हरिजन-गाथा और अन्य कविताएँ (वैभव सिंह) / नागार्जुन

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नागार्जुन ने स्वयं को जनकवि कहा है। पूरे आत्मगौरव और आत्मसम्मान के साथ। हिंदी में ऐसे ढेरों कवि भी रहे हैं जो हमेशा राजकवि या राष्ट्रकवि होने की होड़ में पड़े रहे। कुछ को तो अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त कर विश्व कवि होने का लोभ भी रहा है जो शायद दुनियावालों के सौभाग्य से पूरा नहीं हुआ। यह सोचकर मन रोमांचित होता है कि नागार्जुन जैसा ठेठ ज़मीनी कवि अगर हिंदी कविता को न मिलता तो क्या हिंदी की जन-कविता को वैसी ही प्रतिष्ठा मिलती जैसी आज मिली हुई है। रीतिकालीन कवि केशवदास को किशोरियों द्वारा ख़ुद को ‘बाबा’ कहलाये जाने पर भले खीझ होती हो पर नागार्जुन को बाबा संबोधन भी बड़ा प्रिय था। उन्होंने सारिका पत्रिका में मोहन राकेश के कहने पर ‘आईने के सामने’ नाम से जो संक्षिप्त आत्मकथन लिखा उसमें बताया था कि कोई भी युवती या किशोरी मुझे बाबा कहकर पुकारती है तो वात्सल्य से नेत्रा भींग जाते हैं। नागार्जुन की यह भंगिमा भी जनजीवन से उनके गहरे आत्मीय रिश्तों की पहचान कराती है। जनकवि होने के साथ-साथ नागार्जुन ने भारतीय परंपरा-संस्कृति को जिस प्रकार काव्यानुभूतियों में आत्मसात किया है, वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। तैलंगाना आंदोलन के तेवर प्रमाणित करने के लिए उन्होंने उसे देसी रूपक के तौर पर ‘लाल भवानी’ कहा है जो अन्याय का जड़ से सफ़ाया करने निकली है। यह कविता में ‘प्रतिरोधी सौंदर्यशास्त्रा’ की संभावना की ओर संकेत है जो परंपरा से सृजनात्मक रिश्ता बनाने का इच्छुक दिखता है। नागार्जुन परंपरा के गहरे पारखी और दृष्टिसंपन्न थे, इसीलिए परंपरा की तानाशाही से मुक्त थे और उससे संघर्ष भी कर सकते थे। उनके संकलन ‘रत्नगर्भ’ की कविताएं इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं जिसमें बुद्ध, अहिल्या, राम-लक्ष्मण, महाभारत इत्यादि के प्रसंगों पर वह लंबी कविताएं लिखने की जद्दोज़हद करते दिखते हैं। इस प्रयास में हालांकि वह प्रायः सफल कम और बड़े पैमाने पर असफल भी होते हैं। नागार्जुन भावबहुल और जीवन के विविध चित्रों वाले कवि-कथाकर भी थे। इतिहास, परंपरा, राजनीति, प्रेम, प्रकृति की बहुआयामिता को वह नकारते नहीं हैं। रोमांस और प्रकृति-प्रेम को भी बड़ी कुशलता से कविता में उतार लाते हैं। पर वह हलचलों से भरे युग के बुनियादी संवेदन की उपेक्षा का भी विरोध करते हैं। नागार्जुन के तईं यह बुनियादी संवेदना मूलतः राजनीति के जन-हस्तक्षेप से उपजी है और कविता में वह केवल यहां-वहां ढूंढ़ी जा सकने वाली झलक नहीं बल्कि वैचारिक दृष्टि व निरंतरता के रूप में व्यक्त होती है। परंपरा को वह किसी अभिजात नहीं बल्कि लोकवादी दृष्टि से किस प्रकार देखते हैं, इसे समझने का सबसे अच्छा 324 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 तरीक़ा यह है कि कालिदास के अमर खंडकाव्य ‘मेघदूत’ के बारे में उनके विचारों को पढ़ा जाये। इसमें उन्होंने शापग्रस्त यक्ष द्वारा यक्षिणी को विरह योग में भेजे मेघ द्वारा संदेश की अदभुत व्याख्या की। वह कहते हैं कि काव्यनायक यक्ष नहीं बल्कि मेघ है। फिर वह मेघ को उदारता के मामले में औघड़ दानी, आत्मकरुण तथा आर्द्र, प्रकृति पुरुष तथा निखिल विश्व के कल्याण का साधन बताते हैं। वह परितप्त संसार को सप्राण करने वाला है और नागार्जुन के शब्दों में, ‘उसके समक्ष हाथ फैलाते वक़्त किसी को लज्जा या ग्लानि का अनुभव नहीं होता है।’ यानी कालिदास का मेघ भी जन-जन की पीड़ा हरने वाले लोकनायक जैसा है। ज़ाहिर है कि यह मेघ छवि नागार्जुन के अपने फक्कड़ यायावरी वाले जीवन से मिलती-जुलती छवि है। नागार्जुन की आत्मछवि का ही जैसे कालिदास के मेघ के चरित्रा में विस्तार होता है। यह एक नये मनुष्य की कल्पना का भी रूप है जो अपनी चेतना की विशिष्टता पर मुग्ध नहीं है और न उसे सांसारिक कार्यव्यापार व प्रकृति से परम स्वतंत्रा मानता है। वह सृष्टि, प्रकृति व मनुष्यता की पीड़ा को अपनी चेतना पर वहन करता है और उससे निरंतर द्वंद्वात्मक लगाव का संबंध स्थापित करता है। नागार्जुन की साहित्यिक कीर्ति का आधार उनकी ढेरों कविताएं हैं और इन्हीें में एक है ‘हरिजन गाथा’। यह कविता उन्होंने 1977 में पटना से क़रीब 40 किमी दूर स्थित गांव बेलछी में हुए दलितों के नरसंहार के आक्रोश में लिखी थी। उस नरसंहार में 13 दलितों को ज़िंदा जला दिया गया था और पूरे राष्ट्रीय मानस व मीडिया को झकझोर दिया था। बाद में 1977 में हुए आम चुनाव में इस घटना का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए इंदिरा गांधी उस गांव तक हाथी पर चढ़कर पहुंची थीं और वहीं से अपने चुनावी अभियान की शुरुआत की थी। पूरी कविता दलितों की मर्मांतक पीड़ा और प्रतिशोध भावना से भरी हुई है और