हर चौबीस फ्रेम में पांचवीं का रहस्य / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :27 मई 2017
दशकों पूर्व अमेरिका में एक विज्ञापन फिल्म देखने वालों का लगता था मानो फिल्म में निर्वस्त्र महिला शरीर की झलक है परंतु कहीं कुछ भी स्पष्ट नहीं था, अत: कोई विवाद नहीं बना परंतु एक व्यक्ति ने प्रकरण को अदालत तक पहुंचाया, जहां सिनेमा तकनीक में प्रवीण लोगों की कमेटी ने निरीक्षण पर यह पाया कि फिल्मकार ने हर पांचवीं फ्रेम में नारी शरीर दिखाया है। एक सेकंड में 24 फ्रेम चलती है, जिस कारण परदे पर छवि बनती है। इस पांचवीं फ्रेम को आंख ठीक से देख नहीं पाती परंतु अवचेतन में यह दर्ज होती है, वह भी ऐसे क्षीण से स्पर्श से जैसे मोर पंख से शरीर को सहलाया गया है। प्राय: वह पंख शरीर के ऊपर चलता है, केवल एक क्षणांश के लिए वह जिस्म को सहलाता है। बहरहाल वह फिल्म प्रतिबंधित हुई, क्योंकि उसमें सभी के देखने का प्रमाण-पत्र लगा था, जबकि एक फ्रेम के कारण उसे केवल वयस्क के देखने योग्य प्रमाणित किया जाता है। आधुनिकता अमेरिकी समाज का अनिवार्य हिस्सा है परंतु अपनी भीतरी सोच में वह अत्यंत पारम्परिक और भीरू है। महिला को मतदान अधिकार वहां सबसे बाद में दिया गया है और महिला उम्मीदवार को वोट न देने के कारण वे कुछ भी दिखाएं परंतु महिला से शासित होना उनके पौरुष अहंकार को स्वीकार नहीं था। जब कोई मरीज सिरदर्द को छिपाए और अपने घुटने में दर्द की शिकायत करे तो बेचारा डॉक्टर क्या करे। निदान शास्त्र को मरीज बहुत भ्रम में डालता है।
जीएसटी में विज्ञापन फिल्म पर बारह प्रतिशत टैक्स और कथा फिल्म पर अठारह प्रतिशत की सिफारिश की है, जिसका विरोध कल अखिल भारतीय फिल्म उद्योग ने किया है। एकल सिनेमाघरों की संख्या अत्यंत अल्प है तथा उसे और कम करने के प्रयास सरकार कर रही है। प्रांतीय सरकारें और शहर विकास संस्थाएं भी यही कर रही हैं। हर शहर में शो टैक्स का जजिया जारी है। कभी-कभी मात्र चार दर्शक आने पर सिनेमा मालिक को शो टैक्स अपनी जेब से देना पड़ता है बतर्ज 'खाया-पिया कुछ नहीं गिलास तोड़ा बारह आने।' हाल ही में भोपाल में शो टैक्स की दर बढ़ा दी गई है। एकल सिनेमाघरों को बंद करवाने वाले सारे कदम दर्शक विरोधी कदम हैं। दर्शक को सस्ता सुलभ मनोरंजन प्राप्त करने का अधिकार है। यह समझना कठिन है कि इस तरह असमानता आधारित निर्णय कैसे लिए जा रहे हैं? यह संभव है कि लाल फीता काटकर उद्घाटनों में व्यस्त मंत्री को मालूम ही नहीं कि उसके विभाग में लाल फीताशाही बढ़ती जा रही है और तर्कहीनता हावी हो रही है। एक तरफ सरकार मनोरंजन कर से मुक्ति देती है कि सौ रुपए से कम बिकने वाले टिकिट पर कर नहीं लगेगा, दूसरी ओर शो टैक्स बढ़ा दिया। भोपाल के एकल सिनेमा मालिकों के संगठन ने इसका विरोध किया है। आजकल व्यवस्था का यह ढंग है कि वह स्वयं चुनती है कि किस समुदाय के विरोध को महत्व दें और किसकी अनसुनी करे। व्यवस्था को इस तथ्य का एहसास नहीं है कि अवाम रोजमर्रा के जीवन की कठिनाइयों को भुलाने के लिए सिनेमाघर जाता है अौर ये सभी नाराज एवं असंतुष्ट लोगों के लिए फिल्म देखना महंगा हो जाए तो ये लोग आक्रोश की मुद्रा में सड़क पर अपनी संसद बना लेंगे। दरअसल, व्यवस्था की क्रूरता का कोई प्रबल विरोध नहीं हो पा रहा है, क्योंकि अवाम परदे पर परोसी अफीम के नशे में गर्त है। इसमें व्यवस्था का हित है कि एकल सिनेमाघरों को खूब सुविधाएं दें ताकि अवाम उसमें झूमता रहे। इस तरह शो टैक्स बढ़ाकर भोपाल स्थित व्यवस्था अपने लिए ही विरोध खड़ा कर रही है।
इन बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवस्था जीएसटी प्रस्तावों में विज्ञापन फिल्मों पर बारह और कथा फिल्मों पर अठारह प्रतिशत दर रखकर आने वाले समय में स्वयं के लिए प्रतिरोध तैयार कर रही है। हर संगठन शक्तिशाली होते ही स्वयं को हानि पहुंचाने वाले कदम उठाने लगता है। यह आत्मघाती रवैया ही विनाश के बीज बो देता है। व्यवस्था अनजाने ही एक पांचवीं फ्रेम रच रही है,जिसमें वस्त्रहीनता उसे ही मुंह चिढ़ा रही है। संपादन कला सिनेमा की ही जान नहीं है, सर्वत्र विचारों का संपादन भी होना चाहिए। आप जीवन को असंपादित फिल्म बना रहे हैं।