हरिश्चंद्र समीक्षा / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल
बाबू हरिश्चंद्र के हिंदी को नए रास्ते पर लाने की बात हम पहले कह चुके हैं। अब यह देखना है कि यदि वे कवि थे तो किस ढंग के थे। जिन लोगों ने कविता पर लिखे हुए मेरे सब निबंधें को ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा उन्हें विदित होगा कि मनोरंजन के साथ मैंने काव्य के दो उपयोगी कार्य माने हैं :
1. कल्पना की शुद्धि।
2. मनोवेगों का परिष्कार।
इन दोनों कार्यों का साधन कवि लोग प्रकृति के दो विभाग करके देते हैं, वाह्य प्रकृति (External Nature) और मानव प्रकृति (Human Nature) । प्रथम कार्य का साधन तो कवि वन, पर्वत, नदी, निर्झर, लता, वृक्ष आदि प्राकृतिक वस्तुओं को कल्पना में उपस्थित करके करता है। और दूसरे का मनोवेगों को उत्कर्ष तथा सृष्टि के बीच उनके उचित और सुंदर स्थानों को दिखा कर। इनमें से कोई कोई महाकवि तो दोनों कार्यों में कुशल होते हैं, जैसे वाल्मीकि, कालिदास, भवभूति और तुलसीदास और कोई प्रथम में कोई द्वितीय में। बाबू हरिश्चंद्र अधिकांश भाषा कवियों के समान इन तीसरे प्रकार के कवियों में थे। यद्यपि इन्होंने अपनी कविता द्वारा नए नए प्रभाव उत्पन्न किए पर उसके साधनों को परम्परानुसार ही रखा। मानव व्यापारों ही के उत्तेजक अंशों को छाँटकर इन्होंने मनोवेगों को उभाड़ने और ठीक करने का प्रयत्न किया है। और प्राकृतिक पदार्थों और व्यापारों की शक्ति पर बहुत कम ध्यान दिया। इन्होंने मनुष्य को सारी सृष्टि के बीच रख कर नहीं देखा वरन् उसे उसी के उठाए हुए घेरे में रखकर देखा। मनुष्य की सृष्टि को उसके फैलाए हुए प्रपंचावरण से बाहर प्राकृतिक दृश्यों की ओर ले जाने का प्रयत्न इन्होंने नहीं किया जिससे वह अपनी स्थिति के विस्तार को देख मनुष्य मात्र ही होने से संतोष कर सकता है। पर किया क्या जाता? हिंदी साहित्य का उत्थान ही ऐसे समय में हुआ जब लोगों की रुचि बिगड़ चुकी थी। वाल्मीकि, कालिदास और भवभूति के आदर्श लोगों के सामने से हट चुके थे।
हमारे आदि कवि वाल्मीकि के हृदय में जिस कविता का प्रादुर्भाव हुआ था वही सच्ची कविता थी। उन्होंने जो मार्ग दिखलाया था वही सच्चा मार्ग था। देखिए वर्षा का कैसा प्राकृतिक चित्र उन्होंने खींचा है
क्वचित्प्रकाशं, क्वचिदप्रकाशं
नभ: प्रकीर्णाम्बु: घनं विभाति।
क्वचित् क्वचित्पर्वतं संनिरुध्दं,
रूपं यथा शान्तमहार्णवस्य।
व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पै:,
र्नवं जलं पर्वतधातुताम्रम्।
मयूर केकाभिरनुप्रयातं
शैलापगा: शीघ्रतरं बहन्ति।
मेधाभिकामा परिसम्पतन्ती,
संमोदिता भाति बलाकपंक्ति:।
वातावधूतावर पौण्डरीकी,
लम्बेव माला रुचिराम्वरस्य।।
बालेन्द्र गोपान्तरचित्रितेन,
विभाति भूमिर्नवशाद्वलेन।
गात्रानुपृक्तेन शुकप्रभेण
नारीव लाक्षोक्षित कम्बलेन।।
समुद्वहन्त: सलिलातिभारं,
बलाकिनो वारिधारा नदन्त:।
महत्सु श्रृक्षेषु महीधाराणां,
विश्रम्य विश्रम्य पुन: प्रयाति।।
प्रहर्षिता केतकिपुष्पगन्धा
माघ्राय मत्ता वननिर्झरेषु।
प्रयात शब्दाकुलिता गजेन्द्रा,
सध्दिं मयूरै: समदा नदन्ति।।
अक्षर चूर्णोत्कर सन्निकाशै:
फलै: सुपर्य्याप्तरसै: समृध्दै:।
जम्बूद्रुमाणां प्रविभाति शाखा,
निपीयमाना इव षटपदौधौ:।
महान्ति कूटानि महीधाराणां
धाराविधौतान्यधिकं विभान्ति।
महाप्रमाणैर्विपुले: प्रयातै
मुक्ताकलापैरिव लम्बमानै।।
