हलाहल / संतोष श्रीवास्तव
वह फिर चिल्लाई-"साँपऽ ... साँपऽ ... मदन भैया, बाबू साँप!"
रात के बारह बजे थे। मदन ने पढ़ाई ख़त्म कर लाइट बुझाई ही थी कि वह चीखी थी।
"कहाँ है साँप... चुनिया बेटे... कहाँ है साँप?"
"वोदेखो, म्याल से लटक रहा है पूँछ के बल... भैया मारो उसे।" बाबू जागकर दौड़े आये थे। अम्मा नहीं उठी थीं। दो महीनों से यही सिलसिला चल रहा है चुनिया का... बत्तीबुझते ही चीखती है। या जब सड़क से कोई ट्रक गुज़रता है और उसकी हैडलाइट खिड़कीसे कमरे में उतर आती है या फिर चाँदनी रातों में। चीखना और चीख का पर्याय मात्र चीखना। ऐसाडर समा गया है कि जाता ही नहीं। मूँजकी खटिया पर करवट बदल अम्मा ने वहीँ से पुकारा-"आजाचुनिया, इधर आजा, मेरे पास सो आके।"
"अरे काहे को उसे डरपोक बनाने पर तुली हो तुम। है न मदन कमरे में। सो जा चुनिया... देख कहाँ है साँप... कहीं कुछ भी तो नहीं। मैं कल ही मंगर से जले साफ़ करा देता हूँ। मकड़ी के बड़े-बड़े जाले भी साँप से लटकते नज़र आते हैं।" बाबू ने उसके सिर पर हाथ फेरा और चादर ओढ़ाकर चले गये। चुनिया ने सिर तक चादर तान ली।
बरसों पुराना था यह घर। चुनिया के बाबा इसी घर में पैदा हुए थे, फिर बाबू और फिर तीनों भैया भी। पूरी तीन पीढ़ी झेल चुका है यह पुश्तैनी घर। कमरे बड़े बड़े, ऊँची-ऊँची छत वाले विशाल! खपरों की छानी, छानी को आधार देती मोटी-मोटी म्यालें मानो पेड़ के तने ही ठुके हों। नीचे फ़र्श पर पत्थर की चीपें जड़ी थीं। बड़ी-बड़ी चौकोर। हर दूसरे तीसरे दिन फ़र्श की धुलाई होती। चीप के सीमेंट उखड़े किनारों में पानी भर जाता। ठंड और गर्मियों में ख़ूब ठंडाते कमरे लेकिन बरसात में सीड़न रहती। कमरोंकी दीवारें उधड़ी थीं, चूना झरता रहता। लकड़ी की चौखटों वाली दहलीज़ में भी दीमक लग गई थी। बाबू चिंतित थे अगर दीमक फैल गई तो पूरा घर चर जायेंगी, पता भी नहीं चलेगा। लेकिन चुनिया चाहती है कि दीमक पूरा घर चर ले फिर नयी दीवारें, नई चौखट और नई छत बनेगी, पक्की छत सीलिंग वाली सीमेंट की जिसमें बीचोंबीच बिजली का पंखा होगा। तबकहाँ से साँप लटकेगा छत पर, मयल जो नहीं रहेगी।
रोमांच हो जाता है नागपंचमी के दिन को याद करके। पूरे बदन में सिर से पाँव तक लिजलिजाहट समा जाती है। सड़कों पर शोर था उस दिन...बाजे गाजे, लाउडस्पीकर। छोटे शहरों और गाँवों में त्यौहारममनाने का यही ढंग है। पिटारियों में क़ैद नाग, बीन बजाते सँपेरे और उत्सुक भीड़। बारिश ने चहुँ ओर हरियालीके ख़जाने खोल दिये थे। वैसे भी घर के चारों ओर बगीचे के कारण बड़ी गझिन हरियाली थी। फाटक के दोनों ओर विशाल नीम के झाड़ थे जिन पर तोते दिनभर शोर करते। पिछवाड़े सब्जियों की क्यारियाँ थीं और क्यारियों के किनारे ऊँची ईंट की दीवार की फेंसिंग से सटे नींबू, अमरुद, पपीते, केले के पेड़। कभी-कभी मंगर बगीचे की सफ़ाई करते हुए लाठी में साँप लटकाये हुए अम्मा को दिखाने आता। उसकेबदन में सुरसुरी-सी फैल जाती। अम्मा झट कहतीं-"लेजा उधर, सड़क के उस पार दूर ले जाकर फेंक आ, इधर काहे को लाया।"
