हर एक फ़्रेंड कमीना होता है / पंकज सुबीर
पत्र के आरंभ में कोई भी औपचारिकता नहीं कर रहा हूँ। पत्र जिस मनोस्थिति में लिख रहा हूँ उसमें औपचारिकता की कोई गुंजाइश भी नहीं है। पता नहीं ये पत्र तुमको मिलेगा तो तुम इसको सहज भाव से ले पाओगी भी या नहीं। कुछ नहीं जानता, बस ये जानता हूँ कि तुमको पत्र लिखने के लिये बहुत दिनों से अपने अंदर का अपराध बोध दबाव डाल रहा था। काफ़ी दिनों तक तो टालता रहा, लेकिन जब टालने से बाहर बात हो गई तो अंत में लिखना ही पड़ा। लगभग 20 सालों बाद किसी भी रूप में कोई संपर्क करते हुए ये पत्र तुमको लिख रहा हूँ। बीस साल का अंतर एक अच्छा खासा अंतर होता है। इस बीच में एक जीवन परिवर्तन के कई-कई दौर देख लेता है और इन बीस सालों में तो परिवर्तन का चक्र कुछ ज़्यादा ही तेज़ी के साथ चला है। जीवन में जो तेज़ी आ गई है वह हैरान कर देती है। किन्तु, फिर भी कहीं न कहीं, कुछ न कुछ ऐसा होता है जो ठहरा होता है। तुम्हें याद होगा प्रोफेसर झा हमें फासिल्स के बारे में पढ़ाया करते थे। नहीं याद आये झा सर? अरे वही बॉटनी के प्रोफेसर जो अपने ऑफिस में बैठ कर चुरुट पीते थे। वह हमें बताते थे फासिल्स के बारे में। कि किस प्रकार कुछ वनस्पतियाँ, कुछ कीड़े, मकोड़े, जानवर कहीं दब जाते हैं और उसके बाद लाखों सालों तक वहाँ उसी प्रकार दबे रहते हैं। समय के तेज़ चक्र से अपरिवर्तित रहे हुए। बाद में कहीं कोई खोज करते हुए उनको ढूँढ निकालता है और वह फासिल्स उस समय की जानकारी प्राप्त करने का सबसे अच्छा ज़रिया होते हैं। हमारे जीवन में भी कई सारी घटनाएँ, वस्तुएँ, लोग, फासिल्स बन जाते हैं। उन पर समय का कोई असर नहीं होता। जब भी कुरेदो तो उसी प्रकार सुरक्षित रखे मिलते हैं। तुम्हें याद होगा शायद कि हमारे फाइनल की परीक्षाओं के दौरान ही ख़बर मिली थी कि प्रोफेसर झा का दिल को दौरा पड़ने से निधन हो गया। झा सर को मरे आज भले ही बीस साल हो गये हैं, लेकिन उनकी वह चुरुट पीने की स्टाइल आज भी मेरे मन में फासिल्स की तरह सुरक्षित है। उसी नास्टेल्जिया में मैंने भी एक दो बार चुरुट पीने की कोशिश भी की, लेकिन वह बात नहीं आ पाई जो झा सर में आती थी। कुछ चीज़ें शायद कुछ लोगों के लिये ही बनी होती हैं। जैसे तुम्हारा वह बैंगनी, फूलों वाला सलवार कुरता, जिस पर तुम प्लेन बैंगनी दुपट्टा डालती थीं।
बात उसी बैंगनी सलवार कुरते से शुरू की जाए तो मेरे लिये आसान होगा। क्योंकि मुझे तो अभी भी ये तक नहीं पता कि तुमको कुछ पता भी था या नहीं। तुम्हें मैंने पहली बार उसी बैंगनी सलवार कुरते में देखा था। मुझे अब तक अच्छी तरह याद है कि तुमने शंकू के आकार की बैंगनी बिंदी भी लगाई थी। किसी कारण के चलते मैं पहली बार में सैंकंड इयर क्लियर नहीं कर पाया था और जब क्लियर किया तब तक मेरे साथ के सब स्टूडेंट आगे निकल चुके थे। तब आज की तरह सेमेस्टर तो होते नहीं थे, तब तो ये था कि फैल हुए तो गया पूरा साल। दूसरी बार में जब सैंकंड इयर क्लियर करके फायनल आया तो क्लास में अपने से एक साल जूनियर स्टूडेंट्स के साथ बैठना पड़ा था मुझे। उनमें तुम भी थीं। जब फायनल की पहली ही क्लास अटैंड की थी मैंने, तो उस पहली ही क्लास में तुम नज़र आईं थीं। साँवले से भी कुछ अधिक साँवला रंग, बैंगनी सलवार कुरता, बैंगनी दुपट्टा और बैंगनी बिंदी। हो सकता है कि किसी को गहरे साँवले रंग पर बैंगनी रंग पहनना अच्छा न लगे। हो सकता है कि इसे ड्रेस सेंस के हिसाब से इसको बहुत ऑड कॉम्बिनेशन भी कहा जाता हो, पर यक़ीन जानो