हरियाणा का हिन्दी लघुकथा लेखन / अशोक भाटिया

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‘लघुकथा’ एक ऐसी कथा-रचना है, जिसका फलक और आकार ‘कहानी’ से छोटा है। भारत सहित विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में लघुकथाएँ लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं। अरबी में खलील जिब्रान और फारसी में शेख सादी की लघुकथाएँ विश्व-प्रसिद्ध हैं। इसी प्रकार जर्मन में बर्तोल्त ब्रेख्त, रूसी में इवान तुर्गनेव, अंग्रेजी में कार्ल सैंडबर्ग, चीनी में लू शुन और उर्दू में इब्ने इंशा व सआदत हसन मंटो की लघुकथाएँ विशेष रूप से चर्चित हैं। भारतीय भाषाओं में बांग्ला में रवीन्द्रनाथ टैगोर व बनफूल, मलयालम में एस के पोट्टेक्काट, मराठी में वि स खांडेकर, पंजाबी में श्याम सुंदर अग्रवाल व श्याम सुंदर दीप्ति, उर्दू में जोगिन्दर पाल और गुजराती में मोहनलाल पटेल की लघुकथाएँ महत्वपूर्ण हैं। किंतु हिंदी लघुकथा-साहित्य भारतीय भाषाओं में सबसे अधिक ध्यान खींचता है। डा लक्ष्मीनारायण लाल ने ‘हिंदी साहित्य कोश’(भाग 1) में लिखा है: “आधुनिक कहानी के संदर्भ में लघुकथा का अपना स्वतंत्र महत्व एवं अस्तित्व है। प्रेमचंद, प्रसाद से लेकर जैनेन्द्र, अज्ञेय तक इस धारा की शक्तिशाली गति है।”

हरियाणा के ख्याति-प्राप्त लेखक विष्णु प्रभाकर अपने लघुकथा-संग्रह ‘कौन जीता कौन हारा’(1989) की भूमिका में लिखते हैं—“जब मैंने लिखना शुरू किया था तो सर्वश्री जयशंकर प्रसाद, सुदर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी, उपेन्द्रनाथ अश्क, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीश चन्द्र मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रावी और रामनारायण उपाध्याय आदि सुप्रसिद्ध सर्जक इस क्षेत्र में भी सक्रिय थे।” आदरणीय विष्णु जी के इस कथन से हिंदी लघुकथा की मजबूत पृष्ठभूमि का पता चलता है।

हिंदी लघुकथा : पृष्ठभूमि

जब कोई साहित्य-रूप अपने समय की सच्चाइयों का जीवंत दस्तावेज़ होने के साथ ही अपनी स्वतंत्र शैली भी विकसित कर लेता है, तो उसकी स्वतंत्र पहचान स्वयं बन जाती है। हिंदी लघुकथा ने भी अपनी एक संक्षिप्त ही सही, सुदृढ़ यात्रा तय की है तथा वस्तु और शिल्प—दोनों दृष्टियों से अपनी साहित्यिक-उपयोगिता का अनुभव कराया है।

‘छत्तीसगढ़ मित्र’(वर्ष 2, अंक 4, सन 1901) में प्रकाशित पं माधवराव सप्रे(1871-1926) की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली लघुकथा माना जाता है। इसके बाद प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, सुदर्शन, उपेन्द्रनाथ अश्क आदि की लघुकथाएँ मिलती हैं। 1947 के बाद और आठवें दशक से पहले हिंदी में ‘समकालीन तेवर वाली लघुकथा’ की एक धारा बननी प्रारम्भ हो गई थी। इस अवधि में आनंद मोहन अवस्थी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, रामनारायण उपाध्याय, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, रामप्रसाद विद्यार्थी ‘रावी’ और श्यामनंदन शास्त्री, भृंग तुपकरी आदि द्वारा रचित प्राय: बोध-वृत्ति से युक्त ‘लघुकथात्मक’ संग्रह प्रकाशित हुए। इसी अवधि में हरियाणा के लब्ध-प्रतिष्ठ रचनाकार विष्णु प्रभाकर का लघुकथा-संग्रह ‘जीवन पराग’(1963) प्रकाशित हुआ।