मंगर खी-खी हँसता हुआ जानबूझकर उसके आगे लठिया हिलाता चला जाता। मदन और चुनिया के कमरे की खिड़की के उस पार गुलाब, गेंदा और चमेली की लतरें थीं। चमेली की लतर खिड़की तक चढ़ आई थी। चुनिया चुपचाप चमेली की फुनगियाँ नोंच देती ताकि पूरी खिड़की खुली रहे और आसपास का सब साफ़-साफ़ दिखता रहे। भरे पूरे घर में रहने वाली चुनिया अब एक़दम अकेली पड़ गई थी सो मन धुक् धुक्-सा करता हमेशा। बड़े-बड़े कमरों में अपनी ही परछाईं डरा देती उसे। बगीचे में गिलहरी की सरसराहट चौंका देती। जब तीनों जीजी थीं, बड़के मँझले भैया थे, भाभियाँ और भतीजे भतीजी थीं तो न चौंकना होता न धुकधुकी। बल्कि तब तो हर वक़्त के शोर से तंग आ वह कभी-कभी सड़क पर दूर तक टहल आती थी। लेकिन अब जीजियाँ ससुराल चली गईं। बड़के भैया रुड़की और मँझले भैया नोएडा में जाकर बस गये। रहगये अम्मा, बाबू, वह और मदन। मदन भी चला जायेगा। कहता है अमेरिका जायेगा कमाने। इधर वैसे भी भविष्य नहीं है। अतीत में डूबा चरमराता-सा शहर है ये। बाबा के ज़माने की धाक़ में औलाद का किया कमही नज़र आता है लोगों को। मानो बाबा की पहचान में लिपटा हो वजूद।
वह चौके की दीवार पर घी और पीले सिंदूर से नागपंचमी के नाग बना रही थी। पूजा के लिये फूल सुबह ही तोड़ लिये थे बस चौक पूरना बाक़ी था। अम्मा गुलगुले बनाने के लिए गुड़ उबलने रख रही थीं-"चुनिया ज़रा ऊपर टाँड (रैक) पर से बड़ी चलनी तो उतार दे..."
अम्मा ने कहा तो वह झल्लाती हुई उठी-"बीच-बीच में काम बोल देती हो हाथ हिल जाता है।"
अक़्सरऐसा हो जाता है। चुनिया कोई काम तन्मयता से कर रही हो, बीच में कोई टोक दे तो वह संतुलन खो देती है। लेकिन उसकी ये झल्लाहट उसकी अपनी होती है। कहीं से कोई विरोध या नाराज़ी नहीं उठती उसके प्रति। अच्छी तरह अपना भुनभुनाना निकालकर वह फिर तन्मय हो जाती है। टाँड तक उसके हाथही जाते थे, कद छोटा पड़ता था। पंजोंके बल खड़े होकर उसनेचलनी उतारी तो लद्द से कोई गिलगिली, लिजलिजी-सी चीज उसके कंधे, पेट और जाँघों से फिसलती नीचे गिर पड़ी। वह ज़ोरों से चीख़ी और उसने विस्फ़ारित हो देखा... वह काले रंग का लंबा साँप था जो उसके बदन से फिसलता हुआ नीचे गिरा था। उसकी धड़कनें रुक-सी गई। एक पल को लगा मानो उसके बदन का सारा खून निचुड़ गया हो, हड्डियाँ गल गई हों और वह स्वयं निचुड़ा, गिलगिला एहसास बन गई हो। अम्मा फुर्ती से उठीं और उसे अपनी बाँहों में समेट दरवाज़े तक ले आईं फिर ज़ोर से चीखीं-"अरे मंगर, साँप... साँप है चौके में।"
साँप घबराया हुआ चौके में इधर से उधर चक्कर मारने लगा। साँपएक कोने में जाता वे दूसरे कोने में चली जाती। हाँफ़ती, चीख़ती अम्मा ने बहुत देर बाद महसूस किया कि चुनिया की दँतकड़ी बँध गई है। तब तक मंगर साँप का फ़न कुचल चुका था-"क्या मालकिन, आपने नागपंचमी के दिन हमसे पाप कराया... साक्षात नागदेवता पधारे थे आपके घरतो।"
फिर अम्मा को चुनिया के दोनों गालों पर चपतलगाते देख सकपका गया-"बिटियाका बेहौंस हो गईं?"
