हरिसुमन बिष्ट से बातचीत / लालित्य ललित

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समाज की पीड़ा से ही रचना का जन्म होता है
वरिष्ठ कथाकार डॉ. हरिसुमन बिष्ट से कवि लालित्य ललित की बातचीत

प्रश्न: आपके लेखन की शुरुआत कब हुई? किसका प्रभाव आपको लेखन की ओर ले गया?

उत्तर: बचपन गाँव में बीता। नवयुवक मंगलदल बना था गाँव में। गीत-संगीत के आयोजन गाँव में होते थे। कोई बात हो गई हो तभी शाम का आयोजन नहीं होता था वरना बदस्तूर होते थे। लोकगीत गाने का शौक तभी से बना और हर तीज-त्यौहार पर झोड़ा, चांचरी, दरी-धौंसले जमकर होते थे। मैं मन से नाचता-गाता था। जो आज तक मुस्लसल चल रहा है। यह मैं इसलिए बता रहा हूँ कि शुरुआती दौर में कुमाऊँनी लोकगीत-लोकधुनों ने मुझे प्रभावित किया। साहित्यिक कहूं या फिर कलम चलाने की शुरुआत। इसे मैं 1972 से मानता हूँ। तब मैं सातवीं में पढ़ता था। मेरे गाँव के रिश्ते से दादा श्री दीवानसिंह जी को गाने-बजाने का बहुत शौक था। ‘दीवानी विनोद’ नाम से उनकी पुस्तक प्रकाशित हुई थी। जो मूल रूप में कुमाऊँनी में है। दो साल पहले मैंने उसका हिन्दी अनुवाद किया है। उन्होंने वह पुस्तक 1926 में लिखी, जिसका प्रकाशन मेरे पिताजी ने लगभग 1957-58 में करवाया था। एक कारण मुझे यह लगता है कि बचपन में जब गाँव में बर्फबारी होती और रात-रात भर अंगीठी के चारों तरफ बैठकर रात काटनी होती थी। एक अमृता अम्मा हुआ करती थी। वह रात-रात भर कंथ सुनाया करती थी। वे कंथ उपदेशात्मक के साथ-साथ नैतिकता की सीख भी देते थे। उन रातों को आज याद करता हूँ तो बैठकी की वे दंत कथाएं आज भी मेरे कानों में गूंजती हैं। लिखने की ओर मेरा झुकाव होने का यह भी एक कारण हो सकता है। मेरा गांव सांस्कृतिक रूप से काफी समृद्ध था, यह भी एक वजह है। अब गाँव की स्थिति पहले-जैसी नहीं रही। बहुत कुछ बदल गया है। अब ढ़ोल-नगाड़े नहीं बजते, उनकी जगह सी.डी. और डी.वी.डी. ने ले ली है। गाँव में जो कभी लोकगीत-लोकसंगीत गूंजते थे-वह सब छूट गया है।


प्रश्न: आपकी पहली कहानी किस पत्रिका में आई?

उत्तर: यह ठीक से याद नहीं। तब यह सोचा भी नहीं था कि कभी ऐसा प्रश्न भी पूछा जाएगा। हाँ, इतना जरूर कह सकता हूँ। जब गाँव में था, तब दिल्ली से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में ‘दिल्ली’, ‘डाक-तार पत्रिका’, ‘दैनिक जनयुग’ में मेरी कहानियाँ छप रही थीं।


प्रश्न: आपने कहानियाँ लिखीं और उपन्यास भी पर अपने को किस विधा में सफल मानते हैं?