मेरे लिये तो वह ही परफेक्ट कॉम्बिनेशन था। गहरे साँवले रंग पर छाया हुआ गहरा बैंगनी रंग। जैसे शीशम के साँवले गहरे तने पर बोगनबेलिया की बेला छाई हुई हो। मैं देखता ही रहा बस देखता ही रहा। साँवले रंग में इतनी खूबसूरती हो सकती है ये मुझे पता ही नहीं था और ये कहने की तो ज़रूरत नहीं है कि बैंगनी रंग उस दिन के बाद से मेरे लिये सबसे फेवरेट हो गया था। मेरे सीधे हाथ की किसी उँगली में एक अँगूठी हुआ करती थी। वह पुखराज की अँगूठी थी। सैंकंड इयर में मेरे लुढ़क जाने के बाद माँ ने किसी ज्योतिषी से पूछ कर मेरे लिये बनवाई थी। बताया गया था कि मेरा गुरु कमज़ोर है इसलिये अँगूठी पहनना ज़रूरी है। उसी पुखराज की अँगूठी को इस प्रकार से आँख के पास एँगल बनाता रहा कि उसमें तुम्हारा अक्स नज़र आता रहे। गुरु को मज़बूत करने के लिये पहनाई गई अँगूठी उस दिन मेरे शुक्र को मज़बूत करने का काम करती रही। मेरी दुनिया उस पीले पुखराज में नज़र आ रहे तुम्हारे बैंगनी अक्स को देख-देख कर बैंगनी पीली हो गई थी।
पूरी क्लास में घुलने मिलने में कुछ समय लगा था मुझे। हालाँकि सब जूनियर ही थे लेकिन फिर भी साथ के स्टूडेंट्स तो थे नहीं। उस क्लास में कुछ स्टूडेंट्स तो ऐसे भी थे जो स्कूल से ही साथ-साथ पढ़ते चले आ रहे थे और अब कॉलेज में भी ग्रुप का ग्रुप साथ में ही था। मैं उनके लिये बाहरी था। मगर फिर धीरे-धीरे मैं उनमें एडजस्ट हो गया। तुमसे भी बात चीत शुरू हो गई थी। मगर उतनी नहीं। तुम्हारे ग्रुप के लड़के तुम्हारे साथ ज़्यादा घुलमिल कर बातें कर लेते थे। मेरे मन में एक हिचक थी। एक छोटे क़स्बे के बीस साल पहले के उस स्टूडेंट के मन में वह हिचक स्वाभाविक होती थी। भले ही कॉलेज को एड था लेकिन संस्कार कोएड के नहीं थे और मेरे मामले में तो शायद एक चोर भी मन में था जो हिचक पैदा करता था।
राजेश हीटर तुम्हारे सबसे क़रीब हुआ करता था। सबसे पहले तो मुझे इस नाम ने ही परेशान कर दिया था। बाद में नाम वाले से भी परेशानी हुई। राजेश के नाम के साथ लगे हुए हीटर शब्द से मैं हैरत में पड़ गया था। तुम सब तो स्कूल के समय से ही सहपाठी रह चुके थे इसलिये एक दूसरे के बारे में सब कुछ जानते थे। मगर मुझे तो पता नहीं था कि ये हीटर क्या बला है। तुम लोगों से ही पता चला था कि राजेश बचपन में कूलर को हीटर कहता था और इसी कारण तुम लोगों ने स्कूल के दिनों में ही उसका नाम राजेश हीटर रख दिया था। इसलिये भी क्योंकि तुम्हारे ग्रुप में दो राजेश थे। दोनों राजेशों को अलग-अलग कैसे किया जाए इसलिये राजेश सोनी को राजेश हीटर कर दिया गया था। तो राजेश हीटर तुम्हारे सबसे क़रीब था। पता चला कि तुम दोनों के परिवारों में भी आपस में ख़ूब अच्छी जान पहचान है। राजेश के परिवार की ज़ेवरों की दुकान थी और तुम्हारा परिवार उस दुकान का पुराना ग्राहक था। इस कारण तुम दोनों में ख़ूब घुटती थी। ये घुटना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था।
अच्छा तुम्हें ये तो लग रहा होगा कि अचानक ये मैं बीस साल पुराना किस्सा कहाँ ले बैठा हूँ। असल में उसके पीछे भी एक कारण है। कुछ दिनों पहले मैंने दो फ़िल्मे देखी थीं। उनमें से एक फ़िल्म का नाम था दस्विदानिया (दूसरी फ़िल्म का ज़िक्र पत्र में आगे कहीं आएगा) । उस फ़िल्म का हीरो एक लिस्ट बना कर वह सारे काम करता है जो वह करना चाहता है। मुझे ये थीम बहुत पसंद आई थी। हम सब अपने-अपने जीवन में एक लिस्ट हमेशा बनाते रहते हैं और उस लिस्ट में कुछ काम ऐसे होते हैं जो टॉप प्रायारिटी पर