हल्ला / राजनारायण बोहरे
सांझ ढल रही थी कि फिर कोलाहल हुआ। ...उनका दिल फिर से कांप उठा।
अपनी तरफ से तो उन्होंने कुछ किया ही नहीं, सब कुछ ऊपर से तय हो कर आया था।... दरअसल, प्रदेश में किसानों पर अरबों-खरबों का लगान बकाया है। कहने को यह जिला प्रदेश का सबसे छोटा, लेकिन यहां भी करोड़ों का बकाया। वो भी पिछले कितने अरसे से वसूली के लिए पेंडिग। किसी साल चुनाव तो किसी साल जनगणना और किसी बरस अकाल... किसी बरस बाढ़। यानी हर साल कोई ना कोई बहाना आ ही जाता है और वसूली ठीक से नहीं हो पाती। सरकार का ध्यान इस तरफ गया तो उसने राजस्व वसूली के लिए सख्ती से अभियान चलाने का आदेश दिया था। ...और उसी के मुताबिक ही तो उन्होंने गांव-गांव जाकर इश्तहार बँटबाये, तकावी वसूली कराने वाले गांव के आखिरी कारिंदे पटेल की मार्फत घर-घर जाकर खबर पहुँचाई कि फसल का समय है भाइयो, हर आदमी मण्डी में राजरास (फसल की पहली बिक्री) तुलाने के तुरंत बाद लगान जमा करा दे। तहसील के रिकॉर्ड में अपने बाप-दादा के जमाने से चला आ बकाया पूरा नही तो आधा-पद्दा ही जमा करादे। ...बजाज साहब ने अखबारों में खबरें छर्पाइं, सरपंचों को सैकड़ों पत्र लिखे और हर टोले-मजरे में खुद जा कर तौजी जमा कराने के लिए किसानों को खूब प्रेरित किया।
सो, लग रहा था कि अबकी हल्ला में सारा लगान बेबांक हो जायगा उनकी तहसील का। एक काबिल और कामयाब अफसर कहलाने की छोटी सी महत्वाकांक्षा थी यह उनकी कि सारा माजरा ही बिगड़ गया। ...जिस दिन से सरकार ने लगान वसूली में सख्ती अख्तियार करने की ठानी उसी दिन से सूबे के कुलुक वर्ग के पेट में दर्द पैदा हो गया। कुलुक यानी कि वे अमीरजादे किसान, जिन्हे विरासत में हजारों एकड़ खेती मिली, गांव में हुकूमत चलाने के खानदानी पद मिले और जरूरत पड़ने पर सौ-पचास लट्ठ और बंदूक उठाने वाले पालतू चमचे भी। उन सबने एकराय हो कर तय कर लिया कि सरकार को एक धेला नहीं देंगे हम।... और उन्होंने अपनी बंदूक की नाल धर दी उस गरीब किसान के कंधे पर जो अपने दो बैलों के सहारे पूरे परिवार का भरण-पोषण कर रहा था।... एक उम्दा मौका हाथ लग गया बैठे ठाले उन सब की रहनुमाई का अमीरज़ादों को।
आसपास दस-पांच बन्दूकें, नीचे नई नकोर स्कारपियो और बदन पर धवल हंसों सा परिधान धारे वे किसानों को एक स्वर में समझाने लगे कि सरकारी खजाने में एक नया पैसा भी जमा मत करो। देखें क्या करती है सरकार! लगे हाथ यह फतवा भी कि अंग्रेजों से एक कदम आगे ही है यह पार्टी। किसान विरोधी। गांव विरोधी। गरीब विरोधी...।
