हरिभजन सिंघ रैणू / कथेसर

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मुखपृष्ठ  » पत्रिकाओं की सूची  » पत्रिका: कथेसर  » अंक: जुलाई-सितम्बर 2012  

आधुनिक पंजाबी साहित्य रो कबीर : हरिभजन सिंघ रैणू - रामस्वरूप किसान

परलीका सूं चाळीस किलोमीटर दूर उतराधी दिसा में हरियाणा रो अेक जिलो है- सिरसा। साहित्यिक परिचै रै हिसाब सूं सिरसा, पंजाबी कवि हरिभजन सिंघ रैणू रो स्हैर है। परलीका अर सिरसा रो संबंध लारलै सात-आठ सालां में बहोत घणो रैयो है। इत्तो कै इण थोड़ै’क अरसै में परलीका रै राजस्थानी जलसां मांय पंजाबी अर सिरसा रै पंजाबी जलसां मांय राजस्थानी कवितावां बांचीजणों आम बात हुगी। इण जुड़ाव रो सै सूं बड़ो कारण हरिभजन सिंघ रैणू रो व्यक्तित्व अर कृतित्व है। बां री पंजाबी कवितावां रै आकर्षण सूं परलीको बच नीं सक्यो। रैणू कविता रै हिसाब सूं पंजाबी कवि पाश, शिव बटालवी अर सुरजीत पातर रै ताड़ै रो कवि है। कविता री आ ऊंचाई हासिल करणो बड़ी बात है। अर म्हारै सारू आ बड़ी बात है कै म्हे लोग बां रै संपर्क में रैया अर बां नै नेड़ै सूं देखण अर समझण रो मौकौ मिल्यो। इण दौरान रैणू रै संपादन अर देख-रेख में डॉ. शेरचंद म्हारी कविता पोथी 'आ बैठ बात करां’ रो पंजाबी अनुवाद 'आ बैह गल्लां करिए’ नांव सूं करनै राजस्थानी-पंजाबी बिचाळै अेक जबरै पुळ रो काम कर नाख्यो। अर अचम्भै री बात आ कै इण अनुवाद-पोथी री भूमिका कैंसर री कसूती पीड़ सूं लड़तै थकां मिरतू सैया माथै सूत्यै-सूत्यै रैणू खुद रै कांपतै हाथां सूं लिखी।