होते हैं। हमारे अंदर एक धधकती हुई इच्छा हमेशा विद्यमान रहती है कि काश हम इन कामों को कर सकें। काश, इसलिये कि हम इन कामों को करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं और ये इच्छाएँ, काश बन कर हमेशा हमारे साथ चलती हैं। दस्विदानिया का हीरो अपने जीवन के इन्हीं सारे काशों की लिस्ट बना कर मरने से पहले उन्हें पूरा करता है। मैंने भी वैसी ही कोई लिस्ट बनाई हो ऐसा तो नहीं है और न ही दूसरा कारण भी मेरे साथ है। मगर फिर भी कुछ इच्छाओं को पूरा करने की मन में आई। जो मुझे लगता है कि मेरे जीवन के सबसे बड़े काश हैं। वे काश जो फासिल्स की तरह मेरे जीवन में कहीं-कहीं जमे हुए हैं और उसी कारण ये पत्र लिख रहा हूँ।
तो हुआ ये कि फायनल करने के बाद पूरी क्लास पीजी की अलग-अलग कक्षाओं में बँट गई थी। कुछ स्टूडेंट्स पढ़ाई छोड़ भी गये थे। हम छः स्टूडेंट्स ने सबसे टफ सब्जेक्ट लिया था। रसायन में मास्टर डिग्री। हम छः, जो थे तीन लड़के और तीन लड़कियाँ। ऐसा किसी फ़िल्मी गणित के चलते नहीं हुआ था कि तीन लड़के और तीन ही लड़कियाँ। वैसे भी तुम्हारे अलावा जो बाक़ी की दो थीं वह लड़कियाँ थी हीं कब, वह तो बहनजियाँ थीं। मोटे फ्रेम का चश्मा लगाने वाली बेला और हर दम पढ़ाई की बातें करने वाली मीना। हाँ लड़के हम तीनों ठीक ठाक थे। मैं, राजेश हीटर और तीसरा धनंजय। मुझे रसायन हमेशा से ही डराता था और उसीमें मेरे सबसे कम नंबर आते थे। लेकिन मेरे पास तो कोई ऑप्शन भी नहीं था। क्योंकि तुमने रसायन में पीजी करने का निर्णय पहले ही ले लिया था और तुम्हारे कारण ही राजेश हीटर ने भी रसायन लेने का निर्णय लिया था। ये दोनों ही कारण मिलकर तीसरा कारण बने मेरे रसायन लेने का। रसायन में पीजी के अपने कॉलेज के पिछले रिजल्ट भी डरावने थे। हमसे ठीक पहले के साल में जो पाँच स्टूडेंट्स पीजी कर रहे थे वे सब के सब फेल हो गये थे और इस साल वे सारे समाज शास्त्र में एमए कर रहे थे। रसायन शास्त्र का विभाग पीजी के अपने खराब रिजल्ट के कारण पूरे कॉलेज में बदनाम था। जब मैंने रसायन में पीजी का फार्म भरा तो मुझे भाँति-भाँति के लोगों ने भाँति-भाँति से डराया था। लेकिन मेरे अंदर तुम्हें लेकर जो रसायन और उस रसायन से जो शास्त्र बन रहा था उसने मुझे मजबूर कर दिया कि मैं भी रसायन में पीजी करूँ। मुझे बहुत बोरिंग लगता था काग़ज़ पर हाइड्रोक्लोरिक एसिड और सोडियम हाइड्राक्साइड की रासायनिक क्रिया को दिखाना जिसमें पानी और नमक बनता था। पानी और नमक बन जाये वहाँ तक भी ठीक, लेकिन समीकरण में साम्य स्थापित करो कि एक भी एटम कम न हो जाए। जो कम हो गया तो समीकरण असंतुलित हो जाएगा।
मैं बॉटनी में पीजी करना चाहता था। बॉटनी मेरा पसंदीदा विषय थी और बॉटनी पढ़ाने वाली शैफाली मैडम भी। तुम्हें तो याद ही होगा कि फायनल में सबसे अच्छा हर्बेरियम कलेक्शन मैंने ही बनाया था। जाने कहाँ-कहाँ से, जंगलों की, खेतों की ख़ाक छान-छान कर पत्तियाँ और फूल जमा किये थे। उनको कापियों में दबा-दबा कर, सुखा कर, फिर ड्राइंग शीट पर चिपका कर हर्बेरियम कलेक्शन बनाया था। शैफाली मैडम को प्रभावित करने के लिये। कामयाब भी हुआ था। पूरी क्लास को दिखाया था उन्होंने मेरा हर्बेरियम कलेक्शन। ये अलग बात है कि प्रेक्टिकल में अच्छे नंबर नहीं दिये थे उन्होंने। मैंने उनका नाम हीबिस्कस रोज़ा सायनेन्सिस रखा था। तुम्हें तो याद होगा कि गुड़हल के फूल का बॉटनिकल नाम होता है ये, तुम शायद जवाकुसुम कहती थीं गुड़हल को, अपने किसी बंगाली पड़ोसी के