ज्यों ज्यों नेता बनने को आकुल ऐसे बड़े किसान सक्रिय हुए, सूबे की सरकार के मुखिया इसे प्रतिष्ठा का मुद्दा बताते चले गये। वे प्रायः पत्रकारो से कहते- आखिर क्या चाहते हैं ये नकली किसान ! क्यों विरोध कर रहे हैं ये बिना बात हमारा। किससे छिपा है कि सरकार का खजाना खाली पड़ा है, न रोड बनाने को पैसा है न बिजली खरीदने को चार कौड़ी। अभी साल भर पहले तक जो पार्टी सरकार पर काबिज थी उसने सारा खजाना लुटा दिया। अपनो को ऐशआराम मुहैया कराया और गरीब किसानों को थोथे आश्वा सन। प्रदेश में कानून नाम की चीज नही बची थी उनके जमाने में, तब ये किसानों के हमदर्द चुप बैठे तमाशा देख रहे थे।
प्रदेश का मुखिया बोलता था- हम ये सिद्ध करना चाहते हैं कि अभी भी हमारे सूबे में कानून का राज है, गुण्डों का नहीं। कानून सबसे ऊपर होता है।
जैसे जैसे बड़े काष्तकार लाम बंद हुए, वैसे वैसे सरकार सख्त होती गई। हुक्म था कि पूरी तैयारी करके रखो, जो किसान दी गई मियाद में तौजी जमा नहीं कराऐंगे उनके घर की कुर्की करना है। पहले चल संपत्ति यानी कि बैल जोड़ी, गाय-भैंस, मोटरसाइकिल और गहने गुरिया तक जो भी मिले जप्त करना है, इसके बाद नजर जमाओ अचल संपत्ति पर, खेत-खलिहान और गोंड़ों से लेकर मकान-जायदाद तक कुर्क कर लेना है।
और... यह सुना तो जैसे आग लग गई। उनकी तहसील में उगे नये किसानों के उस कुलक संगठन ने कह दिया कि जिस दिन से सरकार लगान वसूली का अभियन चलाना चाहती है उसी दिन से किसान अपना हल्ला अभियान आरंभ करदेंगे।
‘हल्ला’ एकदम नया लफ्ज था सरकारी कारिंदों के लिए। अब तक प्रदर्षन, धरना, हड़ताल और अनशन तो सुना था लेकिन हल्ला क्या है? सब सहम गए थे। तब हिन्दी के बुढ़ियाते प्रोफेसरों और दीमक खाई दी डिक्शनरीयों में इस शब्द के अर्थ खोजे जाने लगे, लेकिन जो अर्थ में किताब में मिलता उससे मौजूदा हालात का कोई साम्य न देख परेशान हो चले थे सब नीचे से ऊपर तक। सबने सोचा और सरकारी निज़ाम की आमफहम आदत के चलते शुतरमुर्ग की तरह जमीन में गर्दन गाड़कर लेट गए सब।
पटवारी, पटेल और कोटवारों से नई नई खबरें मिल रही थीं। ...हमेशा की तरह बंदूकधारियों से घिरे और ठाठ से जीप में फर्राटे मारते बड़े काश्तकार इन दिनों पांव पैदल गांव गांव घूम रहे हैं, रिश्तेदारों नातेदारों से सौगन्ध धराई जा रही हैं, ब्याह-सगाई और पूजा-महूरत के काम स्थगित कर दिए सबने। आन्दोलन के वास्ते किसानों को खद्दर के कुर्ता-धोती बांटे जा रहे हैं...जो किसान मनाने से नहीं मान रहे उन्हें धमकियां मिल रहीं है। उस दिन तो होष ही गुम हो गए बजाज साहब के जिस दिन उन्होंने यह सुना कि हर गांव में दो-दो ट्राली भरके नई लाठियां पहुंचाई गई हैं। फिर यह भी कि कुछ खास लोग बाकायदा लाठी चलाने का प्रषिक्षण देते फिर रहे हैं गांव गांव। घबरा ही उठे बजाज साहब।
