हर कालखंड में महान फिल्में बनी हैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 नवम्बर 2017
आजकल यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि वर्तमान कालखंड में नई कहानियों पर फिल्में बन रही हैं और अनेक फिल्मकार सरहदें तोड़कर नए क्षितिज खोज रहे हैं। रवि उदयवार की श्रीदेवी अभिनीत 'मॉम' में एक मां अपनी कमसिन बेटी के साथ दुष्कर्म करने वाले दोषियों को दंडित करती है। 'मॉम' से अधिक 'मदर इंडिया' की मां साहसी है। वह अपने उस बेटे को मार देती है, जो मंडप से एक दुल्हन को लेकर भाग रहा है। हिंदुस्तानी सिनेमा के हर कालखंड में मसाला फॉर्मूला फिल्मों के साथ ही साहसी कहानियां फिल्माई गई हैं। मेहबूब खान की दिलीप कुमार, मधुबाला एवं निम्मी अभिनीत फिल्म 'अमर' लीक से हटकर बनी फिल्म थी। 'अमर' में विलायत से कानून की पढ़ाई करके लौटा नवयुवक बरसात की एक रात अपने घर में आश्रय पाने वाली युवती के साथ हमबिस्तर हो जाता है। यह पात्र निम्मी ने अभिनीत किया था। वह अपनी सौतेली मां की मार से बचने के लिए उसके घर में छिपने आई थी। फिल्म में मधुबाला यह तय करती है कि उस अभागी कुंवारी गर्भवती को न्याय दिलाएगी। नायक स्वयं अपने से जूझ रहा है। वह स्वयं मधुबाला से ही प्रेम करता है। 'अमर' में जयंत द्वारा अभिनीत पात्र एक गुंडे का है, जिसे नायक ने सजा दिलाई थी और वही निम्मी से प्यार भी करता रहा है। जयंत सजा काटकर लौटता है और उसे भी दिलीप कुमार अभिनीत पात्र पर संदेह है। वह उसे कत्ल करना चाहता है परंतु निम्मी उसे बचा लेती है। इस फिल्म में पात्रों की वैचारिक भिड़ंत के अनेक दृश्य हैं। क्लाइमैक्स में न्याय के लिए संघर्ष करने वाली मधुबाला अभिनीत पात्र नायक को निम्मी से विवाह के लिए मजबूर कर देती है परंतु इस फिल्म की प्रेरणा जिस फ्रेंच रचना से ली गई थी उसके क्लाइमैक्स में नायक अपना गुनाह स्वीकार करता है परंतु वह निम्मी से विवाह करने के बदले अपने गुनाह के लिए दी गई सजा काटना पसंद करता है। 'अमर' में एक बार दिलीप से निम्मी टकरा जाती है, तो वह कहता है, 'कम्बख्त कभी स्नान भी कर लिया कर, तेरे जिस्म से गाय, भैंसों की गंध आती है, जिनके बीच तू दिन-रात रहती है।'
फ्रेंच रचना के नायक का अपना अपराध स्वीकार करके जेल जाना, एक फ्रेंच व्यक्ति का दृष्टिकोण है और 'अमर' में लिजलिजी भावुकता हमारा दृष्टिकोण है। आधुनिक गणतंत्र व्यवस्था का विकास फ्रांस में हुआ है और भारत का अपना संस्करण लिजलिजी कोरी भावुकता से लबरेज है। हमारी व्यवस्था में अराजकता संभव है और हुक्मरान के तानाशाह हो जाने की गुंजाइश भी है परंतु फ्रांस में यह संभव नहीं है। हर देश का दंड विधान उस देश के अवाम की भावनाओं द्वारा परिभाषित होता है। हम लोग न्याय अौर दंड विधान से ऊपर मनुष्य की भावना को रखते हैं और भावना भड़काई जा सकती है परंतु तर्क के साथ यह संभव नहीं है। रूस के महान लेखक फ्योदोर दोस्तोवस्की की अमर