हम सफर, हमज़ाद और हमसाया / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :12 जनवरी 2017
कथा फिल्मों के प्रारंभिक दशकों में मायथोलॉजी प्रेरित फिल्में इसलिए बनती रहीं कि फिल्मकार कथा प्रस्तुत करने में स्वयं को अक्षम पाते थे, अत: दर्शक की परिचित कहानियां फिल्माई गईं ताकि छूटे हुए रिक्त स्थान को दर्शक भर सके। कालांतर में फिल्म शास्त्र मंे 'लॉस्ट बिटवीन फ्रेम्स' नामक चीज पर बहुत शोध हुआ। दूसरा कारण यह था कि भारत कथावाचकों और श्रोताओं का अनंत देश रहा है। फिल्मकार टेक्नोलॉजी की कोख से जन्मे इस माध्यम को गांव की चौपाल का पर्याय बनाना चाहते थे। ज्ञातव्य है कि चौपाल वह जगह थी जहां शाम को लोग बातचीत और कथा-कहानी के लिए इकट्ठे होते थे। सिनेमा ने चौपाल का स्थान लिया और आज टेलीविजन चौपाल है। सामाजिक विषयों पर फिल्मों के निर्माण के साथ ही दुखांत फिल्में बनने लगीं, क्योंकि सिनेमाघर में दर्शक द्वारा बहाए गए अांसुओं के अनुपात में फिल्म से आय प्राप्त होती थी। शेक्सपीयर के लिखे तमाम नाटकों में दुखांत नाटक अधिक लोकप्रिय हुए और उनसे प्रेरित फिल्मों की भीतरी सतह में फिल्मकार को दार्शनिक होने का अवसर भी प्राप्त होता था। पश्चिम के नाटकों की तरह पूर्व के नाटक दुखांत नहीं है। शूद्रक एवं कालिदास के संस्कृत नाटक पश्चिम के नाट्य शास्त्र से अलग सुखांत रहे हैं। जीवन मंे एक निर्णायक तत्व होता है, जिसे उसका मिज़ाज कहते हैं। भारत में आनंद ही निर्णायक तत्व रहा है, इसीलिए हमारे यहां तांडव का भी एक रूप अानंद तांडव है। राज कपूर की 'जिस देश में गंगा बहती है' के एक दृष्य में पद्मिनी अपने नृत्य में नायक से बिछड़ जाने पर तांडव करती है परंतु उसे लौटता हुअा देखती है तो आनंद तांडव करने लगती है। यह 'ओ बसंती पवन पागल' गीत के छायांकन में रेखांकित हुआ है। आश्चर्य यह है कि 1961 में बनी इस फिल्म की यह धुन 1951 में प्रदर्शित 'आवारा' के एक दृश्य के पार्श्व संगीत में सुन सकते हैं। दरअसल, शंकर-जयकिशन अपने पार्श्व संगीत में उपयोग किए गए अंश से प्रेरित गीत नई फिल्म के लिए रचते रहे हैं और यह तरीका कल्याणजी आनंदजी ने भी अपनाया!
संगीतकारों का जोड़ियों में काम करना हुस्नलाल भगतराम से प्रारंभ हुआ, जिनके बाद शंकर-जयकिशन की टीम ने इतिहास लिखा और सबसे लंबे समय तक शिखर पर रहे। उनकी पारी 1949 में 'बरसात' से 1970 में प्रदर्शित 'मेरा नाम जोकर' तक चली और इक्कीस वर्ष तक वे शिखर संगीत जोड़ी रहे।
बहरहाल दुखांत फिल्मों का दौर लंबे समय तक चला परंतु आर्थिक सुधारवाद के बाद पनपे समाज के लिए दुखांत फिल्म सहन करना कठिन हो रहा है, अत: सुखांत फिल्में बनने लगीं। यक्ष और युधिष्ठिर के बीच वार्तालाप का एक अंश इस आशय का है कि सभी व्यक्ति जानते हैं कि मृत्यु अवश्यंभावी है परंतु अपने रोजमर्रा के जीवन में हम मृत्यु को नकारते हैं और प्राय: अनदेखा करते हैं। मृत्यु के हव्वे को मन से हटाए बिना जीवन असंभव हो सकता है। मृत्यु के सांप को मात्र रस्सी माने बिना एक क्षण भी जीना कठिन हो जाता है। बंगाली भाषा में ताराशंकर बंधोपाध्याय के लिखे 'आरोग्य निकेतन' में नाड़ी वैद्य की कथा है। ज्ञातव्य है कि मरीज की नाड़ी देखकर रोग का निदान करने का विज्ञान रहा है। 'आरोग्य निकेतन' का प्रमुख पात्र नाड़ी विशेषज्ञ है और उसने अपनी मृत्यु का विवरण काव्यमय किया है। वह लिखता है कि मृत्यु अपने पैर में पायल बांध धीरे-धीरे उसकी ओर आ रही है और अब कुएं तक पहुंच गई है । अब उसकी पायल की आवाज तेज हो गई है, अत: वह निकट आ गई है।
एचएस रवैल की महाश्वेतादेवी लिखित फिल्म 'संघर्ष' के एक दृश्य में लंबे समय से बीमार श्वसूर के पास उसकी बहू आती है और कहती है, 'ससुरजी, प्राण नहीं निकल रहे हैं, बहुत कष्ट हो रहा है। अपने गुनाहों को याद करें, आपने ही आदेश दिया था कि मेरे पति अर्थात आपके विद्रोही पुत्र को मार दिया जाए। आपके प्राण आसानी से नहीं निकल सकते। उन सब लोगों को याद करें, जिन्हें आपने कत्ल किया या करवाया है। श्वसूर की भूमिका में जयंत ने कमाल किया था। ज्ञातव्य है कि 'गब्बर' अमजद खान के पिता थे जयंतजी और उन्होंने अनेक अविस्मरणीय भूमिकाएं अभिनीत की थी जैसे 'मेम दीदी' इत्यादि।
एक फिल्म में कें्रीय पात्र अपनी मृत्यु से कहता है कि उसे एक सप्ताह का वक्त और दे दे और सारे सप्ताह उसके साथ रहे। उन सात दिनों में वह अपने अनेक अधूरे काम पूरा करता है और उसकी अच्छाई से प्रभावित मृत्यु उसे नहीं मारने का निर्णय करके लौट जाती है। इस्लाम प्रेरित साहित्य में मृत्यु को 'हमजाद' कहा है। हमारे जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु भी हमारे साथ जन्म लेती है और हमारे कार्य ' हमजाद' को सशक्त या कमजोर करते चलते हैं गोयाकि जन्म के समय के इस पौधे को हम ही खाद और पानी अपने कर्मों द्वारा देते है ं। यह 'हमजाद' हमसफर से अलग है।
ऋषिकेश मुखर्जी की 'आनंद' में गुलजार की पंक्तियां हैं... 'मौत तू एक कविता है/मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको/डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे/ ज़र्द सा चेहरा लिए जब चांद उफक तक पहुंचे/ दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब/न अंधेरा न उजाला हो, न अभी रात न दिन/ जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब सांस आए/ मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको।'
इंदौर के चोइथराम अस्पताल की स्थापना से संलग्न रहे डॉ. गुलाबदास भाटिया का निधन हो गया। दिमाग की नस फट गई। 'जाने कब की घनीभूत पीड़ा थी उनके मस्तिष्क में छाई।' अनेक जीवन बचाने वाला यह कर्मयोगी मौत के आगोश में चला गया।