तहसीलदार होने के बावजूद वे अपने आपको आज भी किसान का बेटा मानते हैं। किसानो ंसे बेहद प्यार है उन्हें। जिस गांव जाते हैं सरकारी योजनाओं की तमाम जानकारियों से वाकिफ कराते हें वे हर आदमी को। उन्हें पता है कि जो किसान उनके पास अपने खेत के मुकदमें के सिलसिले में वकील और तहसील के बाबू के पास रिरया रहा है उसने यहां आते वक्त अपनी मां या पत्नी के पांव के आंवले या हाथ के कंगन गिरवी रखे हैं। यह सोच होने के कारण साथ के सारे अफसर उन्हें सनकी और सिरफिरा कहते हैं और वे बुरा नहीं मानते ...किसानों का एक भी पैसा छूने से कांप जाते हैं।
कलेक्टर के बंगले पर सुबह आठ बजे ही जा पहुंचे थे वे और उन्होंने मातहतों से प्राप्त अपनी तहसील के ताजा हालात की जानकारी विस्तार से सुनाई तो कलेक्टर गंभीर हो गए थे। उसी गंभीरता का परिणाम था कि तहसील कार्यालय के चारों ओर पुलिस आ डटी।
बजाज साहब सुबह दस बजे अपने इजलास मे आए तो हैरान रहे गऐ कि डर के मारे उनका एक भी चपरासी और बाबू नही आया था, सिर्फ माल जमादार तोरनसिंह अपने कमरे में पुलिस सिपाही के साथ बैठा अपने रजिस्टरों में इंद्राज कर रहा था। तौजी वसूली अभियान का पहला दिन होने के नाते आज तो सबको आना लाजिमी था। क्षोभ के साथ उन्होंने अलमारी खोली और लगान वसूली के रसीद कट्टे उठाकर अपनी टेबिल पर रखे। पहली रसीद में नया कार्बन फंसाया और एक खुला हुआ पेन उसके ऊपर रख दिया। आते वक्त उन्होंने देखा कि पुलिस ने सुरक्षा के चार घेरे बनाये हैं उनके इजजास के चहुँ ओर-दस मीटर, पचास, सौ और दो सौ मीटर पर। चप्पे चप्पे पर पुलिस के सिपाही तैनात थे। सिर पर हेलमेट, बांये हाथ में ढाल नुमा बांस की जाली और दांये हाथ में मजबूत पुलिसया लाठी लिये था हरेक पुलिसमेन। इंतजाम देख कर क्षण भर को निष्चिंत हुए, मगर भीतर अपने कमरे में अकेले बैठते ही डर ने आ घेरा, सो क्षण क्षण में चौंक उठते थे वे। ...बार बार सोचते कि खेती के लिए दिये जाने वाले तमाम कर्जों और ढेर सारी सहूलियतों का लाभ उठाने के बाद भी आखिर क्या चाहते हैं ये बड़े किसान जिसके वास्ते छोटे काष्तकारों को भड़का कर गुमराह करना चाहते हैं! सहसा उन्हें याद आया कि पिछले दिनों किसानों के बीच बाँटे गए एक पर्चे में एक मांग तेजी से उठाई गई थी कि किसानों का सारा लगान माफ कर दिया जाय, तो बजाज साहब ने अपने दफतर में बकाया की सूची पर सरसरी नजर फेरी थी और एक मिनट में ही वे जान गए थे कि लाखों रुपये की बकाया इन्ही बड़े किसानों की है, छोटे तो हद से हद हजार रुपये तक के बकायादार हैं, सो सारा लगान माफ कराना चाहते हैं ये कुलक किसान। एक ही तीर से कितने सारे फायदे दिख रहे हैं इनको।
