हरियाणा का लघुकथा – संसार / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हरियाणा का लघुकथा–संसार; सम्पादकः डा-रूपदेवगुण, राज कुमार निजात; प्रकाशकः राज पब्लिसिंग हाउस, 9 / 52 पुराना सीलमपुर (पूर्व) दिल्ली-110031, मूल्यः सौ रुपये, पृष्ठ संख्याः 256, संस्करणः 1988
डॉ. रूप देव गुण और राजकुमार निजात द्वारा सम्पादित 'हरियाणा का लघुकथा-संसार' लघुकथा के क्षेत्र में एक श्रमसाध्य महत् प्रयास है। इस ग्रन्थ का वैविह्य उल्लेखनीय है। इसमें लघुकथा के विविध पक्षों पर दस आलेख लघुकथा की विभिन्न समस्याओं एवं स्थापनाओं पर लेखकों की परिचर्चाएँ, नए एवं पुराने लघुकथाकारों से पाँच साक्षात्कार, दो पत्र-साक्षात्कार, हरियााणा की 72 प्रतिनिधि लघुकथाएँ एवं विभिन्न अवसरों पर पुरस्कृत हरियाणा के लेखकों की 28 लघुकथाएँ संकलित हैं।
'हरियाणा का लघुकथा परिवेश' में डॉ. वेद प्रकाश जुनेजा ने लघुकथा की पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालते हुए बोध कथाओं को भी लघुकथा माना है। हरियाणा से प्रकाशित विभिन्न पत्रिकाओं एवं लघुकथा संग्रहों का उल्लेख करते हुए पुराने एवं नए सभी लघुकथाकारों के योगदान की चर्चा की है। तरुण जैन ने अपने आलेख 'हरियाणा की लघुकथा-पुस्तकेंः एक विश्लेषण' में प्रमुख लघुकथा-पुस्तकों पर बेबाक टिप्पणी की है; परन्तु शमीम शर्मा के लघुकथा संग्रह पर टिप्पणी-'हस्ताक्षर लघुकथा-संग्रह जैसा शोधपरक संकलन शायद फिर देखने को न मिले'-बेतुकी एवं निराशाजनक लगती है। इन्होंने लघुकथा से हटकर की गई शमीम शर्मा की टिप्पणी को अनावश्यक रूप से उद्धृत किया है। तरुण जैन ने विविध संकलनों की लघुकथाओं पर दृष्टिपात करते हुए हरियाणा से बाहर के लेखकों की रचनाओं का भी सूक्ष्म विश्लेषण किया है। लघुकथा को कहानी का संक्षेप मानने वालों पर रूप देवगुण की टिप्पणी भ्रम को तोड़ती है; परन्तु इसी पुस्तक में इसके विपरीत 'फ़तवे' शामिल हो गए हैं। 'तरुण जैन ने उन लोगों की धज्जियाँ उड़ाई हैं'-अपने बारे में ख़ुद ऐसी टिप्पणी करना अच्छा नहीं लगता। इस लेख का अंतिम अवतरण विषय से हटकर है। लेखक को स्वयं पार्टी बनने से बचना चाहिए।
डॉ. शंकर पुणतांबेकर ने 'लघुकथा के मानदंड' में लघुकथा के आकार पर विचार करते हुए 'निमग्नता' को मानदंड माना है। वस्तुतः निमग्नता बाहरी कसावट की अपेक्षा आंतरिक गठन को अधिक सूचित करती है और यह निमग्नता किसी भी विधा की विशेषता हो सकती है। लघुकथा को वैचारिक कथा गीत कहना तर्क संगत जान पड़ता है। 'मधु यथार्थ कुछ ही लोगों की बपौती है, अन्यायी अत्याचारियों की बपौती'-पुणतांबेकर जी का यथार्थ के विषय में यह कथन गले नहीं उतरता। केवल कटु यथार्थ साहित्य का आधार कैसे बनेगा? तीव्र प्रभाव विचारात्मक अन्विति एवं लय तथा एक ही विचार के द्वारा लघुकथा के स्वरूप को सूक्षमता से उद्भासित किया है।
