हमेशा जजिया कर चुकाने वाले तीर्थयात्री / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 फरवरी 2017
ऋषि कपूर अपनी जीवन यात्रा पर लिखी किताब 'खुल्लम खुल्ला' के प्रचार एवं बिक्री हेतु अनेक नगरों की यात्रा कर रहे हैं और इस कार्य में वे एक माह तक व्यस्त रहेंगे। इस दौर में कोई किताब केवल पठनीय होने के नाते नहीं खरीदी जाती वरन प्रचारतंत्र यह स्थापित करता है कि उस किताब को पढ़कर ही आप अपने आपको सजग नागरिक या पढ़ा-लिखा व्यक्ति साबित कर सकते हैं। किटी पार्टियों व कॉकटेल में लोकप्रिय किताब के एक-दो वाक्य बोलना सामाजिक आवश्यकता व मिलनसारिता का तकाजा बना दिया गया है। यह बात अलग है कि यह किताब पठनीय है।
कथा फिल्मों के प्रारंभ में बहुत ही कम शहरों में सिनेमाघर हुआ करते थे। अत: टूरिंग टॉकीज का विकास हुआ, जिसके तहत एक ट्रक पर पोर्टेबल प्रोजेक्टर व कनात लेकर कस्बों में रात आठ बजे से फिल्म दिखाई जाती थी गोयाकि चांद-तारों के तले फिल्में देखी जाती थीं। यहां तक कि भारत में पहला प्रदर्शन मंबई के वॉटसन होटल में आयोजित हुआ था। लंबे समय तक टूरिंग टॉकीज व्यवसाय खूब चला, क्योंकि मेले के आयोजन में टूरिंग टॉकीज का प्रदर्शन होता था। इसमें कोई टिकट खिड़की नहीं होती थी, अस्थायी गेट पर व्यक्ति नगदी लेकर भीतर बैठने देता था। जमीन पर जाजम बिछी होती थी और कस्बे के चुनिंदा अमीर पीछे प्लास्टिक की कुर्सियों पर विराजते थे। शैलेंद्र की ' तीसरी कसम' में नौटंकी प्रदर्शन जैसा ही स्वरूप इस सिनेमा का भी था। सिनेमा के आगमन ने नौटंकी को समाप्त कर दिया। मनोरंजन क्षेत्र में वैसा ही होता है जैसे गर्भवती सर्पीणी एक कतार में लगभग सौ अंडे देती है और अपनी भूख मिटाने के लिए अपने ही अंडों को खा जाती है परंतु हवा के कारण कतार से बाहर गए चंद अंडे बच जाते हैं। इस तरह मनोरंजन क्षेत्र में नई विधा पुरानी विधाओं को नष्ट करती चलती है। सरकारें हमेशा ही स्वयं को कमाई देने वाले सिनेमा को नष्ट करने के जतन करती रहती है। इन दिनों यह प्रस्ताव विचाराधीन है कि मनोरंजन कर व सिनेमाघर के चलाने के सारे अधिकार प्रांतीय सरकार नगरपालिका को सौंप दे और ऐसा होने पर नगरपालिका के सदस्य व कर्मचारियों के आदेश पर सौ या दो सौ दर्शक मुफ्त बैठाने होंगे और सिनेमा नष्ट हो जाएगा। आप किसी शहर में भव्य मनोरंजन आयोजित करें तो विद्युत विभाग और अन्य महकमे मुफ्त देखने का अधिकार मांगते हैं अन्यथा शो के बीच बत्ती गुल कर दी जाती है। सिनेमा प्रदर्शन गरीब की जोरू की तरह सबकी भाभी होती है और सभी देवरों को उसे भोजन खिलाना होता है।
इतनी सारी रुकावटों के बावजूद सिनेमा अपने अस्तित्व की पहली सदी पूरी करके दूसरी सदी के आरंभिक वर्षों में किसी तरह स्वयं को बचाए हुए है, क्योंकि दर्शक उससे बेतहाशा प्यार करते हैं। यह किस्सा सुनाने वालों और सुनने वालों का अनंत देश है। किस्सागोई हमारी रगों में रक्त की तरह प्रवाहित है। पवित्र ग्रंथों में मानव जीवन को विष्णु के स्वप्न के पात्र बताया गया है और सारे मनुष्य ही काल्पनिक पात्रों की तरह अन्याय व असमानता आधारित व्यवस्था में अपनी-अपनी भूमिकाओं का निर्वाह कर रहे हैं। सहनशील धरती की हम प्रतिनिधि रचनाएं हैं। पश्चिम का व्यक्ति इंतजार नहीं कर सकता, लंबी कतारों में अपना जीवन नहीं खपा सकता परंतु पूर्व का हर आदमी दार्शनिक है और स्वयं को कभी न समाप्त होने वाली कतार का हिस्सा बनाकर जी रहा है। हमारी विशाल आबादी का बहुत कम भाग ऐसे लोगों का है, जिन्होंने कभी भरपेट भोजन किया हो। हमारी मायथोलॉजी ने हमें इस तरह गढ़ा है कि रूखी-सूखी आधी-अधूरी कुछ कच्ची-पक्की खाकर हम राम नाम जपते हुए संतोष का जीवन जीते हैं। आक्रोशभरे नायक की गाथाएं सुनते हैं, फिल्में देखते हैं और मुतमइन रहते हैं कि कोई उनके लिए लड़ रहा है और जानते हैं कि हमारी भूमिका मात्र इतनी ही है।
हमें अनंत यात्रियों की तरह गढ़ा गया है। हमारा पूरा जीवन एक तीर्थयात्रा है। हम धर्मशालाओं में रात गुजारते हैं और खानाबदोशों की तरह जीवन बसर कर देते हैं। श्री 420 के गीत की पंक्ति है, 'चलना जीवन की कहानी रुकना मौत की निशानी।' हमारी घुट्टी में ही हमें पिला दिया गया है कि अनंत आदर्श यह है, 'चलते-चलते थक गया मैं और सांझ भी ढलने लगी, तब राह खुद मुझे अपनी बाहों में लेकर चलने लगी।' 'इमतहान' फिल्म में गुलजार की पंक्ति है। राहों के दिये आंखों में लिए तू चलता चल।' इसी तरह 'आंधी' में गुलजार ने लिखा है, 'इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त कदम रस्ते, कुछ तेज कदम राहें, पत्थर की हवेली को, शीशे के घरोंदों में, तिनको के नशेमन तक, इस मोड़ से जाते हैं।' सरकारें महज यात्री कर लेती हैं जैसे कभी जजिया कर लगता था। आजकल जेटली साहेब जजिया कर लगा रहे हैं।