स्वतंत्राता के बाद भी बड़ी आबादी के अमानुषिक उत्पीड़न को व्यक्त करती है। कविता किसी प्रबंध काव्य के लयपूर्ण कथात्मक विन्यास में रचित है। कविता के भीतर कथा चलती है जो कविता का आख्यानीकरण करती है। कथा में नरसंहार के कुछ समय बाद दलित स्त्राी के गर्भ से बच्चा पैदा होता है। उसके पिता की भी हत्या कर दी गयी है। वह पितृहीन संतान संसार में आ तो जाती है पर उसके दुर्भाग्य के बारे में हर व्यक्ति चिंतित है। उसके भावी जीवन के बारे में जानने के लिए एक रैदासी संत को बुलाया जाता है जो बच्चे के हाथ की रेखाओं को पढ़कर एक साथ भड़कने और उल्लसित होने की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। वह भविष्यवाणी करता है कि बच्चा दलितों-शोषितों का नायक बनेगा और उन्हें हर प्रकार की ज़्ाुल्म-ज़्यादती से मुक्त करायेगा। उसके नाम से चोर-उचक्के और गुंडे थर-थर कांपेंगे और वह सर्वहारा की मुक्ति के लिए सशस्त्रा संघर्ष की राह ग्रहण करेगा। इस कथा-आख्यान से कंस-कृष्ण के पौराणिक द्वंद्व का आभास भी मिलता है, पर उससे यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें नायक की कल्पना उच्च सवर्ण के स्थान पर दलित जाति के व्यक्ति के रूप में है। इसके अतिरिक्त पारलौकिक शक्तियों के बल पर किसी दुष्ट आततायी के वध के स्थान पर व्यवस्था परिवर्तन करने वाले सामूहिक प्रयत्न की ओर संकेत दिये गये हैं। नागार्जुन स्वयं पौराणिक कथाख्यानों के अंधविश्वासों से मुक्त थे, पर कविताओं में उनके राजनीतिक प्रयोग की कला में कुशल थे। सांस्कृतिक-धार्मिक बोध को केवल मानसिक जड़ता या सांप्रदायिकता का सूचक मान लेने की ग़लती वह नहीं करते हैं। बल्कि इस बोध की मदद से यथार्थ पर चढ़े जटिलता के आवरणों को उतार देते हैं। वामपंथी सौंदर्यशास्त्रा को भी धार्मिक प्रतीकों के राजनीतिकरण के प्रश्न को उपेक्षित नहीं करना चाहिए और नागार्जुन ने ऐसा किया भी नहीं। इसलिए धर्म की मिथ्या चेतना किस तरह समाज के संदर्भ में क्रांतिकारी-वैज्ञानिक चेतना में रूपांतरित नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 325 हो सकती है, इसे नागार्जुन की कविताएं पढ़कर जाना जा सकता है। इस कविता में भी वह राजनीतिक रूपांतरण के लिए पौराणिक चेतना का प्रयोग करते प्रतीत होते हैं पर उसका उद्देश्य धार्मिक वर्ण-व्यवस्था की क्रूरता का उद्घाटन हो जाता है। कविता में वह वर्ण-व्यवस्था की वीभत्स हिंसा को घटित होते इस प्रकार दिखाते हैं: ऐसा तो कभी नहीं हुआ था कि एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं तेरह के तेरह अभागे अकिंचन मनुपुत्रा ज़िंदा झोंक दिये गये हों अग्नि की विकराल लपटों में साधन-संपन्न ऊंची जातियों वाले सौ-सौ-मनुपुत्रों द्वारा ऐसा तो कभी नहीं हुआ था... समाज की इस वीभत्सता को दिखाने में नागार्जुन बेजोड़ संवेदनशीलता का परिचय देते हैं। नामवर सिंह ने उनकी इस काव्य-प्रवृत्ति के प्रसंग में ‘प्रतिनिधि कविताओं’ की भूमिका में ठीक ही लिखा है, ‘संस्कृत काव्यशास्त्रा में नौ रसों के अंतर्गत वीभत्स की भी गणना की गयी है और खानापूरी के लिए थोड़ी-बहुत वीभत्स रस की रचनाएं भी हुई हैं। किंतु नागार्जुन पहले कवि हैं जिन्होंने सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में वीभत्स को नयी शक्ति प्रदान की है।’ नागार्जुन केवल अपने समय की ख़बर रखने वाले कवि ही नहीं बल्कि समय में दखल देने वाले कवि थे। उनकी कविताएं भी केवल ख़बर की कविताएं नहीं बल्कि दख़ल की कविताएं हैं। सहजानंद सरस्वती, राहुल सांकृत्यायन, जेपी और नक्सल आंदोलनों में भागीदारी ने जनता से रोमांटिक नहीं बल्कि व्यवहारिक जुड़ाव पैदा किया। सत्ता-प्रशासन की सुविधाओं में धंसे ऐसे लेखक भी रहे हैं जो कवि की राजनीतिक-आंदोलनी सक्रियता को साहित्य में सफलता की रणनीति के रूप में देखते रहे हैं। वे इस सक्रियता के पीछे साहित्य में तेज़ गति से पहचान बनाने का उपक्रम तलाशते हैं। ज़ाहिर है कि सत्ता-प्रशासन की क़ैद में रहने का चुनाव उनका अपना होता है और जो इस चुनाव को नकारते हैं और राजनीति व आंदोलनों की दुनिया में जाकर स्वतंत्राता को अपनाते हैं, उनके महत्व को लंबे समय तक नकारा जाता है। नागार्जुन के लिए लिखना भी राजनीतिक कर्म था और जीना भी। उनकी कविताएं भी इसीलिए राजनीतिक घटनाओं व परिवर्तन के संघर्षों के प्रति संवेदनशील हैं और सबसे खरे, प्रमाणिक ढंग से जनजीवन से लगाव को व्यक्त करती हैं। कविताएं उनके लिए आत्मरति का प्रतिबिंब नहीं बल्कि आत्मविस्तार का साधन हैं। लोक उनके लिए किताबी तथ्य नहीं बल्कि रोजमर्रा का जीवनानुभव है। कई ऐसे कवि हैं जो कविता में केवल लोकभाषा के चमत्कारिक प्रयोगों के बल पर अपनी लोक-संवेदना प्रमाणित करते हैं और नगरीय संवेदना तक सीमित हो जाने के आरोपों से ख़ुद बमुश्किल रक्षा करते हैं। ऐसे कवियों के लिए लोक-संवेदना कसौटी कम आभूषण अधिक होती है