हर शाख पे उल्लू बैठा है / हरिशंकर राढ़ी
किसी शायर ने ऐसा लिख मारा है। किसने लिख मारा है, यह जानने की कभी कोशिश ही नहीं की। इस शे’र के साथ एक मुहावरा भी दिमाग़ में ठूँसा गया कि आम खाने से मतलब या पेड़ गिनने से। तब से पेड़ गिनने तो क्या, पेड़ देखने से भी नाता टूट गया। अपने यहाँ का सीधा-सा फंडा है कि जब भी किसी शे’र के शायर का पता न हो तो उसे ग़ालिब के नाम चेप दो। अब ग़ालिब जानें या सुनने वाला जाने। इस आदर्श वाक्य को ग़ालिब का मानते-मानते ज़माना बीत गया तो पता चला कि जनाब ये तो कोई और जनाब थे जो इतना बड़ा फलसफा दे गए।
पहले कभी ग़ौर नहीं किया कि कौन-सी डाल पर कौन-सा उल्लू बैठा है! जो बैठा है वह उल्लू है, उल्लू का बच्चा है, उल्लू का बाप है या उल्लू का पट्ठा है? उसकी उम्र क्या है और पदवी क्या है? जो हर शाख़ पर बैठे हैं, वे सब उल्लू ही हैं कि उल्ली या उल्लानी भी हैं? यहाँ उल्ली और उल्लानी समान नहीं, अलग-अलग समझे जाएँ। कुछ उसी तरह जैसे लड़का और पुरुष, लड़की और महिला। अगर शायर ने उन्हें शाख़ पर नहीं बिठाया तो यह पुरुषवादी मानसिकता है या उसका अनुभवजन्य डर? उन्हें जान-बूझकर समाज से बाहर किया गया या वे इन शाखों पर फिट नहीं बैठती।
वैसे शायर की उल्लुओं से कोई जाती दुश्मनी रही होगी, वरना आज तक किसी आचार्य, किसी पक्षी विशेषज्ञ या मान्यताप्राप्त आलोचक तक ने ऐसा नहीं कहा कि उल्लू गुलिस्ताँ को बरबाद कर देता है। यहाँ तक कि मीडियावालों तक ने ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया जबकि वे खाते ही आरोप की हैं। किसी भी चैनल ने उल्लू के दस-पाँच पर्यायवाची निकालकर एक ही वाक्य को सरल, संयुक्त, मिश्रवाक्य, कर्तवाच्य, कर्मवाच्य में भयाक्रांतक स्वर एवं आरोह-अवरोह में जनता को एक बार भी नहीं चेताया।
गलिस्ताँ में बुलबुल के होने का ज़िक्र भी सुनने में आता है। शायद किसी बुलबुल को खंडहर मंे रहने वाले उल्लू का गुलिस्ताँ में आना और शाख़ पर बैठना अच्छा नहीं लगा होगा। जहाँ बस और ट्रेन की अनारक्षित सीट पर बैठने के लिए बुलबुलें और बुलबुले दफ़ा तीन सौ दो तक के लिए उतारू हो जाते हैं, वहाँ गुलिस्ताँ की शाख़ पर बैठने को लेकर इतनी ईर्ष्या और दुष्प्रचार तो बनता है। गुलिस्ताँ पर जिन बुलबुलों का कब्जा रहा है, वे क्यों चाहने लगे कि टूटे-फूटे भुतहा खंडहर या गाँव के बाहर बरगद के कोटर में छिपे रहने वाले, निशा जागरण करने वाले उल्लू उनके गुलिस्ताँ की शाखों पर बैठें? इनकी पीठ पर सवारी करती हुई लक्ष्मी भी नहीं दिख रही हैं। अगर वे होतीं तो कुछ सोचा जाता, सम्मान दिया जाता। सम्मान ही क्या, हिस्सेदारी भी दे दी जाती। लेकिन इन लक्ष्मी विहीन उल्लुओं का इस तरह गुलिस्ताँ में आना और रहना बुलबुलों की परंपरा के विरुद्ध है।