कारण। शैफाली मैडम जिस प्रकार से हमेशा लाल कपड़े पहनती थीं उसके चलते ही वह नाम दिया था मैंने उनको। शायद उन्हें भी पता चल गया था कि मैंने उनको ये नाम दिया हुआ है। मैं समझता था कि वह इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेंगीं, लेकिन, प्रेक्टिकल में मिले नंबरों ने मेरी ग़लतफहमी को दूर कर दिया था। बुरा मानना तो था झा सर को मानना था, जिनको चुरुट पीने की आदत के कारण मैंने उनको तम्बाखू का बॉटनिकल नाम निकाटियाना टबैकुम नाम दिया था, जिसको और शार्ट करके हम उनको टबैकुम बुलाते थे। मगर वह बिचारे तो बुरा मानने से पहले ही चल बसे। खैर तो लब्बो लुआब ये कि शैफाली मैडम के लाल रंग और तुम्हारे बैंगनी रंग के बीच तुम्हारा ये बैंगनी रंग जीत गया। वैसे भी शैफाली मैडम मेरे लिये गूलर का फूल थीं, पत्थर का अचार थीं। फिर भी बॉटनी में पीजी न कर पाने का मलाल अभी भी सालता है। जब भी नवरात्रि में दुर्गापूजा पर गुड़हल के फूल देखता हूँ तो शैफाली मैडम याद आ जाती हैं।
रसायन शास्त्र के डिपार्टमेण्ट में आकर बॉटनी डिपार्टमेण्ट की याद और शिद्दत से आने लगी थी। क्योंकि, रसायन शास्त्र में के डिपार्टमेण्ट में कोई भी मैडम नहीं थीं। तीन सर थे। बूढ़े, खूंसट और तीनों ही गंजे, तोंदियल और मजे की बात ये थी कि तीन में से दो तो गुप्ता थे। कहाँ हिबिस्कस के ललछौंहेपन से ललियाती बॉटनी की लैब और कहाँ ये एचटूएस की सड़े अंडे समान गंध से गंधियाती रसायन शास्त्र लैब। मगर धीरे-धीरे मलाल कम होता चला गया। इसलिये भी क्योंकि क्लास में केवल हम छः ही थे। हम छः में एक प्रकार की कैमिकल बॉण्डिंग होने लगी थी। दोस्ती की बॉण्डिंग। हम सबके लिये वह एक अलग ही अनुभव था। इतनी छोटी क्लास जिसमें केवल छः ही स्टूडेंट्स हों। जब भी सबमें एका हुआ तो एक साथ कॉलेज नहीं आये। हो गई छुट्टी। बस इसी बॉण्डिंग ने मेरे मन में एक प्रकार का डर पैदा कर दिया था। डर इस बात का कि जब बाक़ी सबको पता चलेगा कि मेरे मन में तुम्हारे लिये क्या है तो वे बाक़ी मेरे बारे में क्या सोचेंगे। हम छः धीरे-धीरे एक परिवार की तरह होते जा रहे थे। ऐसे में ये डर आना स्वाभाविक-सी बात थी। जो दोस्ती, जो अपनापन हम सबके बीच में पनप चुका था उसमें एकदम से दरार आ जाएगी। एक अलमस्त ज़िन्दगी जिसमें नो फिकर नो टेंशन टाइप का जीवन हम जी रहे थे उसे मैं खोना नहीं चाहता था।
पता है अचानक तुमको ये पत्र लिखने का विचार कैसे आया। कुछ दिनों पहले देखी गई वह दूसरी फ़िल्म इसके पीछे मुख्य कारण है। उस फ़िल्म में भी तीन दोस्त थे। मैं, राजेश और धनंजय। फ़िल्म का नाम था ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा। वह तीनों दोस्त कॉलेज के बरसों बाद फिर से मिलते हैं और उन सारे कामों को करते हैं जिनको करने की वे कॉलेज के समय सोचते हैं। फ़िल्म की थीम लगभग वैसी ही थी जैसी दस्विदानिया की थी। लेकिन कुछ अंतर था दोनों में। यहाँ तीन दोस्त मिलते हैं। तीनों मिलकर कुछ फैंटेसियों को पूरा करते हैं। जैसे स्काय डायविंग, -सी डायविंग और जाने क्या क्या। तीनों की अपनी-अपनी एक एक फैंटेसी होती है जिसे वे पूरा करते हैं। वे तीनों बिल्कुल हम तीनों की ही तरह थे। अलमस्त, बिंदास और मस्तमौला टाइप। दोस्तों के बीच तो हर कोई शायद ऐसा ही हो जाता होगा। किसी ने कहा भी तो है कि हम शरीर से किसी के भी सामने नंगे हो सकते हैं किन्तु, मन से, ज़मीर से, आत्मा से, हम केवल और केवल अपने कॉलेज के दोस्तों के सामने ही नंगे हो सकते हैं। ज़िंदगी के वे काम करना