हर शै मुसाफिर है, सफर में जिंदगानी है - 2 / जयप्रकाश चौकसे

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हर शै मुसाफिर है, सफर में जिंदगानी है
प्रकाशन तिथि : 21 मई 2020


अनगिनत लोग सारा दिन चल रहे हैं और रात में जहां जगह मिले वहां सो रहे हैं। मुंबई से रिक्शा में रवाना हुए लोग रिक्शा पर चादर लगाकर उसे शयन कक्ष बना रहे हैं। देश के विभाजन के समय मानव कष्ट की कथाएं लिखी गई हैं। एक कमरे में टाट के परदे लगाकर शयन कक्ष बनाए गए। मंटो की कहानी ‘नंगी आवाजें’ इस तरह की करुण कथा है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म ‘भाग मिल्खा भाग’ में भी इसी तरह का एक दृश्य है। मिल्खा को उसका बहनोई पीट देता है और टाट के परदे के पीछे वासना से घिरा व्यक्ति अपनी पत्नी को पीटता है तो किशोर मिल्खा रक्षा के लिए पहुंच जाता है। कुछ रचनाओं में मृत्यु के क्षण को अभिसार की बेला की तरह प्रस्तुत किया गया है। जाने कैसे मृत्यु को प्रेमिका माना गया और उससे आलिंगनबद्ध होने को चरम आनंद की दशा बताया गया है। विजय आनंद की फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ के नायक को सूचना मिलती है कि उसके दूरदराज के रिश्तेदार ने अपनी वसीयत में उसे संपत्ति का वारिस बताया है। वह मित्र से पैसे उधार लेकर एक पुरानी स्टेशन वैगन खरीदता है। यह गाड़ी कमोबेश ‘राग दरबारी’ में प्रस्तुत ट्रक की तरह है जो चलते हुए आवाज करता है। यह गाड़ी उम्रदराज व्यक्ति की तरह हांफने लगती है।

एक कन्या जबरन किए जा रहे विवाह से भागकर नायक की गाड़ी में छिप जाती है। दोनों में तकरार होती है, फिर प्यार भी हो जाता है। विवाह मंडप से भागी दुल्हन की कथा से प्रेरित अनेक फिल्में बनी हैं। ‘हैप्पी भाग जाएगी’ एक मनोरंजक फिल्म थी। सचिन देव बर्मन ने माधुर्य रचा। फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ का एक गीत- ‘कली के रूप में चली हो धूप में कहां, सुनो जी मेहरबां, होंगे तुम जहां..। इसी फिल्म का दूसरा गीत- ‘हम हैं राही प्यार के हमसे कुछ न बोलिए, जो भी प्यार से मिला, हम उसी के हो लिए..’ काफी लोकप्रिय रहे।

मराठी भाषा की कथा ‘पंढरपुरची यात्रा’ में भक्तों में शुमार एक व्यक्ति एक स्त्री के जेवर चोरी करने के कई प्रयास करता है। हर बार एक बालक उसका खेल बिगाड़ देता है। उसे आश्चर्य होता है कि बालक को कभी उसने यात्रियों में देखा नहीं है। गंतव्य पर ईश्वर की मूर्ति में उसे उस रहस्यमय बालक की छवि नजर आती है। उसे जीने की राह मिल जाती है। वह हर वर्ष यात्रियों की सेवा करता है। ज्ञातव्य है कि अंग्रेजी साहित्य के पहले कवि चॉसर (सन् 1340) की रचना ‘पिलग्रिम्स प्रोग्रेस’ में तीर्थ यात्री यह तय करते हैं कि हर रात कोई यात्री एक कथा सुनाएगा। इन कथाओं का संकलन मानवीय भावनाओं का दस्तावेज बन गया। आश्चर्य है कि अमरनाथ यात्रा पर कथाएं नहीं लिखी गईं, फिल्में नहीं बनी। मुंबई में खाकसार ने एक टैक्सी ड्राइवर को गाड़ी तेज चलाने का बार-बार कहा तो वह बुदबुदाया कि जल्दी सभी करते हैं, परंतु उसने कभी किसी को पहुंचते नहीं देखा। हर गली, नुक्कड़ पर एक सुकरात छिपा बैठा है, परंतु खोजने वालों का ही अकाल पड़ गया है।वर्तमान के विस्थापन दौर में हर तरह के वाहन का उपयोग किया जा रहा है, परंतु पैदल चलने वालों की संख्या बहुत अधिक है। उनके पैरों में ही नहीं वरन् आवाज में भी छाले पड़ गए हैं। एक पुराना गीत है- ‘तूने देखा न होगा ये समां, कैसे जाता है दम को देख ले, हो सके तो आकर हमको देख ले..’।

मुंबई में टैक्सी और ऑटो रिक्शा दो रंग में होते हैं, काला और पीला। वहां के नागरिक इन्हें काली-पीली कहते हैं। इस तरह विस्थापन यात्रा को अपने रंग भी मिल गए हैं। चेतन आनंद की फिल्म ‘हंसते जख्म’ का नायक अपने पिता से विद्रोह करके रोजी-रोटी कमाने के लिए टैक्सी ड्राइवर बन जाता है। चलती हुई टैक्सी में गीत गाया जा रहा है- ‘तुम जो मिल गए हो, तो ये लगता है कि जहां मिल गया, एक भटके हुए राही को कारवां मिल गया..’।

एक दौर में शशि कपूर ने इतनी फिल्में अनुबंधित कर ली थीं कि वे चार फिल्मकारों को चार-चार घंटे का समय प्रतिदिन देते थे। राज कपूर अपने छोटे भाई को ‘टैक्सी’ कहने लगे थे। जॉन अब्राहम और नाना पाटेकर अभिनीत फिल्म का नाम था ‘टैक्सी नं. 9211’ इस रोचक फिल्म में एक वसीयत की हेरा-फेरी की कथा है। जाने कैसे यात्राएं और वसीयतें जुड़ जाती हैं, जबकि यात्रा का अनुभव खुद ही एक खजाने से कम नहीं होता। ग्रीक नायक यूलिसिस अनेक देशों को जीतकर घर लौटा तो उसकी मां ने कहा कि उन्हीं देशों की यात्रा एक सामान्य नागरिक की तरह करने पर उसे विलक्षण अनुभव होंगे। इसी से प्रेरित रचना जेम्स जॉयस की ‘यूलिसिस’ है। यूलिसिस में अनेक अर्थ की परतें हैं और उस पर अनेक ग्रंथ लिखे गए हैं। तमाम यात्रा साहित्य में यात्रा को गरिमा मंडित किया गया है। भूख, प्यास और सामान्य सुविधाओं से वंचित यात्रा के कष्ट को गरिमा मंडित नहीं करते हुए उसके भयावह यथार्थ को समझने का प्रयास किया जाना चाहिए।