जिसे कभी-कभी धारण कर अपना प्रभाव जमाया जा सकता है। उनकी कविताओं से शब्द की सूची तैयार कर उनके भदेस, लोकवादी और ज़मीनी प्रयोगों की विशेषताएं वर्णित की जाती हैं। इस महीन जोड़तोड़ में काव्यभाषा और जीवन-दृष्टि 326 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 के बीच अंतर्विरोध को किसी विडंबना या अस्वाभाविकता के रूप में देखने के स्थान पर इसे पूरी तरह उपेक्षित कर दिया जाता है। पर नागार्जुन की कविताओं में ऐसा अंतर्विरोध नहीं है, वहां लोक-संवेदना केवल लोक-भाषा के प्रयोगों से प्रमाणित नहीं होती, बल्कि पूरे लोकजीवन व लोक आकांक्षा से गहरी संपृक्ति से उपजती है। वे लोक को केवल रोचक प्रकृति नहीं बल्कि बड़े मानवीय यथार्थ के रूप में देखने के आग्रही हैं और इसीलिए लोक की पीड़ा, घुटन, सिसक और विद्रोह में उठी बंधी मुट्ठी का भी चित्राण करते हैं। ‘हरिजन-गाथा’ कविता में भी वह जिस प्रकार लोमहर्षक कांड के बारे में लिखते हैं, वह समूची भारतीय कविता के सामने अदभुत मिसाल है। उत्पीड़न की वेदना को वह बग़ावत में ढलते देखते हैं और उसमें केवल किसी तबके या वर्ग की तक़दीर नहीं बल्कि पूरे भारत के राष्ट्रीय-सामाजिक चरित्रा में युगांतरकारी परिवर्तन का आहवान सुनते हैं। लिखते हैं: दिल ने कहा-दलित माओं के सब बच्चे अब बाग़ी होंगे अग्निपुत्रा होंगे, वे अंतिम विप्लव के सहभागी होंगे यह पूरी कविता राज्य और सामंती ताक़तों के निर्लज्ज गठजोड़ पर चोट करती है। यूरोप में राज्य की संस्था पर सवाल खड़े करने की परंपरा चार सौ साल पुरानी है। मध्यकाल तक यूरोप में माना जाता था कि राज्य और राजा, दोनों की शक्तियां सनातन हैं और दोनों को मनचाहा शासन करने की दैवीय अनुमतियां प्राप्त हैं। पर प्रबोधनकालीन विचारकों ने राज्य की सत्ता का ऐतिहासिक विश्लेषण कर सिद्ध किया कि राज्य जनता के सामूहिक समझौते पर टिका है जिसमें जनता के हित के लिए राज्य का निर्माण होता है। यह भी कहा गया कि अगर राज्य जनविरोधी हो जाये तो जनता को उसे उखाड़ फेंकने का पूरा अधिकार है। इन विचारों ने वाल्तेयर व रूसो से लेकर मार्क्स तक को प्रभावित किया था और अंधविश्वासों से ऊपर उठकर राज्य की संस्था के सही विश्लेषण के प्रयास हुए। पर भारत में आज़ादी के बाद भी लंबे समय तक राज्य की भूमिका पर प्रश्न करना ईश्वर और समाज से द्रोह करने जैसा रहा है। लोकतंत्रा को राजतंत्रा की तरह चलाने के प्रयास हुए जिसमें राज्य या सत्ता को किसी शाश्वत, पारलौकिक शक्ति की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा। जिन क्षेत्रों में जनांदोलन विकसित हुए, वहां राज्य के शाश्वत अनाचार की भूमिका को संदिग्ध बताया गया और उसके खि़लाफ़ जन-गोलबंदी को प्राथमिकता दी गयी। बतौर परिवर्तनकारी एजेंसी के उन वंचित वर्गों की राजनीतिक सक्रियता पर ध्यान दिया गया जो शासन के औपनिवेशिक ढांचे को उखाड़ फेंकने में समर्थ थे। ऐसे समय नागार्जुन की निगाह केवल नेहरूवादी शहरी भारत पर नहीं थी जहां आधुनिक मध्यवर्ग विकसित हो रहा था और पूरे भारत की किस्मत बदलने के लिए यह मध्यवर्ग अपनी किसी बड़ी भूमिका की कल्पना कर रहा था। वह किसी ऐसे शहरी भारत पर भी बहुत विश्वास करने के लिए तैयार नहीं थे जो ग्रामीण दरिद्रता व विस्थापन से पैदा श्रम के दोहन के बल पर टिका होता है। पर वह ऐसे सर्वोदयी गांधीवादियों की जमात के भी नहीं थे जो गांवों के यथास्थितिवाद को बरकरार रखने में सत्ताधारियों को अपनी अहिंसावादी सेवाएं प्रदान कर रहे थे। बदलाव लाने में बड़े तटबंध, विश्वविद्यालय, योजना आयोग या न्यायालय की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने की प्रवृत्ति का भी नागार्जुन ने उपहास ही उड़ाया। नागार्जुन परिवर्तन के उभार का मुख्य केंद्र गांवों को मानते थे और गांवों के दलित-निम्नवर्ग को परिवर्तनकामी चेतना का मुख्य वाहक। उन्हें संगठित प्रतिरोध नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 327 के बल पर नया इतिहास रचने वाली ताक़तें गांवों में ही दिखती थीं और गांव छोड़कर दिल्ली-पटना जाना उनके लिए ग़लत समझौते जैसा था। इसीलिए वह लिखते हैं: दिल ने कहा-अरे यह बालक निम्न वर्ग का नायक होगा नयी ऋचाओं का निर्माता नये वेद का गायक होगा होंगे इसके सौ सहयोद्धा लाख-लाख जन अनुचर होंगे होगा कर्म-वचन का पक्का फोटो इसके घर-घर होंगे। गांवों से ही निम्न वर्ग के नायकों और उनके सौ-सौ सहयोद्धाओं व अनुचरों का उदय होना था। नागार्जुन 1977 में तब यह कविता लिख रहे थे जब पूरा भोजपुर दहक रहा था और राष्ट्रीय क्रांति के नये रूपक की तरह देखा जा रहा था। गांवों में ज़मींदार-किसान आमने-सामने थे, वैकल्पिक दल और वैकल्पिक राजनीति का शोर दिल्ली के गलियारों से लेकर बिहार के गांवों तक गूंज रहा था। सत्ता वर्ग की हिंसा का जवाब या तो हिंसा से दिया जा सकता था या ख़ुद को अहिंसक बनाये रखकर उसे सहा जा सकता था। यह