"हाँ, मदन को बुला ला... पलंग पर लिटा देगा इसे। डर गई है न, पूरे शरीर से साँप गुज़रा है। अलमारी में रखी अमोनिया, नौसादर की शीशी भी लेते आइयो। सुँघाना पड़ेगा इसे।" थोड़ी देर में बाबू भी आ गये। वह होश में आती फिर बेहोश हो जाती। होश में आते ही रोने लगती। "अम्मा... बाबू... साँप... मेरे बदन पर साँप चला है, बाबू।" वह अम्मा का हाथ छोड़ ही नहीं रही थी। अम्मा हाथ छुड़ाकर जाने को होतीं तो वह चौंक पड़ती और फिर हाथ कसकर पकड़ लेती। शाम होते-होते बुखारचढ़ आया उसे। माथादर्द से फटने लगा। बाबू डॉक्टर बुला लाये। डॉक्टर ने दवा दी और आराम करने को कहा। आराम ही तो कर रही है सुबह से। पूजा की तैयारी भी पूरी नहीं कर पाई। अम्मा के गुलगुले सिंके या नहीं... नरेटीमें नाग के लिये दूध लेकर थाली में दिया जलाकर अम्मा के साथ जाना भी तो है ढलान के पीपल तक... वह बर्राने लगी-"अम्मा देखो, घी सिंदूर के बने नाग रेंगने लगे। बाबू से कहो पूजा निपटा दें फिरमंगर इन्हें जंगल में छोड़ आयेगा।"
"कहाँहै नाग बेटा... चुनिया, मेरी गुड़िया, हिम्मत रख बेटे, तू तो बहादुर है न।"
"है न बाबू नाग... वह देखो ऊपर म्याल से लटके हैं। बाबू, पूजा करो न जल्दी। दूध माँग रहे हैं नाग जीभ लपका-लपका कर।"
अम्मा ने माथा पीट लिया-"हाय मेरी चुनिया को क्या हो गया।" बाबू ने उन्हें चुप रहने का इशारा किया फिर चुनिया का माथा सहलाते हुए कहा-"चुनिया बेटे... चल उठ, मैं मंगर से रिक्शा मँगवाता हूँ। आज पंचमी का बाज़ार भरा है... तू कहती थी न कि बाज़ार घूमना है।"
चुनियाने हैरत से बाबू को देखा। बाज़ार घूमने की ज़िद्द तो वह तीन दिन से कर रही थी। लेकिन तभी उसे छाती परसाँपकुंडली मारे बैठा महसूस हुआ। वह झटके से उठी और खड़ी हो गई-"चलो बाबू।"
चुनिया को बुखार चढ़ी हालत में बाबू घंटा भर घुमाते रहे। मंदिर... बाग़ बगीचे... फव्वारा... बाज़ार में रौनक़ थी। मैदानों में दंगल हो रहे थे। सजी धजी दुकानों में लाउडस्पीकर बज रहे थे। चुनिया का चेहरा खिलगया। बाबू समझे चुनिया का, मन बदल गया है लेकिन ग़लती ये हो गई कि जब लौटे तो सड़क पर सन्नाटा पसर चुका था और सड़क की बत्तियाँ पीले उजास के दायरे बना बिगाड़ रही थीं। वे पीले दायरे कभी लहराती झंडियाँ बन जाते, कभी लहराती लकीरें... झिलमिल... ज्यों साँप... साँप... हूबहू साँप जैसे। चुनिया को कँपकँपी छूट गई और वह बाबू के सीने में दुबक गई।
चुनिया पूरे पंद्रह दिन बीमार रही...डर, कँपकँपी, चौंकना, सूखी सिसकियाँ और नींद में बर्राना उसके मर्ज़ बन गये। अम्मा मुँह बिसूरने लगीं-"क्या हो गया लड़की को? कैसे होगा इसका ब्याह अगर यही हाल रहे। अच्छी भली थी, मेरी मति मारीगई थी जो इससे चलनी माँग ली। अब क्या होगा?"
परिंदों के फड़फड़ाने से तालाबका थिर पानी जैसे जीवित हो उठता है... उस थके अलसाये से शहर में भी कान दर कान यह ख़बर पहुँच गई कि पोस्ट मास्टर जनरल बाबू दयाराम की बेटी चारुलता उर्फ चुनिया अपने होश में बात नहीं करती। मिर्गी के दौरे पड़ते हैं उसे! सुनकर अम्मा ख़ूब रोईं। लोग भी राई का पहाड़ बना देते हैं। उनके ख़ानदान में आज तक तो किसी को मिर्गी के दौरे पड़े नहीं... डरगई है बेचारी, भारी भरकम पूरा साँप उसके शरीर से फिसला है। अच्छे अच्छों के छक्के छूटजायें फिर चुनिया तो लता-सी कोमल दुबली-पतली, भाग्य थे सो बच गई। कहींडंस लेता तो!