खैर, गुलिस्ताँ में रहते-रहते और देखते-देखते लगा कि मुझे भी किसी शाख़ पर बैठ जाना चाहिए। आख़िर मैं कब तक अपने आपको हंस मानकर मानसरोवर की तलाश करता रहूँगा? अभी तक मानसरोवर तो क्या, गाँव की गड़ही भी नसीब नहीं हुई। उसे भी मुखिया-सरपंच और विकास अधिकारी ने अपने लपेटे में ले लिया है। एक अदद सरपंच भी बन गया होता तो कम से कम एक गड़ही तो अपने लिए रख लेता। मुझसे ज़्यादा समझदार तो उल्लू ही हैं, जो नीर-क्षीर विवेक के तथाकथित लफड़े में पड़कर ज़िन्दगी का तमाशा नहीं बनाते।
मुझे उल्लुओं की क़िस्मत से रस्क होने लगा। काश! मैं भी उल्लू होता तो आज शाखाधारी होता, गुलिस्ताँवासी होता। अपने हंस होने या हंस होने के भ्रम होने पर शर्म आने लगी। पूरा का पूरा जीवन मिथ्याभिमान में निकाल दिया। जहाँ गया दूध का दूध और पानी का पानी करने का डंका पीटता रह गया। इतना भी समझ नहीं आया कि जब सारा पानी ही है, दूध है ही नहीं तो दूध का दूध और पानी का पानी कैसा? किसी के पानी को दूध के बजाय पानी कहूँगा तो वह मुझे बेपानी किए बिना क्यों छोड़ेेगा? उधर उल्लुओं को देखो, न किसी के दूध से मतलब है और न पानी से। बस अपनी जगह घेर के बैठे हैं और अँधेरा होते ही शिकार करके शाख़ पर वापस।
लेकिन इस उम्र में अलग से उल्लू बनना भी आसान नहीं। वैसे उल्लू बनने की कोई उम्र नहीं होती। कुछ लोग जन्मजात उल्लू होते हैं तो कुछ उल्लूपना प्राप्त करते हैं। कुछ को उल्लू बनते-बनते उम्र गुजर जाती है। लेकिन उल्लू बनने का फायदा तभी है, जब बैठने के लिए गुलिस्ताँ में कोई शाख़ मिल जाए। हर उल्लू को यह शाख़ मयस्सर नहीं होती। मुझ जैसे लोग उल्लू बन भी जाएँ तो ले देकर वही भुतहा खंडहर बचता है बैठने के लिए। बड़ी कोशिश करें तो किसी सैयद बाबा या बुढ़वा बाबा के वास वाला पुराना पीपल। दूसरी ओर गुलिस्ताँ में रहने के मजे ही अलग हैं। गुलिस्ताँ में बहुतेरे पेड़ हैं और उनकी बहुतेरी शाखाएँ- ठीक वैसे ही जैसे किसी बड़े देश में दर्जनों प्रदेश और और हर प्रदेश में दर्जनों जिले, दर्जनों विभाग और दर्जनों मंत्रालय।
एक बार पीछे मुड़कर देखा तो लगा कि मैं भी शक्ल एवं अक्ल से एक योग्य उल्लू हूँ। बैठने की फिराक में गुलिस्ताँ का पूरा चक्कर लगा आया। हर शाख, हर पत्ते को तलाश लिया। कहीं भी तिल रखने तक की जगह नहीं। बैठना तो दूर, पैर टिकाने की जगह नहीं। कोई भी उल्लू तिलभर खिसकने को तैयार नहीं। खिसके तब जब अपने से ऊपर की शाख़ पर जगह का जुगाड़ हो जाए। सबके आगे नाम और पद की प्लेटें लगी हुई। नीचे एवं बीच की शाखों पर वे बैठे थे जो प्रतियागी परीक्षा देकर, प्रतिस्पर्धा में दूसरे को हराकर या नवनीत लेपन करके आए थे। मतदान प्राप्त करके आए हुए सबसे ऊपर की शाखों पर। पिरामिड-सी संरचना थी। ज्यों ही मुझे जगह की तलाश में देखा, हूट करना शुरू कर दिया- तुम तो लेखक हो और वह भी व्यंग्यकार। लेखक हंस बिरादरी का होता है, उसमें भी व्यंग्यकार सबसे घटिया क़िस्म का। इधर गुलिस्ताँ में पाँव रखने की कोशिश मत करना। जाकर वहीं कहीं अपने मानस में मरो!