विडंबना ही है कि किसान जैसा अहिंसक वर्ग, जो विवश होकर हिंसक संघर्षों में उतरा है, उसे अहिंसा के महत्व से परिचित कराने के लिए उपदेशकों की पूरी फ़ौज गांवों में उतर पड़ी। तब तक सत्ताधारी और ज़मींदार वर्ग निरस्त्राीकरण के ढोंग को भी प्रायः निभाने में असमर्थ थे और जिस कृषि-अर्थव्यवस्था के अतिरिक्त उत्पादन के संग्रह के अधिकार की रक्षा के लिए वे मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी दलों की शरण में जाते थे, वही दल अपने पिट्ठू नौकरशाहों की मदद से किसान-सर्वहारा के विद्रोह को अवैधानिक सिद्ध करने में उनकी सहायता करते थे। इसलिए किसान-सर्वहारा का संघर्ष दो-तरफ़ा हो चुका था। एक ओर वे स्थानीय संघर्षों व वर्ग-द्वंद्व को संचालित करते थे तो दूसरी ओर राजनीतिक क्षेत्रा में प्रवेश कर सत्ता के अधिनायकवाद को चुनौती देने की तैयारी कर रहे थे। कविता में भी नागार्जुन दो बातें एक साथ लिखते हैं। एक ओर वह नवजात दलित शिशु है जिसके हाथ की रेखाओं में लिखा है: आड़ी-तिरछी रेखाओं में हथियारों के ही निशान हैं खुखरी है, बम है, असि भी है गंड़ासा, भाला प्रधान है। यानी अब हिंसा पर विशेषाधिकार राज्य व शोषक वर्ग का नहीं है, बल्कि उनका भी है जो हिंसा से अपना जीवन व अपनी जीविका को बचाना चाहते हैं। दूसरी ओर वह सर्वहारा को राजनीतिक रूप से संगठित हाते े दख्े ात े ह।ैं कविता म ंे पंि क्त आती भी हμै इसकी अपनी पार्टी होगेगी/अपना ही दल होगेगा। गा्र मीण हिंसा का संरचनात्मक आधार परंपरा व समाज में ही मौजूद होता है। यह वर्ण-व्यवस्था और कृषि योग्य भूमि के असमान वितरण पर अवलंबित है और इसने ग्रामीण अवसाद को जन्म दिया है। लोकतंत्रा में राजशाही व ज़मींदारी के तंत्रा की औपचारिक समाप्ति की घोषणा के बावजूद यह हिंसा विघटित नहीं होती है क्योंकि संपत्ति के संसाधनों के पुनर्वितरण की कोई व्यापक परियोजना लागू नहीं होने दी गयी। इसलिए 328 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 ग्रामीण उत्पादन-संबंधों में ऊपर से भले स्थिरता नज़र आती रही हो, पर भीतर-भीतर उनमें तनाव मौजूद रहा। चूंकि किसान केवल भूमि से ही नहीं बल्कि शोषक वर्ग से पुश्तैनी संबंधों में बंधा रहता है इसलिए वह विद्रोह करने की स्थिति में कम रहता है। एक ही गांव में कई पुश्तों से रह रहा किसान ज़मींदार-शोषक वर्ग से पुश्तैनी रिश्तों में ख़ुद को बंधा पाता है और वह लड़ने के लिए तैयार नहीं रहता। वह पीढ़ियों से चले आ रहे उत्पीड़न को भी स्वीकार कर लेता है। पर किसी नये औद्योगिक वातावरण में जहां मज़दूरों का नया वर्ग अस्तित्व में आ रहा हो, वहां वह विरोध व विद्रोह की राजनीति के लिए शीघ्र तैयार हो जाता है। इसलिए नागार्जुन कविता में दलित शिशु का कर्मक्षेत्रा व राजनीति झरिया, गिरिडीह व बोकारो होने की कल्पना करते हैं जहां कोयला व लोहे की खदानें हैं और जहां वह: खान खोदने वाले सौ-सौ मज़दूरों के बीच पलेगा युग की आंचों में फौलादी सांचे-सा यह वहीं ढलेगा। नागार्जुन के यहां हिंसा और प्रतिहिंसा एक ख़ासा ‘सेलीब्रेटेड’ भाव है। उनकी एक कविता का नाम ही हैμप्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है। प्रतिहिंसा का यह भाव जन-भावनाओं की ऊंचाई से अपनी उदात्त ताक़त अर्जित करता है। प्रतिहिंसा का यह पूरा दर्शन मूलतः राज्य के खि़लाफ़ खड़े हिंसक आंदोलनों के निर्मम दमन और विश्व साम्यवाद से प्रेरित था। अपनी कृति एंडी ड्यूहरिंग में मार्क्स एंगल्स ने हिंसा को ‘मिडवाइफ आफ हिस्ट्री’ तक कहा है। इतिहास व समाज की नयी कल्पना का संबंध उनकी आंखों मे पल रहे नये देश के स्वप्न से था, जो नौकरशाहों, नेताओं, उद्योगपतियों तथा सत्ता के दलालों के दिमाग़ में पल रही देश की अवधारणा से पूरी तरह अलग था। इसलिए उनकी कविता में स्वतंत्रयोत्तर भारत के बारे में तीखी आलोचनाएं उपस्थित हैं। ये आलोचनाएं उस व्यवस्था पर चोट करती हैं जो नौकरशाहों की फाइलों और राजनेताओं के स्वार्थों का ग़्ाुलाम हो गयी थी और है। जनता को निष्क्रिय करने के सभी हथकंडे अपनाये जा रहे थे क्योंकि उनकी निष्क्रियता के दम पर ही लोकतंत्रों के तमाम पाखंड बनाये रखे जा सकते थे। प्रायः नागार्जुन के यहां घनीभूत आशा और आश्वस्त व फक्कड़ बहिर्मुखता ही दिखती है। उनकी कविताओं में हम आदतन बेफिक्र क्रांतिकारिता को ढूंढ़ने के भी आदी हो चले हैं। पर नागार्जुन जैसा चिर प्रवासी और भटकने वाला कवि भी किस तरह सामान्य मानवीय मोह व प्रवासीपन की नियति से जूझता है, मिथिला के अपने ‘तरौनी’ ग्राम में रहने वाली पत्नी व वहां की प्रकृति को याद करता है, उसे उनकी ‘सिंदूर तिलकित भाल’ जैसी कविताएं बड़ी रागात्मक गहराई से व्यक्त करती हैं। इन दिनों प्रवासी साहित्य की धारा हिंदी में ख़ुद को स्थापित करने के लिए मचल रही है, पर देसी प्रवासीपन क्या होता, यह नागार्जुन से बेहतर कोई नहीं व्यक्त कर पाता है। नागार्जुन