शोरगुल हुआ तो उनका ध्यान फिर भंग हुआ। अनेक लोगो के कंठ से गूंजते नारे सुने उन्होंने। कौतूहल हुआ तो इजलास के बाहर आए और लम्बे पड़े गलियारे में थोड़ा आगे बढ़कर तहसील कार्यालय के अहाते के मुख्य दरवाजे की ओर देखा। पुलिस की खाकी वर्र्दी के उस पार ट्रालियों पर ट्रालियां आती जा रही थीं और उनमें भकभकाते कुर्ता-धोती धारी तमाम लोग उतर रहे थे, जिनके हाथों में लाठियां लहरा रहीं थीं। पुलिस के जवान उनको पीछे हटा रहे थे और वे थे कि भीतर आने को टूटे पड़ रहे थे। तभी दूसरी ओर कोलाहल हुआ तो उस तरफ ध्यान गया, वहां भी यही दृष्य था। फिर तो चारों तरफ यही नजारा, ऐसा ही हाल। क्षण भर को हिल गये बजाज साहब भीतर से। लग रहा था कि मौजूद पुलिस बल अक्षम साबित होगा इस जन सैलाब के सामने। और कुछ देर बाद ही एस.डी.ओ.पी. सिंह साहब को वायरलैस से कंट्रोल रूम को स्थिति गंभीर होने की सूचना देते सुना उन्होंने।
सहसा सामने का पुलिस घेरा टूटता सा लगा उन्हें। एस.डी.ओ.पी. साहब उधर ही दौड़े। बजाज साहब ने भी ध्यान दिया उधर। हां- कुछ लोग इस तरफ आते दिख तो रहे हैं! उनकी घबराहट बढ़ी।
दिल को किसी तरह काबू में रख उन्होंने अभ्यागतों पर नजर गड़ाई तो पाया कि पुलिस वालों के घेरे में आठ-दस निहत्थे किसान उनके इजलास की ओर बढ़ते चले आ रहे हैं। इस बात से सहसा धीरज बंधा उन्हें कि उनके आगे आगे एस.डी.ओ.पी. सिंह साहब भी थे। वे मुड़े और अपने इजलास में घुस आये फिर अपनी सीट पर जा बैठे। चैन न मिला तो दो मिनट में ही वहां से उठे और इजलास के बीचोंबीच अपने हाथ पीछे बांध कर टहलने लगे। आवाज से सुनाई पड़ा कि वह जत्था अब इनके इजलास के गलियारे में था।
पांच मिनट का समय पांच घंटे सा लगा उन्हें। सिंह साहब उस जत्थे के साथ उनके कमरे मे प्रवेश कर रहे थे और पुलिस के जवान बाहर ही खड़े रह गए थे।
“ये लोग चाहते हैं कि पांच मिनट आपसे बातचीत करें और प्रतीक स्वरूप कुछ लगान जमा करा दें!’’ निर्पेक्ष स्वर में सिंह साहब ने उन्हें सूचना दी।
‘‘बोलिए’’ बजाज साहब उन किसानों से मुखातिब हुए। ताज्जुब कि ज्यादातर चेहरों को पहली बार देख रहे थे अपनी तहसील में। ...उनमें से किसान तो एक भी नहीं दिख रहा था।
‘‘तहसीलदार साहब, हम लोग आपके या सरकार के दुष्मन नहीं हैं। हमने तो सदा से आपकी मदद की है।’’ अखैपुर का सरपंच बालकिसन उन सबका नेतृत्व करता दिख रहा था। उन्हें ताज्जुब था कि जिस आदमी के खिलाफ पंचायत के सरकारी धन के दुरुपयोग और गबन तक की पुलिस रपट दर्ज है वह आज किसानों की नुमाइंदगी करने आया है।
‘‘तो कौन दुश्मन है आपका’’ बजाज साहब ने जिज्ञासा प्रकट की।
‘‘ये पटवारी, गिरदावर और नायब तहसीलदारों की पूरी जमात!’