आठवें दशक में हिंदी लघुकथा एक सहज आंदोलन के रूप में सामने आई, जिसमें मुख्य रूप से तत्कालीन युवा-पीढ़ी के आक्रोश को सशक्त अभिव्यक्ति मिली। इसमें हरियाणा का महत्वपूर्ण योगदान रहा। कमलेश्वर के संपादन में जुलाई 1973 का ‘सारिका’ का लघुकथा-विशेषांक लघुकथा के इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध हुआ; लेकिन इसके आसपास हरियाणा से लघुकथा के दो अति-महत्वपूर्ण विशेषांक आ चुके थे। पहला, इससे पहले मई 1973 में महावीर प्रसाद जैन के संपादन में ‘दीपशिखा’ का लघुकथा-विशेषांक कैथल से; तथा दूसरा, इसके तुरंत बाद अगस्त 1973 में रमेश बतरा के संपादन में कहानी लेखन महाविद्यालय, अंबाला छावनी की मासिक पत्रिका ‘तारिका’ का लघुकथा-विशेषांक। इस प्रकार समकालीन तेवर के लघुकथा-लेखन की स्थापना में हरियाणा का योगदान ऐतिहासिक महत्व का रहा है।

तब से अब तक लघुकथा के लेखन, संपादन और समीक्षण—तीनों ही क्षेत्रों में हरियाणा निरंतर सक्रिय है। इन दिनों प्रमुखत: ‘हरिगंधा’(पंचकूला), ‘हरियाणा संवाद’(चंडीगढ़) और ‘शुभ तारिका’(अम्बाला छावनी) पत्रिकाएँ लघुकथा के विकास में अपनी भूमिका सकारात्मक रूप में निभा रही हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘हरिगंधा’ का प्रवेशांक 1987 में आया था, जिसमें अशोक भाटिया(करनाल) की लघुकथाएँ और नंदलाल मेहता(गुड़गाँव) का ‘लघुकथा का शिल्प’ शीर्षक लेख शामिल था। तब से अब तक, अपने लगभग हर अंक में यह पत्रिका लघुकथा को समुचित सम्मान दे रही है। ‘हरिगंधा’ का जुलाई 2007 अंक लघुकथा-विशेषांक के रूप में प्रकाशित हुआ। ‘तारिका’(पिछले काफी समय से ‘शुभ तारिका’) नियमित रूप से लघुकथाएँ प्रकाशित करती आ रही है।

लघुकथाओं को प्रमुखता के साथ प्रकाशित करने वाले, किंतु अब स्थगित हो चुके पत्र-पत्रिकाओं में ‘पींग’(रोहतक, संपादक: डी आर चौधरी), विश्वमानव(करनाल, संपादक: ---), ‘आगमन’(रेवाड़ी, संपादक: तरुण जैन) और ‘राही’(गुड़गाँव, संपादक: मुकेश शर्मा) प्रमुख हैं। इनमें ‘आगमन’ का 1985 में प्रकाशित लघुकथा-विशेषांक और ‘राही’ का 1986 में प्रकाशित लघुकथा-समीक्षा अंक ध्यान आकर्षित करते हैं। कुरुक्षेत्र से प्रकाशित ‘कुरुशंख’ पत्रिका का 1980 में, शमीम शर्मा के अतिथि-संपादन में लघुकथा-विशेषांक आया और अपने अखिल भारतीय स्वरूप के कारण देशभर में चर्चित रहा। अंबाला छावनी से अगस्त 2002 व सितंबर 2005 में उर्मि कृष्ण के संपादन में ‘तारिका’ के अंक भी लघुकथा-विशेषांक के रूप में सामने आए।

हरियाणा-आधारित कथाकारों के लघुकथा-संग्रह

सन 2008 तक हरियाणा के लघुकथाकारों के लगभग 70 लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। लघुकथा के संग्रह प्रकाशन का यह सिलसिला 1963 में प्रतिनिधि साहित्यकार विष्णु प्रभाकर के लघुकथा-संग्रह ‘जीवन पराग’ के प्रकाशन से प्रारंभ होता है। इसके पश्चात सन 1966 में सुगनचंद मुक्तेश की 66 लघुकथाओं का संग्रह ‘स्वाति बूँद’ आया। यद्यपि इसी संग्रह का संशोधित संस्करण सन 1996 में आया, तथापि चौंकाने वाला एक सच यह भी है कि हरियाणा के कथाकारों द्वारा लगातार लिखी जाने के बावजूद भी सन 1967 से 1981 तक यानी 15 वर्षों की लम्बी कालावधि में हरियाणा के कथाकारों का कोई भी एकल या संपादित लघुकथा-संग्रह देखने में नहीं आता है।

