जीवन में राज्य का दखल या तो नहीं था, या फिर बहुत कम था। गाँधीजी, और बाद में विनोबा जी और जेपी न्यूनतम राज्य-नियंत्रण वाली ऐसी ही विकेन्द्रित राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे। लेकिन हुआ इसका उल्टा। पश्चिमी लोकतंत्र के रास्ते चलकर हम राज्यवाद, फिर पूँजीवाद के दलदल में उतर गए हैं। दलीय प्रणाली में लोगों के अधिकार पहले ही सीमित हो गये, उस पर से व्यापक औद्योगिकीकरण ने लोकतांत्रिक अधिकारों और लोकतंत्र के माध्यम से ’स्वशासन’ यानी अपने शासन की संभावना को धूमिल कर दिया है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि पूँजी और तकनीक से उपजे भौतिकवाद ने नैतिकता के लिए जगह ही नहीं छोड़ी है और इससे लोकतंत्र की ही जमीन सिकुड़ने लगती है। जेपी ने ’भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना: एक सुझाव" में कहा है- "लोकतंत्र की समस्या मूलतः नैतिक समस्या है। संविधान, शासन प्रणाली, दल, निर्वाचन ये सब लोकतंत्र के अनिवार्य अंग हैं। किन्तु जब तक लोगों में नैतिकता की भावना न रहेगी, लोगों का आचार-विचार ठीक न रहेगा, तब तक अच्छे से अच्छे संविधान और राजनीतिक प्रणाली के बावजूद लोकतंत्र ठीक से काम नहीं कर सकता। वर्तमान उद्योगवाद ने जिस भौतिकवादी प्रवृति की सृष्टि कर रखी है, उसके साथ लोकतंत्र मेल नहीं खाता।" वास्तव में इससे हमारी सांस्कृतिक एकता भी खतरे में पड़ रही है, राजनीतिक जीवन तो दूषित हो ही रहा है।
आज हमारे लोकतंत्र का यह दोहरा संकट है। एक ओर तो हमने अपने लिए जो व्यवस्था बनाई वह हमारे उपयुक्त न थी, न हमारी परम्परा अथवा विरासत से जुड़ी थी। दूसरी ओर जो रास्ता हमने चुना है उसमें आगे भी नैतिकता - व्यक्तिगत या सार्वजनिक का अभाव बढ़ता ही जाएगा और भविष्य में हम बस नाम भर के लिए लोकतंत्र रह जाने वाले हैं। भारत निर्माण का रास्ता वह नहीं जो विज्ञापित किया जा रहा है, बल्कि वह है जो हमारी भूली हुई विरासत की पगडंडी से होकर निकलता है।