‘‘ये मौका उनकी शिकायत का नही है बालकिसन जी!...फिर भी आप लिखकर दे दें हम दोषी लोगों को सजा दिलाऐंगे। आज तो आप लगान जमा कराने की बात करें।’’ आवाज में कुछ ज्यादा ही नर्मी लाते हुए बजाज साहब मुस्कराए।
‘‘लगान की ऐसी-तैसी रे बजाज के बच्चे। हरामजादे तैने बिगाड़े सब लोगों को..’’ सहसा चीख उठा था बालकिसन, तो वे चौंके।
...और जब तक कोई कुछ समझता या करता तब तक बालकिसन ने बजाज साहब के हाथ पकड़ लिए थे और उसके दूसरे साथी ने अपने कुर्ते की जेब से एक टूयूब सी निकालकर अपने हाथों में मल ली थी और फिर अपने वे ही गलीज़ हाथ बजाज साहब के चेहरे पर फेरने लगा था। एक अजीब सी बदबू महसूस करते बजाज साहब ने देखा कि उनके चेहरे पर फिर रही हथेलियों में गहरा काला रंग लगा है। अचानक उन्हें लगा कि उनके बदन का सारा खून सूख गया है, बदन की सारी ताकत खत्म हो गई है और वे षिथिल होकर गिरने ही वाले हैं कि किसी ने उन्हें संभाला , तब तक पुलिस के जवान भी इजलास में दाखिल होकर अपना मोर्चा संभाल चुके थे। बालकिसन और उसके साथियों को जमीन पर गिरा के लातें और लाठी बरसाना शुरू कर दिया था पुलिस सिपाहियों ने।
पता नहीं किसने उनका माथा धोया, किसने पोंछा और कौन उन्हें उनकी डायस पर बिठा गया। वे तो संज्ञाशून्य हो गए थे।
जाने कितनी ही देर तक वे ऐसे ही बेठे रहे अपनी सीट पर फिर तब थोड़ा जागे जब कि एस.डी.ओ.पी. साहब ने आकर उनका कंधा थपथपाया था, ‘‘माइंड मत करो पार्टनर, अपने देश की डेमोक्रेसी में ऐसी घटनाएं तो होती ही रहती हैं।... उस बालकिसन और उसके साथियों की ऐसी जबर्दस्त पिटाई हुई है कि साले ताजिन्दगी याद रखेंगे।’’
बाहर बार-बार विजय-निनाद करते लोगों के स्वर यहां तक पहुंच रहे थे, जिनके बीच बोझल और डूबती सी आवाज में बजाज साहब ने कहना चाहा, ‘‘लेकिन सर मेरा जुर्म...’’
‘‘जाने दो यार !. इन उचक्कों की हरकत के पीछे क्या जुर्म हो सकता है भला? ...चलो घर चलते हैं, मेरे जवान निपट लेंगे उन सबसे।’’ उन्हें बरबस उठा ही लिया सिंह साहब ने और जवानों के घेरे में ही एक ओर से निकाल कर जीप में बैठाया और क्वार्टर तक छोड़ने गए।
क्वार्टर पर भी भारी सुरक्षा थी उनके लिए। पत्नी डरी हुई थीं और बच्चे सहमे हुए। सहसा कोरें भीग गईं बजाज साहब कीं। वे चुपचाप अपने कमरे मे घुसे और भीतर से किबाड़ बंद कर लिए।