औरचुनिया, उसका तो रूटीन ही बदल गया था। न बगीचे में जाती न अँधेरे में ... जंगल, पहाड़ों को खंगाल डालने की उसकी हसरतपर डर की किर्चें बिखर गई थीं जो उसके पैरों को लहूलुहान कर डालती। अब उसने अपने आपको कमरे में क़िताबों में समेट लिया था। मदन बड़े ज़ोर शोर से उसकी दसवीं की बोर्ड परीक्षा की तैयारी करवा रहा था। सरेशाम से ही वह मदन की टेबिल पर अपनी किताबें फैला लेती। जब तक मदन पढ़ता वह भी पढ़ती। अम्मा गरम दूध दे जातीं। दूध पीकर वह ऊँघने लगती। रात के किसी पहर में उसे सरसराहट सुनाई देती। वह घबराकर पट से आँखें खोल देती। कमरे में नाइट बल्बकी नीली धूमिल रोशनी होती। मदन सो चुका होता और म्याल पर साँप लटका होता और एक चीख दीवारों की पपड़ियाँ झड़ा देती... "बाबूऽऽ साँप... अम्मा, मदन भैया... साँप।"
साँप मानो उसके बदन पर रेंग रहा होता, फिसल रहा होता, कोमल गिजगिजा, ठंडा, लहराता स्पर्श तन बदन के रोंगटे खड़े कर देता। वह कंधे से चलता हुआ पेट पर होता हुआ, जाँघों पर रेंगता हुआ पिंडलियों से नीचे उतर आता। फिर पैरों की उँगलियों पर... वह घबराकर आँखें खोल देती। साँस तेज़ी से चलने लगती। शरीर में कँपन समा जाता। क्या कोई इस दहशत, इस भय से छुटकारा नहीं दिला सकता? क्या कोई यह दिलासा नहीं दिला सकता कि साँप से उसकी कोई हानि नहीं हुई है? बल्कि बाबू तो कहते हैं कि नागपंचमी के दिन नाग गले में पहनने से उम्र बढ़ती है। तो क्या उसकी उम्र बढ़ गई है? हाँ, वह जीना चाहती है। ज़िंदग़ी को अपने अर्थों में जीना चाहती है, अपने ढंग से... लेकिन... अब तो छायाएँभी डराने लगी हैं उसे... छोटे-छोटे पेड़ पौधों की कितनी लंबी-लंबी छायाएँहोने लगी हैं और जब बौने पेड़ पौधों की लंबी छायाएँ पड़ने लगती हैं तो तय है कि सूर्यास्तहोनेवाला है... सूर्यास्त! फिर वही रात, वही भय का दंश, वही पोर-पोर उतरती सिहरन। कैसे रात बिताये? लेकिन रात होने से पहले वहसारीसंभावनाओंपर हमला कर बैठती। बिस्तर झटकती। तकिया उठा बार-बार देखती। पलंग के नीचे, सिरहाने, पायताने, उसकी खोजी नज़रें पलंग का कोना-कोना छान मारती। फिर संतुष्ट हो वह सोने का प्रयास करती लेकिन फिर वही छत की म्याल सिर पर... फिर वही चीख़... फिर वही सबका रतजगा।
तीन दिन से झड़ी लगी है। आसमान स्याह हो गया है। तेज़ बौछारें अनवरत स्वर में लय बनकर छाई हैं। बूँदों का नर्तन आँगन, सड़क और बगीचे में लगातार हो रहा है। कभी बौछारें रुकतीं भी तो तेज़ हवाएँ चलने लगती। हवाओं में झूमते पेड़ों की सांय-सांय और शाखों के पत्तों पर अटकी बूँदों का टप-टप गिरना भय-सा पैदा करता। कभी-कभी भीगी हवाएँ कमरे में घुस आतीं जब खिड़की खुली होती। पता नहीं कैसा मौसम हो रहा था। कभी भय का संचार करता कभी आनंद का। कभी लगता सब कुछ उसकी मुट्ठी में है। कभीसब कुछ मुट्ठी से फिसलता-सा लगता। रात खाने के दौरान बाबू ने बताया कि "छोटे चाचा नीरू के लिये लड़का देखने आ रहे हैं।"
"अच्छा, कब?"
"शनिवार को। लड़का यहीं बैंक में हिन्दी ऑफ़ीसर है।"
"यह तो बड़ी अच्छी ख़बर सुनाई तुमने। बैंक की नौकरी होतीठाठ की है। नीरूभी आ रही है क्या?"