'हिन्दी लघुकथा-जगत् में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का योगदान' लेख में डॉ. सतीशराज पुष्करणा ने लघुकथा के शोधपरक इतिहास को प्रस्तुत किया है। इस लम्बे लेख में हिन्दी-जगत् की उन पत्रिकाओं की चर्चा की है, जो लघुकथाओं को प्रोत्साहित करती रही हैं। लेख ढेर सारी जानकारी सँजोए है। 'अभावों और खतरों से घिरी विधाः लघुकथा' में डॉ. शमीम शर्मा ने लघुकथा पर छाए अभावों और खतरों का उल्लेख किया है। मठाधीशीय प्रवृत्ति वाले कुछ पुराने लघुकथाकारों को भी इस लेख में कोसा गया है। शमीम शर्मा ने लघुकथा साहित्य में अखरने वाले पाँच अभाव बताएँ हैं-'सर्वस्वीकृत शिल्प' भी इनमें से एक है। भला यह भी कोई अभाव है? उपेक्षा और उदासीनता की श्रेणी में एक सकारात्मक दृष्टिकोण कैसे रखा जा सकता है। लेखिका ने अभावों से उत्पन्न व्यावहारिक खतरों की ओर इंगित किया है। इसी में पन्द्रहवाँ अनोखा ख़तरा है-'स्वस्थ पाठकीय प्रतिक्रियाएँ'। स्वस्थ पाठकीय प्रतिक्रियाओं से लघुकथा को ख़तरा क्यों होने लगा? फिर भी शमीम शर्मा ने जिन कमियों का उल्लेख किया है, उनका निराकरण अवश्य होना चाहिए, उनसे आँख मूँद लेने पर लघुकथा का अहित ही होगा।
सतीश राठी ने अपने लेख में लघुकथा के विकास एवं समकालीन लघुकथा लेखन पर अपने विचार केन्द्रित करते हुए प्रसिद्ध लघुकथा-पत्रिकाओं तथा लेखकों के योगदान का उल्लेख कियाा है। विक्रम सोनी ने 'लघुकथाः परिभाषा एवं स्वरूप का निर्धारण' में लघुकथा पर शास्त्रीय विवेचन प्रस्तुत किया है। यह शास्त्रीय विवेचन लघुकथा पर कहाँ तक खरा उतरेगा, इसे समय ही बताएगा। फिर भी लघुकथा के स्वरूप को समझने में यह विवेचन किसी हद तक सहायक होगा। ऊहात्मक परिभाषाओं को निरस्त करते हुए कुछ लेखकों की परिभाषाओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। तात्त्विक विवेचन में लघुकथा की विशेषता-'जीवन की विराटता की व्याख्या करती हो'-भ्रामक है। लघुकथा में व्याख्या कहाँ खपेगी? 'सूत्र रूप में व्यंजना' खप सकती है। लघुकथा के 'विधान-विधेय' पर चर्चा करते हुए सोनी जी कहते हैं-'देखा वही जा सकता है, जो दृष्टि की परिधि में विस्थापित हो'। दृष्टि की परिधि में 'स्थित' तो देखा जा सकता है, विस्थापित कैसे देखा जाएगा? घटनाओं के पूर्वापर कारण-परिणाम पर ध्यान रखकर कालदोष से बचा जा सकता है। यह सुझाव विवादास्पद होते हुए भी विचारणीय है। कथ्य संरचना के अन्तर्गत-'शब्द और वाक्य तथा संवाद का होना आवश्यक है।' शब्द और वाक्य के बिना किसी रचना का अस्तित्व वैसे ही असंभव है। लेखक अपनी शैली स्वयं बनाता है; अतः शैली वर्गीकरण व्यावहारिक नहीं लगता।