के यहां चरम निराशा और चरम आशा दोनों ही भावों की उपस्थिति है। चरम निराशा में वह भारतीय लोकतंत्रा की विफलता को सूचित करते हैं तो चरम आशा में उसकी संघर्षशीलता तथा भावी सफलता को बुनते हैं। इसका उदाहरण ‘भगत सिंह’ के बारे में उनके विचारों को सूचित करने वाली दो अलग-अलग कविताओं से प्राप्त होता है। उनकी एक कविता है ‘भगत सिंह’ जिसमें वह भगत सिंह की कुर्बानी के व्यर्थ चले जाने पर अफसोस व्यक्त करते हैं। उसमें भगत सिंह के विचारों से विचलन, उसकी उपेक्षा और अपमान पर वह गहरी निराशा जताते हैं। यहां तक कहते हैं कि भगत सिंह! अच्छा हुआ तुम न रहे, अच्छा हुआ फांसी के फंदे पर झूल गये। नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 329 पर दूसरी ओर उनकी ‘भोजपुर’ कविता है जिसमें वह भगत सिंह को अलग ढंग से याद करते हैं। यह भोजपुर की धरती थी जहां बारूदी छर्रे की खूशबू को सूंघते हुए वह अपने जन्म को सार्थक करने की बात करते हैं। भोजपुर की माटी को छोड़कर जाने के खि़लाफ़ जैसे ख़ुद से कहते हैं-‘देखों जनकवि भाग न जाओ।’ उसी में भगत सिंह के पुनर्जन्म की कल्पना करते हैं और कहते हैं: यहां अहिंसा की समाधि है यहां कब्र है पार्लियामेंट की भगत सिंह ने नया-नया अवतार लिया है। नागार्जुन की कविताओं में कई बार अंतर्मुखता के क्षणों में चुभता हुआ संताप और संदेह भी व्यक्त होता है। वह जैसे बार-बार यह अनुभव करते हैं कि कोलाहल व विक्षोभ से भरे इस परिवर्तनशील युग में कितने साधारण और शांत अस्तित्व के मोह में पड़े हुए हैं। अपनी भरपूर पक्षधरता व सक्रियता भी उन्हें अपर्याप्त लगती है। इसीलिए कई बार ईश्वर से भी वह लड़ते, उलझते और उसके अस्तित्व को चुनौती देते हैं ताकि ईश्वर तथा धर्म की शरण में जाकर उन्हें सुख-शांति के भुलावों में न पड़ना पड़े। हर इंसान ईश्वर से सुख-शांति का वरदान प्राप्त करना चाहता है पर नागार्जुन ईश्वर से अगर कुछ मांगकर लाना चाहते हैं तो वह है जलन, संताप, उलझन और भ्रांति। ‘कल्पना के पुत्रा हे भगवान’ में यही भाव व्यक्त हुआ है। वरदान की जगह अभिशाप मांगने की यह ठेठ नागार्जुनी अदा भी ईश्वरत्व को चुनौती है। इस तरह वह धर्म-अध्यात्म पर मनुष्य की लोभजन्य निर्भरता समाप्त कर उसे एक नये समाज के निर्माण के संघर्ष से जोड़ते हैं। नश्वरवाद, अध्यात्म और कर्मकांड की पूरी परंपरा को ललकारना भी नागार्जुन का स्वभाव था और इस अर्थ में उनका परंपरा बोध भी मौलिक है, लीक पर चलने वाला नहीं। उनके यहां स्थानीयता और अंतर्राष्ट्रीयता का सामंजस्यकारी भाव भी मिलता है। एक ओर कालिदास और तमिल कवि वल्लतोल पर कविता लिखते हैं, तो दूसरी ओर भारतेंदु, टैगोर और निराला पर उन्होंने कविताएं लिखी हैं। इसके अतिरिक्त लू-शुन, ब्रेश्ट और लेनिन पर उन्होंने कई महत्वपूर्ण कविताएं रची हैं। अपने कवि जीवन के संघर्षों पर बहुत न लिखा हो पर इन कवियों के संघर्षों पर लिखकर जैसे उन्होंने अपनी पीड़ा को ही व्यक्त किया है। इससे यह भी पता चलता है कि नागार्जुन के मन में थोथा आत्मानुराग नहीं बल्कि पूरी रचना-परंपरा के प्रति गहरा आदर भाव था। इस मामले में वह अक्षर शक्ति पर प्रचंड विश्वास करने वाले कवि भी हैं जो लिखते हैः ‘एटम बम हो या हाइड्रोजन, कोई भी अक्षर शक्ति का सामना नहीं कर सकता है।’ नागार्जुन की पूरी रचना प्रक्रिया और जीवन में जुझारूपन और सातत्य नज़र आता है। कविताओं में वह सौंदर्य और कलात्मकता को कभी न तो उपेक्षणीय समझते थे और न ही उसे अंतिम साध्य। अन्याय के विरुद्ध उनका ईमानदार आक्रोश रचनाकाल के किसी विशेष चरण तक भी सीमित न था। उन्हें ऐसा कवि नहीं कहा जा सकता जो विद्रोह और प्रतिरोध के आरंभिक रोमांटिक लक्षणों को बाद में सुधारने की समझदारी करता है। जवानी की भूल-गलतियों को दुरुस्त करता है। यानी उनकी क्रांतिधर्मिता को ‘सुबह का भूला’ वाले मुहावरे में नहीं रखकर देखा जा सकता है और इसीलिए वह जोड़तोड़ के कुशल लेखकों-आलोचकों तथा सत्ता के लिए हर हाल में असुविधाजनक कवि हैं। उनके यहां आत्मपीड़न के स्वर भी सबसे कम हैं। इसकी वजह संभवतः यह है कि उन्होंने कठिन तप से वह सामाजिक दृष्टि अर्जित कर ली जहां दूसरों के रोजी-रोटी, सुःख और प्रेम के जीवन संघर्षों के आगे निजी सुख उन्हें बड़े छोटे प्रतीत होते हैं। 