हर शख्स यहां मोटर साईकिल सवार है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 12 अक्तूबर 2012
एक अंग्रेजी अखबार में सुश्री प्रमिला घोष ने कुछ इस आशय का लेख लिखा है कि अश्लीलता बिकती है, इसलिए फिल्मों में प्राय: बलात्कार के दृश्य होते हैं और हाल ही में यह परिवर्तन आया है कि फिल्मी नायिकाएं बलात्कार के लिए आतुर नजर आती हैं। अंग प्रदर्शन का कोई अवसर नायिकाएं नहीं छोड़तीं। उन्होंने परदे पर हुए बलात्कार के विवरण में फिल्म 'मदर इंडिया' की नायिका को भी शामिल कर लिया है और जब कोई पत्रकार जनरलाइजेशन की झाड़ू से बुहारता है तो इस तरह की चूक संभव होती है। इस लेख में ब्लॉग से प्राप्त सूचना के आधार पर लिखा गया है कि प्रेम चोपड़ा ने परदे पर २५० बलात्कार किए हैं, डैनी डेंजोंग्पा ने ११०, शक्ति कपूर ने ८० इत्यादि-इत्यादि।
अगर बात महज आंकड़ों की है तो भारत में विगत सदी में संभवत: पच्चीस हजार फिल्में बनी होंगी और बलात्कार दिखाने वाली फिल्मों की संख्या पांच सौ से अधिक नहीं होगी। पूरे लेख की ध्वनि कुछ ऐसी है मानो बलात्कार जैसे अपराध के लिए सिनेमा दोषी है। यह दृष्टिकोण और आरोप नया नहीं है। जैसे उद्योग फॉर्मूला फिल्में गढ़ता है, वैसे ही उद्योग के बाहर के कुछ लोगों की सोच भी फॉर्मूले से ग्रस्त रही है। आचार्य कृपलानी ने तो इसे 'पाप का संसार' ही कह दिया था। फॉर्मूला फिल्म या व्यावसायिक सिनेमा से अनेक गलतियां हुई हैं और बॉक्स ऑफिस के लिए समझौते भी हुए हैं, परंतु इसके बावजूद समय-समय पर सार्थक फिल्में बनती रही हैं और अगर कोई संदेश न भी हो तो अवाम का मनोरंजन कोई हेय उद्देश्य नहीं है। जीवन के असमान युद्ध क्षेत्र में बिना किसी साधन-शस्त्र के जूझने वाले करोड़ों लोग अगर फिल्म देखकर पल दो पल की खुशी हासिल कर लेते हैं तो उस पर एतराज नहीं किया जा सकता। सिनेमा सामूहिक अवचेतन को कुछ देने का प्रयास करता है और भारत जैसे देश में जहां इतनी विराट विविधता है, यह काम आसान नहीं है।
विगत पचास वर्षों में शायद ही कोई ऐसा दिन हो, जब किसी न किसी अखबार में बलात्कार की खबर नहीं प्रकाशित हुई हो और सच तो यह है कि अधिकांश बलात्कार की घटनाएं समाज की विषम संरचना के कारण छुपा ली जाती हैं। बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के कारण गहरे और अनेक हैं तथा सिनेमा पर दोष डालना एक गंभीर समस्या पर सतही बात करने की तरह है, परंतु देश में हर बुरी बात के लिए सिनेमा की खूंटी पर समाज के गंदे कपड़े टांग देने की प्रवृत्ति एक लोकप्रिय तरीका है। समाजशास्त्रियों का भी यह शगल रहा है और लोकप्रिय संस्कृति के विशेषज्ञों का भी सिनेमा प्रिय धोबीघाट रहा है।