डॉ. स्वर्ण किरण अपने लेख के कारण धन्यवाद के पात्र हैं। इनके मतानुसार-'प्रो-कृष्ण कमलेश इस साहित्य विधा के जनक कहे जाएँगे।' डॉ. शकुन्तला किरण के शोध प्रबन्ध में लघुकथा सम्बन्धी 'कतिपय नई सूचनाएँ' डॉ. स्वर्ण किरण बता देते, तो अच्छा रहता। 'लघुकथा और शास्त्रीय सवाल' लेख में अशोक भाटिया ने-'सिद्धान्त रचना से जन्म लेते हैं'-के व्यावहारिक दृष्टिकोण पर बल दिया है। भाटिया जी कालदोष की अवधारणा से सहमत नहीं है। अन्विति और एकातानता होने पर 'कालदोष' भी गुण बन जाता है। श्रीगोपाल शास्त्री ने अपने लेख में सिरसा के लघुकथाकारों का परिचय प्रस्तुत किया है।
'परिचर्चाएँ एवं वार्ता त्रिकोण में' पहली परिचर्चा डॉ. रूपदेवगुण ने आयोजित की है, जिसमें 'लघुकथा पुरातन विधा है' के पक्ष-विपक्ष में आठ लघुकथाकारों के विचार संकलित हैं। निहाल हाश्मी ने 'रानी केतकी की कहानी' को '18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध की रचना' बताकर हिन्दी साहित्य के इतिहास को ही झुठला दिया। इसी तरह रामयतन जी ने लघुकथा को 'प्राचीन उपविधा' (जैसे कि प्राचीन काल में उपविधाओं का उल्लेख मिलता हो) बताते हुए 'लघुकथा का आरम्भ 18वीं शताब्दी के दूसरे दशक के आसपास हुआ' अर्थात 1720 ई-से पहले। तथ्यों की ऐसी त्रुटियाँ पुस्तक को कमज़ोर करती है। डॉ. लाहा ने लघुकथा को एक ओर स्वतंत्र विधा कहा है, तो दूसरी ओर इसे कहानी का एक समानान्तर रूप बताया है। समानान्तर रूप कहने से उलझने ही पैदा होंगी। दूसरी परिचर्चा में राजकुमार निजात के आयोजन में 'लघुकथा की शब्दसीमा' पर विचार किया गया है। मोनालिजा ने एक हज़ार से अधिक शब्द संख्या की लघुकथा को 'लम्बी लघुकथा' का नाम दिया है। डॉ.अशोक लव ने लघुकथा के स्वतंत्र रूप को सात वार्त्ताकारों के विचारों से रेखांकित किया है। 'नीर' ने लघुकथा भी वर्तमान स्थिति पर लघुकथाकारों के विचार प्रस्तुत किए हैं।
'वार्ता त्रिकोण' में कपिल पाण्डेय की स्थापना है-'वृहत् कथा का सार लघुकथा कहलाता है। यहाँ तक देखा गया है कि पूरी पुस्तक का सार केवल चंद पृष्ठों में लघुकथाकार समाहित कर देता है।' अब सार भी लघुकथा कहलाएँगे। निजात जी की ऐसी कौन-सी मजबूरी थी, जिसके कारण अनर्गल विचार छापने पड़े। लघुत्तम (सही लघुतम है) महत्तम समापवर्तक, मधुमक्खी, ज्योतिष आदि के वाहियात उदाहरणों से कपिल जी ने लघुकथा का मस्तक भंजन किया है।
साक्षात्कारों में पृथ्वीराज अरोड़ा, पूरन मृद्गल और-और अशोक भाटिया ने दो टूक बातें कही है। 'एक साक्षात्कार' में रामनिवास मानव लघुकथा को-'संभवतः यह एक ही बैठक में लिखी जा सकने वाली रचना' मानते हैं। एक ही बैठक में कहानी भी लिखी जा सकती है। प्रतिष्ठित लघुकथाकार मधुकान्त स्वीकार करते हैं-'लघुकथा एक क्षणिक बात है, तो कहानी उसका विस्तार।' इससे लघुकथा का स्वरूप उलझता है।