उपर्युक्त वर्णन में किस सूक्ष्मता के साथ कविकुल गुरु ने ऐसे प्राकृतिक व्यापारों का निरीक्षण किया है जिनको बिना किसी उक्ति के गिना देना ही कल्पना पर प्रभाव डाल उसे निरोग करने के लिए बहुत है। कालिदास के कुमारसंभव का हिमालय वर्णन, रघुवंश में उस वन का वर्णन जहाँ नंदिनी को लेकर दिलीप गए हैं, तथा मेघदूत में यक्ष के बताए हुए मार्ग का वर्णन बार बार पढ़ने योग्य है। भवभूति का तो कहना ही क्या है। देखिए
एतेत एव गिरयो विरुवन्मयूरा।
स्तान्येव मत्ताहरिणानि वनस्थलानि।।
आमद्बचु वद्बजुल लतानि च तान्यमूनि।
नीरन्धा्रनीलनिचुलानि सरित्ताटानि।।
इस तरह की कविता क्या इनके पीछे फिर भारतवर्ष में हुई? यहीं से तो उसने दूसरा मार्ग पकड़ा।
इन महाकवियों ने प्रसंगवश नहीं वरन् केवल वर्णन की रोचकता के लिए जहाँ मानुषी व्यापार दिखाने की इच्छा हुई है वहाँ उन्होंने ऐसे ही स्थलों के व्यापारों को दिखलाया है जहाँ मनुष्य से प्रकृति की सन्निकटता है। ऐसे ग्रामों के आसपास किसानों का खेत जोतना वा काटना, ग्वालों का गाय चराना इत्यादि इत्यादि। जैसे मेघदूत में यक्ष मेघ से कहता है
क. त्वय्यायत्तां कृषिफलमिति भ्रूविलासानभिज्ञै:
प्रीतिस्निग्धौर्जनपदवधूलोचनै: पीयमान:।।
सद्यस्सीकरोत्कर्षणसुरभि: क्षेत्रमारुह्य मालं
किंचितपश्चाद्ब्रज लघुगति: किंचिदेवोत्तारेण।।
ख. कृषी निरावहिं चतुर किसाना।
जिमि बुधा तजहिं मोह मद माना।।
सच्चे कवि ऋतु आदि के वर्णन में ऐसे ही व्यापारों को सामने लाए हैं। ऐसे कवि ग्रीष्म में छाया के नीचे बैठ कर हाँफते हुए कुत्तों और पानी में बैठी हुई भैंसों का उल्लेख चाहे भले ही कर जायँ पर पसीने से तर रोकड़ मिलाते हुए मुनीमजी की ओर ध्यान न देंगे।
मनुष्य के व्यापार परिमित और संकुचित हैं। अत: वाह्य प्रकृति के अनंत और असीम व्यापारों के सूक्ष्म से सूक्ष्म अंशों को तारतम्यपूर्वक दिखाकर कल्पना को शुद्ध और विस्तृत करना कवि का धर्म है। धीरे धीरे लोग इस बात को भूल चले। इधर उच्च श्रेणी के जो भी कवि हुए उन्होंने अधिकतर मनुष्य की चित्तावृत्तियों के विविध रूपों को बड़े कौशल और तीव्रता के साथ दिखाया परंतु वाह्य प्रकृति की स्वच्छंद क्रीड़ा की ओर कम ध्यान दिया। पीछे से तो राजाश्रय लोलुप मँगते कवियों के कारण कविता केवल वाक्पटुता व शब्दों का शतरंज बन गई, विषयी लोगों के काम की चीज हो गई। भर्तृहरि के समय ही से यह र्दुव्यवस्था आरम्भ हो गई थी जिस पर उन्होंने दुख के साथ कहा है
पुरा विद्वत्तासीदुपशमवतां क्लेशहतये।
गता कालेनासौ विषय सुख सिध्यैर्विषयिणाम ।।
वन, नदी, पर्वत आदि इन याचक कवियों को क्या दे देते जो उसका वर्णन करते। जायसी, सूर, तुलसी आदि स्वच्छन्द कवियों ने हिंदी कविता को उठाकर खड़ा ही किया था कि केशव ने पैर छान कर उसे गंदे बाजारों में चरने के लिए छोड़ दिया। फिर क्या था, नायिकाओं के पैरो में मखमल के सुर्ख बिछौने गड़ने लगे। यदि कोई षटऋतु की लीक पीटने खड़े हुए तो कहीं शरद की चाँदनी से किसी विरहिणी का शरीर जलाया, कहीं कोयल की कूक से कलेजों के टूक किए, कहीं किसी को प्रमोद से प्रमत्ता किया, क्योंकि उन्हें तो इन ऋतुओं के वर्णनों को उद्दीपन मात्रा मानकर संयोग या वियोग श्रृंगार के अंतर्गत ही लाना था। उनकी दृष्टि प्रकृति के इन व्यापारों पर तो जमती ही नहीं थी। नायक या नायिका ही पर दौड़ दौड़ कर जाती थी अत: इसके नायक नायिका की अवस्था विशेष और प्रकृति की दो चार इनी गिनी वस्तुओं से जो सम्बन्ध होता था उसी को दिखाकर ये किनारे हो जाते थे।