कमरे के बीचोंबीच खड़े होकर उन्हें लगा कि सबकुछ खत्म हो चुका है उनका। अब बचा क्या है जिन्दगी में? कल उनके मातहत इस कस्बे के लोग, खबरनवीस, वकील और दूसरे वाषिंदे जानेंगे उनके साथ घटे अपमानजनक स्थिति के बारे में तो क्या हैसियत रह जायेगी उन सबकी नजरों में उनकी? ...रिष्तेदार सुनेंगे तो क्या कहेंगे? ..पत्नी और बच्चे भी क्या सोचेंगे इस बाबत ! ...कैसे जियेंगे ऐेसी बोझल जिंदगी? उनकी नजरों ने रस्सी का कोई टुकड़ा ढूढ़ना चाहा जिसे गले में डाल कर पंखें से लटक जाऐं वे। फिर विचार आया कि तार का कोई टुकड़ा खोज लें जिसे बिजली के सॉकिट में लगा कर अपने माथे से चिपका लें और एक ही झटके में मुक्ति पा जांय। ...या फिर कोई ब्लेड मिल जाय जिससे माथे और हाथ पांव की नस काट कर सारा खून बहा दें...।
सहसा वे चेते, बाहर उनकी पत्नी लगातार दरवाजा खोलने का आग्रह कर रही थी। बहुत कम समय था उनके पास, देर हो जाने पर संभवतः पुलिस को बुलवा कर दरवाजा तुड़वा दिया जाये। वे फिर सक्रिय हुए। ताज्जुब कि न रस्सी मिली न तार और न ही कोई ब्लेड। गहरी सांस ली उन्होंने, एक आह जैसी सांस। फिर एक और सांस, एक और। और इन तीन सांसों में ही मस्तिष्क हल्का सा होता लगा उन्हें तो चौंके वे। उन्हांेने कई सांसे ली पूरी पूरी।
...पत्नी को भीतर से ही सोने को कह दिया था उन्होंने और नंगी जमीन पर ज्यों के त्यों लेट गए थे। पता नहीं कब तक दुःस्वप्न से चलते रहे थे और कब नींद आई थी। जागे तो अवसाद कुछ कम था। बाहर सुबह हो रही थी। वे किवाड़ खोलकर बाहर आए और उदास मुस्कान के साथ दोनों बेटों के सिर पर हाथ फेरा संभवतः वे दोनों सोये नहीं थे सारी रात। हो सकता है, पिता के कमरे में किवाड़ की संध से आंखें लगाये बेठे रहे हों अपनी मां के साथ।
बैठक में अखबारों का पुलिन्दा था। हरेक के मुखपृष्ठ पर उन्हीं की खबर थी। अवसाद-बोध फिर जागने लगा। लेकिन हर अखबार पढ़ा उन्हांेने। उन्हें विस्मय था कि घटना स्थल पर किसी भी अखबार का नुमाइंदा न होने के बावजूद सारी घटना केसे ज्यों की त्यों छप गई।
बुझे मन से दिनचर्या आरंभ करने के पहले अपने फोन का रिसीवर उठा कर रख दिया उन्होंने फिर मोबाइल का स्विच आफ किया।
तब चार बजे होंगे। बाहर सूरज ढल रहा था कि उनके बैठक कक्ष में डिप्टीकलेक्टर मिश्राजी ने तीन-चार दीगर डिपार्टमेंट्स के अफसरों के साथ प्रवेश किया। वे अनमने हो उठे। नजर जमीन पर चिपक गई।
‘‘आपके अभिनंदन का जल्सा है बजाज साहब। इसी के लिए आपको दावत देने आए हैं हम सब।’’ मिश्राजी ने अप्रत्याशित बात कही।
‘‘कैसा अभिनंदन’’ उनका गला सूख रहा था।
आफीसर ऐसोसियेसन एक खास जल्सा कर रही है आज, जिसमें आप जैसे जांबाज अफसर को सम्मानित करने का निर्णय लिया गया है। जान लगा कर ही तो आपने अपनी डयूटी निभाई। बहुत बहादुर व्यक्ति हैं आप। आपने अपने पद और गरिमा का पूरा ख्याल रखा।’’ एक दूसरा अफसर कह रहा था...। याद आया वह संभवतः मछली विभाग का जिलाधिकारी था।
‘‘उन्होंने तो मेरी बेइज्ज्ती......’’
