हरिहर काका / पद्मा मिश्र

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हरिहर काका हमारे गाँव के बेहद सम्मानित बुजुर्ग तो थे, सारे धार्मिक कर्मकांडों तथा रीति नीति से चलने वाले कट्टर ब्राह्मण भी थे ....मजाल जो सुबह उठ कर सूर्य नमस्कार और प्रातः स्नान के मन्त्रों से लेकर संध्योप्सना तक कुछ भी छूट जाये !.पूर्ण शाकाहारी थे अतः अपना भोजन खुद ही पकाते थे ...रोज एक नई हांडी प्रयोग में लाते और भोजन पका लेने के बाद उसे फोड़ देते थे, भोजन करते या बनाते समय यदि कोई दूसरा व्यक्ति वहाँ आ धमके तो अशुद्ध . हुआ मान कर उठ जाते थे, सब कुछ अधूरा छोड़कर...

उनके पास पीतल का एक ही लोटा था, जिसे वे खूब धो माँज कर चमका कर रखते थे .एक दिन कुँए पर स्नान करते समय वही लोटा कुँए में गिर गया! अब लोटा क्या गिरा, पंडित हरिहर पाठक के तो मानो धर्म पर ही कुठाराघात हो गया. .. उनकी बढती हुई बैचैनी और व्याकुलता देख कर एक लडके ने हिम्मत की और लोटा कुँए से बाहर निकाल देने की पेशकश की... यह तो बड़ा दुस्साहस ही किया था उसने, परन्तु हरिहर काका के सामने यह बड़ी समस्या थी अतः उन्होंने लोटे को किसी अन्य के द्वारा छू लेने पर अपवित्र हो जाने की परवाह किये बिना उसे बीस रूपये का नया कड़कड़ी नोट देने का लालच दिया और लोटा के लिए मना लिया,..तब जाकर वह कुँए में उतरा .....तब तक काफी भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी वैसे भी गांवों में मनोरंजन का कोई अन्य साधन न होने से ऐसी ही चुहल भरी घटनाएँ ही लोगों के मनोरंजन का साधन बन जाती हैं,..भीड़ बढती जा रही थी, धीरे धीरे लोग भी उनकी बैचैनी का फायदा उठाते हुए चुस्कियां लेने लगे ----”अरे काका .आपने तो बहुत ज्यादा रूपये देने का वादा कर दिया ...पानी तो कुँए में है ही नहीं, मै तो दस रूपये में ही निकाल देता “

तभी किसी लड़के कहा --काका तो बड़े पूजा पाठ वाले हैं , किसके घर में उन्होंने जाप, दुर्गा पाठ या पूजा नहीं करवाई? बाह्मण हैं -पूज्य हैं ..लोटा निकालने के कोई पैसे लेगा?

ये सारी बातें सुन सुन कर काका का तनाव घटने की बजाय बढ़ता ही जा रहा था,--उनका प्यारा लोटा ही उनका पुत्र,पिता या पत्नी या साथी उनके कई रिश्तों सा प्यारा धन था ..क्योंकि उस आभावग्रस्तता के बीच पीतल का वह लोटा उनकी निजी बहुमूल्य सम्पत्ति ले सामान कीमती था ....स्नान करते, भोजन बनाते, या पूजा करते समय उसकी उपयोगिता कुछ बढ़ जाती थी, .यदि भोजन न बनाने का मन हुआ तोउसी लोटे में दो मुट्ठी सत्तू घोल कर पी लिया करते थे,स्नान के समय उसी में जल भर कर “हर गंगे .हर गंगे “कहते हुए जब शारीर पर पानी उंडेलते तो आधा पानी शरीर पर और आधा पीछे गिरता था .पूजा आदि के समय वही लोटा आम्र पल्लवों और हल्दी कुमकुम के स्वस्तिक चिह्न से सुशोभित हो कोई दैवीय वस्तु ही नजर आता था ..........तात्पर्य यह कि उनके वीतरागी जीवन में वह लोटा उनका परम प्रिय रिश्तेदार -अभिन्न मित्र था .जिसके खो जाने पर उनका दुखी होना स्वाभाविक था .यदि योंकहा जाय किवह लोटा और काका एक दुसरे के पर्याय बन गए थे ..तो अतिशयोक्ति न होगी .ऐसी महत्वपूर्ण वस्तु का खो जाना उनके लिए किसी सदमे से कम नहीं था ----उधर काका के लोटे का कुँए से निकले जाने का दृश्य भी कुछ कम रोचक नहीं था ...जहाँ कभी उनके कुँए से पानी तो दूर कोई पैर भी नहीं रख सकता था ....वहीँ .आज न जाने कितने लोग कुँए की जगत पर चढ़ कर लोटे के बाहर आने के बिहंगम दृश्य को देख रहे थे ....कोई कोई तो व्यंग्य भी करता जा रहा था ----”लोटे को तो अछूत ने छू दिया है ..अब काका पानी कैसे पियेंगे ?”