उत्तर: कहानी और उपन्यास मैं लिखता हूँ-यह ठीक है। लेकिन मेरे लेखन की शुरुआत कुमाऊँनी लोकगीतों से हुई। अनेक सामाजिक मुद्दों पर मैंने लिखना शुरु किया और स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में छपा भी। साहित्यिक-कृति के रूप में ‘ममता’ उपन्यास प्रकाशित हुआ। इसे मैं अपना पहला प्रयास मानता हूँ। हालांकि सही मायने में मैं अपने लेखन की शुरुआत इसी उपन्यास से मानता हूँ। कहानी और उपन्यास लिखना दोनों अलग-अलग तरह के अनुभव से गुजरना होता है। कठिनाई तब होती है जब फ्रेमवर्क करना शुरु करते हैं। दरअसल, संपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए फ्रेम में, ढांचे में बंधने की जरूरत नहीं होनी चाहिए - रचना सहज प्रवाह में होती है। जो चीजें उद्वेलित करती हैं, तकलीफ, देती हैं उसी से रचना का जन्म होता है। सहज प्रवाह में जितनी दूरी तक आप चीजों को ले जाते हैं। उसी के अनुरूप आप अपनी रचना का सृजन करते हैं। उसी से तय करते हैं कि क्या लिख रहे हैं। जब मैं कहानी लिखता हूँ तो मेरा प्रवाह उसी तरह सिमटता जाता है और उपन्यास लिखते समय तो वह इतना विशाल फलक की विधा है जिसमें कल्पनाशीलता, संवदेनशीलता की आवश्यकता होती है। यह आपकी क्षमता और अनुभव पर निर्भर करता है कि चीजों को किस रूप में समझ पाते हैं। मुझे उपन्यास लिखना अपने लिए ज्यादा माकूल लगता है। मैनें ‘आसमान झुक रहा है’,‘होना पहाड़’़, ‘आछरी-माछरी’ और ‘बसेरा’ (जो हाल ही में प्रकाशित हुआ है) उपन्यास रचे हैं। बचपन में जो लोक-कथाएं, किस्सागोई मैंने सुनी है, उनका रसास्वादन मैनें जिस रूप में किया, जिसे मैं भुला नहीं सकता। वैसा ही रस में अपनी रचनाओं में घोलने का प्रयास करता हूँ। मैं यह मानता हूँ कि केवल अनुभवों से कथा रचना पठनीय नहीं होती और न उन्हें जस-तस कहानी या उपन्यास में प्रयुक्त करना चाहिए बल्कि उसमें कल्पनाशीलता का होना जरूरी है। विशेषकर अपनी रचनाओं में मैनें उसी किस्सागोई, कल्पना में अपनी बात कहने की कोशिश की है। इन सभी उपन्यासों की जमकर चर्चा हुई है।


प्रश्न: उत्तराखंड या यूं कहें कि पहाड़ की पृष्ठभूमि पर कुछ बड़े रचनाकार जैसे शैलेश मटियानी, उनसे अपने को किस तरह अलग मानते हैं?

उत्तर: हम दोनों एक ही पृष्ठभूमि से आए हैं - कुमाऊं अंचल से। शैलेश मटियानी बड़े रचनाकार हैं। हम दोनों के अनुभव लगभग एक जैसे हैं। लेकिन चीज़ों को देखने की दृष्टि अलग-अलग है। यह भिन्नता समय और समाज को लेकर भी हो सकती है। परिवेश की संरचना में आ रहे परिवर्तन से भी हो सकती है-एक तरह से वैचारिक दृष्टि से इसे ‘जनरेशन गैप’ भी मान सकते हैं। मैं यह स्पष्ट रूप से कह सकता हूँ जो भी कारण हो मेरा लेखन पहाड़ की पृष्ठभूमि पर लिख रहे लेखकों से बिल्कुल अलग है। मेरे पात्र दया के पात्र नहीं हैं। मेरी कहानी ‘आग’, ‘मछरंगा’ या फिर कोई और कहानी को देख लीजिए। पात्र किसी की दया के पात्र नहीं हैं। किसी के सामने गिड़गिड़ाते नहीं हैं बल्कि संघर्षशील हैं, जिझासु हैं। उपन्यास ‘आछरी-माछरी’ की नायिका ‘आछरी’ या ‘जुन जूनाली’ या फिर मोहना इसके उदाहरण हैं। ‘आछरी’ कोई अबला नारी नहीं है जिसके आंचल में दूध और आंखों में सिर्फ पानी है। वह मेहनतकश है। स्वाभिमानी है। उसका अपना अस्तित्व है जिसका अहसास वह लगातार समाज को कराती है। वही पुरुष प्रधान समाज जिसका कायल होता है, उसका अनुसरण करता है और समाज में आछरी नए मूल्य गढ़ती है। पुरानी रूढ़ियों को नकारती है। ‘आछरी-माछरी’ या ‘बसेरा’ उपन्यास में ऐसे मुद्दे हैं, जो मेरी रचनाओं को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में देखने पर अलग पहचान देते हैं।

