हम दुष्टन के दुष्ट हमारे / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'

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मैंने 4 दशक पहले अपने प्रिय व्यंग्यकार शरद जोशी का एक व्यंग्य-संग्रह पढ़ा था-हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे। हृदय गद्गद हो गया था। तब अनुमान नहीं था कि हज़ार रुपये का गोलमाल करना भ्रष्टाचार है या अरबों रुपये का पहाड़ छुपाकर रखना कि नोट गिनने वाली मशीन भी फेल हो जाए। आज सोचना पड़ रहा है कि ये भ्रष्टाचारी नहीं हैं। ये तो देशहित के लिए चन्दा उगाहने वाले देशभक्त हैं। सरकार को किसी के पास सहायता के लिए नहीं जाना पड़ता। ईडी को सब एक ही जगह रखा हुआ मिल जाता है। उगाही करने वाले इन सन्तों को नमन। इतना धन एकत्र करने के लिए सरकार को कितने कर्मचारी नियुक्त करने पड़ते! आप इन्हें दुर्जन भी कहें, तो कोई अन्तर नहीं आएगा। हमें इनको प्रणाम करना चाहिए। बाबा तुलसीदास ने भी रामचरित मानस में सन्तों के साथ इनकी भी वन्दना की है-

बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥

बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दु: ख दारुन देहीं॥

सन्त और दुष्ट दोनों ही दु: ख देते हैं, सन्त बिछुड़ने पर और दुष्ट मिलने पर।

यही नहीं,

उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥

सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥

यह भी तुलसीदास जी ने कहा है। कमल और खून चूसने वाली जोंक दोनों एक साथ ही पैदा होते हैं, फिर भी उनके गुण अलग-अलग हैं। समुद्र-मन्थन से सुरा और अमृत एक साथ ही पैदा होते हैं। दोनों के प्रभाव और कार्य-क्षेत्र अलग-अलग हैं।

झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना॥

बोलहिं मधुर बचन जिमि मोरा। खाइ महा अहि हृदय कठोरा॥

इनका यानी दुष्टों का लेन-देन भी झूठ, भोजन और चबेना भी झूठ। ये मोर की तरह मधुर वचन बोलते हैं; लेकिन इतने कठोर हृदय होते हैं कि सर्प को भी निगल सकते हैं।

लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। सिस्नोदर पर जमपुर त्रासन॥

काहू की जौं सुनहिं बड़ाई। स्वास लेहिं जनु जूड़ी आई॥

लोभ ही इनका ओढ़ना-बिछाना है। पशुवत् आहार और मैथुन ही इनकी प्राथमिकता है। यमराज मृत्यु का मठाधीश है; लेकिन दुर्जन उससे भी नहीं डरते! 'दुष्टो का मैं भी तुलसीदास जी की तरह हृदय से सम्मान करता हूँ। जब हमारी प्रशंसा होती है, तो मित्र भी डुबकी लगा जाते हैं, जैसे उनको कोई खबर ही नहीं। अकेला हमारा प्रिय' दुष्ट'जब किसी की बड़ाई सुनता है, तो ऐसे साँस लेता है, जैसे उसको जूड़ी बुखार (जाड़े के साथ बुखार) आया हो। उसे रात भर नींद नहीं आती। खल्वाट होने पर भी वह अपने सिर के बाल नोंचने का प्रयास करता है। वह बेचैन होने के कारण स्वयं को रोक नहीं पाता है। अपने मन की सारी कुण्ठा अपनी मुख पोथी के' हम दुष्टन के दुष्ट हमारे' समूह पर उगल देता है। समूह से जुड़े समानधर्मा साथी उनका समर्थन करते हुए गिजबिजाने लगते हैं। सड़ जी (सर जी) टिप्पड़ी (टिप्पणी) पढ़कर उछल पड़ते हैं और वरद हस्त की मुद्रा में अपनी प्रसन्नता का गोबर फैलाने में जुट जाते हैं।