तीन साल री लाम्बी बीमारी रै दौरान म्हैं अर सत्यनारायण बां सूं भौत बर मिल्या। पण जद-जद मिल्या, बां रै चैरै पर रूणक ई देखी। लोक में अेक कैबा है कै मौत हरावै, भूख निवावै। पण म्हैं आंख्यां देखी कैवूं कै रैणू नै ना मौत हरा सकी अर ना भूख निवा सकी। अेकर जद म्हे मिलण सारू गया। बै बैड पर सूत्या हा। रूं-रूं दुखै हो। बां रो बेटो सुरजीत पसवाड़ो फुरावै हो। पैसाब री थैली लाग्योड़ी ही। ...थैली तो खैर तीन साल लाग्योड़ी ही रैयी। क्यूंकै गदूद में कैंसर ही। ...म्हैं पूछ्यो- 'कियां हो भाईजी?’ .....'बस ठीक हूं। कैंसर, ब्लडप्रैसर, सुगर, फेफड़ां चे संक्रमण..... काळ कुंडळ मारके छाती चे बैहग्या।’ आ कैय’र बां जद म्हारै सूं हांस’र हाथ मिलायो तो म्हारै स्वयंप्रकाश री कहाणी 'क्या तुमने कभी कोई सरदार भिखारी देखा है’ याद आयगी। जकी में ट्रेन रै अेक भर्यै-भतूलै डब्बै में दंगाइयां रै हाथां कोजी तरियां कुटीजतो-फंफेड़ीजतो अेक बूढो सरदार किणी सूं ई इमदाद री भीख नीं मागै अर कुत्तां सूं घिर्योड़ै हेरण री भांत अेकलो ई संघर्ष करै। सागण आ ई बात म्हैं रैणू में देखी। लगातार तीन साल तांई बैड पर पड़्यो-पड़्यो मौत सूं लड़तो रैयो। बेटो सुरजीत जकै हर घड़ी सायै री भांत वां रै साथै रैयनै हीड़ो कर्यो, बतावै कै इण सेवा में बो अक्यो कोनी। क्यूंकै इण दौरान रैणू कदे ओरेऽ ई नीं कैयो। राम नाम तो उणरी जबान पर ई नीं आयो। सचो अर खरो नास्तिक हो रैणू। मौत रो दर्द सैवणो मिनख री मजबूरी पण उणनै पचावणो, उफ्फ तक नीं कर’र मुळकतो रैवणो अर बो ई खुद रै बूतै पर बिना किणी अरज अर प्रार्थना रै, प्रतिबद्धता अर नास्तिकता री परीक्षा में अव्वल आवणो है। म्हैं आंख्यां देख्यो, रैणू इण परीक्षा में अव्वल आयो है।कैंसर री भयानक पीड़ा सूं जूझतै मौत सूं लड़तै अर चालतै ग्लूकोज थकां बैड पर सूत्यै-सूत्यै किणी कवि नै म्हैं कविता सुणावतां देख्यो है तो बो नाम है फगत अर फगत रैणू। अैड़ी खस्ता हालत में ईज रैणू आप सूं मिलबा आवण वाळां नै कविता सुणावतो अर बां री सुणतो। आखरी दिनां में म्हैं मिलबा गयो तो बां म्हारै सूं जिद्द कर’र दो कहाणियां सुणी। म्हैं कविता रो कैयो तो झट कविता मंगाय’र सुणावण लागग्या। अैड़ी हालत में ई बां री कविता लिखण री हूंस बरकरार रैयी। कलम ना सही। आंगळी ही कलम बण’र चादर पर चालती रैयी। देख’र बेटै सुरजीत रो हिवड़ो बेचैन हो उठ्यो। कविता फूटी- उंगलां चल रहियां ने/ कलमां दे वांग/ कदे फुल्लां कड्ढी चादर ते/ कदे फुल्ल कड्ढे सरहाणे ते/ लिखियां ने कुझ कू सतरां/ जो मैं ही पढ़ सका/ मैं ही वेख सका/ ते दूसरे महसूस कर सकदे/ एह ओह सतरां ने/ जो रह गइयां सन/ 'भूमिका तों बगैर’/ अते 'मेरे हिस्से दे वरके’ बणन तों।

....अेकर म्हारै मूंडै सूं निकळगी, 'भाईजी, भगवान भली ई करसी, थे ऊंतावळा ई ठीक हो जास्यो।’ सुण’र बै मुळक्या। इण मुळकांण में झीणो-सो व्यंग्य बां री नूरानी आंख्यां सूं होय’र म्हारी आंख्यां सूं टकरायो तो म्हैं म्हारी बात पाछी लेवण सारू सबद खोजण लागग्यो। इतै नै बै बोल्या, 'किसान, तू ई अे गल कैंवदा है?....अे जंग तां साडी निजी हैगी।’

रैणू पाखंड, आडंबर, अंधश्रद्धा अर रूढिगत संस्कारां रै खिलाफ हा। स्वर्णसिंह विर्क रै सबदां में- 'उसकी कविता बंधनमुक्त होने की कविता है। पोंगापंथियों, दम्भी धर्मगुरुओं, फरेबी सियासतदानों व ऊंची जगह पर बैठे छोटे लोगों को रैणू उपहास का पात्र बनाता है। वह अपने इतिहास की जीवंत कदरों-कीमतों को अपनी कविता में ससम्मान याद करता है और दकियानूसियत को बुहारकर बाहरफेंक देता है। वह अंतरराष्ट्रीय होकर अपनी कविता को छद्म राष्ट्रीयता से भी मुक्त करता है। वह पूंजी और श्रम के बीच चल रहे द्वंद्व के बदलते स्वरूपों के प्रति लगातार सजग रहता है। इसलिए लोक लुभावन शैली नहीं, बल्कि एक गहन आत्मचिंतन और समकालीन परिस्थितियों के शाश्वत अंतरद्वंद्व की पहचान रैणू काव्य में विद्यमान है।’