प्रश्न: राजेन्द्र यादव एक बड़े रचनाकार हैं या मैनेजमेंट गुरु?

उत्तर: राजेन्द्र यादव लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार हैं। ‘सारा आकाश’ उपन्यास और ‘जहां लक्ष्मी कैद है’, ‘सिंहवाहिनी’ जैसी बेजोड़ कहानियाँ राजेन्द्र जी जैसा कथाकार ही रच सकता है। वैचारिक उत्तेजना पैदा करने की ऊर्जा जो राजेन्द्र जी में है, वह मुझे इधर के किसी रचनाकार में नहीं मिलती। राजेन्द्र जी हमेशा दूर की कौड़ी फेंकते हैं। हमें लगता है वह तात्कालिक चीज़ों को एक ऊँचाई तक उठाते हैं और फिर उसे वहीं विराम देकर एक नया संदर्भ लेकर अवतरित होते हैं। राजेन्द्र यादव विशुद्ध रूप से सृजनात्मक लेखक हैं। उन्हें विचार को जन्म देना आता है, जिसे वह अपनी पूरी ऊर्जा के साथ सामने रखते हैं। लेकिन उससे आगे की लड़ाई तो अगली पीढ़ी को लड़नी होगी। हिन्दी- जगत में वैचारिक मशाल यदि किसी ने उठाई है तो वह राजेन्द्र जी ने। ऐसा में उनके ‘हंस’ में प्रकाशित चीजों के आधार पर कह सकता हूँ। ऐसे सक्रिय ऊर्जावान सृजक को मैं ‘मैनेजमेंट गुरु’ नहीं कह सकता। वह एकदम युवा हृदय, बिन्दास स्पष्टवादी तो हैं ही, विचारों में भी वे आधुनिक से भी आधुनिकतम हैं। इसका अर्थ आप कुछ भी लगाएं।

प्रश्न: इधर आपने कुछ ऐसी पटकथाएँ भी लिखी हैं जिन पर फिल्में और धारावाहिक बनाए जाने की तैयारियाँ पूरे जोरों पर हैं, कितना सच है?

उत्तर: यह सौ फीसद सच है और इतना ही झूठ भी। यह लाइन है ही ऐसी कि आप अधिकारिक रूप में कुछ कह नहीं सकते। बहुत-सी चीज़ें बनती हैं। बनती-बनती रह जाती हैं और लगभग कार्य पूरा होने तक ठण्डे बस्ते में चली जाती हैं। उत्तराखंड की लोक कथा ‘राजुला मालूशाही’ जिसे मैं इतिहास से न जोड़कर - एक किवदंती के रूप में लेता हूँ, उसे मैनें ‘स्वप्न कथा’ के रूप में देखा और फिर ‘ख्वाब एक उड़ता हुआ परिंदा था’ लिखा। उस पर उतना उस रूप में कार्य नहीं हुआ, जिस रूप में मैं चाहता हूँ। मैं उसमें राजुला को एक संघर्षशील क्रांतिकारी विचारों की संवाहिक के रूप में देखता हूँ। यह एकदम प्रगतिशील विचारों की प्रभावशाली कहानी है। उसे बड़े या छोटे पर्दे पर उतारना साधारण कार्य नहीं है। फिर भी प्रयासरत् हैं।


प्रश्न: सांस्कृतिक परिवेश से जुड़े पाठकों की प्रतिक्रियाओं को कैसे लेते हैं?