330 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 ‘हरिजन गाथा’ व दलित प्रश््रश्न हाल ही में कंवल भारती ने वर्तमान साहित्य के मई 2011 अंक में दलित चिंतन के दृष्टिकोण से इस कविता की समीक्षा की है और कई सवाल उठाये हैं। उन्होंने इस कविता की प्रशंसा में लिखा है कि बेलछी जैसे नृशंसतम हत्याकांड पर ऐसी कविता अन्यत्रा देखने को नहीं मिलती। पर उन्होंने दलित चिंतकों की इस कविता के बारे में तीन आपत्तियों का जिक्र किया है। पहली, इसमें हरिजन शब्द का इस्तेमाल क्यों किया गया है क्योंकि भले ही इस पर तब तक कानूनन प्रतिबंध न लगा हो पर प्रायः हरिजन शब्द का प्रयोग ही है जो हिंदूवादी व वर्णव्यवस्था की पोषक शब्दावली है। तीसरा, इसमें नवजात दलित शिशु को खुखरी, भाला, बम व तलवार से जोड़कर उसे अपराधी बना दिया जाता है। कंवल भारती इन आपत्तियों को कहीं तो निराधार बताते हैं और कहीं समर्थन करते हुए दिखते हैं। क्या यह तथ्य नहीं है कि पौराणिक-धार्मिक शब्दावली दलितों की कविताओं में भी है? दलितों की ऐसी कविताओं का उदाहरण स्वयं कंवल भारती देते हैं जिनमें दलित हनुमान बनकर सवर्णों की सोने की लंका में आग लगाने की बात कह रहे हैं। उनकी सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि नागार्जुन इस कविता में दलितों की सशस्त्रा क्रांति का समर्थन क्यों करते हैं। उनका कहना है कि नक्सलवादी आंदोलन से आदिवासी जुड़े हैं, दलित नहीं। दलित जातियां केवल आरक्षण के आंदोलन में यकीन करती हैं। उनके मुताबिक दलित जातियां एक वर्ग नहीं हैं और उनके बीच जातीय भेद और ऊंच-नीच के भाव उन्हें एक वर्ग बनने भी नहीं देते हैं। उन्होंने लिखा है: ‘इस कविता द्वारा बाबा दलितों में बिरसा मुंडा पैदा करना चाहते थे। यह कविता है जिसमें कवि ने अपनी कल्पना को रूप दे दिया है। पर यथार्थ में अभी तक दलितों में कोई बिरसा मुंडा नहीं पैदा हुआ है।’ पर यहां भी कंवल भारती इस समस्या का हल नहीं निकाल पाते कि दलितों की सैकड़ों कविताएं ऐसी हैं जिनमें बड़े उग्र ढंग से हथियारबंद संघर्षों का आह्वान किया गया है। दमन का जवाब देने के लिए उनमें खंजर, लाठी, फावडा, हथौड़ा सभी का उल्लेख किया गया है। पर इन प्रयोगों के संबंध में कंवल भारती सिर्फ़ यही नजीज़ा निकाल पाते हैं कि दलित कविताओं में हथियारबंद संघर्ष की बात केवल उनके गुस्से का प्रतीक है, अन्यथा वे विचार की क्रांति पर विश्वास रखते हैं। मुश्किल यह है कि कंवल भारती पूरी दलित समस्या को शहरवासी मध्यवर्ग के नज़रिये से देखते हैं जिसका अपना प्रभुत्ववादी एजेंडा है। इस कविता की आलोचना में भी निम्नश्रेणी के दलित की परिवर्तन संबंधी वास्तविक चाह को असंगत ठहराते हुए उससे मध्यवर्ग के रास्ते पर चलने की अपेक्षा की जा रही है। ख़ासकर कविता के जिस प्रसंग में बच्चे के हाथ की रेखाओं में हथियारबंद क्रांति का नायक होने के संकेत हैं, उसके बारे में कंवल भारती लिखते हैं: ‘दलित चिंतन के लिए यह बच्चे के भयावह भविष्य की कल्पना है जिसे कोई भी दलित अभिभावक पसंद नहीं करेगा। यदि वे अपने बच्चे में जाति के मुक्तिदाता की भी कल्पना करेंगे तो गंडासा, भाला और बम के साथ नहीं, बल्कि क़लम के साथ।’ ग्राम-समाजों में मौजूद सदियों पुराने इतने जटिल उत्पीड़न का बड़ा सरलीकृत हल कंवल भारती सुझाते हैं। बहस को वह हथियार बनाम क़लम की ओर मोड़ देते हैं जो मूलतः तर्कसंगत नहीं है। सीधे नरसंहारों का सामना कर रहे दलित क़लम तभी पकड़ सकते थे, जब नरसंहारकारी शक्तियों का वे विरोध करते। जब स्कूल जाने से उन्हें रोका जाये और खेतों में बलपूर्वक मज़दूरी करायी जाये तब दलित के मन का आक्रोश किस दिशा में जा सकता है, इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। जब क़लम से दो वक़्त की रोटी लायक मज़दूरी भी ठीक से न मिल रही हो, तब उग्र प्रतिरोध को जायज मान लेने के लिए वह बाध्य हो जाता है। इसी नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 331 प्रकार पुलिस-थानों में ख़ुद के साथ अपराधी की तरह बर्ताव होने से वह शासन के प्रतीकों के प्रति कैसी हिंसक नफ़रत से भर सकता है, इसका भी सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उसके इस आक्रोश को शहर का मध्यवर्गीय दलित, किसी भी स्वानुभूति या जातीय अनुभूति के माध्यम से समझ सकेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। शहरी मध्यवर्ग का दलित जिस तरह आरक्षण की राजनीति को अंतिम समाधान मानता है, वह स्थिति एक ग्रामीण दलित किसान या मज़दूर की नहीं रही है। वह जिन संसाधनों पर निर्भर रहा है जैसे खेती, मज़दूरी, पशु आदि, पर उसे हिंसक तरीके से हड़पा जा सकता है। 1977 की इस कविता के रचनाकाल के समय उसके लिए संगठित क्षेत्रा की नौकरियां स्वप्न सरीखी थीं और जीविकोपार्जन के लिए कृषि या मज़दूरी पर ही वह निर्भर था। ग्रामीण समाज में आरक्षण की राजनीति का कोई ख़ास अर्थ नहीं निकल सकता था। अगर दलित गांव में जघन्य नरसंहारों का शिकार हो सकता है तो वह हिंसक प्रतिरोध के विचार को भी अपना सकता है। शहरी मध्यवर्ग दलित हिंसा की निंदा कर सकता है क्योंकि वह स्वयं जानलेवा हिंसा की परिधि से बाहर आकर राज्य की सुविधाओं के उपभोग की स्थिति में पहुंच चुका है। जहां दलितों की मार-पिटाई, ज़मीन छीनने व बलात्कार जैसे संगीन मामलों में गांव-गुरबे के थानों में रपट न लिखी जाती हो, वहां दलितों को अहिंसा का पाठ पढ़ाना तर्कहीन प्रतीत होता है। भले ही अहिंसा का पाठ अब गांधीवादी नहीं, आंबेडकरवादी दलित पढ़ा रहे