हरामखोर / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
दो बैल कुल्ही (गली) में दो अलग-अलग खूंटे से बंधे थे। बैठे-बैठे जुगाली कर रहे थे। एक ने कहा, "पूंछ में दर्द हो रहा है। कल मालिक ने जोर-जोर से मरोड़ी है।"
"हूँ... मेरा भी।" दूसरे ने कहा, "और चाबुक की मार खा-खाकर पीठ तो सुन्न होने लगी है।"
"सबसे ज्यादा चोट तो तब लगती है भाई, जब मालिक हमें गाली देते हैं 'हरामखोर' की। दिल टूट जाता है।" कहते हुए पहले बैल ने लंबी सांस ली। उसने पुनः कहा, "क्या मिलता है हमें? पीठ पर मोटा चाबुक और पेट में मोटा पुआल। बस, खटते रहो जीवन भर दूसरों के लिए। हल जोतो, गाड़ी खींचो, खेती... मजदूरी..."
"और यही हल जोतते-जोतते और गाड़ी खींचते-खींचते एक दिन दम तोड़ दो। न नाम... न निशानी..."
दोनों का दिल बैठ गया। कुछ देर मौन रहने के बाद, पहले ने कहा, "क्या लगता है भाई, यह सिलसिला कभी थमेगा भी?"
"हां-हाँ, जल्द ही। देखो न ट्रैक्टर आदि मशीनों का प्रयोग खूब होने लगा है।" दूसरे ने आश्वस्त किया।
"मगर उस समय हमारी उपयोगिता..."
"चुप...! चुप हो जाओ। देखो साला ... आ रहा है। माथा झुका लो। नजर नीचे।"
एक सांड़ आ रहा था। मोटा-ताजा। थुल-थुल... बलिष्ठ शरीर। मदमस्त... उन्मत्त। वह सामने आया। कुछ देर तक उन दोनों को घूरने लगा और अपनी घमंडी चाल से झूमते हुए आगे बढ़ गया।