हरिशंकर परसाई के कुछ व्यंग्य / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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हिन्दी साहित्य में हरिशंकर परसाई एक ऐसा नाम है, जिसने लगभग आधी सदी तक विभिन्न विधाओं में अपनी लेखनी का लोहा मनवाया। हास्य-व्यंग्य को एक साथ लेकर चलने वाले लेखकों की भाँडगिरी से हटकर जनसामान्य की पीड़ा को अपने व्यंग्य साहित्य में उतारा। किसी भूखे-प्यासे, असहाय निर्धन का उपहास करने वाली रचना को व्यंग्य नहीं कहा जा सकता। व्यंग्य हमेशा पीड़ित, असहाय की शक्ति बनकर उभरा है। सामाजिक एवं सांस्कृतिक चरित्र का इतना अधिक पतन हुआ है कि एक सामान्य आदमी, सामान्य तरीके से अपना जीवन नहीं गुजार सकता। म्ध्यम वर्ग निरन्तर भ्रष्टाचार की अनेक विधियों का सन्धान कर रहा है। जिस देश के मध्यम वर्ग के चरित्र बिखर जाएगा, वह देश निश्चित रूप से कमज़ोर होगा। भगवान् तथा शास्त्रों पर ऐसे लोगों का कब्ज़ा है, जो निरन्तर भ्रष्टाचार की वैतरणी पार करने में लगे हैं। परसाई जी ने अपने व्यंग्य में ऐसे घातक तत्त्वों की सीधी पहचान की है। कहाँ और कब कितनी बेईमानी की जा सकती है, यही हमारी संस्कृति बन गई है।

परसाई जी ने अपने विभिन्न निबन्धों में सीधे-सादे ढंग से, जो बात कही है, वह प्रथम बार हमें हल्के से गुदगुदाती है; परन्तु तनिक रुककर सोचने से एक खरोंच ही नहीं, वरन् एक गहरी कसक मन पर छोड़ जाती है। आज़ादी क बाद की पीड़ा-भ्रष्टाचार, दंगा, लेखकीय स्वतन्त्रता का हनन, प्रदर्शनप्रियता के नीचे कराहता मामूली आदमी, जनसाधारण की विपन्नता, खोखला एवं बौना सिद्धान्तवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता आदि विभिन्न गिरावटों को अपना निशाना बनाया है।

'ठिठुरता हुआ गणतन्त्र' व्यंग्य में विभिन्न राजनीतिक दलों की सिद्धान्तहीनता, हाथ गरमाने के लिए ताली बजानेवाले आम आदमी की विवशता और उसकी विवशता पर टिके ठिठुरते हुए गणतन्त्र की स्थिति का ईमानदारी से जायज़ा लिया गया है।

'दंगों से अच्छा गृह उद्योग तो इस देश में दूसरा है ही नहीं'-कहकर परसाई जी ने आम भारतीय की नासमझी पर चोट की है। दफ़्तरों तक पहुँचते-पहुँचते समाजवाद की अवधारणा दम तोड़ देती है। लगता है-

'जनता के द्वारा न आकर, अगर समाजवाद दफ़्तरों के द्वारा आ गया, तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।'

'कर कमल हो गए' व्यंग्य में खोखले सिद्धान्तवाद के कारण गुमराह, अयोग्य व्यक्तियों पर चोट की गई है। जनता को शब्दजाल में उलझाने वालों पर परसाई निष्ठुर होकर प्रहार करते हैं-'वे कर-कमलों से उद्घाटन करने जाते हैं और मुख-कमल खोलते हैं, तो माइक की तबीयत चाँटा जड़ देने की होती है।'

जनसाधारण सारी मूर्खताओं को चुपचाप झेलता है। उसकी सहनशक्ति, दयनीयता और निर्जीवता कि सीमा पार कर चुकी है। तब चाँटा जड़ने का काम माइक ही कर सकेगा। माइक का यह प्रतिरोध उस व्यक्ति के प्रतिरोध का प्रतिनिधित्व करता है, जो पूर्णतया विवश हो चुका है।

जनसाधारण के पास जीवन-यापन के अल्पतम साधन भी नहीं हैं। इस पर परसाई जी की तड़प इस प्रकार प्रकट हुई है-

'पेट में अन्न न हो, शरीर पर कपड़े न हों; पर पाँवों में जूता ज़रूर होना चाहिए, जिससे वह जब चाहे बुनियादी अधिकार का उपयोग कर सके।'

'वह जो आदमी' व्यंग्य में आदमी की कमज़ोरियों का उद्घाटन किया गया है-'निन्दा में अगर उत्साह न दिखाओ, करने वालों को जूता-सा लाग्ता है।'

निन्दा करना एक ऐसा कर्म है, जिसमें हर वह व्यक्ति जकड़ा है, जिसके अधिकतम कर्म निन्दनीय है-'हम खिड़की हवा और रोशनी के लिए बनवाते हैं; मगर वास्तव में खिड़की झाँकने के लोइए होती है।'

कमज़ोर दुखती रग छूने में परसाई जी माहिर हैं। उनका यह कथन बारीकी से मन की पर्तें खोल देता है-'कितने लोग है, जो चरित्रहीन होने की साध मन में पाले रहते हैं; मगर हो नहीं सकते और निरे चरित्रवान होकर मर जाते हैं।'

'राम की लुगाई और ग़रीब की लुगाई' में तबादलों और सोर्स की उठा-पटक पर कटाक्ष किया गया है। 'हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं' में लोकतन्त्र की जड़ों को नष्ट करके जातिवाद के ज़हर पर कटाक्ष किया गया है। 'इंस्पेक्टर माता दीन चाँद पर' इनका बहु चर्चित व्यंग्य है, जिसका नाट्य रूपान्तर कई स्थानों पर प्रदर्शित किया गया था। इसमें पुलिस-तन्त्र में पनपते भ्रष्टाचार एवं अंधशक्ति के दुष्प्रभाव को रेखांकित किया गया है।

धर्म की संस्थापना तो साम्प्रदायिक दंगों से हो रही है। दंगे समाज को विभिन्न कठघरों में समाज को बन्द कर रहे हैं। आज की शिक्षा हमको संकीर्ण बना रही है, उदार नहीं। 'वोट' इतना प्रमुख हो गया है कि उसके सामने भगवान् भी कुछ नहीं। परसाई की सूक्ष्म दृष्टि समाज की पर्तों के भीतर तक पहुँचकर विडम्बनाओं का उद्घाटन कर रही है। युग सत्य को बेवाकी से उकेरने वाले इस निर्भीक साहित्यकार को नमन!

(27 अगस्त 1995)