सम्पादित 'प्रतिनिधि लघुकथाएँ' खण्ड में मुर्ग़ा (अनिल शूर) औरत का भाग्य (किशु) , हल (तरुण जैन) , समझ (नरेन्द्र सेठी) , परिभाषा (नीलम) , अपनी-अपनी क़ैद (अरोड़ा) , कुत्ता (विकल) , पतन (पूरन मृद्गल) , आम-आदमी (मंजुला शर्मा) , हिस्से का दूध (मधुदीप) , मानसिकता (मनफूल वर्मा) , तबादला (मुकेश शर्मा) , प्यास (गोयल) , समझौता (लज्जाराम) , फ़र्क (विष्णु प्रभाकर) , मगर फिर वही (हरनाम शर्मा) , लघुकथाएँ दमघोंटू स्वार्थपरता, सामाजिक विडम्बना, मार्मिक अनुभूति, भ्रष्टाचार, अविश्वास की स्थिति आदि का सूक्ष्म पर्यवेक्षण प्रस्तुत करती हैं। कुछ लघुकथाएँ ऐसी है, सम्पादक अगर चाहते, तो उन्हें सुधार सकते थे- 'भण्डारा' में पड़ोसी की प्रतिक्रिया बेमानी लगती है। एक और लक्ष्मण में प्रतीक योजना अनावश्यक है। सीतादेवी और लक्ष्मण को पतित्त रूप में चित्रित करना निन्दनीय है। 'निजात' की लघुकथा 'पहुँच' उलझी हुई है। लघुकथा का कोई सिर-पैर नहीं नज़र आता। सुधिया और रधिया का घालमेल समझ से परे है। 'नौ दस वर्षीया अनपढ़ माँ' वाक्यांश हास्यास्पद हो गया है। 'दूध को हँडिया में उडेलना' क्या सुधिया हँडिया से दूध पिएगी? बंटी 'अंग्रेजी अखबार' से ख़बर पढ़ रहा है और ख़बर हिन्दी में। क्या हिन्दी अखबारों में ऐसी खबरें नहीं छपती? सूरज को मानवीय कल्पना कहना कहाँ की समझदारी है? 'मैं मजबूर हूँ' में राजेन्द्र धवन के ऊपर अंग्रेजों का कानून लागू है; इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ़ नहीं बोल सकते। पाठ्य सामग्री से बाहर जाते ही अंग्रेजों के कोप भाजन बन जाएँगे।
'ईमानदारी' लघुकथा से व्यंजित होता है, जैसे क्लर्क बनना कोई बहुत बड़ा पाप हो। 'गोली' में पच्चीस बरस की लड़की का प्रश्न-'इससे एक गोली में ही आदमी मर जाता है भैया'-बचकाना लगता है। 'भाग्य-विधाता' से '——भाग्य विधाता होता है।' के बाद के वाक्य निकल जाते, तो रचना कस जाती। इसी तरह 'चमेली' में अंतिम अवतरण अनावश्यक लगता है। 'गरीब का पेट' अंतिम तीन पंक्तियों के कारण अच्छी रचना बनते-बनते रह गई। 'चमेली' , 'मृगतृष्णा' और 'अविश्वास' शीर्षक कथ्य के अनुकूल नहीं है। कुल मिलाकर अधिकतर रचनाएँ मारधाड़ से दूर है।
पुरस्कृत लघुकथाओं में-रंग, मृत्यु की आहट, वक़्त कटी, गलती, गर्मी, अस्तित्वहीन, थूक सने चेहरे, लोग, एकलव्य, तमाचा, कोशिश और बोझ उत्कृष्ट रचनाएँ हैं। 'छींटे' में लेखक संक्षिप्तता का निर्वाह नहीं कर पाया अनावश्यक वक्तव्य लघुकथा को कमजोर बनाते हैं।
कुल मिलाकर यह पुस्तक लघुकथा के लेखकों को आत्मचिंतन के लिए प्रोत्साहित करेगी। लेखों में प्रस्तुत विभिन्न विचारों से एक सर्वमान्य दृष्टिकोण निर्मित किया जा सकेगा। छोटे से प्रान्त हरियाणा का यह कार्य लघुकथा के क्षेत्र में (कतिपय खामियाँ रह जाने पर भी) अपना विशिष्ट स्थान बनाने में सक्षम है। अन्य प्रांतों के साहित्यकार भी कुछ ठोस कार्य करने की प्रेरणा लेंगे, ऐसा विश्वास है।