हलवाई, ठिलवाई और जग हंसाई / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 मई 2018
एक नेताजी ने दलित के घर वह भोजन किया जो शहर के श्रेष्ठ हलवाई की दुकान से आया था, न कि दलित के चौके में बनाया गया था। एक अन्य दल के नेता विरोध रैली में भाग लेने के पहले छोले भटूरे सूत रहे थे। सारांश यह है कि सभी एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं और सारे दल खाऊ-पीऊ तौर तरीके वाले हैं। कितने मुनासिब हैं ये नेता गण जो भूख से बिलबिलाते देश को चला रहे हैं। यह मेडिकल तथ्य है कि जितने लोग भूख से मरते हैं उससे कहीं अधिक लोग आवश्यकता से अधिक भोजन करने से मरते हैं। पावर्टी से ज्यादा खतरनाक है प्लेन्टी।
रोहित शेट्टी की फिल्म 'चेन्नई एक्सप्रेस' के एक दृश्य में नायिका नायक के हलवाई होने का मखौल उड़ाती है। फिल्मों में खाने-पीने और डाइनिंग टेबल के दृश्य बहुत रहे हैं। 'बजरंगी भाईजान' में नायक डेढ़ दर्जन रोटियां खाता है और नायिका की छोटी बहन उंगलियों द्वारा खाई जा रही रोटियों की संख्या बताती है। यह एक हास्य दृश्य है। संजय लीला भंसाली की 'हम दिल दे चुके सनम' में विदेश से आए भारतीय नायक को चुहलबाजी के दृश्य में ढेरो मिर्चियां खानी पड़ती हैं। कुंदन शाह की नारी विमर्ष पर बनी अत्यंत साहसी फिल्म 'क्या कहना' में नायिका हमेशा एक खास कुर्सी पर बैठती है। विरोध के कारण वह घर छोड़ देती है। एक सदस्य उसकी कुर्सी को बाहर फेंक आता है तो दूसरा सदस्य कुर्सी को अपने स्थान पर रख देता है। फिल्म में कुर्सी का प्रतीक भावना को धार देता है। राजकुमार हीरानी की 'थ्री इडियट्स' में भी भोजन संबंधित मजेदार दृश्य थे।
नीरद चौधरी ने लिखा है कि भारत में पुनर्जन्म अवधारणा पर विश्वास किया जाता है, क्योंकि वे स्वादिष्ट भोजन करने के लिए बार-बार जन्म लेना चाहते हैं। यह धारणा अवतारवाद से अलग है। भोजनप्रियता हमारी विचार प्रक्रिया का हिस्सा है। फिल्मकारों ने भोजन और डाइनिंग टेबल का प्रतीक की तरह भांति-भांति से इस्तेमाल किया है। 'आवारा' में जज रघुनाथ अनुशासन प्रिय हैं। प्रतिदिन शाम आठ बजे डाइनिंग टेबल पर भोजन किया जाता है। जज रघुनाथ ने अपने एक दिवंगत मित्र की पुत्री को अपनी बेटी की तरह पाला है और पिता-पुत्री नियत समय पर भोजन करते हैं। जब नायिका की मुलाकात अपने बचपन के मित्र से होती है और उन दोनों के बीच प्रेम हो जाता है तो वह नियत समय पर घर नहीं आ पाती परंतु जज रघुनाथ अपने नियम समय पर अकेले ही भोजन करते हैं। डाइनिंग टेबल पर देर से आई उनकी मानस पुत्री जिस अनमने ढंग से भोजन करती है, उससे ही उसकी बगावत का आभास हो जाता है। 'आवारा' में प्रतीकों की भरमार है और केवल इस मामले में वह मलिक मोहम्मद जायसी की 'पद्मावत' की तरह है, जबकि थीम का आधार यह है कि जन्म से जीन्स द्वारा व्यक्ति की विचार प्रक्रिया नहीं बनती वरन् उस वातावरण और सामाजिक सत्य से बनती है जिसमें उसका लालन-पालन हुआ है।
फ्रांस के लेखक पीयरे लॉ मूर के उपन्यास 'क्लेअर द ल्यून' संगीतकार क्लाद डेब्यूसी की जीवन-कथा प्रस्तुत करता है। वह अपने संघर्ष के दिनों में अपनी प्रेमिका के साथ फाकाकशी का जीवन जी रहा है। घर में बमुश्किल कोई एक चीज पकाई गई है परंतु वे उसे सात रकाबियों में परोसकर ऐसे भोजन करते हैं मानो सात कोर्स का डिनर कर रहे हों। फाकाकशी और गुरबत भी उनके जीवन के उत्साह को कम नहीं कर पाती। मकान की छत में एक सुराख है, जिससे वर्षा का पानी बूंद-बूंद टपकता है और उन्होंने उस स्थान पर एक बरतन रखा है ताकि पानी फैल न जाए। उस टिप-टिप करती बूंदों में संगीतकार नायक संगीत की स्वर लहरी सुनता है कि यह 'बी फ्लैट' व ये सी माइनर है। यह पाश्चात्य संगीत की सरगम है।
राज कपूर को अपने भोजन की टेबल पर विविध भोजन परोसा जाना पसंद था परंतु सारे पकवानों के साथ दाल अवश्य रखी जाती थी। वे एक पंजाबी कहावत दोहराते थे 'खाओ दाल जेडी निभे नाल' अर्थात दाल हमेशा मिल सकती है, अन्य सभी चीजें महज एेश्वर्य हैं। भोजन प्रेमी दो तरह के होते हैं। एक वे जो अधिक प्रमाण में भोजन करना चाहते हैं और दूसरे वो जो थोड़ा-थोड़ा चखते मात्र हैं। वे पेटू नहीं होते। यही पेटू व चटोरे में अंतर होता है।
बहरहाल, हलवाई की दुकान से मंगाया हुआ भोजन दलित के घर करने से वोट बैंक नहीं बनते। आजकल राजनीति में आदर्श और सिद्धांत नहीं, सिर्फ टोटकेबाजी का तमाशा जारी है और हम अनंत तमाशा शौकीन मजे से तालियां बजा रहे हैं।