सन 1966 के बाद सीधे सन 1982 में पूरन मुद्गल का लघुकथा-संग्रह ‘निरंतर इतिहास’ प्रकाशित हुआ। 1982 में ही रामनिवास मानव व दर्शन दीप के संयुक्त प्रयास के रूप में ‘ताकि सनद रहे’ प्रकाश में आया जिसमें दोनों कथाकारों की बारह-बारह लघुकथाएँ शामिल थीं; और यहीं से हरियाणा-आधारित कथाकारों के एकल व संपादित लघुकथा-संग्रहों के लगातार प्रकाशित होते रहने का जैसे श्रीगणेश हो जाता है। इसके बाद सन 1983 में विष्णु प्रभाकर का दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘आपकी कृपा है’ तथा सुरेन्द्र वर्मा का लघुकथा-संग्रह ‘दो टाँगोंवाला जानवर’ प्रकाश में आये। अगले ही वर्ष सन 1984 में कमलेश भारतीय का ‘मस्तराम जिंदाबाद’ और मधुकांत का ‘तरकश’ संग्रह प्रकाश में आये। सन 1985 में अनिल शूर ‘आजाद’ का लघुकथा-संग्रह ‘सरहद के इस ओर’ प्रकाशित हुआ। सन 1988 में सुरेन्द्र वर्मा का दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘आदमी से आदमी तक’ तथा रामनिवास मानव का ‘घर लौटते कदम’ छपे। सन 1989 में विष्णु प्रभाकर के तीसरे लघुकथा-संग्रह ‘कौन जीता कौन हारा’ के अतिरिक्त, प्रेमसिंह बरनालवी का ‘बहुत बड़ा सवाल’ और सुरेश जांगिड़ ‘उदय’ का ‘यहीं कहीं’ प्रकाशित हुए।

सन 1990 में अशोक भाटिया का ‘जंगल में आदमी’ और रूप देवगुण का ‘दूसरा सच’ लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए, जो खासे चचित रहे । सन 1991 में मधुदीप का ‘हिस्से का दूध’ व बीजेंद्र कुमार जैमिनी का ‘प्रात:काल’; सन 1992 में कमलेश भारतीय का दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘इस बार’ व रूप देवगुण का दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘कटा हुआ सूरज’ प्रकाशित हुए। सन 1993 में हरियाणा के चार कथाकारों के लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आए—रामकुमार आत्रेय का ‘इक्कीस जूते’, प्रेमसिंह बरनालवी का ‘देवता बीमार है’, अनिल शूर ‘आज़ाद’ का ‘क्रान्ति मर गया’ तथा दर्शनलाल कपूर का ‘पर्दे के पीछे’। इनमें प्रेमसिंह बरनालवी और अनिल शूर ‘आज़ाद’ के ये दूसरे लघुकथा-संग्रह थे। सन 1994 में विकेश निझावन का ‘दुपट्टा’ और प्रभुलाल मंढ़इया ‘विकल’ का ‘तरकश’ संग्रह प्रकाशित हुए।

सन 1995 में हरियाणा के किसी भी कथाकार के किसी लघुकथा-संग्रह के प्रकाशित होने का प्रमाण नहीं मिला; अलबत्ता अगले ही वर्ष सन 1996 में रामनिवास मानव का दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘इतिहास गवाह है’ प्रकाश में आया। सन 1997 में हरियाणा के एक और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर पृथ्वीराज अरोड़ा का ‘तीन न तेरह’ और सुश्री इंदिरा खुराना का ‘औरत होने का दर्द’ लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए; जबकि 1998 पुन: जैसे तैयारियों में ही चला गया। परन्तु इसकी खानापूर्ति सन 1999 में आए पूरे 5 लघुकथा-संग्रहों ने कर दी। ये थे—रामकुमार आत्रेय का दूसरा संग्रह ‘आँखों वाले अंधे’, सत्यवीर मानव का ‘केक्टस की छाँव तले’, रोहित यादव का ‘सब चुप हैं’, कृष्णलता यादव का ‘अमूल्य धरोहर’ तथा मधुदीप का ‘मेरी बात तेरी बात’। सन 2000 में बंसीराम शर्मा का ‘खेल ही खेल में’ और रमेश सिद्धार्थ का ‘कालचक्र’ लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए।