जो हमारी फैंटेसी में शामिल रहे हों, बहुत ज़रूरी है। मगर उन कामों को भी कर देना चाहिए जो हमारे साथ अपराध बोध बन कर लदे रहते हैं। ये दोनों ही आवश्यक काम होते हैं। लग रहा है न कि मैं फ़िल्मी भाषा में बात कर रहा हूँ, उसी कॉलेज वाले मैं की तरह। हाँ उसी भाषा में बात कर रहा हूँ, वह कॉलेज वाले शब्द छूटते ही कब हैं, ये अलग बात है कि हम ख़ुद का संयमित करके उन शब्दों का ज़बान पर आना रोकते रहते हैं। भद्र होने की कुछ तो क़ीमत चुकानी ही पड़ती है। कॉलेज लाइफ एक समग्र रूप से अभद्र ज़िंदगी होती है, अपनी सीमित दुनिया में, भरपूर अभद्रता से भरा हुआ समय का एक टुकड़ा।
तुम्हें लग रहा होगा कि ये भी दस्विदानिया के हीरो की ही तरह एक स्थगित प्रेम इज़हार है जो कि बीस साल बाद हो रहा है। मगर ऐसा नहीं है। हाँ ये सही है कि इसमें वह बीस साल पुराना प्रेम शामिल है, लेकिन, उसके अलावा भी बहुत कुछ है। अब मैं उसी बात पर आना चाह रहा हूँ। ये सब कुछ जो मैंने भूमिका में लिखा है ये केवल इसलिये ताकि तुम दोनों उस माहौल में पहुँच जाओ जो उस समय का माहौल था। क्योंकि, सब कुछ जानने के लिये उस समय के माहौल में होना बहुत ज़रूरी है। बिना माहौल के कुछ समझ में नहीं आयेगा। काश, ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा के उन दोस्तों की तरह हम सब भी मिलते और सारी बातों पर चर्चा करते। सारी बातों पर। मगर वह हो नहीं सकता है इसलिये ही ये लम्बी भूमिका लिखी है।
रसायन शास्त्र की वह लैब धीरे-धीरे हम में घुलने लगी थी। एच टू एस की वह सड़े अंडे समान गंध कितनी अपनी-सी लगने लगी थी हमें। हम सारे उसी गंध के बीच बैठ कर समोसे की, कचौरियों की पार्टी करते। अपने साथ लैब असिस्टेंट को भी शामिल कर लेते। प्रेक्टिकल परीक्षा में तो यही लैब असिस्टेंट काम आता था, जो चुपके से बता जाता था कि कौन-सी पुड़िया में कौन-सा केमिकल रखा गया है। उन्हीें सब के बीच मेरे दिल में कुछ चीजें और बढ़ने लगी थीं। जब तुम परखनली में नाइट्रेट का ब्राउन रिंग टेस्ट लगातीं तो ऐसा लगता कि परखनली में नहीं बल्कि मेरे दिल में एक भूरा वलय बन रहा है। भूरा वलय जो गाढ़ा होने लगता। इधर तुम कॉपी में नाइट्रेट का कन्फर्मेशन लिखतीं और इधर दिल में बन रहा भूरा वलय प्रेम का कन्फर्मेशन कर देता। प्रेम का और नाइट्रेट का परीक्षण मुझे हमेशा से एक-सा ही लगता है। वहाँ परखनली में भूरा वलय बनता है यहाँ दिल में। वहाँ भी परखनली के किनारे-किनारे धीरे धीरे केमिकल डाला जाता है और यहाँ भी। वहाँ भी दोनों केमिकलों के संधि स्थल पर भूरा वलय बनता है और यहाँ भी। बस अंतर ये होता था कि उस भूरे वलय को तुम देख लेती थीं और इस भूरे वलय को तुम मेरी सारी कोशिशों के बाद भी देख नहीं पा रही थीं। उसके होने का एहसास तक नहीं कर पा रहीं थीं।
याद होगा एक बार हम सब बारिश में फँस गये थे। बारिश इतनी तेज़ हो रही थी कि हम कॉलेज से घर नहीं जा पा रहे थे। उस दिन दो घंटे तक हमने लैब में ही महफिल जमाई थी। तुम सब लोगों के बहुत कहने पर मैंने एक गाना गाया था, चाँद-सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था। मुझे लगा था कि ये गाना सुन कर तुम समझ जाओगी कि ये गाना मैं तुम्हारे लिये ही गा रहा हूँ। लेकिन तुम तो थीं नब्बे के दशक की एक छोटे से क़स्बे की लड़की, तुमको कहाँ पल्ले पड़ता था ये सब। मुझे याद है कि इक सूरत भोली भाली है दो नैना सीधे सादे हैं, अंतरे को गाते समय तुमसे मेरी नज़रें काफ़ी देर तक के लिये मिली थीं। तुम अपनी चिर परिचित मुद्रा में हथेली पर ठोड़ी टिकाये मुस्कुरा रही थीं। तुम्हारी मुस्कुराहट से मुझे लगा था कि मेरा काम हो गया है। मगर कुछ नहीं हुआ।
