हम हिंदी हिंदी क्यों चिल्लाते हैं / रामचन्द्र शुक्ल
यह तो सब लोग जानते हैं कि आज दिन जो हिन्दी की अवस्था देखी जाती है वह पूर्व उद्योगों से उपस्थित हुई है न कि समय की स्वच्छन्द गति से। यदि आज से 40 वर्ष पहले कुछ दूरदर्शी महात्मा समय की बिगड़ी हुई चाल के विरुद्ध खड़े होकर बल न लगाते तो सर सैयद अहमद के कथनानुसार हिन्दी गँवारों की ही बोली हो जाती और फिर उसमें न 'सम्पत्तिशास्त्र', 'केमिस्ट्री' और 'वैज्ञानिक कोश' बनने की नौबत आती, न भारतमित्र, हितवार्ता और अभ्युदय देखने में आते। इन प्रदेशों के बहुत से आदमियों का गार्हस्थ जीवन किरकिरा होता चला जाता, उनके भावों से उनकी माता, पत्नी, भगिनी आदि के भावों की सहयोगिता बराबर घटती चली जाती और वे लाचार तवायफों की 'अदबी खिदमात' से अपना पेट भरते रहते। जिन परम्परागत पवित्र भावों का पोषण भारत की रमणियाँ दृढ़ता से करती आ रही हैं उनसे उन्हें अलग करने की अपेक्षा उन पुरुषों को अपने लिए दूसरे समाज में आनन्द ढूँढ़ना सहज था। हमारे देश की स्त्रियाँ राम, लक्ष्मण, सीता, सावित्री, नल दमयन्ती सम्बन्धी रोम रोम में भरे हुए आवेग को निकाल कर शीरी फरहाद और लैला मजनूँ के इश्क का सबक कहाँ तक सीखतीं। वे अपनी 'फूलों की सेज', 'पिया परदेश' 'कमल और भौंरा', 'कोयल और पपीहे', 'सावन भादों की ऍंधोरी रात' वाले प्यारे गीतों को भूल, खंजर और कफन लेकर अपने पतियों को जनाजे में सुला उन्हें सीधा कब्र का रास्ता कैसे दिखलातीं? वे सुख दु:ख, दया, माया, प्रीति आदि सीधे सादे शब्दों का बोलना छोड़ 'दक्काक', 'तगाफुल,' और 'बुग्ज़' आदि सीखने के लिए अपना गला कहाँ तक दबातीं? इसी से पुराने ढर्रे के केवल फारसी उर्दू की तालीम पाए हुए लोगों का गार्हस्थ बन्धन बहुत ढीला देखा गया है, धार्मानुकूल पवित्र प्रणय का निर्वाह उनमें बहुत कम देखा गया है। इस प्रकृति के प्रभेद का सोचनीय प्रभाव हम बहुतेरे घरानों में अब तक देख रहे हैं। देश के चिर पोषित साहित्य के भावों से सहानुभूति न रखने के कारण न जाने कितने अभागे अपनी अर्धागिंनी तक के अन्त:करण का सृष्टि सौन्दर्य नहीं देख सकते। अपने परिवार में उन्हें वह सुख और शान्ति नहीं मिल सकती जिनकी छाया में मनुष्य संसार के बड़े बड़े कार्य कर सकते हैं। हमारे इन प्रदेशों के बहुतेरे पढ़े लिखे लोगों का ग्रहस्थे जीवन रोचकतारहित, फीका और शिथिल हो गया है। उनमें सहयोग, उत्साह और प्रेम की वह मात्र नहीं जो बंग और महाराष्ट्र आदि देशों में देखी जाती है। स्त्रीो पुरुष किसी एक आख्यायिका पर, किसी एक इतिहास पर, किसी एक कविता पर वाग्विलास करते हुए यहाँ कम देखे जाते हैं। दोष अपनी हिन्दी भाषा से उदासीन कुछ पुरुषों का है। स्त्रियों से यह आशा करने की अपेक्षा कि वे विदेशी भावों को घोल कर पी जायँ इन कर्तव्यीविमूढ़ पुरुषों के लिए स्वदेशीय साहित्य की ओर ध्यान देना अधिक उचित है। हे समाज सुधार की पुकार मचानेवालो, तुमने कभी इस दोरंगेपन पर भी ध्यान दिया है ? ध्यान रक्खो कि जब तक देशी साहित्य के संचार से परिवार में भावों का सम्मेलन न होगा तब तक ये लोग अपने ग्रहस्थन जीवन से शक्ति, उत्साह और प्रफुल्लता नहीं प्राप्त कर सकते। अब से तुम हिन्दी भाषा को फैलाना अपना कर्तव्यन समझो और समाज का इस विपत्ति से उद्धार करो।