इस प्रकार समकालीन हिंदी लघुकथा के सृजन की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माने जाने वाले सन 1971 से सन 2000 यानी बीसवीं सदी के अवसान-वर्ष के अंत तक हिंदी लघुकथा साहित्य को अकेले हरियाणा ने लगभग 34 लघुकथा-संग्रहों का योगदान किया। प्रसन्नता और संतोष की बात यह है कि हरियाणा के कई कथाकारों ने संख्यापरक-लेखन की बजाय गुणात्मक-लेखन पर लगातार अपना ध्यान केन्द्रित रखा है और वे इसमें सफल भी रहे हैं।

इक्कीसवीं सदी में भी हरियाणा-आधारित कथाकारों के लघुकथा-संग्रह सन 2001 से ही लगातार प्रकाश में आ रहे हैं और सन 2008 तक ही लगभग 14 लघुकथा-संग्रहों की सूचि हमें प्राप्त होती है। इनके नाम हैं—‘सलीब पर टँगे चेहरे’(सुरेन्द्र कुमार अंशुल, 2001), ‘इधर उधर से’(बीजेन्द्र कुमार जैमिनी, 2001), ‘अपनी अपनी सोच’(संतोष गर्ग, 2001), ‘लुटेरे छोटे छोटे’(सत्यप्रकाश भारद्वाज, 2002), ‘ब्लैक बोर्ड’(मधुकांत, 2002), ‘रोटी का निशान’(सुखचैन सिंह भंडारी, 2002), ‘एक और एकलव्य’(मदनलाल वर्मा, 2002), ‘लघुदंश’(प्रद्युम्न भल्ला, 2003), ‘यह मत पूछो’(रूप देवगुण, 2003), ‘सफेद होता खून’(प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’, 2004), ‘उसी पगडंडी पर पाँव’(शील कौशिक, 2004) तथा ‘अपना अपना दुख’(शिवनाथ राय, 2004)। संख्यात्मक दृष्टि से सन 2005, 2006 और 2007 के वर्ष अलग से उभरकर आते हैं। 2005 में ‘आस्था के फूल’(कमल कपूर), ‘फूल मत तोड़ो’(रघुवीर अनाम), ‘प्रसाद’(सुरेन्द्र गुप्त), ‘आज का सच’(जितेन्द्र सूद), ‘हवा के खिलाफ’(सुरेन्द्र कुमार अंशुल), ‘रोशनी की किरचें’(सुधा जैन) और ‘बेदर्द माँ’(विनोद खनगवाल) यानी कुल 7 संग्रह आए; जबकि 2006 में ‘छोटी-सी बात’(रामकुमार आत्रेय), ‘बाज़ार’(अरुण कुमार), ‘कानून के फूल’(पवन चौधरी ‘मनमौजी’), ‘गुलाब के काँटे’(अशोक माधव), ‘सुख की साँस’(शिवनाथ राय) और ‘मानस गंध’(रमेश सिद्धार्थ) सहित कुल 6 संग्रह प्रकाशित हुए। सन 2007 में ‘आओ इंसान बनाएँ’(पृथ्वीराज अरोड़ा), ‘अपने देश में’(हरनाम शर्मा), ‘शुद्धिपत्र’(सुशील शील), ‘भविष्य से साक्षात्कार’(इन्दु गुप्ता), ‘नाविक के तीर’(श्याम सखा श्याम), ‘गांधारी की पीड़ा’(इंदिरा खुराना), ‘चेतना के रंग’(कृष्णलता यादव), ‘मेरी प्रिय लघुकथाएँ’(सुरेन्द्र कृष्ण), ‘पागल कौन’(सुशील डाबर ‘साथी’)—कुल 9 लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुए। सन 2008 में सितम्बर के अंत तक, ‘नींद टूटने के बाद’(मधुकांत), ‘किरचें’(प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’), ‘चुप मत रहो’(भारत नरेश) तथा ‘दृष्टि’(उर्मि कृष्ण) प्रकाश में आ चुके थे।

हरियाणा के सत्यपाल सक्सेना, यश खन्ना ‘नीर’, अमृतलाल मदान, महावीर प्रसाद जैन, तरुण जैन, राजकुमार निजात, भगवान प्रियभाषी, तारा पांचाल, कमला चमोला आदि बहुत-से अन्य कथाकार भी लघुकथाएँ लिखते रहे हैं, जिनके एकल लघुकथा-संग्रह अभी तक प्रतीक्षित हैं।

यद्यपि, संख्यात्मक दृष्टि से बहुत-से संग्रहों का आ जाना, किसी साहित्यिक विधा की उपलब्धि नहीं होती; तथापि उपर्युक्त सूचि हरियाणा में लघुकथा-साहित्य के प्रति नवयुवा वर्ग का आकर्षण तो जाहिर करती ही है।


