हम ही स्वर्ग, हम ही नरक! / ओशो
प्रवचनमाला
किसी ने पूछा : स्वर्ग और नरक क्या हैं? मैंने कहा, हम स्वयं!
एक बार किसी शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, मैं जानना चाहता हूं कि स्वर्ग और नरक कैसे हैं?
उसके गुरु ने कहा, आंखें बंद करो और देखो। उसने आंखें बंद की और शांत शून्यता में चला गया। फिर, उसके गुरु ने कहा, अब स्वर्ग देखो। और थोड़ी देर बाद कहा, अब नरक! जब उस शिष्य ने आंखें खोली थीं, तो वे आश्चर्य से भरी हुई थीं।
उसके गुरु ने पूछा, क्या देखा?
वह बोला, स्वर्ग में मैंने वह कुछ भी नहीं देखा, जिसकी कि लोग चर्चा करते हैं। न ही अमृत की नदियां थीं और न ही स्वर्ण के भवन थे- वहां तो कुछ भी नहीं था और नरक में भी कुछ नहीं था। न ही अग्नि की ज्वालाएं थी और न ही पीडि़तों के रुदन। इसका कारण क्या है? क्या मैंने स्वर्ग नरक देखें या कि नहीं देखे।
उसका गुरु हंसने लगा और बोला, निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नरक देखें हैं, लेकिन अमृत की नदियां और स्वर्ण के भवन या कि अग्नि की ज्वाला और पीड़ा का रुदन तुम्हें स्वयं ही वहां ले जाने होते हैं। वे वहां नहीं मिलते। जो हम अपने साथ ले जाते हैं, वही वहां हमें उपलब्ध हो जाते हैं। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नरक हैं।
व्यक्ति जो अपने अंतस में होता है, उसे ही अपने बाहर भी पाता है। बाह्य, आंतरिक का प्रक्षेपण है। भीतर स्वर्ग हो, तो बाहर स्वर्ग है। और, भीतर नरक हो, तो बाहर नरक। स्वयं में ही सब कुछ छिपा है।
(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)