पीजी का पहला साल गाने गाते, समोसे उड़ाते बीत गया। समय आगे खिसक रहा था और मैं तुमसे कह नहीं पा रहा था। जो कुछ मैं बिना कहे समझाना चाह रहा था वह तुम समझ नहीं रही थीं। कितनी गधी थीं तुम। पहले मैं समझता था कि तुम जान बूझ कर सब कुछ समझते हुए भी अन्जान बनी हुई हो। मगर नहीं तुम तो सचमुच ही निरी मूर्ख थीं। यदि फ्रेण्डशिप की कहूँ तो हम सब में ही बहुत मज़बूत दोस्ती हो गई थी। जो जाहिर-सी बात है तुम्हारे और मेरे बीच में भी थी। मगर वह वैसी ही थी जैसी तुम्हारी धनंजय और राजेश के साथ भी थी। मतलब ये कि मेरे हिस्से में कुछ अधिक नहीं आ रहा था।
इस बीच एक और घटनाक्रम हुआ था। वह ये कि एक बार राजेश और मैं अपने फाइनल के साथी लड़कों के साथ संडे को क्रिकेट मैच खेलने गये थे। उस दिन कुछ ऐसा हुआ कि मेरे मन में गाँठ पड़ गई। उस दिन लड़के राजेश को बार-बार तुम्हारा नाम ले-ले कर छेड़ रहे थे। हालाँकि राजेश उस सब में सहमति नहीं जता रहा था, लेकिन वह उस सबका कोई प्रतिरोध भी नहीं कर रहा था। मौन का नाम सहमति ही होता है। एक दो बार राजेश ने शायद मेरी उपस्थिति को भाँपते हुए उन लड़कों पर दिखाने के लिये गुस्सा भी किया, लेकिन वह गुस्सा भी समझ में आ रहा था कि वह नाम का ही है। मुझे उस दिन बहुत बुरा लगा। मुझे दो कारणों से बुरा लग रहा था। पहला कारण तो अब तक तुमको पता चल ही गया होगा। दूसरा कारण ये कि हमारी फैकल्टी की किसी लड़की का नाम लेकर दूसरी फैकल्टी वाले लड़के मज़ाक बना रहे थे। वह भी हमारे ग्रुप का, जिसमें हम छः लोग किसी परिवार की तरह शामिल थे। मगर मैं कुछ नहीं कह पा रहा था। उसके भी दो कारण थे, पहला तो ये कि उससे शक की सूई मेरी तरफ़ घूम जाती और दूसरा ये कि वे सारे बचपन के साथी थे, मैं उनके लिये आउट साइडर था। मैं कुछ भी कहता तो हो सकता है मुझे ये जवाब मिल जाता कि तुझे क्या पता, इन दोनों का तो स्कूल के समय से ही चक्कर चल रहा है। मेरे लिये वह क्रिकेट का मैच खेल पाना तक मुश्किल हो गया था। मुझे लगा कि इतनी बड़ी बात मुझे पता तक नहीं है और मैं फिजूल ही कोशिश किये जा रहा हूँ। जब ये लड़के इस प्रकार की बात कर रहे हैं तो जाहिर-सी बात है कि ये बात स्कूल के समय से ही चली आ रही होगी।
उस दिन तो मैं चुपा गया लेकिन मेरे मन में ये बात बैठ गई कि राजेश ही वह कारण है जिसके कारण मैं तुम तक नहीं पहुँच पा रहा हूँ। धीरे-धीरे ये शक गहराता गया। अब मैं सामान्य नहीं रह गया था। अब राजेश की हर गतिविधि पर नज़र रखना और उसको बारीकी से आब्ज़र्व करना मेरा काम हो गया था। विशेषकर तब, जब राजेश उन लड़कों के साथ हो, या तुम्हारे साथ हो। तुम दोनों जब भी साथ होते तो मैं छिप कर या कभी सामने आकर ही तुम दोनों पर भी निगाह रखता। लेकिन तुम दोनों के व्यवहार में मुझे कहीं भी वैसा कुछ नहीं दिख रहा था जो वह लड़के कह रहे थे। इस बीच कुछ और भी बातें मेरे सामने आईं। जैसे ये कि तुम्हारा छोटा भाई जो सैकंड इयर में पढ़ता था, उसका भी नाम ले लेकर ये लड़के राजेश को छेड़ते रहते थे। तुम्हारे भाई का नाम ले लेकर ये लड़के राजेश को छेड़ते थे कि देख तेरा साला जा रहा है। साला...? मेरे लिये ये पानी सर पर गुज़र जाने वाली बात थी। बात यहाँ तक और इस क़दर बढ़ी हुई है।
