हवाओं से कह दो, (कविता-संग्रह): उर्मिला कौल / सुधा गुप्ता
हवाओं से कह दो, (कविता-संग्रह) : उर्मिला कौल, प्र-सं-2002_
प्रकृति के दिव्य, अलौकिक सौन्दर्यमय स्वरूप में कहीं भगवान की 'कर्णचुम्बी मुस्कान' और कहीं भगवान् के 'हिल्लोलित हृदय' का दर्शन करने वाली, भारत माता के अनिर्वचनीय, शृंगारमय, सात्विक शुभ वेश को देख मंत्रमुग्ध, ठगी-सी रह जाने वाली, 'उम्रों की प्यास' , 'जन्मों की आस' लिये, 'चिर तृषिता' वरिष्ठ कवयित्री उर्मिला कौल का नवीनतम संग्रह 'हवाओं से कह दो' , देश की माटी से जुड़ी, प्रकृति प्रेमी, जन्मभूमि (पंजाब-हिमाचल) से बिछुड़ने की कसक हृदय में समोए, अखण्ड भारत के विभाजन की चीर-चीर स्मृतियाँ और कभी न पुरने वाले घाव लिए, वर्तमान अपसंस्कृति कृत विनाश की ज्वाला में जलती, वेदनाकुल, संवेदनशील कवयित्री के हृदय से फूटती कविताओं का अजस्र निर्झर है जिसके रू-ब-रू होना अपने आप में एक विलक्षण अनुभव है!
पंजाब की सोंधी खुशबू भरी माटी में जन्मी (जन्म: अम्बाला) अविभाजित भारत के लाहौर का ऐश्वर्य और वैभव आँखों में समेटे, वर्तमान हिमाचल प्रदेश के चीड़ांचल और देवदार-वन और वहाँ की सुषमा को मन में बसाए, सात भाँवरों के जादू में बँधी, सरकारी ऑफ़िसर जीवन साथी श्री कौल के साथ विहारों की पावन भूमि 'बिहार' में अपना नन्हा नीड़ बनाने चल पड़ी यह भावुक तरुणी अकेलापन, परायापन और अजनबी होने की पीड़ा का दंश झेल रही थी। इस वेदना से मुक्ति की झटपटाहट लिये इस मासूम चिरैया ने पुस्तकालयों से 'शब्दों का चुग्गा' लेना प्रारम्भ किया और बचपन के संस्कार फलित हुए। अति विद्वान् अनेक भाषाओं के ज्ञाता, अध्ययनशील पिताश्री द्वारा प्रदत्त साहित्य प्रेम पल्लवित हुआ, मुखरित हुआ और कवयित्री-लेखिका कि 'अपनी भोजपुर भूमि में शब्दों की फ़सल उगने लगी'——
उर्मिला कौल एक ऐसे अक्षय प्रेम से लबालब भरे हृदय का नाम है, जो बिना प्रेम की सुगंध बिखराए, रह ही नहीं सकता।
' इस बरस तुम / बेतरह याद आए हो / मेरे बिछुड़े वतन——
ऐ लाहौर / साँझें तेरी चुलबुली / कलरव करती / चिड़िया चूँ चूँ——
माताओं के सुधा सिंचित आँचल——-
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यादों की गठरी / हल्की व भारी / लदी है / ज़हनो-दिल पर / पाँच दशक से———'(लाहौर) इसी शृंखला में' स्मृति वेदना',' एक चाह', और' कौन-सी मिट्टी मेरी'शीर्षक रचनाएँ हैं जो अपने शैशव और कैशोर्य से जुड़ी मीठी स्मृतियों के मधुर कोश को बारम्बार सराहती-संभालती है——धर्मशाला-हिमाचल-धौलाधार की हिम-मण्डित शृंखला जीवन्त रूप में आज भी उसकी आँखों में क़ैद है किन्तु वह स्वयं अतीत की बन्दिनी नहीं। कवयित्री द्वारा रचित साहित्य में पलायन की भंगिमा नहीं वरन् वर्तमान की समस्त चुनौतियों को स्वीकार कर, उत्कट संघर्ष करने की सन्नद्धता है।' कलि क्षेत्रे अधर्म क्षेत्रे',' केक संस्कृति',' संतत्व की भाषा',' प्रेस्क्रिप्शन' शीर्षक कविताएँ व्यंग्य की सान पर चढ़ तेज़ धार वाली तलवारें हैं जो आधुनिक भारतीय के अन्धे मोह और पाश्चात्य संस्कृति के प्रति तर्कहीन लगाव को काट कर रख देती हैं।
आजादी प्राप्ति के पचास से अधिक वर्ष बीत जाने के बावजूद अपनी मातृभाषा-राष्ट्रभाषा हिन्दी की दुर्दशा कवयित्री के मन को अकथनीय पीड़ा से भर देती है-
' ओ पट्टमहिषी / तुम क्यों खड़ी हो / दिवसों की भीड़ में
कराह क्यों रही हो / शोषितों की पीड़ में (ओ हिन्दी)
'ओ हिन्दी' एक बेहद सशक्त कविता है जो भारतीय जनता और स्वार्थ लोलुप नेताओं की मानसिक गु़लामी / राजनीतिक निहित स्वार्थों का पर्दाप़फ़ाश करती है।
काटे जाते वनों और नष्ट होते पर्यावरण की चिन्ता कवयित्री को लगातार मथ रही है:
ख़ाली कर दिये हैं हमने
कुदरत के हरे ख़ज़ाने
पल्लवी आँचल की
हरी-हरी छाँव——- (अनुकृति)
'महादानी तरुवर' शीर्षक कविता में वृक्षों की दान प्रियता एवं मानव-कल्याण की साधना में निरन्तर जीवन उत्सर्ग करते रहने की 'आदत' का सुंदर अंकन है तो 'अविश्वास' शीर्षक कविता विज्ञान के द्वारा विनाश की ओर स्पष्ट संकेत है:
विज्ञान / दाँतों तले / उँगली दबाए / हतप्रभ!
दरके ओज़ोन से / बिन छने / आएँगी दाही किरणें
उर्वरा करेंगी राख / समस्त सृष्टि विनाश
आओ / टेलर मास्टरों / लाओ रेयॉन धागा
ओज़ोन फटन-सीयन को——— (अविश्वास)
संग्रह का तीसरा, सबसे अधिक प्रभावशाली और अपने साथ बहा कर ले जाने वाला रंग-मय प्रवाह है वह अंश जो कवयित्री की निजी वेदना और आँसुओं में डूबा-कवयित्री की निजी क्षति-जीवन के शोख़ रंग लुट जाने, बिंदिया गँवाने और यम देवता के सामने बेबस खड़े रह जाने की क्रूर नियति, भावुक मन को झिंझोड़कर रख देती है-कविताएँ पढ़ी नहीं जातीं क्योंकि आँखें आँसुओं से धुँधला जाती हैं——बार-बार, बारम्बार—— 'अवलम्बन' 'हिमालय की वेदना' 'रूदन' 'न जाने कहाँ' ऐसी ही श्रेष्ठ, प्रभावी, नारी-मन की चिरन्तन वेदना कि समर्थ सशक्त अभिव्यक्ति को साकार करती कविताएँ हैं और अन्त में, इन सब ज़ख़्मों पर छिड़के नमक की तरह है कविता 'किलकारियाँ' जो हर सोचने वले को सोच के समुद्र में डुबा देती है——
कवयित्री की अमर वेदना को अगणित प्रणाम———।