हम होंगे क़ामयाब / माया का मालकौंस / सुशोभित

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हम होंगे क़ामयाब
सुशोभित


मुझे नहीं मालूम इस तरह सोचना कितना जायज़ है लेकिन अकसर ये लगता है कि --

सिविल राइट्स आलोड़नों के एंथम "हम होंगे क़ामयाब" को गाते हुए मन को तात्कालिक रूप से सबसे पहला "विश्वास" क्या इसी बात से नहीं मिलता कि गीत में "एक दिन" शब्दों को गाते हुए हमारी जिह्वा अंत में "न" वर्ण को लगभग मथते हुए, दंतपंक्ति के अंतःस्तल से, मंत्रमुग्ध सी जा लगती है, मस्तक में एक सम्मोहक अनुकम्पन रचती हुई!

यानी -

"हम होंगे क़ामयाब,

हम होंगे क़ामयाब,

हम होंगे क़ामयाब"


का "मार्चिंग टेम्पो" ही अपने आरोहण में इतना ऊर्जस्वित है कि यदि

"ए s क दि s न

न s s s

न s s s"

के तटबंध में उसे ना सम्हाला गया तो इन तीन पंक्तियों की आवृत्ति से निःसृत ऊर्जा गीत की समूची संरचना को ही अपने आवेग से विरूप कर देगी!

सनद रहे कि संगीत के नियम लौहवत और अनुल्लंघ्य होते हैं, जिनका पालन ना करने पर आपको बेसुरेपन के देश में निर्वासित और संदर्भच्युत किया जा सकता है!

शायद ही किसी और गीत में हम किसी एक स्वर पर इतनी देर ठहरते हैं, जितना कि यहां "न" के "कोमल निषाद" पर, जिह्वा के तंतुओं में रोमांच जगाते हुए.

"वी शैल ओवरकम / सम डे" के "ऐ s ऐ s" में तब वो बात कहां?

ऐसे तो "ओवरकम" में ही वो बात कहां, जो "क़ामयाब" की ओजस्वी प्रत्याशा में है. "ओवरकम" में तो किसी स्थिति से उबरने का शिथिल भाव है.

"डीप इन माय हार्ट / आई डु बिलीव / वी शैल ओवरकम / सम डे" के बेढब फ्रेज़ में भी वो लयगति कहां, जो "मन में है विश्वास / पूरा है विश्वास / हम होंगे क़ामयाब / एक दिन" के तन्मय तुकांत में है.

तब क्यों ना मूलत: अंग्रेज़ी के इस गीत को अपनी भाषा में इतनी सजल प्रगीतात्मकता से अनूदित कर उसे स्रोत से भी सुंदर बना देने वाले कवि गिरिजाकुमार माथुर को हम प्रसंगवश नमन करें और मन ही मन मानवीय प्रत्याशाओं का वह कुलगान दोहरावैं!

"ए s क दि s न s न s न ss"