उत्तर: इस सवाल का उत्तर उत्सुकतावश मैं आपसे पूछता हूँ। ‘नेशनल बुक ट्रस्ट’ से मेरी दो पुस्तकें ‘मेले की माया’ और ‘उत्तराखंड की लोककथाएं’ प्रकाशित हुई हैं। दोनों पुस्तकें पहले ही वर्ष में पुर्नमुद्रित हो चुकी हैं। ‘आछरी-माछरी’, ‘आसमान झुक रहा है’ उपन्यास हैं। ये दोनों उपन्यास भी पुर्नमुद्रित हो चुके हैं। ‘बसेरा’ की चर्चा से आप परिचित हैं। पाठकों का यह स्नेह है, जो मेरी रचनाओं को पूरे मन से पढ़ रहे हैं, और गंभीरता से अपनी प्रतिक्रिया भी दे रहे हैं और उनकी आशाएँ मुझसे और अधिक बढ़ी हैं। मैं अपने लिए, अपने लेखन के लिए व्यस्तम समय निकाल सकूँ और उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकूँ, यह मेरे लिए सुखद अनुभव तो होगा ही।


प्रश्न: इन दिनों ‘बसेरा’ आपकी सर्वाधिक चर्चित कृति है। इसका ‘निठारी-पाठ कितना यथार्थपरक है?

उत्तर: ‘बसेरा’ उपन्यास वर्तमान सम्पन्न और निर्धन समाजों, उनकी आकांक्षाओं, मजबूरियों, मनुष्य के बाहरी टकरावों के साथ-साथ उनके नये भीतरी दबावों की कहानी है। दरअसल, निठारी जैसी जघन्य घटना बड़े स्तर पर देखें तो समाज के हर फलक पर आए परिवर्तनों और व्यक्ति मन में चल रहे द्वंद्वों और अन्तरविरोधों की कहानी है। जो बार-बार दोहरायी जाती रही है और रहेगी। जहाँ पाखंड की भोगवादी-लोलुपता, आधुनिकता की चकाचौंध बढ़ती जा रही है, स्वार्थ की धूल-धूसरित आंधी में जहां मानवता पीछे छूटती जाएगी। तब-तब ऐसी घटनाएँ होती रहेगी। आज मानव शरीर और उसके अंदरुनी अंग भी पैसे कमाने का जरिया बनते जा रहे हैं। झोंपड़पट्टी के अबोध बच्चों का यकायक गायब होना और फिर उनकी आंखें और अंदर के हिस्से निकले शरीर का मिलना, मानवता को कलंकित करता है। इस उपन्यास की विशेषता कहूँ या फिर जो कुछ भी, जैसा भी आप सोचें, उपन्यास का नायक, नायक नहीं खलनायक ‘वह आदमी’ है। इस आदमी की भी अपनी विशेषताएं हैं जो उसे अन्य पुरुषों से भिन्न करती हैं। उसके सभ्य मुखौटे के पीछे छिपे क्रूर चेहरे के पीछे नई परतें हैं। नई हिंसाएँ हैं। ‘वह आदमी’ और ‘उसकी औरत’ के वायवी संबंधों की भी कहानी है, जो परस्पर विकर्षण की कहानी है। नोएडा के वह चर्चित हत्याकाण्ड के बहाने लिखा गया। यह उपन्यास कभी महानगर की कलंक कथा, अमानवीय होते संबंधों का दस्तावेज, सामाजिक सरोकारों और मनुष्य के उत्थान-पतन की कलात्मक प्रस्तुति या फिर बेरहम इस नए समय की पड़ताल करता प्रतीत होता है। तो कभी महानगर का अंधेरा बनकर उभरा प्रतीत होता है। कभी नये समय के विलोम में सुख-संस्कृति तलाश कर रही, विलासिता के खूंटे से बंधी अतिसम्पन्न विलासी पीढ़ी और उसके उपकरणों का जायजा लेते हुए भी मैंने उस क्रूर यथार्थ को नये सिरे से, पूरी ईमानदारी से रचनेे का प्रयास किया गया है। इस उपन्यास के द्वारा उस ओर भी इशारा करने का प्रयास किया है कि इंसानी हैवानियत, वहशीपन की छबियां और भी हैं जो गुमशुदगी की तहकीकात से परे तक फैली हुई हैं। निठारी-कांड से इस उपन्यास का प्रत्यक्ष कोई वास्ता नहीं होते हुए भी ‘बसेरा’ में उसका किंचित प्रतिबिम्बन है। उतना ही दर्दनाक चित्रण हैं। अच्छे-बुरे किसी भी पात्र को इस कुंभीपाक से राहत मिलने की उम्मीद नहीं है क्योंकि निठारी कांड का यह कड़वा सच मात्र एक निर्मम घटना का यथार्थवादी रिर्पोताज अथवा घृणित बिम्ब के रूप में नहीं लिया जा सकता बल्कि आवारा-पूंजी के निर्मम खेल को समझकर इसे एक पाठ में बदलने का मेरा प्रयास रहा है। आप इसे आज का चर्चित उपन्यास मान रहे हैं। यानि ‘बसेरा’ के बहाने वर्तमान समाज के इस पाठ को पढ़ा और मेरी प्रस्तुति आप को अच्छी या खरी लगी -धन्यवाद।