"नहीं... पहले घर ख़ानदान तो देख लें। शायद किसी दावत पार्टी में मिल चुके हैं दोनों। ठीक से मुझे भी पता नहीं है।" अगर नीरू आती तो मजे से कटती रातें। दोनों में ख़ूब पटती है। हम उम्र बहनें सखियोंजैसीही तो होती हैं। ज़माने भर के किस्से बोलना बतियाना। पिछली बार आई थी तो पता ही नहीं चले थे पंद्रह दिन। उन पंद्रह दिनों में धरती आकाश उसके थे, चाँदनीउसकी थी, धूप और हवाएँ उसकी थीं और अस्त होते सूरज की लालिमा उसकी थी लेकिन अब...अबमानो सब पराया-सा लगता है। उसकेहृदय में भय कुंडलीमारे बैठा है और वह किसी ओझा तांत्रिक की तलाश में मानो भटक-सी रही है। कई बार उसने इस भय पर काबू पाना चाहा, कईबारअपने आपको दृढ़ किया पर कुछ ही पलों में वह दृढ़ता मोम-सी पिघल जाती। भय फिर अपनेनोंकदार सिरों को उसके पोर-पोर में उगा देता।
चुनिया का मन बदले, वह उस हादसे को भूलेइस प्रयास में बाबू उसे घुमाने ले जाने लगे। नर्मदा के घाटों पर... जो नये घाट बने हैं उन पर भीड़ होती। बाबूउसे जानबूझकर पुराने घाटों पर ले जाते। घाटों की काली सीढ़ियों पर हरी काई उगी होती। वह देर तक सीढ़ियों पर बैठकर नर्मदा की लहरों को देखती। धीरे-धीरे डूबते सूरज के इंद्रधनुषी रंग नर्मदा की सतह पर बिखर जाते... फिरतारोंकीप्रतिच्छाया उन पर डोलती, सतहकाली हो जाती, लहरें भी काली, हवा में लहराती ज्यों साँप ही साँप ढेरों ढेर साँप ... वह घबरा जाती-"चलो बाबू घर।"
बाबू हँस पड़ते-"अभी थोड़ी देर में जलते दीये तैरेंगे नर्मदा में... तब हम नर्मदास्त्रोत पढ़कर घर लौटेंगे।"
और धीरे-धीरे घाट के ऊपर बने मंदिर में आरती के घंटे गूँजने लगते। घंटे, मंजीरे और ढोल एक पवित्र समां बाँधदेते। बाबू हाथ जोड़कर खड़े हो जाते, वह भी हाथ जोड़ लेती। बीच-बीच में आँखें खोलकर लहरों को देखती और भय का स्फुरण महसूस करती। आरती ख़त्म होते ही भक्तों के झुंड सीढ़ियों पर उतर आते। उनके हाथ में ढाक के पत्तों के दोने होते जिनमें आटे के बने दीपक जलते होते। वे'जय नरबदा मैया' कहकर दीये प्रवाहित कर देते। गहरे काले जल में डोलते दीपकों की लौ बेहद सुंदर लगती। बाबू ज़ोर-ज़ोर से नर्मदास्त्रोतपढ़ते। वह भी साथ-साथ स्वर मिलाती-'नमामि देवी नर्मदे' ... इन श्लोकों मेंपवित्र आचमन-सी अनुभूति क्यों है? क्यों इतनी कशिश है किसब कुछ त्याग कर बस इसी में समा जाने को मन करता है। इनश्लोकों में, इस लय में, न कहीं भय, न आशंका, न बदन पर रोंगटे खड़े होना, न धड़कनों का तेज़ होना। एक सम्मोहन, एक मंत्रबिद्धतासी।
"बाबू ने उसे भेड़ाघाट भी घुमाया। चुनिया को ताज्जुबथा जिन जगहों को देखने कीज़िद्द वह सालों से करती आ रही है अब वे जगहें उसके लिए सहज सुलभ थीं। भेड़ाघाट और धुआँधार जलप्रपात का संगमरमरी सौंदर्य, उन पर पड़ती सूरज की सुनहली किरनों का कई-कई रंगों में तब्दील हो जाने का रोमांचकारी दृश्य... नर्मदा का एक विशाल झरने में बदलता धुआँधारी रूप देख चुनिया की टकटकी बँध गई। भेड़ाघाट से ऊपर चौंसठ जोगिनी का मंदिर, देवीकी हर मूर्ति कहीं न कहीं से खंडित लेकिन फिर भी कलछुरी काल के स्थापत्य की मूक गवाही देती। बाबू ने बताया कि यहाँ से रानी दुर्गावती के किले तक जाने की सुरंग थी।"
