हमारे सिनेमा बाज़ार में छवियों का तिलिस्म / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :24 सितम्बर 2016
महेंद्र सिंह धोनी का सुशांत अभिनीत बायोपिक प्रदर्शित होने जा रहा है। इसकी निर्माण कंपनियों में धोनी की कंपनी भी शामिल है। धोनी आज भी सक्रिय हैं अौर उनकी छवि जनमानस में बनी हुई है और ऐसे में दर्शक सुशांत को महेंद्र सिंह का पात्र अभिनीत करते देखेंगे तो उन्हें कैसे यकीन होगा कि परदे पर प्रस्तुत बंदा धोनी ही है। जब सर रिचर्ड एटनबरो की गांधी बायोपिक प्रदर्शित हुई थी तब गांधीजी को गुजरे एक अरसा हो गया था और दर्शक परदे पर प्रस्तुत गांधी को सहज ही स्वीकार कर लेते थे। दर्शकों की दो पीढ़ियों का जन्म गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद हुआ था। सिनेमा यकीन दिलाने की कला है और दर्शक अपने अविश्वास के माद्दे को निरस्त कर देता है तथा परदे पर प्रस्तुत कथा के प्रवाह के साथ बहने लगता है।
सिनेमा और जीवन में छवियां यथार्थ मनुष्य से बड़ी होती हैं। एक बार शशि कपूर अपने घर में मित्रों के साथ बातचीत कर रहे थे। उनका सुपुत्र कुणाल वहां आया और उसने बताया कि श्याम बेनेगल ने नेहरू लिखित 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' के लिए कुणाल को सिकंदर की भूमिका के लिए चुना है। शशि कपूर और उनके मित्र इस बात पर हंसने लगे, क्योंकि उनके मन में हट्टे-कट्टे, ऊंचे-पूरे पृथ्वीराज कपूर द्वारा सोहराब मोदी की फिल्म के लिए अभिनीत सिकंदर की छवि जमी हुई थी और कुणाल की कद-काठी छोटी थी। कुणाल ने उन लोगों से कहा कि इतिहास गवाह है कि सिकंदर छोटे कद का सामान्य-सा मनुष्य था। श्याम बेनेगल गहरे शोध के पश्चात ही कोई काम करते हैं।
ठीक इसी तरह पृथ्वीराज कपूर अभिनीत अकबर की छवि भी स्थापित है, जबकि यथार्थ में अकबर भी सामान्य कद का अत्यंत मामूली दिखने वाला व्यक्ति था। आजकल एपिक चैनल के कार्यक्रम में प्रस्तुत अकबर भी सामान्य-सा व्यक्ति है और यही प्रमाणित सत्य भी है। सारांश यह है कि जनमानस में जमी छवियां यथार्थ से बिल्कुल अलग होती हैं परंतु उन्हें ही सत्य मान लिया जाता है। संभवत: जनता का सत्य के प्रति आग्रह भी मात्र छवियों तक ही सीमित है। इसी कारण नेता भी छवियां गढ़ते हैं। नेता अपने यथार्थ में बहुत अदने से टुच्चे इंसान होते हैं। अपवाद सभी जगह होते हैं।
ज्ञातव्य है कि लियोनार्दो विन्ची ने अपनी अमर पेंटिंग के लिए जिस मॉडल का उपयोग शैतान की छवि गढ़ने में किया था, कुछ वर्षों बाद उसी मॉडल का उपयोग ईश्वर की छवि के लिए किया, जबकि अंतराल के वर्षों में वह सजायाफ्ता मुजरिम हो चुका था। इस्लामिक साहित्य में हमजाद आकल्पन है, जिसके अनुसार हर व्यक्ति के जन्म के साथ ही उसके भीतर शैतान भी जन्म लेता है, जिसे हमजाद कहते हैं। कुछ इसी तरह एक आकल्पन है कि जन्म के साथ ही मृत्यु भी मनुष्य के शरीर में पैदा होती है, जिसे वह अपने बुरे कार्यों से मजबूत बनाता चलता है।
क्रिकेट खिलाड़ी महेंद्र सिंह धोनी के बायोपिक में स्वयं धोनी को ही अपनी भूमिका अभिनीत करनी चाहिए थी। इसका यह अर्थ नहीं कि सुशांत कमतर अभिनेता हैं। धोनी बायोपिक समय से पूर्व बनाया जा रहा है, जबकि वर्तमान में हजारे, उमरीगर या मुश्ताक अली और हॉकी के जादूगर ध्यानचंद का बायोपिक बनना चाहिए। पूजा एवं आरती शेट्टी ने ध्यानचंद बायोपिक की शूटिंग पूर्व तैयारी मंे लाखों रुपए खर्च किए हैं। ध्यानचंद के परिवार से भी आज्ञा प्राप्त की गई है परंतु कोई सफल सितारा भूमिका निभाने को तैयार नहीं हुआ। ध्यानचंद की भूमिका के लिए रणवीर कपूर या रनवीर सिंह सही चुनाव होगा परंतु रणवीर कपूर ने इस आधार पर इनकार किया है कि भूमिका के लिए उन्हें हॉकी खेलना सीखना होगा। एक फिल्म के लिए वे तीन या चार वर्ष का समय नहीं दे सकते।
भारत में विज्ञापन एवं बाजार की शक्तियों ने क्रिकेट के पक्ष में हवा बनाकर उस हॉकी को हाशिये में धकेल दिया है, जिसमें भारत ने आधा दर्जन ओलिंपिक गोल्ड मेडल प्राप्त किए हैं। खेल भी विज्ञापन व बाजार क्षेत्र में आते हैं। यह बाजार का ही तिलिस्म है कि खरीददार को यह खबर भी नहीं है कि वह बाजार में स्वयं सिक्के की तरह खर्च हो रहा है।