बाबू हरिश्चंद्र ने यद्यपि समयानुकूल प्रसंगों को छेड़ नए नए भाव उत्पन्न किए पर उन्होंने भी प्रकृति पर कुछ प्रेम नहीं दिखाया। इनका जीवन वृत्तांत पढ़ने से भी पता लगता है कि वे प्रकृति के उपासक न थे। उन्हें जंगल, पहाड़, नदी आदि को देखने का उतना शौक न था। वे अपने भाव दस तरह के आदमी के साथ उठ बैठ कर प्राप्त करते थे। इसी से मनुष्यों के गुण स्वभाव को यथातथ्य अंकित करने में अद्वितीय हुए हैं। हिंदी में इनके जोड़ का दूसरा मुश्किल से मिलेगा। भारत दुर्दशा, नील देवी, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, विषस्य विषमौषधाम् आदि देखने से यह बात अच्छी तरह मन में बैठ जाती है।
ऐसा भी कहा जाता है कि एक दिन इनके यहाँ बैठ कर एक रंडी गा रही थी। जिसे देखकर इन्होंने कोई कविता बनाई और पास के लोगों से कहा देखो, यदि हम इसका सत्संग न रखें तो ये भाव कहाँ से सूझें? ये उर्दू कविता के भी प्रेमी थे। जिसमें वाह्य प्रकृति के निरीक्षण की चाल ही नहीं और जिसमें कल्पना के सामने आने वाले चित्रों के Imagery के बीभत्स और घिनौने होने की कुछ परवा न कर उद्वेगों के उत्कर्ष ही की ओर ध्यान रखा जाता है। यदि ऐसा न होता तो 'मरे हूँ पै ऑंखें ये खुली ही रहि जायँगी', विदा के समय सब कंठ लगावैं वाले पद्य ये न लिखते जहाँ मनोवेगों का उत्कर्ष तो इन्होंने खूब दिखलाया है। इसकी विस्तृत समीक्षा आगे की जाएगी। यहाँ पर तो मुझे यही दिखाना है कि वन, नदी, पर्वत आदि के चित्रों द्वारा इन्होंने मनुष्य की कल्पना की मैल छाँट उसे स्वच्छ और स्वस्थ करने का भार अपने ऊपर नहीं लिया है।
इनकी रचनाओं में विशुद्ध प्राकृतिक वर्णनों का अभाव बराबर पाया जाता है। वस्तु वर्णन में इन्होंने मनुष्य की कृति ही की ओर अधिक रुचि दिखाई जैसे 'सत्यहरिश्चंद्र' के गंक्ष के इस वर्णन में
नव उज्ज्वल जलधार हार हीरक सी सोहति।
बिच बिच छहरत बूँद मध्य मुक्ता मनु पोहति।।
लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नरगन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।।
कासी कहँ प्रिय जानि ललकि भेंटयो उठि धाई।
सपनेहू नहिं तजी रही अ(म लपटाई।।
कहूँ बँधो नवघाट उच्च गिरिवर सम सोहत।
कहुँ छतरी, कहुँ मढ़ी बढ़ी मन मोहत जोहत।।
धावल धाम चहु ओर फरहरत धुजा पताका।
घहरति घटा धुनि धामकत धौंसा करि साका।।
माधुरी नौबत बजति, कहूँ नारी नर गावत।
वेद पढ़त कहुँ द्विज कहुँ योगी ध्यान लगावत।।
काशी के लोगों के विलक्षण स्वभाव तथा ऊँची ऊँची हवेलियों और तंग गलियों का वर्णन करने ही के लिए 'काशी के छायाचित्र' लिखा गया।
'चंद्रावली नाटिका' में एक जगह यमुना के तट का वर्णन आया है। वह भी नियमानुगत और परंपराभुक्त (Conventional) ही है। इसमें उपमाओं की भरमार इस बात को सूचित करती है कि कवि का ध्यान उल्लिखित प्राकृतिक वस्तुओं पर रमता नहीं था। हट हट जाता था। देखिए नीचे उसका कुछ अंश देता हूँ।
1. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सो जल परसन हित मनहुँ सुहाए।।
किधौं मुकुर में लखत उझकि सब निज निज सोभा।
कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।।
मनु आतप वारन तीर को सिमिट सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नैन मन सुख लहत।।
2. कहूँ तीर पर कमल अमल सोभित बहु भाँतिन।
कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन।।
मनु दृग धारि अनेक जमुन निरखति ब्रज सोभा।
कै उमगे पिय प्रिया प्रेम के अगनित गोभा।।
कै करिके कर बहु, पीय को टेरत निज ढिग सोहई।
कै पूजन को उपचार लै चलति मिलन मन मोहई।।
3. कै पिय पद उपमान जानि यहि निज उर धारत।
कै मुखि कर बहु भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत।।
कै ब्रज तियगन बदन कमल की झलकति झाँई।
कै ब्रज हरिपद परस हेतु कमला बहुआई।।
कै सात्विक अरु अनुराग दोउ ब्रज मंडल बगरे फिरत।
कै जानि लच्छमी भौन यहि करि सतधा निज बल धारत।।
('नागरीप्रचारिणी पत्रिका' अप्रैल 1911 ई.)