भारतीय शास्त्रों से संविधान तक महिला को महान बताया गया है, परंतु व्यावहारिक सच यह है कि उन्हें हमेशा दोयम दर्जे की नागरिक ही माना गया है। महानगरों के बीहड़ से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक में स्त्री के खिलाफ काम होते रहे हैं। सच तो यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में खेतों से अधिक स्त्रियां जोती एवं रौंदी जाती हैं। एक महान रूसी लेखक ने तो यह भी कहा है कि गोला-बारूद के कारखाने में बनी हर गोली अंतत: किसी महिला की छाती पर ही लगती है। मरने वाला पुरुष भी हो तो उस त्रासदी का भयावह असर औरत को झेलना होता है। इस भीषण अपराध की गहन-गंभीर खोज की गई है और शायद इस विषय पर चिंतन भी जारी है। प्रकृति ने स्त्री को पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली बनाया है और पुरुष अपनी कमतरी को छुपाने के प्रयास के रूप में बलात्कार करता है। प्रेम करने का जो माद्दा स्त्री के पास है, वह पुरुष के पास नहीं है, परंतु उसकी इच्छाओं के घोड़े बेलगाम हैं और स्त्री के खिलाफ उसके हर कार्य की जड़ में ये कमतरी ही है। समाज में व्याप्त सांस्कृतिक शून्य में स्त्री की कातर ध्वनियां गूंजती रहती हैं, जैसे सूखे कुएं में भांय-भांय होती है।
देश में भयावह आर्थिक खाई, अन्याय आधारित समाज संरचना और आधुनिक जीवन के तनाव के कारण मन में जागी हताशा की कोख से अपराध जन्म ले रहे हैं और यह हताशा कई बार बलात्कार के रूप में अभिव्यक्त होती है। एक और कारण यह है कि हमारे अवचेतन में जमी पौराणिकता ने ही हमें स्त्री विरोधी बनाया है।पुराने व्याख्यानों की लोकप्रिय आवृत्तियां अभद्र संकेत देती हैं। इंद्र को मामूली सजा और अहिल्या को पाषाण में बदलने जैसी अनेक कथाएं हैं। हरित क्रांति के बाद ग्रामीण क्षेत्र में मोटर साइकिल का आगमन हुआ और उस पर सवाल व्यक्ति की दोनों जांघों के बीच पांच हॉर्स पावर का इंजन है, जिसे चालक अपनी शक्ति मान लेता है और बलात्कार के रास्ते पर इच्छाओं का एक्सीलेटर दबाता है। सामंतवादी प्रभाव से सदैव ग्रस्त रहने वाले समाज में अनेक क्षेत्र में सफल आदमी हमेशा किसी न किसी वाहन पर सवार होता है और ये सारे वाहन दरअसल उसके नपुंसक अहंकार के प्रतीक हैं।
दर्शक अवचेतन की एक झांकी इस तरह है कि अरुणा राजे की साहसी सिताराजडि़त फिल्म 'रिहाई' का पहला शो हाउसफुल था, परंतु मध्यांतर के बाद मात्र पच्चीस प्रतिशत दर्शक ही रह गए। इसका कारण यह नहीं है कि वह नीरस और उबाऊ फिल्म थी। वह अत्यंत रोचक फिल्म थी, परंतु उसके स्त्री विमर्श का ताप दर्शक सह नहीं पाए और औरत वर्ग भी रुका नहीं, जबकि फिल्म के अंत में संवाद था कि स्त्रियों से सीता से आचरण की उम्मीद रखने वाले स्वयं कभी राम की तरह आचरण नहीं करते। स्त्रियां इतने लंबे समय से बंदिनी हैं कि वे अब स्वतंत्रता से भी परहेज रखती हैं। आमिर खान के शो 'सत्यमेव जयते' में एक पत्नी को पति पीटता है और जुबान काटने की धमकी देता है। दहशतजदा पत्नी बरसों से एक शब्द भी नहीं बोलती, क्योंकि उसे भ्रम है कि उसकी जुबान काट दी गई है। बहरहाल, यह एक गहन समस्या है।