रैणू आपरी जोड़ायत शिंद्र कौर रै निधन पर चालू रूढिगत संस्कारां अर फालतू कर्मकांडां नै धत्तो बतावतै थकां 'प्रेरणा’ सिरैनांव री कविता में आपरी जोड़ायत नै अेक विचार रै रूप में अमर कर दीनी। डरावणी सकलां वाळा बच्या-खुच्या संस्कारां नै तज’र अंतिम संस्कार रै रूप में कवि तो कविता ई देय सकै है खुद री जोड़ायत नै।

रैणू री सै सूं बड़ी खासियत बां रै व्यक्तित्व अर कृतित्व रो अेक्य है। रैणू दो भांत रो नीं हो। रैणू अर रैणू रो कवि अेकमेक है। रैणू खुद नै खुद रै सिरजण माथै कुरबान कर दियो। सिरजण सारू आ आहूति जरूरी है पण अैड़ी कुरबानी कबीर सरीखा फक्कड़ ई कर सकै। अर बड़ी कविता सारू फक्कड़पणों जरूरी है। रैणू आधुनिक पंजाबी कविता रो कबीर अर निराला है। रैणू खालिस संघर्ष रो कवि है। समझौतै रै अैन खिलाफ। लोभ-लाभ री दुनिया सूं अळगो फगत सिरजण नै ई सो कीं मानणियों। इणी वास्तै वां री सातूं कविता-पोथ्यां आदमी नै बचावण री जूझ है। रैणू खुद री कवितावां रै समानान्तर खुद अेक बेजोड़ कविता है। परिवार पाळण सारू अेक कानी बो बंदूक संवारण रो अबखो अर करड़ो काम करै तो दूजी कानी आपरी करड़ी काया में अेक कंवळो अर समंदर सरीखो विसाल दिल ईज परोट्यां राखै, जकै में आवणवाळा मेहमानां सारू प्रेम हबोळा खावतो रैवै अर कवितावां बणती-संवरती रैवै। प्रेम अर कवितावां रो कारखानो है रैणू रो दिल।

बंदूक संवारण री संकड़ी-सी दुकान री छात ऊपर इण दुकान जिड्डो ई संकड़ो-सो घर। दो बेटा, बहुवां, पोती-पोता, आई-गई बेटियां अर आं सगळां रै बिचाळै खुद रैणू। संकड़ेलो बहोत है। तंगी ईज है। पण अणतोल्यै प्रेम संकड़ेलै अर तंगी नै तोड़’र घर नै सुरग बणा नाख्यो है। ईं सारू ई ओ छोटो-सो घर साहितकारां अर कला-पे्रमियां रो तीरथ है। मेहमानां नै देख’र घर रो रूं-रूं खिल उठै। सगळां रा दिल नाचण लागज्यै। रैणू री दाढी रो अेक-अेक बाळ खिल उठै। दस-दस जणां नै इण संकड़ै घर में हांस-हांस’र जीमतां म्हैं खुद कई बर देख्या है। अर देख्या है खाणो परोसती बगत मेहमानां माथै प्यार रो गागर उळीचता चैरा।

रैणू रो आखो घर कविता रो कद्रदान है। जठै आखो घर कविता नै मान देवै, बठै ई रैणू जैड़ा फक्कड़, प्रतिबद्ध, ईमानदार अर बड़ा कवि होया करै। रैणू रा सात कविता संग्रै इण भांत है- भुक्ख, अगन-पखेरू, मस्तक अंदर सूरज, ऐंटीने ते बैठी सोनचिड़ी, सुकरात नूं मिलण जाणैं, भूमिका तों बगैर अर मेरे हिस्से दे वरके।