हों। आंबेडकर आंदोलन के प्रभाव से अगर कुछ मुट्ठी भर दलित डाक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर या अफ़सर बन गये तो इससे दलित मुक्ति का एजेंडा पूरा नहीं हो गया। दूसरी बात यह है कि दलितों को सशस्त्रा आंदोलन में सम्मिलित होते देखना बाबा की हवाई कल्पना नहीं थी बल्कि भोजपुर का तत्कालीन यथार्थ था जिससे नागार्जुन अच्छी तरह रूबरू थे। यथार्थ के बल पर कल्पना करना या सपना देखना साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति होती है और नागार्जुन इसी से कविता रचने की प्ररेणा ग्रहण कर रहे थे। कविता पर कुछ अन्य आपत्तियां भी कंवल भारती ने की हैं जो दलित चिंतन की दृष्टि से भी तार्किक नहीं हैं। जैसे कि वह दलित शिशु के बारे में दो बुजुर्गों की बातचीत वाले अंश को उद्धृत करते हैं: ‘क्या करेगा भला आगे चलकर/रामजी के आसरे जी गया अगर/कौन सी माटी गोड़ेगा/कौन सा ढेला फोड़ेगा/मग्गह का यह बदनाम इलाका/जाने कैसा सलूक करेगा इस बालक से/ पैदा हुआ बेचारा/भूमिहीन बंधुआ मज़दूरों के घर में/ जीवन गुज़ारेगा हैवान की तरह/भटकेगा जहां-तहां वन-मानुष जैसा/अधपेटा रहेगा, अधनंगा डोलेगा।’ कंवल भारती ‘रामजी के आसरे’ दलित बच्चे के जीने की बात पर ऐतराज जताते हैं और कहते हैं कि कोई दलित बच्चा रामजी के आसरे नहीं बल्कि अपने मां-बाप के श्रम के बल जीता है। इसके अलावा उनके मुताबिक, दलित शिशु के लिए हैवान या वनमानुष शब्द का प्रयोग उसके लिए गाली सरीखा है। उन्होंने लिखा है, ‘इन दोनों शब्दों का प्रयोग कर नागार्जुन ने दलितों की मानव-अस्मिता को ही ख़त्म कर दिया है। दलित जनों को मानव के स्तर से गिराने के बाद क्या हम नागार्जुन को दलित हितैषी और जनवादी चेतना का कवि कह सकते हैं?’ इसी प्रकार कविता में शिशु के लिए ‘उत्पाती’ शब्द के इस्तेमाल को अनुचित ठहराया गया है। शब्द-प्रयोग व भावों में इस बड़े पैमाने पर खोट निकालने का संबंध दरअसल कविता को विचारपूर्ण निबंध की तरह पढ़ने से है। इसका संबंध प्रगतिशील लेखन को निरंतर इस अभियोग के घेरे में रखने से भी है कि उसमें दलित जीवन के प्रति अनभिज्ञता व्यक्त होती है। यह सही है कि प्रगतिशील लेखकों 332 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 के पास निम्नवर्गों तथा दलितों के जीवन के वास्तविक अनुभवों की कमी रही है और इसी कारण दो-चार को छोड़कर निम्नवर्गीय जीवन पर क्लासिक रचनाएं नहीं लिखी जा सकीं। पर यह सच होते हुए भी यह मानना मुश्किल है कि गांवों से जुड़ा प्रगतिशील लेखन अनिवार्यतः इतना कच्चा होगा कि वह सच्चाई को ठीक से भांप न सके या जबरन पूर्वग्रहों का प्रदर्शन करे। भूलना नहीं चाहिए कि कविता के शब्द प्रायः अभिधामूलक अर्थ से अलग शक्ति भी रखते हैं। पर अस्मितावादी राजनीति के साहित्यिक रूपों ने रचना को जहां अर्थ-विस्तार प्रदान किया है, वहीं रचना को मनोनुकूल राजनीति के सांचे में ढाल उसके अर्थों को विकृत करने का काम भी किया है। प्रगतिशील आंदोलन की सर्वश्रेष्ठ रचनाएं इन अस्मितावादी कुपाठों का बोझ अपने ऊपर झेल रही हैं, पर इन रचनाओं की शक्ति घट नहीं रही है। हरिजन-गाथा में ‘रामजी के आसरे’ वाला वाक्य पूरी तरह दलित पीड़ा की अभिव्यक्ति के लिए और भाग्यवाद के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है और एक मुहावरे के प्रयोग के बल पर दलितों के अभावग्रस्त जीवन को दर्शाता है। लोकजीवन में लोग बात-बात पर कहते ही हैं-‘जैसी भगवान की मर्ज़ी’ या ‘ऊपरवाला ही मालिक है’ इत्यादि। हैवान और वन-मानुष जैसे शब्द प्रयोग भी नागार्जुन द्वारा वर्णव्यवस्था में दलितों के वि-मनुष्यीकरण (क्मीनउंदप्रंजपवद) को प्रकट करने के लिए हुए हैं, न कि दलितों को अपमानित करने के लिए जैसा कि कंवल भारती सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। नागार्जुन ने दलितों के लिए सीधे ‘हैवान’ या ‘वन-मानुष’ शब्द का प्रयोग नहीं किया है बल्कि कहा है कि कहीं हैवान की तरह जीने या वनमानुष की तरह भटकने की नौबत इस दलित शिशु की न आ जाये। पर कंवल भारती की बात से लगता है कि दलितों को सीधे हैवान या वनमानुष बता दिया गया है। दलितों की आत्मकथाओं में भी यह सिद्ध किया जाता है कि कैसे उन्हें पशुओं की तरह जीवन बिताने पर मज़बूर किया जाता है। तुलसीराम की आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में कई उदाहरण हैं जिसमें दलितों के अमानवीय जीवन को दिखाते हुए उन्हें चरम मूर्ख व अंधविश्वासी तक कहा गया है। निम्नजातियों से आने वाले पग्गल व फक्कड़ बाबाओं तथा ओझैती करने वालों की कथाएं हैं जो असामान्य आचरण व अलग-थलग रहने के कारण मानव-समाज के अंग प्रतीत नहीं होते। इसलिए जो अभियोग हरिजन गाथा जैसी कविता पर हैं, उन्हें स्वयं दलितों के रचनात्मक लेखन को पढ़कर खारिज किया जा सकता है। दरअसल ये शब्द दलितों को मनुष्योचित जीवन लौटाने की लड़ाई के समर्थन में ही प्रयुक्त हुए