हरेक में / ख़लील जिब्रान / सुकेश साहनी
Gadya Kosh से
(अनुवाद-सुकेश साहनी)
एक बार मैंने धुंध को मुट्ठी में भर लिया।
जब मुट्ठी खोली तो देखा, धुंध एक कीड़े में तब्दील हो गई थी।
मैंने मुट्ठी को बंद कर फिर खोला, इस बार वहां एक चिड़िया थी।
मैंने फिर मुट्ठी को बंद किया और खोला, इस बार वहाँ उदास चेहरे से ऊपर ताकता आदमी खड़ा था।
मैंने यह क्रिया फिर दोहराई तो इस बार मुट्ठी में धुंध के सिवा कुछ नहीं था–पर अब मैं बहुत मीठा गीत सुनने लगा था। इससे पहले मैं खुद को इस धरती पर रेंगने वाला निरीह प्राणी समझता था। उस दिन मुझे पता चला कि पूरी पृथ्वी और उस पर का जीवन मेरे भीतर ही धड़कता है।
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