हर्ष भोगले का 'अपराध' और नया दंड विधान / जयप्रकाश चौकसे

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हर्ष भोगले का 'अपराध' और नया दंड विधान
प्रकाशन तिथि :13 अप्रैल 2016


पच्चीस वर्ष तक क्रिकेट का आंखों देखा हाल सुनाने वाले हर्षा भोगले को अपने काम से वंचित कर दिया गया है, जिसका कारण यह है कि उन्होंने बांग्लादेश के खिलाड़ियों की प्रशंसा की और अपने देश के खिलाड़ियों की आलोचना। यह घटना मामूली-सी लग रही है परंतु यह लक्षण है कि इस देश में किसी भी क्षेत्र की सत्ता की आलोचना नहीं की जा सकती और संविधान में दिया गया अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उतना मूल्य भी नहीं जितना कि उस कागज का जिस पर वह अंकित है। ज्ञातव्य है कि बांग्लादेश की टीम अंतिम गेंद पर एक रन नहीं बना पाने के कारण हारी और उसके साहसी कार्य की प्रशंसा सभी लोग कर रहे हैं। संभवत: अनुभवहीन टीम अपनी संभावित जीत से डर गई थी। उसे स्वयं आश्चर्य हो रहा था कि क्रिकेट की शिखर टीम को परास्त करने से वे मात्र एक रन दूर हैं। भारतीय टीम न्यूजीलैंड से हारने के कारण प्रतिस्पर्द्धा से बाहर होने की कगार पर पहुंच चुकी थी। क्रिकेट की अनिश्चितता के इस चरम क्षण में संभावित जीत की उत्तेजना में बांग्लादेश के खिलाड़ियों के पैर कांप गए और भारत की सितारा सज्जित टीम के 'गौरव' की रक्षा एक इत्तफाक से हो गई। इन क्षणों के वर्णन में हर्षा भोगले ने बांग्लादेश की प्रशंसा की और सहज स्वाभाविक काम को 'देशद्रोह' मान लिया गया। अमिताभ बच्चन हर संघर्ष में सत्ता के साथ खड़े रहते हैं, जबकि उन्हें सितारा बनाया सत्ता विरोध के आक्रोश की छवि ने। दरअसल, तानाशाही इसी तरह ध्वनि किए बगैर धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती है। मौत के कदमों की आवाज हम कहां सुन पाते हैं? मौत और तानाशाही का यह साम्य कतई आश्चर्यजनक नहीं है। तानाशाह प्रवृत्ति सत्ता के शिखर पर विराजमान है तो अन्य स्थानों और क्षेत्रों पर इस भयावह विचार शैली को आप कैसे रोक सकते हैं? तानाशाही किसी षोड़सी की तरह अपने पैरों में पायल बांधकर छम छम करते नहीं आती। उस मायावी जादूगरनी के चलते समय उसकी परछाई नहीं होती, सुदूर पार्श्व में कुत्ते भौंकते हैं परंतु हम उन्हें सुन नहीं पाते। मौत ध्वनि नहीं करती, वह ऊपर वाले की बेआवाज मार है परंतु उसकी कोई गंध जरूर है, जिसे कुत्ते सूंघ लेते हैं। इस विषय में विज्ञान खामोश है। मौत को विज्ञान के बदले साहित्य व कला के माध्यम से बेहतर समझा जा सकता है, इसलिए आश्चर्य नहीं कि विगत समय में अनेक साहित्यकारों की हत्या हुई है और कहीं कोई कातिल नहीं पकड़ा गया। क्या कातिल शासक के दास्ताने पहने हुए हैं?

साहित्य और कलाकार समय को पढ़ सकते हैं। उनके वर्तमान के विवरण में भूतकाल की संपूर्ण जानकारी होती है और वे भविष्य का अनुमान लगा लेते हैं। जर्मनी और रूस में लेखकों को दबाने की भरपूर कोशिश हुई है। 'डॉ. जिवागो' का प्रकाशन कितना जोखिम भरा था। फिल्मकार डेविड लीन ने इससे प्रेरित कमाल की फिल्म बनाई थी। इस कृति को नोबेल प्राइज उसकी साहित्यिक गुणवत्ता के कारण नहीं दिया गया वरन् पश्चिम का हित इसमें निहित था कि कम्युनिस्ट रूस के लोहे के परदे के पीछे क्या घटित होता है उसे दिखाया जाए। संसार की कोई भी वस्तु या विचार राजनीति के दायरे से बाहर नहीं है, कोई भी पुरस्कार भले ही उसका नाम 'नोबेल' क्यों न हो, राजनीति के हस्तक्षेप से मुक्त नहीं है। परिवार जैसी पावन संस्था भी राजनीति विहिन नहीं है। यहां तक कि पति-पत्नी का शयनकक्ष भी इससे मुक्त नहीं है। कोई आश्चर्य नहीं कि माफियानुमा राजनीतिक संस्थाओं को भी 'परिवार' ही कहा जाता है और दकियानूसी के प्रति उनके समर्पण की प्रशंसा की जाती है।

भारतीय क्रिकेट संगठन भी माफियानुमा है, अंत: हर्षा भोगले को इस 'पावन संस्था' की आलोचना का दंड भुगतना पड़ रहा है। इस षड्यंत्र की बुनाई अत्यंत महीन है और 'परिवार की प्रतिष्ठा' इसकी पावन शपथ है, क्योंकि इनका असली ध्येय तो अवाम की सोचने की ताकत को ही भोथरा बना देने का है। जिद यह है कि सब एकसा सोचें, एकसा बोलें, एकसा पहनें। यूनिफॉर्म को ऐसा जिरह बख्तर बनाया जाता है, जो आज़ाद विचार की हवा से आपको बचाए और कालांतर में आप रोबो बन जाएं। यह खेल नया नहीं है परंतु टेक्नोलॉजी ने इसे पहले से अधिक संहारक बना दिया है। टेक्नोलॉजी के कारण ही अवाम का आचार, वचार और व्यवहार का निरंतर निरीक्षण हो रहा है। हम सब एक विराट दूरबीन और माइक्रोस्कोप से निरंतर देखे जा रहे हैं। कोई भी इस अदृश्य सेंसर से मुक्त नहीं। चहुंओर अनगिनत पहलाज निहलानी पहरा दे रहे हैं।