प्रश्न: आने वाली पीढ़ी को मित्रवत कोई संदेश देना चाहेंगे?

उत्तर: हम सब रचनाकार एक नए तरह का समाज, नई तरह का इंसान गढ़ने की सोच रखते हैं। पाठक भी उस ताजा सोच के दायरे में एक नया इंसान गढ़ने का प्रयास करे तो कोई काम मुश्किल नहीं।


प्रश्न: इन दिनों आपकी यात्राओं में तेजी से इजाफा हुआ है, इसका क्या कारण है?

उत्तर: यात्रा करने का शौकीन हमेशा से हूँ। माँ कहती है मेरे पांव में ऐसा चक्र है जो एक घड़ी बैठकर बात नहीं करने देता। सचमुच मैं एक पल माँ के आंचल की पनाह नहीं ले पाता। शायद माँ भी ऐसा ही सोचती होगी।


प्रश्न: ताशकंद या जोहान्सिबर्ग की यात्राओं के अनुभव कैसे रहे?

उत्तर: एक यात्रा ज्यूं ही समाप्त होती है, त्यों ही दूसरी यात्रा की तैयारी शुरु हो जाती है। उनके अनुभवों को गंभीरता से लिखने का प्रयास हमेशा करता हूँ। भले ही जरा समय लग जाए। ‘अंतरयात्रा’ कोणार्क के सूर्य मंदिर को लेकर यात्रा-वृतांत लिखा है। वह उसके पारंपरिक यानि रूढ़ हो चुकी कहानी के कन्सेप्ट को तोड़ने का प्रयास रहा है। उसकी सराहना भी हुई है। उस पुस्तक का जल्दी ही बांग्ला में अनुवाद आ रहा है। जोहान्सिबर्ग की यात्रा लिख चुका हूँ। ‘वागर्थ’ पत्रिका में यह प्रकाशित हुआ। यह एक ऐसी महत्वपूर्ण पत्रिका है जो कि देश के दूर-दराज तक के क्षेत्रों में पढ़ी जाती है। केरल, मुंबई, चेन्नई, जम्मू, पश्चिम बंगाल के पाठकों की प्रतिक्रिया मुझे मिली। अच्छा लगा। ताशकंद पर अभी आधा अधूरा काम हुआ है। समय मिलते ही पूरा कर लूंगा, उम्मीद है।

प्रश्न: आप अगर कथाकार नहीं होते तो क्या होते?

उत्तर: यानि कथाकार होना विशिष्ट होना नहीं है। हर संवेदनशील व्यक्ति विशिष्ट होता है। वही उसकी पहचान होती है। इसीलिए मैं रचनाकार होने से हमेशा विशिष्ट नहीं हो जाता। यह बात नहीं है, जब रचनारत होता हूँ तो उस समय विशिष्ट होने को अनुभव करता हूँ।