शनिवार की शाम छोटे चाचाने वाले थे और शनिवार को ही बाबू उसेगोंड रानी दुर्गावती का क़िला घुमाने ले गये। मदन और मंगर भी साथ गये। किले में लंबे-लंबे गलियारों में खंभे ही खंभे थे। हर खंभे पर जंगली लतर-लिपटी थी। गलियारों के ऊपर छत पर रोशनदानों में कबूतर ही कबूतर थे। वह लंबे गलियारों में तेज़-तेज़ चलती रही। मानो इन गलियारों से उसकी पुरानी पहचान है, इन गलियारों की ओर खुलने वाले कमरों में रानी का विशेष कमरा भी था, टूटा फूटा... खंडहर हुआ, अपने वैभव का साक्षी। कमरे में पूर्व की ओर खुलने वाली खिड़की से दिखती नर्मदा की चाँदी-सी चमचमाती धाराऔर पश्चिम की ओर रानी के घुड़साल... उनका कद्दावर काला घोड़ा यहीं बँधता था।
"रानी बहुत बहादुर थी। अद्भुतपराक्रम था उसका। पता चल जाये कि सतपुड़ा के जंगलों में शेर दिखा है, जब तक उसका शिकार नहीं करती थी, पानी नहीं पीती थी।"
और चुनिया... साँप से डरी... एक़दम डरपोक। सोचते हुए उसने शर्म से नज़रें झुका लीं। बाबूउसी की ओर देखकर तो रानी दुर्गावती की वीरता के किस्से कह रहे थे। असर हुआ है चुनिया पर, अब शायद डर भी छूटे।
संझाबाती होते ही फाटक पर रिक्षा आकर रुका और छोटे चाचा विनय भैया और शंकर उसमें से उतरे। विनय भैया और छोटे चाचा ने बाबू के पैर छुए, अम्मा के भी। किले से लौटते हुए बाबू मंगर को लेकर बाज़ार चले गये थे, थैलों में सामान भरा था। अम्मा सामान सहेजने में जुटी थीं। चुनिया खुश थी। रानी दुर्गावती के किस्से ने उसमें साहस भर दिया था। नहीं, डरना कैसा? उस साँप को तो मंगर ने मार डाला था, फिर कहाँ इस घर में साँप निकला जो म्याल पर जाकर लटके। छानी भी मंगर ख़ूब झाड़ पोंछ चुका है। म्याल कपड़े से साफ़ हुई है। छानी के खपरे बरसात की शुरुआत में ही बदले गये थे। हर साल बदले जाते हैं, नहीं तो पानी टपकने का ख़तरा रहता है। चुनिया ने गुलाबी रेशमी धागों से कशीदा किया हुआ काला सलवार कुरता पहना। बालों को सुबह ही शैंपू किया था। कुछ-कुछ भूरे, लंबे बालों की ढीली चोटी बाँध वह अम्मा का हाथ बँटाने चौके में पहुँच गई-"ले चुनिया, ये ट्रे बैठक में रख आ। सब चाय नाश्ते का इंतज़ार कर रहे हैं। मंगर दाल पीस रहा है मुँगोड़ों की, फिर आकर चटनी का मसाला तैयार कर देना, लगे हाथ वह भी पिस जायेगी।"
वह ट्रे लेकर बैठक में आई। टेबिल पर ट्रे रख चाय का प्याला पहले चाचा, फिर बाबू को दिया, फिर शंकर की ओर प्याला बढ़ाया। महसूस हुआ शंकर उसे बड़ों के सामने ही बड़ी बेबाकी से घूर रहा था। विनय भैया ने परिचय कराया-"चुनिया... ये शंकर है, एम कॉम कर रहा है मेरे साथ ही।"
"चुनिया" वह ठहाका मार कर हँस पड़ा-"एक़दम कुचीपुची-सा नाम है आपका... चुनियाजी, आप पढ़ती हैं?"
"जी, मेरा नाम चारुलता है, मैं इस साल दसवीं की परीक्षा देने वाली हूँ।" उसने रुक्षता से चिढ़कर जवाब दिया और विनय भैया को चाय देकर फौरन ही चली गई वहाँ से। शंकर की बेबाक नज़रें चौके तक उसका पीछा करती रहीं। उसे लगा उसकी पीठ पर शंकर की निगाहें चिपक गई हैं जिससे बरसाती तेज़ हवाएँ भी पीछा नहीं छुड़ा पायेंगी। वह देखता रहेगा और चुनिया भीतरी चुभन से पीड़ा पाती रहेगी। उफ, किसी की दृष्टि इस तरह झँझोड़ डालती है। एक आसक्त, उद्दंड दृष्टिपात, मन का एक कोना दरक-सा गया मानो। चौके का काम निपटा वह कमरे में आकर किताब पढ़ने लगी लेकिन उन आँखों ने किताब में भी घुसपैठ मचा दी। एकढीठ-सी छुअन, एक ज़िद्द भरी मौजूदगी।
