हमें कब्रों में नहीं, किताबों में सुलाना / ममता व्यास
आज सुबह अखबार में एक खबर पढ़ी और मैं ये पोस्ट लिखने को मजबूर हो गई। खबर थी: भोपाल के हमीदिया अस्पताल के शवगृह में दो शव बदल गए। आग से झुलसी दो महिलाओं के शवों की अदलाबदली हो गई। दोनों ही महिलाओं की मौत आग से जल कर हुई थी। दोनों का पोस्टमार्टम हुआ और दोनों महिलाओं के परिवार उन शवों को लेकर चले गए। एक महिला के पति ने बिना देखे ही उसका अन्तिम संस्कार करके उसकी देह को पूरी तरह राख में मिला दिया। लेकिन दूसरी महिला का पति इस बात पे भड़क गया कि ये शव उसकी पत्नी का नहीं है और खूब हंगामा हुआ। मज़बूरी में उसे दूसरी लाश को ही जलाना पड़ा। खबर बस इतनी-सी ही है।
लेकिन, लेकिन लेकिन बात ये है कि --पूरी तरह जली चुकने, सड़ चुकने और चीर-फाड़ होने के बाद उस लाश में क्या बचा होगा? कुछ जले, सड़े, कटे-फटे मांस के टुकड़े ही ना? उस पर भी मालिकाना हक़, क्यों? मांस के टुकड़े ना हुए मालिक क़ी इज्ज़त का सवाल हो गया साहब। पत्नी क्यों जली? या जलाई गई। किस गुनाह की सज़ा उसे दी गयी। उसके बाद उसके बच्चों का क्या हुआ? उसके चले जाने का दुख किसी को नहीं, क्यों? पति को उसकी लाश को अपने हाथों से पूरी तरह भस्म ना कर पाने का मलाल ज़रुर रहा होगा। बिलकुल वैसे ही जैसे कंस के हाथो से देवकी की पुत्री मरने से पहले ही ऊपर आसमान में चली गई और जोर जोर से हँसने लगी। वो लाश भी ऐसे ही हंसी होगी उसके पति (मालिक) पर। तमाम उन लोगो पे जिन्होंने कसम खायी होगी कि उसे उनके हाथों ही जलना है। अब वो मालिक लोग सारा दोष अस्पताल को दे या मरचुरी विभाग को लेकिन मेरा मानना है क़ी वे लाशें खुद-ब-खुद बदल गईं।
उस रात, जब गहरा, डरावना और खौफनाक सन्नाटा पसरा हुआ था। उस रात कई शव पोस्टमार्टम के इंतजार में पड़े थे। दो लाशें आपस में बतियाने लगी। स्त्रियाँ कहीं भी हो। किसी भी दुख या पीड़ा में हो, वे प्रेम करना नहीं छोड़ती और बात करना भी नहीं भूलती। किसी से अपना दुख कह देना और किसी का दुख सुन लेना; ये हुनर ख़ुदा ने बस स्त्रियों को ही बख्शा है। उस रात भी ऐसा ही हुआ होगा। दोनों लाशें (स्त्रियाँ) धीरे से खिसक कर पास-पास आ गईं और उनके बीच ये संवाद हुए:
तुम कहाँ से आई हो बहन और कैसे जली? या जलाई गई?