बहुत दिनों तक नज़र रखने का परिणाम ये हुआ कि मुझे ये पता चल गया कि तुम्हारे और राजेश के बीच में तुम्हारी तरफ़ से तो कुछ नहीं है, लेकिन राजेश के मन में कुछ कोमल तंतु ज़रूर हैं। उन कोमल तंतुओं को नष्ट करने का मैंने बीड़ा उठा लिया था। मौका भी जल्द ही मुझे मिल गया। उस दिन बाक़ी का चारों कॉलेज नहीं आये थे। केवल तुम और मैं ही थे। लैब की खिड़की से लगे हुए इमली के पेड़ की पत्तियाँ नोंचते हुए मैंने धीरे-धीरे अपने मन का ज़हर उगलना शुरू किया था। मैं बोलता गया और तुम सुनती गईं और रोती भी गईं। मैंने पूरी बात को बदल कर रख दिया था। मैंने ये नहीं कहा लड़के संजय को ऐसे-ऐसे चिढ़ाते हैं, मैंने तो ये कहा कि राजेश ही लड़कों के सामने इस प्रकार डींगें हाँकता है। राजेश ही लड़कों को तुम्हारे भाई की तरफ़ इशारा करके कहता है कि देखो मेरा साला जा रहा है। इस बात पर पहले तो तुमने अपनी आँखें विस्फारित कर दीं थीं और उसके बाद कुछ ज़ोर-ज़ोर से सिसकियाँ भरी थीं। मैंने जाने क्या-क्या कहा था। ये कहा कि पूरे कॉलेज में तुम्हारी और राजेश की बातें हो रही हैं। जबकि हक़ीक़त में ऐसा कुछ नहीं था, केवल उन दस पन्द्रह लड़कों के बीच होने वाला मज़ाक था वो। मैंने ये कहा कि राजेश सबके सामने छाती ठोंक-ठोंक कर कहता है कि उसने तुमको पटा रखा है (क्षमा करना इस शब्द के लिये, असल में इसका कोई अल्टरनेट नहीं मिल पा रहा। उस दौर के हम कॉलेज के लड़के इसी शब्द का उपयोग करते थे। पता नहीं आज के लड़के क्या उपयोग करते हैं।) । जबकि राजेश बेचारा तो सार्वजनिक रूप से तुम्हारे बारे में कोई बात ही नहीं करता था। मैंने ये कहा कि राजेश ये भी कहता है कि तुम दोनों के परिवारों ने तुम दोनों की शादी की बात भी कर रखी है। ये बात भी मैंने अपने ही मन से गढ़ ली थी। ऐसी और इसी प्रकार की जाने कितनी बातें मैंने तुमसे कीं, जो मेरे शैतान दिमाग़ में कुछ तो पहले से ही तैयार थीं और कुछ तुरंत ही बनती चली गईं। क़रीब एक से डेढ़ घंटे तक मैंने तुमसे बातें कीं, इस शर्त के साथ कि तुम किसी से नहीं कहोगी कि ये बातें तुमको किसने बताईं हैं, ये बातें मैं तुम्हारा शुभचिंतक होने के कारण तुमको बता रहा हूँ। तुमने प्रामिस किया था कि तुम किसी को नहीं बताओगी कि तुमको ये सब मैंने बताया है। तुमने अपना प्रामिस निभाया भी।
उसके बाद दो दिन तुम कॉलेज नहीं आईं थीं। दो दिन बाद जब आईं तो तुमने हम सब के सामने ही राजेश की लू उतार दी थी। क्या-क्या कहा था तुमने उस बेचारे को। तुम रो रहीं थीं, चिल्ला रहीं थीं और बोलती जा रहीं थीं। राजेश कुछ समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। हम सबने बीच में बहुत मध्यस्थता करने की कोशिश की लेकिन तुम नहीं रुकीं। जितना भला बुरा कह सकतीं थीं उतना कह दिया। राजेश ने भी अपना पक्ष रखने की बहुत कोशिश की लेकिन तुम सुनने के मूड में थीं ही कब। सब कुछ टूटता चला गया, बिखरता चला गया।
राजेश इस बात पर हैरान था कि ये आख़िर हुआ क्या। ये सब जो हुआ उसके पीछे सूत्र क्या है। मुझे याद है अच्छी तरह से कि राजेश उस दिन शाम को मेरे कंधे पर सिर रख-रख कर फूट-फूट कर रोया था। धनंजय के कमरे पर। जहाँ केवल हम तीनों ही थे। वह रोता जा रहा था और एक ही बात कहता जा रहा था, मैंने किया क्या है, मेरी ग़लती क्या है।