खाने से निपटकर सब थके माँदे, उनींदे से बिस्तरों में दुबक गये थे। चुनियामदन को जागता पा तसल्ली से भर मुँह तक चादर ओढ़े सोने की कोशिश करने लगी। लेकिन नींद कहाँ! जबकिदिन भर क़िला घूमने और शाम को चौके में काम की अधिकता से वह ज़्यादा ही थकावट महसूस कर रही थी। किले के बुर्ज, विशाल कक्ष, खंभे, लंबे-लंबे गलियारे उसकी स्मृति में रह-रहकर उभर रहे थे। उसे लग रहा थामानो वह उन गलियारों में दौड़ रही है। कबूतरपंख फड़-फड़ाकरइधर-उधर हो रहे हैं। दौड़ते-दौड़ते थक चुकी है वह पर गलियारे ख़त्म ही नहीं होते। गलियारों में फ़ौजी बूटों की चरमराहट गूँजती है। मुड़कर देखती है रानी मर्दाने कपड़ों में हाथ में तलवार लिये चली आ रही हैं। आज फिर किसी ने शेर के देखे जाने की सूचना दी है क्या? लेकिनशेर कहाँ, ये तो शंकर की आँखें हैं। रानी ने आँखों पर वार किया है, आँखेंछिटक कर किले के कंगूरों से चिपक गयी हैं। घबराकर उसने मुँह पर से चादर हटाई तो कमरे में हलकी चाँदनी खिड़की से उतर रही थी। शरद का आसमान एक़दम साफ़ निरभ्र था। मदन सो चुका था। उसने भी करवट बदल ली।
नीरू के लिये रिश्ता तय हो गया। शरबत पिलाई की रस्म हो गई। चाचाने नेग दस्तूर दिये, फिर पूरा घर गया लड़का देखने। शांत, सौम्य, बेहद शिष्ट व्यक्तित्व वाले जिस युवक से वह परिचित हुई वही था नीरू का भावी पति। वह युवक के बाजू वाले सोफे में बैठ गई और शंकर की ओर हिकारत भरी नज़रों से देख युवक से बातों में तल्लीन हो गई। न जाने क्यों उसे शंकर ज़रा भी नहीं जम रहा था। जब से आया है एक झुँझलाहट-सी छायी रहती है चुनिया पे। ऐसा होता है कभी कभी। बिना कारण कोई बेहद अच्छा लगने लगता है और बिना कारण कोई बेहद बुरा। जैसेशंकर! उसके देखने का ढंग बिल्कुल पसंद नहीं चुनिया को और जैसे नीरू का मंगेतर... कितना मोहक व्यक्तित्वहै इनका।
"अबइजाजत दीजिए... काफ़ी दूर जाना है।"
बाबू उठ खड़े हुए।
"एकदमशहर के दूसरे छोर पर है घर आपका। लेकिन है बहुत सुंदर जगह... हरी भरी, साफ़ सुथरी।" लड़के के पिता ने कहा तो बाबू शालीनता से मुस्कुराये-"अब तो आना जाना लगा रहेगा। समधियानाहो गया अब तो। चलें, चुनिया बेटे?"
"चुनिया! बड़ा प्यारा नाम है आपका... एक़दम गुड़िया-सा लाड़ला, दुलार भरा, हम तो आपको इसी नाम से पुकारेंगे।"
अपने भावी जीजा के मुख से अपने नाम की तारीफ़ सुन चुनिया ने शंकर की ओर देखा। उसके नाम का मज़ाक उड़ाया था न उसने! अब? अरे, हर बात कहने की एक तमीज़ होती है।
पश्चिम में आलता-सा छिटका पड़ा था। डूबते सूरज का रागमय माहौल। बरसात की बिदाई में आसमान सज गया था। शरदऋतु की धुली-धुली सुंदरता बिखरी पड़ी थी। जब तक वे घर पहुँचेशरद की चाँदनी ने वनपंथ उजाले से भर दिये। देर रात तक बैठक में शादी की चर्चा होती रही। अज चाचा का मन पीने का था। सो बाबू और चाचा उसी मूड में थे। मदन ने उनकी तैयारी कर दी। चाचा ने मदन, विनय भैया और शंकर को भी बुलाया-"आज तो जश्न मनायेंगे। बिटिया की शादी तय हो गई।"
मदन ने लिहाज में बस एक पैग ही लिया। वैसे भी उसे अपने दोस्त गिरिराज के यहाँ नोट्स लेने जाना है। लौटने में देर भी हो सकती है।
"लाला, तुम तो अपनी ख़ुशी पीकर मना लेते हो। हम कैसे मनायें?" अम्मा नमकीन की प्लेट लिये बैठक में अ गई थी।
"आपभी लो भाभी... चखो तो, वरनाइसके लिये दुबारा जनमलेना पडेग।" चाचा ने चुटकी ली।