रचना 'क्राइम एंड पनिशमेंट' से प्रेरित रमेश सहगल की फिल्म 'फिर सुबह होगी' का नायक सूदखोर महाजन की हत्या कर देता है और कानून का छात्र होने के कारण वह कोई सबूत नहीं छोड़ता परंतु उसके भीतर निरंतर द्वंद्व चलता रहता है कि उसे आत्म समर्पण करना चाहिए। सरकारी अधिकारी भी उस पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालता रहता है कि वह गुनाह कबूल करे। एक दृश्य में बच्चे भीख मांगते हैं कि उनके पिता को उस कत्ल के लिए हिरासत में लिया गया है, जो उसने किया ही नहीं। ये बच्चे भी अधिकारी द्वारा भेजे गए हैं। नायक का मन उसे दुत्कारता है कि वह कानून का छात्र होते हुए भी उसकी रक्षा नहीं कर रहा है। एक तरह से 'अमर' के नायक और 'फिर सुबह होगी' के नायक पश्चाताप की अग्नि में झुलस रहे हैं। अंतर यह है कि 'फिर सुबह होगी' के नायक ने ब्याजखोर महाजन की हत्या की है। यह समझ से परे हैं कि फ्योदोर दोस्तोवस्की ने अपने महाजन पात्र की रचना एक स्त्री पात्र के रूप में की, जबकि दुनियाभर के साहित्य व सिनेमा में खलनायक पुरुष पात्र हैं। शांताराम की 'दुनिया ना माने' (1937) में चौदह वर्ष की कन्या से एक दुजवर विवाह करता है अौर उसकी पहली पत्नी से उत्पन्न बेटी गांधीजी के आश्रम से लौटकर उसे दुत्कारती है कि उसने अपनी बेटी से भी कम उम्र की कन्या से विवाह किया। शांताराम की ही 1941 की 'आदमी' में पुलिस वाले और वेश्या कीप्रेमकथा है। इसके बीस वर्ष पश्चात बनी 'इरमालाडूस' भी पुलिस वाले और वेश्या की प्रेमकथा है, जिससे प्रेरित है शम्मी कपूर की 'मनोरंजन', जिसमें वेश्या अपने प्रेमी के पैसा कमाने के प्रयास पर आपत्ति उठाती है कि 'क्या वेश्याओं की बिरादरी में मेरी नाक कटवा दोगे कि मैं एक अदद प्रेमी नहीं पाल सकी।' इसके भी पूर्व हिमांशु राय और देविका रानी की 'लाइट ऑफ एशिया,' 'कर्मा' इत्यादि लीक से हटकर बनी फिल्में थीं। शांताराम की 'दो आंखें बारह हाथ' कैदियों को नया जीवन ध्येय देने की प्रेरक कथा है, जिसे सुभाष घई ने 'कर्मा' के नाम से दो दशक बाद प्रस्तुत किया। अमिया चक्रवर्ती की नूतन अभिनीत 'सीमा' भी सामाजिक सौद्देश्यता की महान फिल्म है। बिमल राय की नूतन अभनीत 'बंदिनी' भी सोद्देश्य फिल्म सिद्ध हुई थी। सारांश यह कि हिंदुस्तानी सिनेमा के हर दशक में लीक से हटकर सामाजिक सोद्देश्यता की महान फिल्में बनी हैं। अगर दंडविधान पर पहले फिल्में बनी थीं तो कुछ समय पूर्व ही 'जॉली एलएलबी' भी कम महत्वपूर्ण फिल्म नहीं है।
राज कपूर की 'जागते रहो' तो स्वतंत्रता के महज आठ वर्ष पश्चात देश में पैर पसारना शुरू करने वाले भ्रष्टाचार पर थी। आदर्श मूल्यों के पतन का आरंभ हो चुका था। अगर हम भारत को एक फिल्म मान लें तो महात्मा गांधी का कालखंड उसका एक मनोहारी स्वप्न दृश्य ही माना जाना चाहिए। पांच हजार वर्ष में पनपी उदात्त संस्कृति की हम कैसी लचर संतानें हैं। फिर भी विश्वास है कि वह सुबह कभी तो आएगी।