बहन, मैं समन्दर किनारे की बस्ती में रहती थी। वहीं खेली, पली, बढ़ी और मैंने देखा की लहरों की चंचलता और अल्हड़पन मेरे स्वभाव में आ गया। समन्दर क़ी लहरों-सी मैं दिनभर किनारों से बतियाती थी। किनारे मुझे बड़े प्रिय थे और इक दिन इक मछुआरा मुझे अपनी बोतल में भर कर बोला। चल लहर आज से तू मेरी है। उसने मुझे बोतल में बंद कर दिया और समन्दर से बहुत दूर जंगलों में ले गया। मैं अब बोतल में बंद थी। मैं सांस नहीं ले पाती थी और तैरना भी भूल गयी थी। एक दिन भूल से, बोतल का ढक्कन ज़रा खुला रह गया और मैं उसमे से निकल कर समन्दर क़ी तरफ दौड़ी। अपनी साथी लहरों से मिलकर मैं जी उठी। समन्दर ने मेरी पीड़ा को खुद में समा लिया। वो उसी दिन से खारा हो गया।
फिर क्या हुआ बहन? फिर क्या था मेरे मालिक को बर्दाशत नहीं हुआ कि मैं उसकी आज्ञा के बिना बोतल से बाहर निकलूं। उसने एक दिन मुझ पर पेट्रोल डाल मुझे जला कर मार डाला। मैं जल कर राख तो हो गयी लेकिन मेरी रूह अभी भी भस्म नहीं होती, क्यों? इन पोस्मार्टम वालों ने मुझे तेज चाकुओं से काटा फिर भी मैं अभी तक ज़िंदा हूँ, क्यों? शायद मेरी मुक्ति समन्दर की लहरों में ही है।
अब तुम सुनाओ...
बहन, मेरी व्यथा, कथा तुमसे अलग नहीं है। मैं जंगल की चंचल हिरनी की तरह थी। पेड़ों का हरापन मेरी रूह में बसा था। मोहब्बत जैसे खून बन कर बहती थी मेरी देह में। मुझे जंगलों से इश्क़ था। हवा, फूल, पत्ती मेरे अंग थे। मैं कभी रात को रजनी गंधा बन जाती थी तो दिन में गुलाब बन कर सुर्ख हो उठती थी। एक दिन एक शिकारी मेरी चंचलता पर मोहित हो गया और मुझे ले गया। उसने एक पिंजरे में मुझे रख दिया। मैं पल-पल मरने लगी। वो मेरी तड़प और पीड़ा देख खुश होता था। और खीझता भी था की अब मैं बुलबुल की तरह क्यों नहीं गाती। एक दिन मैंने उससे कहा मुझे मरने से पहले एक बार खुली हवा में सांस ले लेने दो। एक बार जंगल दिखा दो। मुझे दूर-दूर तक जंगल नहीं दिखते हैं । वो बोला तुम्हे मेरे हाथों ही मर जाना है। कल तुम्हे मैं इस देह की कैद से आजाद कर दूंगा। और उस दिन उसने मुझे आग में जला कर इस देह की कैद से आजाद कर दिया। लेकिन मैं फिर भी जिन्दा हूँ। ऊँचे पहाड़, हरे-हरे वृक्ष मुझे बुलाते है।
अजीब बात है बहन हम अलग-अलग स्थानों से आई हैं लेकिन कहानी एक जैसी ही है। मैं समन्दर के किनारे की बस्ती में रहती हूँ तुम बूंद बूंद को तरसती हो। तुम घने जंगलों में रहती हो और मेरी आखें हरापन देखने को तरस गईं।
बहन, हम दोनों अभिशप्त है। कल हम दोनों के मालिक आएँगे और इन मांस के टुकड़ो को ले जायेगे। क्यों ना तुम मेरे गाँव समन्दर के किनारे की बस्ती में चली जाओ और मैं तुम्हारे मालिक के साथ घने जंगलों के गाँव में। जलना हम दोनों को फिर एक बार है। तो क्यों ना अपनी मर्जी से जलें। वहीं जलें जहाँ रूह को सुकून हो। तुम जल कर समन्दर में खुद को समां देना। अपनी राख से उसके खारेपन को कम कर देना। मैं उस जंगल की मिट्टी में सिमट जाउँगी जहाँ मुझे हमेशा से जाना था। तुम नई-नई लहरों को जन्म देना और मैं धरती पर प्रेम के नए पौधे उगाउँगी।
चलो जल्दी करो सुबह होने वाली है। तुम मेरी जगह लेट जाओ और मैं तुम्हारी जगह। मुबारक हो बहन आजादी मुबारक हो। एक शेर सुनती जाओ बहन "हमें कब्रों में नहीं, किताबों में सुलाना। हम मोहब्बत की किसी कहानी में ही मरेगे”... दोनों शवों के हर चेहरे पर सुन्दर मुस्कान थी।