उस एक घटना से हम सब के बीच का वह सब कुछ खतम हो गया जो हम सबको बाँधे हुआ था। रसायन के विद्यार्थी थे सो जानते थे कि एटॉमिक बॉण्डिंग के बारे में। किस प्रकार इलेक्ट्रान्स और प्रोटान्स के अफेक्शन के कारण अलग-अलग एटम संपर्क में आते हैं और एक दूसरे से जुड़ जाते हैं। जुड़ कर एक नया अणु बनाते हैं। जैसे हाइड्रोजन के दो और आक्सीजन का एक परमाणु मिलकर पानी बना देते हैं। हमें ये भी पता था कि जो जुड़ते हैं वह विखंडित भी हो जाते हैं किसी बाहरी फोर्स के कारण। हमारे रिश्तों में वह बाहरी फोर्स मैं था। हम सबके बीच एक प्रकार का सूनापन आ गया था उस घटना के बाद। हमारी समोसों की, गानों की सारी गतिविधियाँ बंद हो गईं। मैंने जिस उद्देश्य को लेकर वह सब किया था वह भी पूरा नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद पता चला कि तुम्हारी शादी तय हो गई है। परीक्षा के बाद तुम शादी करके इन्दौर चली जाओगी। तुम्हारी शादी भी इन्दौर से ही होगी लड़के वालों की इच्छानुसार।
परीक्षाएँ हुईं, हम सब भारी मन से हमेशा के लिये अलग हो गये। उसे हमेशा के लिये ही कहा जाएगा। क्योंकि पीजी भी हो चुका था। अब तो आगे रास्ते अलग-अलग होने ही थे। हम सब मिलकर कितना रोये थे उस आखिरी दिन। हमारे जीवन के सुनहरे दिन खतम हो रहे थे और सामने एक संघर्षों से भरा जीवन नज़र आ रहा था और हम अलग-अलग चल दिये। अलग-अलग उन रास्तों पर जो कोहरे और धूल से ढँके थे, जिन पर आगे का कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था कि ये रास्ते कहाँ लेकर जाएँगे।
रोया मैं एक बार और था, तब, जब मैं और धनंजय तुम्हारी शादी अटैंड करके इन्दौर से लौट रहे थे। राजेश शादी में नहीं गया था। बस की सबसे पिछली सीट पर बैठा मैं अचानक धनंजय की गोद में सिर रख कर फूट-फूट कर रो पड़ा था। बस रात के अंधेरों को चीरती हुई चली जा रही थी और मैं रो रहा था। मैं तुम्हें हमेशा के लिये खो चुका था।
राजेश और मैं अब भी उसी शहर में रहते हैं। धनंजय यहाँ से तभी चला गया था। बेला और मीना का कुछ पता नहीं कि वह कहाँ हैं। तुम्हारे बारे में बस इसलिये पता है क्योंकि तुम्हारा भाई मिलता रहता है। उसीने बताया कि तुमने शादी के बाद पीएचडी की कार्सीनोजेनिक पदार्थों (कैंसर उत्पन्न करने वाले) पर और उसके बाद वहीं इन्दौर के कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हो गई हो। तुम्हारा ईमेल भी उसीने दिया था। राजेश और मैं उतने ही पक्के दोस्त हैं अभी तक भी। मिलते हैं, परिवार के साथ घूमने जाते हैं। फ़िल्में देखते हैं। होटल जाते हैं, जहाँ राजेश पीता है और मैं केवल चखना खाकर उसका साथ देता हूँ। बाद में दोनों साथ खाना खाते हैं। अक्सर राजेश उस घटना का ज़िक्र कर बैठता है। पूरी हैरत के साथ कि आख़िर वह क्यों हुआ था, क्या हुआ था। वह घटना उसके जीवन की एक पेचीदा गुत्थी है, जो आज इस पत्र के साथ ही सुलझ रही है। ज़िन्दगी न मिलेगी दोबारा, ये फ़िल्म राजेश और मैंने साथ ही देखी थी। उसका वह सीन जब दोस्त कन्फेशन करता है कि उसने दोस्त की गर्लफ्रेंड को अपने प्रेम के चलते उससे अलग कर दिया था, देख कर मुझे अपना सीन याद आ गया। उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि राजेश के सामने उस घटना की सच्चाई खोल दूँगा और तुम्हारे सामने भी।
पत्र समाप्त कर रहा हूँ इस आशा के साथ कि तुम राजेश को माफ़ कर देना...नहीं नहीं तुम उससे माफी माँग लेना। गलती उसकी तो थी ही नहीं। इस ईमेल की कॉपी राजेश और धनंजय को भी भेज रहा हूँ, बेला और मीना का ईमेल यदि तुम्हारे पास हो तो इसकी कॉपी उनको भी फारवर्ड कर देना। तुमको तो मैं बरसों पहले खो चुका था, आज पूरी तरह से खो रहा हूँ और आज शायद राजेश को भी खो रहा हूँ। कॉलेज के सुनहरे दिनों की अंतिम याद को खो रहा हूँ। विदा...या शायद अलविदा, दस्विदानिया।
तुम सबका ही
समीर राजवैद्य