नहींलाला, ये तृप्ति कहाँ देती है? तुम्हें ही बार-बार इसकी खातिर धरती पर आना पड़ेगा। "
चाचा लाजवाब हो मुस्कुरा रहे थे।
चौके के काम निपटकर चुनिया थक चुकी थी। बदन अलसा रहा था। विनय भैया और शंकर के बिस्तरे मंगर ने बड़के भैया के कमरे में लगा दिये थे। चाचा मँझले भैया की कोठरी में सोये। वे जब भी आते हैं वहीँसोते हैं क्योंकि शादी से पहले यह कोठरी उनकी ही थी। चुनिया बड़े से कमरे में अकेली सो रही थी। न जाने मदन कब लौटे। वैसे वह जब भी नोट्स लेने जाता है रात एक बजे से पहले घर नहीं लौटता। चाँदनी रात, झींगुरों की झुनझुन और शिरीष के पेड़ों पर लगी चाकू-सी नोंकदार सूखी फलियाँ जो हवा चलने पर झनझनाहट-सी पैदा कर रही थीं उसे थपकियाँ देने लगी। गहरी नींद में डूबी चुनिया हड़बड़ाकर जाग गई... "कौनऽऽ" शी... शी... कीफुसफुसातीसी आवाज़ सुन वह सर से पैर तक जंगलीलतरसी काँप गई-"बाबू... साँऽऽऽ," अभी शब्द होंठों पर ही थे कि लोहे जैसे वज़न ने होठोंके कपाट बंद कर दिये। वह कसमसा उठी। गले में साँस फँसनेसी लगी। छटपटाकरउसने होठों पर कावजन हटाया-"कौन है? बाबूऽऽऽ ... अम्माऽऽऽ"
और उसने धुँधलाए आलोक में शंकर को अपने करीब पाया। उसने उसके कान की लव पर दाँत चुभाये और फुसफुसाया-"चीखना मत चुनिया।"
वह काँप उठी और उसकी गिरफ्त से छूटकर दरवाजे की ओर भागी। शंकर ने उसे पीछे से दबोच कर पलंग पर ढकेल दिया और एक झन्नाटेदार झापड़ उसके गाल पर मारा। वह सिसक पड़ी। बिसूरकर बोली-"मुझे छोड़ दो, मुझे जाने दो।" लेकिन बिसूरना बेअसर था। म्याल से लटका वजनी साँप उस पर गिर पड़ा था और वह निरुपाय-सी छटपटा रही थी। साँप अपने लिजलिजे स्पर्श से उसके होंठ, गले, वक्ष, पेट, कमरऔर तमाम शरीर को डँस रहा था। दंश की चुभन, दर्द, बिलबिलाहट, सबओर ज़हर ही जहर। साँप के उगले ज़हर से माहौल मृत हो गया, वक़्तथम गया। चुनिया के उघड़े बदन पर एक पथरायी चुभन थी। आँखों में गरम आँसुओंका सैलाब मँडरारहा था। एकाएक फाटक खुलने और फिर अहाते में साईकिल टिकाने की आवाज़ सुन शंकर हड़बड़ा गया। वह तेज़ी से उसके बदन से हटा और दबे पाँव कमरे में चला गया। घड़ी ने एक का घंटा बजाया। मदन कमरे में आया, जूते उतारे और बिना कपड़े बदले ही पलंग पर बेसुध-सा लेट गया। चाँदनी सरककर मकान की ओट ले चुकी थी और अब वह अँधेरे की गिरफ्त में थी।
और आश्चर्य! उस रात के बाद से अब हर रात उसे छत की म्याल पर साँप नहीं बल्कि शंकर लटका नज़र आता है। अपनी वीभत्स हँसी सहित चमकती, चालाक आँखों सहित। आँखें ऐसीघूरती, सतर्क-सी लगतीं जैसे शिकार पर झपटने से पहले किसी जानवर की लगती हैं। उसके बड़े-बड़े हाथों की हथेलियाँ तानी हुई, दबोचने को आतुर और उसका अंग-अंग हलाहलविष से भरा। साँप के काटे का तो फिर भी इलाज़ है लेकिन आदमी के काटे का! ख़त्म... चुनियाका कुँवारापनख़त्म! उसकी शर्मो हया पर भारी चोट। बाबू की इज़्ज़त आबरू दाँव पर लगी हुई। कहीं इस हलाहल ने उसके शरीर में अँगड़ाई ली तो क्या होगा... मात्र मरण... हाँ जिस ज़िंदग़ी को जीने की चाह उसके अंदर समाये डर को भी मात देना चाहती थी अब स्वयं मात मिल चुकी है उसे। जिस्म के साथ-साथ आत्मा भी घायल हो चुकी है। अब न चीख़ है न आतंक। आँसुओं का एक विशाल समंदर है जिसमें वह आकंठ डूबी है। और कमरे में पसरी है एक ज़हरीली उदासी।