परन्तु काका इन सारी कटूक्तियों को अनसुना करते हुए अपना ध्यान ...अपने आराध्य तुल्य लोटे पर ही लगाये हुए थे, ...प्रतीक्षा की घड़ियाँ पल पल भरी पड़ रही थीं ...काका कभी चबूतरे का चक्कर लगते ..तो कभी बैचैन हो कुँए में झांकते कि लोटा मिला या नहीं ?...अंततः प्रतीक्षा समाप्त हुई ..कुँए में उतरे लडके को उनका लोटा मिल गया था ---भीड़ ने नारा लगाया ---”हर हर महादेव !..मिल गया मिल गया “ कुँए में झाँकने लगे ---वह लड़का लोटा लेकर ऊपर आ रहा था ...धीरे धीरे वह उपर तक पहुंचा और काका से फिर एक बार पूछा ---”काका, कड़कड़ी नोट ही मिलेगा न ?”

काका तो असमंजस में थे ही, लोगों ने फिर उकसाया --”हाँ ..हाँ ...काका ..जाने दीजिये इसे ...अरे मै तो पांच रूपये में ही निकाल दूंगा “

अब तो वह लड़का भी चिढ गया और काका को कोई जवाब देते न देख कर --” ठीक है, आप अपना कदकड़ी नोट अपने पास ही रखिये ..मै इसे वापस कुँए में फेंक देता हूँ --निकलवा लीजिये जो निकाल दे “और उसने सचमुच लोटा कुँए में डाल दिया वापस।बाद का दृश्य तो और भी रोचक बन गया जब किसी ने भी कुँए में उतरना स्वीकार नहीं किया -काका का निराश .खिसियाया चेहरा देखने लायक था ..वह सबको मनाते रहे पर अब तो कोई भी उनकी बात सुनाने को तैयार नहीं था --उले हम बच्चे उन्हें “ए काका!... कड़कड़ी नोट” कह कह कर चिढा

ते और उनके दौड़ाने पर भाग जाते... बाद में तो स्थिति यह हो गई थी कि हरिहर काका 'कड़े' या 'कड़ी' शब्द से ही चिढने लगे थे... एक दिन सुबह सुबह जग तो देखा कि काका एक मुच्छैल पहलवान से भिड़े हुए हैं ....कारण पूछा तो पता चला कि उसने काका के सामने ही अपनी मूंछो को ताव हुए “मूंछें कड़ी हैं “कह दिया था .....!बस काका चिढ गए ...यह रोज रोज की बात हो गई थी। गाँव में कोई भी उनके सामने कड़ी शब्द का प्रयोग नहीं कर सकता था, यहाँ तक कि किसी के द्वारा “कितनी कड़ी धुप है कहने पर भी काका का पारा चढ़ जाता था।

धीर धीरे काका ने अपनी धार्मिक हठधर्मिता छोड़ दी थी, अब वे गाँव वालों के साथ उठने बैठने लगे थे, उनके इस परिवर्तन ने उन्हें पूरे गाँव में लोकप्रिय बना दिया था, उनकी धार्मिक कट्टरता तो उस समय पूरी तरह नष्ट हो गई जब उन्हें पीलिया हो गया था और गाँव के बुजुर्गों ने उन्हें मांसाहार की सलाह दी --नब्बे प्रतिशत मांसाहार करने वाले गाँव में लोग सलाह भी क्या देते !....फलतः प्राण रक्षा के लिए ही सही काकाने मांसाहार करना स्वीकार किया या नहीं यह तो रहस्य ही रहा पर वे पूरी तरह बदल चुके थे -ये तय था... अभी कहानी अंत नहीं आया!

एक सुबह उठे तो काका के आश्चर्य की सीमा न रही। जब उन्होंने देखा कि उनका वही प्यारा लोट चबूतरे परपानी से भरा चमचमा रहा था। पास ही नीम की दातुन भी थी। यह गाँव वालों का प्यार भरा उपहार था काका के लिए, उनके हृदय परिवर्तन के लिए...