उर्दू के लेखक भी अपने बेढंगेपन को अब देखने लगे हैं। अभी उस दिन उर्दू साहित्य सम्मेलन के सभापति ने उर्दू शायरी पर देशी रंगत चढ़ाने की तजवीज बतलाई थी। पर भाइयो! 'कोयल के नगमों' और 'कदम्ब के गुंचों' से तो और भी बचना चाहिए। मेरा अभिप्राय यह कदापि नहीं कि विदेशी साहित्य का अध्य'यन न किया जाय। मेरी विनती इतनी ही है कि अपना भाषा सम्बन्धी अस्तित्व न खो दो, अपने कई सहस्र वर्षों के संचित भावों को तिलांजलि मत दो।
ऊपर हम अपनी सामाजिक हानि दिखला चुके। कहना न होगा कि जो लोग अपने परिवार के मेल में नहीं वे जनसंख्या की सहानुभूति से कितनी दूर जा पड़े होंगे, सर्वसाधारण के हृदय को कैसे स्पर्श कर सकते होंगे? उनके अक्षर, उनकी बोली तथा उनकी धारणाओं का सहारा लिए बिना वे उन पर क्या प्रभाव डाल सकते हैं? अपने और प्रान्तों के भाइयों से जो भाषा सम्बन्ध था उसे तोड़ ये उर्दू को सर्वस्व मानने वाले लोग क्या बन गए इसे मैं अपने पिछले लेखों में दिखला चुका हूँ। अत: राजनीतिक सम्प्रदाय के लोगों का भी परम धर्म है कि वे इस भाषा सम्बन्धी एकता को नष्ट न होने दें और चटपट हिन्दी के प्रचार में लग जायँ।
धर्म सम्बन्धी सभाओं के लिए भी हिन्दी के द्वारा काम करना परम आवश्यक है। इस बात को ईसाई लोगों ने बहुत जल्दी समझा और अपनी पुस्तकें व पैम्फलेट आदि हिन्दी में छपवा कर अपनी शिक्षाओं का प्रचार किया। देखिए, इनके भजन देश के प्रचलित भावों को लिए हुए कैसे देशी ढंग पर बने होते हैं। यदि मुसलमान लोग भी इसी बात का अनुसरण करें और हिन्दी की ओर ध्यान दें तो उनके बहुत से भाई अपने धर्म की अमूल्य शिक्षाओं से वंचित न रहें। सनातन धर्म और आर्य समाज के प्रचारकों से भी हमारी इतनी प्रार्थना है कि वे अब हिन्दी की उन्नति के उपायों को अपनी कार्यावली में सम्मिलित करें।
अब हम अन्त में अपने हिन्दी प्रेमी भाइयों की ओर आते हैं जिन्होंने उसकी उन्नति का बीड़ा उठाया है। उनके ध्यान देने की बात यह है कि हिन्दी अभी ऐसे मार्ग पर नहीं आ गई कि आप लोग उसे समय के आधीन छोड़कर किनारे हो जायँ। इससे मेरा यह तात्पर्य नहीं कि हिन्दी में अच्छी पुस्तकें नहीं बन रही हैं, समाचार पत्र नहीं निकल रहे हैं, मैं केवल यह कहना चाहता हूँ कि उनके प्रचार के लिए उस जोर शोर के साथ उद्योग नहीं हो रहा है जिस जोर शोर के साथ पहले हो गया। उसके मार्ग की बाधाओं को हटाने का यत्न यथेष्ट नहीं देखने में आता। यही कारण है कि हिन्दी में अच्छी पुस्तकें भी छपती हैं समाचार पत्र भी निकलते हैं पर जितने आदमियों के हाथों में उन्हें जाना चाहिए उतने आदमियों के हाथ में वे नहीं पहुँच पाते। इस प्रकार प्रकाशकों और लेखकों का उत्साह ढीला रहता है। अस्तु, नीचे लिखी बातों का चाहे जिस प्रकार हो प्रबन्ध करना चाहिए
1. उपयुक्त स्थानों पर हिन्दी पुस्तकों की लाइब्रेरी और दुकान खोलना।
2. अंगरेजी स्कूलों में छात्राों को दूसरी भाषा हिन्दी लेने के लिए वृत्ति आदि द्वारा उत्साहित करना।
3. घूम घूम कर हिन्दी की उपयोगिता पर व्याख्यान देनेवालों का प्रबन्ध करना।
4. प्रजा को चेताना कि अदालत में दरख्वास्तें आदि हिन्दी में भी पड़ सकती हैं तथा हिन्दी में अधिक दरख्वास्तों के पड़ने का प्रबन्ध।
5. सरकार से प्रार्थना करना कि अदालत के मुहर्रिर लोग समन और डिगरी आदि की नकल हिन्दी में भी लिखा करें।
6. राजा महाराजाओं से अपने दरबार में हिन्दी को आश्रय देने और उसके साहित्य का पोषण करने के लिए अपील करना।
7. हिन्दी नाटकों का घूम घूम कर अभिनय करनेवाली व्यवसायी मंडलियों की स्थापना।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, अप्रैल-मई, 1910 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]