रैणू साथै म्हारो हेत इत्तो गाढो हो कै बीमारी रै दौरान भी वां सूं फोन माथै बंतळ होवती रैवती का पछै मोबाइल संदेश रै मारफत अनै कानाबाती सूं सुरजीत म्हानै खबर करतो रैवतो। छेवट लारली तीन जून री रात नै ओ दुखद समाचार मिल्यो कै रैणू जी चालता रैया अनै दिनूगै 9 बज्यां वां री देही अग्रोहा मेडिकल कॉलेज नै दान सारू व्हीर करीजसी। सत्यनारायण, विनोद अर म्हैं दिनूगै साढे आठ बज्यां ई सिरसा रै भादरा बाजार री फडिय़ांवाळी गळी में रैणू री दुकान साम्हीं पूग्या। साहित्यिक स्हैर सिरसा रा लगैटगै सगळा साहित्यकार अर कलाधर्मी अर राजनीति सूं जुड़्योड़ा अनै रैणू री कविता रा और भी कई कद्रदान बठै भेळा हा। जिको रैणू आपरी मुळकांण सूं म्हारो सुवागत करतो बीं रैणू री देही दुकान में फटै माथै धोळी चादर में लिपट्योड़ी। रुदन करती औरतां अनै धीर बंधावता दोनूं बेटा रवीन्द्रसिंह अर सुरजीत।

थोड़ी ताळ में एम्बुलेंस आई। बड़ै सम्मान साथै देही एम्बुलेंस में राखीजी। रैणू रा दामाद प्रीतपाल सिंघ हाथ में पार्टी रो लाल झंडो झाल्यां एम्बुलेंस रै पायदान माथै ऊभा हो ऊंची आवाज में सुरजीत पातर रो क्रांतिकारी गीत गायो- 'मैं राहां ते नहीं तुरदा/ मैं तुरदा तां राह बणदे/ युगां तीक आऊंदे ने काफले/ मेरे पिच्छे गवाह बणदे।’ अर पछै 'कामरेड हरिभजन सिंघ रैणू नूं लाल-सलाम, लाल-सलाम’ रा नारा। एम्बुलेंस टुरी अर पाछै-पाछै डॉ. कश्मीर सिंह हांडा री कार में म्हैं, सत्यनारायण, विनोद अर डॉ. शेरचंद। 70 किलोमीटर रो सफर। बातां चालती रैयी रैणू री। चालती रैसी। जुगां तीक।

10 जून। सिरसा री झूंथरा धरमसाळा में अैतिहासिक सरधांजळी सभा। म्हैं बठै घोषणा करी कै रैणू री सगळी कवितावां रो राजस्थानी उल्थाो करस्यां। इणी सिलसिलै में युवा कवि जितेन्द्र कुमार सोनी वां रै कविता सग्रै 'मेरे हिस्से दे वरके’ रो राजस्थानी उल्थो कर्यो है। अठै पेस है इण उल्थै सूं रैणू री दोय कवितावां-

रात बनाम सूरज

आखी रात
बिनां थक्यां, बिनां अळसायां,

कमेरी-रात
चांद री टोकरी ढोय-ढोय
अंधारो बारै पटकती रैयी
भाजती-टूटती रैयी
बेओसाण।
आळो-द्याळो
जग पैसारो
निखर्यो चिलक्यो

तद
दिन रै कागद माथै
सूरज
आपरो नांव मांड लियो।

बेबस मजूरण
डूब मरी
च्यानणै रै दरियाव

कुण ई आह नीं भरी।

बणनो सूरज रो

बो
रात रै अंधारै
आगियां री लौ में
म्हनै मिल्यो

मिल्यो अनै कैयो,
'म्हैं समंदरां, हवावां, बलावां
खिलाफ लड़बा चाल्यो,
म्हारै सारू
दुआ मांगी।’

म्हैं कैयो,
'म्हैं कदे दुआ को मांगूं नीं।’

बो गंभीर होयो अनै कैयो,
'फेर बददुआ देयी।’

म्हैं कैयो,
'म्हैं बददुआ भी नीं दिया करूं।’

बो हैरान होयनै बोल्यो,
'थूं, म्हारो कुण है?’

म्हैं कैयो,
'पिछाणै कोनीं,
कठै ई म्हैं थूं,
थूं म्हैं तो कोनीं?’

अर लड़ाई में
दुआ बद्दुआ नीं
हथियार अनै हुनर लड़्या करै,
साथियां रो भरोसा लड़ै
विसवास जीत्या करै।
स्यात
बो पिछाण, जाणग्यो हो

अर म्हैं देख्यो,

बो
आगियां री लौ सूं निकळनै

सवेरै रो सूरज
बणवा जावै हो।