हैं। ‘उत्पाती’ शब्द का भी यहां शब्दकोषीय अर्थ लेने के स्थान पर संदर्भगत अर्थ लेना होगा जो कि क्रांतिकारी, नेता और विद्रोही के समानार्थक है। अगर दलितों के प्रति अज्ञान होना या उनका अपमान करना नागार्जुन का उद्देश्य होता तो वे पूरी कविता में दलित शिशु के बहाने पूरे दलित समाज के नवजागरण की संभावना को इतने सम्मान से प्रस्तुत न करते। कविता में यह न लिखते: होंगे इसके सौ-सौ सहयोद्धा/लाख-लाख जन अनुचर होंगे/होगा कर्म-वचन का पक्का/फोटो इसके घर-घर होंगे। नागार्जुन दरअसल कविता में एक भिन्न किस्म के दलित जागरण और आंदोलन की कल्पना कर रहे थे जो केवल सत्ता को ही नहीं बल्कि सत्ता के चरित्रा को हमेशा के लिए बदलने का स्वप्न रखता था। दुर्भाग्य है कि आज का कथित दलित आंदोलन आंबेडकर के विचारों से दूर मूलतः सत्ता के कांग्रेसी मॉडल पर आधारित है जिसमें दलितों की सामूहिक मुक्ति के स्थान पर दलितों को केवल प्रतिनिधित्व दिलाने की बात की जाती है। प्रतिनिधित्व के नाम पर दलितों के प्रभावशाली मुखर हिस्से को सत्ता व प्रशासन में शामिल कर लिया जाता है और फिर उन्हीं का इस्तेमाल किसी ज़मीनी आंदोलन को ख़ारिज करने में किया जाता है। इसीलिए दलितों से जुड़े बहुत नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 333 बुनियादी प्रश्नों को दलितों के कथित प्रतिनिधि हमेशा ही अस्वीकार करते हैं। इनमें भूमि का वितरण, न्यूनतम मज़दूरी, स्वास्थ्य सुविधाएं और स्त्रिायों की सुरक्षा जैसे कई प्रश्न ऐसे हैं जो सत्तावादी दलितों के सामाजिक कार्यक्रम से बहुत पहले ही बाहर किये जा चुके हैं। ज़ाहिर है कि दलित बुद्धिजीवियों के मध्य प्रगतिशील आंदोलन को लेकर तो काफ़ी आलोचना है और कई बार काफ़ी तर्कपूर्ण ढंग से प्रगतिशीलों की आंख खोजने वाली भी है। प्रगतिशीलों के ब्राह्ममणवादी संस्कारों की कड़ी समीक्षा का यह सकारात्मक पक्ष रहा है। पर दलित वैचारिकी के बारे में दलितों में आत्मालोचन अभी कमज़ोर है। वह वैचारिकी इस जटिलता को समझने की क्षमता खो रही है कि ज़मीनी आंदोलन ही राज्य को मज़बूर करते हैं कि वह दलितों को विशेष सुविधाएं तथा अधिकार प्रदान करे। यह आंदोलन ही राज्य व नौकरशाही को विवश करते हैं कि वह दलितों की आवाज़ सुने, उन्हें विशेष सुविधाएं प्रदान करे। लंबे समय तक खाली आरक्षणवादी या प्रतिनिधित्व की राजनीति करने से राज्य से समक्ष उनकी स्थिति कमज़ोर होती जाती है और अवसरवाद बढ़ने से विश्वसनीय राजनीतिक ताक़त के रूप में भी वे उभर नहीं पाते हैं। जिस तरह निजीकरण के दौर में सरकारें दलितों के अधिकार छीनने की तैयारी कर रही हैं और पूरा दलित चिंतन लगभग मौन है, यह भी उसी की मिसाल है। यानी परिवर्तनकारी आंदोलनों में, चाहे वह नक्सली मिज़ाज के हों या संसदीय मिज़ाज के, दलितों की भागीदारी उनकी राजनीतिक-सामाजिक चेतना का विकास करती है और वे राज्य के चरित्रा को दलित विरोधी होने से बचाने का संघर्ष भी कर पाते हैं। गांव के दलितों की समस्या अब मध्यवर्ग के दलितों की समस्या से पूरी तरह भिन्न है। यह मानना असंभव है कि आरक्षण के माध्यम से सरकारी नौकरी में प्रवेश कर चुके दलित और गांव के भूमिहीन या ठेका मज़दूरी कर रहे दलित के जीवन में कोई समानता है। यह भी मानना कठिन है कि कभी मध्यवर्गीय दलित किसी ऐसे आंदोलन की कल्पना या विचार को समर्थन देगा जिसमें गांव-कस्बे के ग़रीबी की रेखा से नीचे का जीवन गुज़ार रहे दलित उनके बीच प्रवेश कर सके, उनके साथ उठने-बैठने लगे। अंत में यही कहा जा सकता है कि नागार्जुन की कविताओं के मूल्यांकन के मानदंड वही नहीं हो सकते जो अज्ञेय या शमशेर की कविताओं के होंगे। बिंब, रूपक, आध्यात्मिक अंतःवेदना या अमूर्त अभिव्यक्ति की कौशल संबंधी कसौटियों पर उनका मूल्यांकन हो सकता है पर उन्हीं खांचों में अटाने की कोशिश उनकी कविताओं को निरर्थक बना देने का प्रयास प्रतीत होती है। उनकी कविताओं की व्याख्या के लिए हाड़-मांस के लुटते-पिटते जीते जागते इंसान पर नज़र डालनी होगी और जो नागार्जुन की कविताओं को अपना घर समझकर वहां लगातार चहलकदमी करते हैं। यायावरी प्रकृति के नागार्जुन की कविताओं की भंगिमा में भी यायावरीपन है, पर दिशाहीनता नहीं। ये रचनाएं अपने मकसद और अपने संकल्प, दोनों का कभी सस्ते में सौदा नहीं करती हैं। बाबा का स्वभाव ही था कि वह ज़िंदगी और लेखन में बेईमानी बर्दाश्त नहीं करते थे। वह जानते थे कि क्यों लिखा जाना चाहिए और किसके लिए लिखा जाना चाहिए। अपने कवि कर्म की सार्थकता के प्रति अगर आश्वस्त थे तो इस वजह से कि उनकी कविताएं कहीं छिपकर केवल छापामार लड़ाई लड़ने में नहीं बल्कि खुले मैदान में आकर सजग आलोचना की भूमिका का निर्वाह करने में यकीन करती हैं; वे अल्पजीवन में झटपट प्राण देकर शहीद हो जाने वाली कृतियां नहीं हैं बल्कि लंबे ऐतिहासिक संघर्ष में भरोसा जताने वाली दीर्घायु रचनाएं हैं। मो.: 09888384855