हरियाणा से संपादित प्रमुख लघुकथा-संकलन

लघुकथा-क्षेत्र में लेखन के साथ-साथ हरियाणा राज्य से अखिल भारतीय स्तर पर कुछ ऐसे संकलनों का संपादन भी किया गया, जिन्होंने हिंदी लघुकथा के स्वरूप को निर्धारित करने में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाई।

इस क्रम में, सर्वप्रथम, सुशील राजेश द्वारा सन 1981 में संपादित ‘अक्षरों का विद्रोह’ का नाम लिया जा सकता है। इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता है—रचनाओं का सजगता से चयन और हरियाणा-राज्य के कथाकारों को प्राथमिकता देना। पृथ्वीराज अरोड़ा, महावीर प्रसाद जैन, अशोक जैन, भगवान प्रियभाषी, मधुकांत, अशोक भारती, हरनाम शर्मा, अशोक भाटिया, मधुदीप आदि हरियाणा के अनेक कथाकारों को इस संकलन में प्रमुखता से छापा गया है।

लघुकथा संबंधी अपने शोध-हेतु सामग्री जुटाने के क्रम में शमीम शर्मा द्वारा सन 1982 में लघुकथा-संकलन हस्ताक्षर’ का संपादन किया गया। अपनी काया में यह संकलन—रचना, आलोचना और कोश—तीनों आयामों को समेटे हुए है। इसमें जहाँ 194 कथाकारों की लघुकथाएँ संकलित हैं, वहीं डा पुष्पा बंसल व शमीम शर्मा के उपयोगी लेख भी हैं। इसके परिशिष्टों में 620 लघुकथा-लेखकों की सूचि उनकी एक-एक प्रतिनिधि-लघुकथा के उल्लेख के साथ दर्ज है। इसमें 1982 तक प्रकाशित लघुकथा-संग्रहों की सूचि के साथ-साथ 330 ऐसी पत्रिकाओं की सूचि भी है, जिनमें लघुकथाएँ छपती रही हों।

सन 1988 में रूप देवगुण व राजकुमार निजात के संपादन में ‘हरियाणा का लघुकथा-संसार’ नामक लघुकथा का बहु-आयामी ग्रंथ प्रकाशित हुआ। दस आलेखों, परिचर्चाओं, साक्षात्कारों, प्रतिनिधि व पुरस्कृत लघुकथाओं से सुसज्जित यह संकलन हरियाणा में लघुकथा-लेखन को शिद्दत से रेखांकित करता अपने समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।

वर्ष 1993 में मुकेश शर्मा द्वारा संपादित ‘लघुकथा : रचना और समीक्षा-दृष्टि’ प्रकाशित हुआ। इस संकलन की सबसे बड़ी विशेषता है—लघुकथा पर विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, रामनारायण उपाध्याय, डा कमल किशोर गोयनका व डा हरिश्चंद्र वर्मा जैसे उच्च-स्तरीय लेखकों-आलोचकों से संपादक द्वारा लिया गया साक्षात्कार। रचना-स्तर पर इस संकलन में हरियाणा का प्रतिनिधित्व महावीर प्रसाद जैन, पृथ्वीराज अरोड़ा, कमलेश भारतीय, अशोक भाटिया व मुकेश शर्मा ने किया है।

वर्ष 2005 में अशोक भाटिया द्वारा संपादित ‘निर्वाचित लघुकथाएँ’ संकलन प्रकाशित हुआ। इसमें सन 1876 से 2003 तक के 110 हिंदी कथाकारों की 150 प्रतिनिधि लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। रचना-चयन का आधार, संपादक के शब्दों में—‘उस(रचना) का विज़न, संघर्ष और विडंबनाओं के उभार की उसकी क्षमता’ रहा है। पूरे संकलन की रचनाओं को—‘नींव के नायक’, ‘झूठी औरत’, ‘कोई अकेला नहीं’ और ‘खुलता बंद घर’—कुल चार उपशीर्षकों में विभक्त रखा गया है।

अन्य प्रमुख लघुकथा-संकलनों में—‘कितनी आवाज़ें’(सं विकेश निझावन और हीरालाल नागर, 1982), ‘पड़ाव और पड़ताल’(सं मधुदीप, 1988), ‘पेंसठ हिंदी लघुकथाएँ’(सं अशोक भाटिया, 2001) को गिनाया जा सकता है।