‘’ऐतराजी माफ हो बजाज साहब! इसे बेइज्जती कौन कहेगा? हमारी फौज का कोई अफसर दुश्मनों के हाथ पड़ जाए और दुश्मन उसके साथ बुरा सुलूक करें तो उसे आप बेइज्जती कहेंगे! आप कम नहीं हैं उन जांबाज सिपाहियों से। आपको सलाम है हम सबका’’ रोजगार अफसर खान दृढ़ता पूर्वक उनकी हौसला अफजाई कर रहा था।
‘’हां- बजाज,’’ मिश्रा साहब ने खान का समर्थन किया, ‘हम सब उन उचक्के नेताओं और अपराधी राजनीतिज्ञों की घोर निंदा करते हैं।’’
‘’आपको आना पड़ेगा बजाज साहब!’’ कहते हुए वे सब उठ गए।
अनिच्छा के बावजूद जल्से में जाना पड़ा बजाज साहब को और यह देखकर तो ताज्जुब में पड़ गऐ कि वहां भी भारी संख्या में पुलिस बल तैनात था।
बिना किसी तामझाम और माइक स्पीकर वाले इस कार्यक्रम में सिर्फ दर्जन भर प्रोफेसर, चार-पांच वकील और पच्चीस तीस की संख्या में दीगर विभागों के अफसर हाजिर थे। वहां मौजूद ज्यादातर लोग बोले और सबने बजाज साहब की तुलना सरहद पर डटे फौजी अफसर से की। सबके भाषण का आशय यही था कि वे सब ऐसे कृत्यों की निंदा करते हैं।
आखिर में कलेक्टर ने अपने हाथों से शॉल ओढ़ाकर उनका अभिनंदन किया।
... ताज्जुब कि अगले दिन के किसी भी अखबार में कहीं भी अफसरों के उस जल्से का जिक्र नहीं था। उल्टे ‘हल्ला’ आंदोलन में निहत्थे किसानों पर लाठी चलवाने वाले तहसीलदार बजाज और एस. डी.ओ.पी. सिंह की बर्खास्तगी की मांग को लेकर कलेक्टर के यहां ’हल्ला’ करने की बालकिसन की धमकी जरूर छपी थी हर अखबार में।
अपने देश के मीडिया के इस व्यवहार पर फिर ताज्जुब हुआ उन्हें। जल्द से जल्द यह जिला छोड़ देने के कल रात लिए गए अपने निर्णय पर पत्नी से एक बार फिर सहमत हुए वे।
बाहर गगनभेदी नारे थे, ‘बजाज साहबऽ ...जिंदाबाद!’
‘जिंदाबाद... जिंदाबाद!’
सहज ही यक़ीन नहीं कानों पर... खिड़की से झांके तो पाया कि जिले के तमाम विभागों के चतुर्थश्रेणी कर्मचारियों का एक बड़ा सा हुजूम हाजिर है उनके क्वार्टर के सामने।
‘‘साहबऽ!.... बजाज-साहबऽ!’ तहसील का माल जमादार तोरनसिंह उन्हें पूरे आदर से पुकार रहा था।
क्वार्टर पर तैनात पुलिस का दारोगा उस समूह को नियंत्रित कर रहा था जबकि वे लोग बजाज साहब से मिलने की गुजारिश कर रहे थे।
वे बाहर आ गए और उदास मुसकान के साथ बोले, ‘‘क्यों तोरन! क्या बात है? इन सब लोगों को क्यों इकट्ठा कर रखा है तुमने?’’
‘‘साहब, उन गुण्डों ने आपकी नहीं, हम सब कर्मचारियों की बेइज्जती की है... हम लोग आपके साथ हुए सलूक का बदला लेने जा रहे हैं।’’ तोरन तैश में था।
बजाज साहब चुप खड़े ताक रहे थे। तोरन कहता जा रहा था, ‘‘उनकी करनी का मजा चखा देंगे हम-उन्हें। उन्होंने आपका नहीं पुरी व्यवस्था की बेइअज़्ज़ती की है ...आप खुद का बनाया कोई कायदा नहीं पाल रहे थे, सरकार के हुकुम का पालन कर रहे थे! ऐसे गुंडों के सामने हमने चूड़ियाँ नहीं पहनी हैं साहब। कर्मचारी है तो क्या हुआ , हम भारत के नागरिक नहीं रह गए क्या , इज्ज़त की रक्षा भी नहीं कर पायेगे? ...उस दिन उनका हल्ला था आज हमारा हल्ला है।...’’
वह आगे बढ़ा और उनके पाँव छूकर लौट गया।
वे लोग अपने आकाशभेदी नारों के साथ वापस जा रहे थे और हक्के-बक्के खड़े बजाज साहब आंखों में आंसू भरे उन सबकी तनी पीठ और उछलते हाथ देख रहे थे, जिनको रोज रोज बाबू और अफसरों से हजार झिड़कियां और लाखों ताने मिलते हैं। ...दृश्य उनकी आँखों में उतर आये थे।