कल कई साहित्यिक विधाओं में पारंगत मेरे मित्र साहित्यकार को अकादमी का बड़ा पुरस्कार मिला। बस फिर क्या था, जूड़ी बुखार में तपते हुए 'सड़जी' उनकी मुखपोथी पर कूद पड़े और निन्दा-सिञ्चित शब्दावली में 'कागा रौर' मचाने लगे। यह उनका शुद्ध साहित्यिक अधिकार है। 'सड़जी' किसी ज़माने में जुगाड़ करके भी कोई पुरस्कार नहीं ले सके थे। कारण-एक पृष्ठ शुद्ध लिखना भी उनसे कभी सम्भव नहीं हुआ। 'हरि अनन्त, हरि कथा अनन्ता' की तरह हमारे प्रात: स्मरणीय 'सड़जी' बहुमुखी मूर्खता और उदारता के धनी हैं। उदार इतने कि अपने एक मित्र की बेटी को नौकरी से वंचित कराने में परम पावन भूमिका निभाई थी, जिसके लिए पूरा परिवार इनको आज भी भावपूर्ण शब्दों में याद करता है। उन शब्दों में कई असंसदीय शब्द भी शामिल हैं, जो आपके व्यक्तित्व में चार चाँद लगा देते हैं।

पिछले साल एक राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में इनके स्वर्गीय गुरु की एक कविता ससम्मान छपी थी। गुरु ने इनके कचरे में सुधार करके इधर-उधर छपवाकर इन्हें लेखक बनाने के लिए 'मार-मारकर हक़ीम बनाने' का प्रयोग किया था। इस उपकार के बदले इन्होंने गुरुजी की भरपूर निन्दा का जाप करके गुरु-दक्षिणा दी थी। ये उस रचना को पढ़ते ही भड़क उठे और अत्यन्त विनम्र सम्पादक जी को लिख मारा-"स्वर्गीय लोगों को छापने में आपकी बहुत रुचि है। क्या आपको धरती पर विचरते जीवों से शत्रुता है? मुझे 'दोहा-सम्राट' की उपाधि मिल चुकी है, लेकिन आपने आज तक मेरा एक लँगड़ा दोहा तक नहीं छापा है! मैं तो अभी नीचे ही हूँ, ऊपर नहीं गया। आप भेदभाव करते हैं और मेरे जैसे लेखकों को नहीं छापते। यह अत्याचार है।"

सम्पादक जी ने सखेद लिखा-"आप सम्राट बन गए और एक मैं अकिञ्चन कि आपके अश्वमेध के घोड़े तो क्या, गधे के भी दर्शन नहीं कर सका हूँ। मुझे इतना ही मालूम है कि आपने अपने मित्रो के पाँच संग्रह पढ़कर अपना नया संग्रह तैयार कर लिया था। आपकी इस चातुर्यपूर्ण सृजनशीलता के कारण आपको प्रकाशित करने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता। आपको भी कभी छापूँगा। देखता हूँ, कब आप ऊपर जाएँगे! मुझे याद है-काव्य की एक पोस्टर प्रदर्शनी में आपने एक स्वर्गीय चित्रकार और कवि की क्षणिका अपने नाम से लगा ली थी। आपकी दृष्टि में इस तरह के स्वर्गीय आपकी धरोहर हैं, सम्पत्ति हैं। हर तरह की विपत्ति में उनकी सम्पत्ति का माफ़िया की तरह साधिकार अधिग्रहण कर सकते हैं।"

उत्तर पढ़कर 'सड़जी' चोटिल सर्प की तरह फुफकार उठे। अपनी मुख पोथी पर बन्दरकूद लगाई और एक ज़हर-बुझी टिप्पणी पोस्ट कर दी। इनके भेजे, बिना भेजे के शिष्य साहित्य का गोबरीकरण करने में मनोयोग से जुट गए। एक भले आदमी के पक्ष में लोग कभी नहीं बोलते; क्योंकि उससे किसी को ख़तरा नहीं। कोई उसका सगा नहीं होता। दुर्जन के साथ दुष्ट तो स्वत: जुड़ जाते हैं, अत, 'हम दुष्टन के दुष्ट हमारे' यह भाव हमको प्रिय है।