हरिद्वार और हृषीकेश / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती
हाथरस से पैदल चल कर हम लोग सोरों पहुँचे ठेठ गंगा माई के किनारे। जहाँ तक याद है महाशिवरात्रि का मेला था। लोग गंगा स्नान कर रहे थे?हमने जीवन में पहली ही बार आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा कि लोग यों ही गंगा के आरपार चले जा रहे हैं। नाव की जरूरत हुई नहीं। क्योंकि जल नदारद! हम समझ न सके कि इसका क्या रहस्य है। पीछे पता चला कि गंगा से दो-दो नहरें निकाले जाने के कारण जाड़े और गर्मी में पानी उसमें रहता ही नहीं। हाँ, कानपुर के पास इन नहरों का बचा-बचाया हुआ पानी फिर उसमें जब जा गिरता है तो जल नजर आता है।
अस्तु, हम गंगा के तट को पकड़ कर उत्तर मुँह चले। रास्ते में वे स्थान देखे जहाँ से नहरें निकली हैं। जब हम अनूपशहर पहुँचे तो देखा कि कच्ची रोटियों की दूकानें लगी हैं और हलवाई की दूकानों की तरह लोग वहाँ बैठ कर पूड़ियों के बजाए दाल, रोटी, साग, तरकारी खाते हैं। हमारे ध्यान में भी यह बात अब तक नहीं आ सकी थी कि हलवाई के अतिरिक्त हिंदुओं के भी दाल, भात, रोटी, आदि के होटल और भोजनालय हो सकते हैं। इसीलिए जब पहली बार ऐसा देखा तो हमें महान आश्चर्य हुआ।
दूसरा आश्चर्य बहुत दिनों बाद तब हुआ जब सनातन धर्म सभा के लिए मुलतान जाते हुए अंबाले में स्टेशन पर 'हिंदू रोटी लो, मुसलमान रोटी' कहते देखा और कच्ची रोटियाँ बिकती पाईं। असल में हमारी धारणा थी कि होटल तो मुसलमानों और कृश्तानों के ही हो सकते हैं। हमने काशी, प्रयाग आदि में और देखा भी न था। पीछे जब होटल सभी के हो गए तो भी ख्याल था कि छुआछूत के लिहाज से स्टेशनों पर हिंदू लोग रोटियाँ बेच नहीं सकते। हमें क्या ख्याल था कि सभी लोग एक-दूसरे की छुई खा लेंगे। मुसलमान भी छू ले तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन बनानेवाला किसी जात का हिंदू होना चाहिए! हम क्या समझते थे कि यह हिंदू रोटी, हिंदू पानी, मुसलमान रोटी, मुसलमान पानी की पुकार छुआछूत या धर्म के लिए न हो कर निरी-बेवकूफी की बात है, जो सिर्फ हिंदू-मुसलिम कलह लगाने और बढ़ाने के ही काम आती है। अफसोस है कि जो लोग आज इस खान-पान के भेदभाव को मिटा चुके है वह भी इस झगड़े में एक न एक पक्ष लेते ही हैं। फिर चाहे खुल के लें या छिप के। हजारों में विरले ही ऐसे हैं जिनका दिल साफ है और जो इन झगड़ों को नादानी की हद्द समझते हैं। उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ जरूर रही है। यही एक आशा की झलक है कि यह नादानी मिट के रहेगी।
गर्मी के दिन आते-न-आते हमने बिजनौर आदि शहरों को देखते-दाखते और गंगा के दोनों तटों पर घूमते-घामते हिमालय का पहली बार दर्शन किया और हरद्वार पहुँचे। कनखल होते हरिद्वार गए। कनखल में नहर और उसके ऊपर चलनेवाली पनचक्की देखी, हरद्वार में हर की पैड़ी पर गए, स्नान किया, न जाने किन-किन मठों में गए और ठहरे। पर हमें वह दुनियाँ न रुची। गंगा जी को वर्तमान विज्ञान ने उसके हिमालय के क्रोड़ से बाहर होते ही किस प्रकार बाँध लिया है और इस प्रकार उसके प्रचंड वेग के मद को चूर कर दिया है। यह हमने वहीं देखा। कुछ परिचित साधु भी मिले। लेकिन फिर भी हमारा मन रम न सका। फलत: वहाँ से पैदल ही हृषीकेश चल पड़े। वहाँ पहुँचने पर हमने दूसरी दुनियाँ देखी। गंगा के किनारे एक छोटा-सा गाँव-सा बसा हुआ पाया। वहीं कई एक अन्नसत्रा (क्षेत्र) थे जिनमें साधुओं को रोटी और गाढ़ी दाल या तरकारी एक बार दोपहर से पहले मिलती थी। वहाँ पर बाबा कमलीवाले के और दूसरों के भी क्षेत्र थे। पहाड़ से निकलते ही गंगा धनुषकार हो जाती है। उसी धनुष के मध्य में पश्चिम और हृषीकेश उस समय था। उसके उत्तर सुंदर लंबी झाड़ियों के सिलसिले में जहाँ-तहाँ बिना घर-बारवाले गेरुवाधारी बाबा लोग पड़े रहते थे। वह लोग क्षेत्र से रोटी ला कर खाया करते, परंतु ईधर हम फिर यह न देख सके कि क्या-क्या परिवर्तन हो गए हैं।