हवाघर / हरिसुमन बिष्ट
हाथ भर दिन चढ़ने के साथ ही नीलिमायुक्त आकाश का रंग बदलने लगा, हवा में तपिश आने लगी थी। सामने की पहाड़ी पर अनंत आकाश के गर्भ में डुबकी लगाकर एकदम तर-ओ-ताज़ा, झक सफ़ेद रूई के फाये से बादलों के बच्चे खेलने लगे थे। गुनगुनी धूप में उनकी किलकारियाँ, दम भरती उनकी आहें गिनी जा रही थीं। धरती आकाश का लमहा-लमहा प्रकृति के रंग में रंगा हुआ, चारों तरफ़ खुशियाँ बिख़री हुई, किंतु वह प्रकृति के अप्रतिम सौंदर्य से बहुत दूर दिखाई दिया। हौले-हौले चर्च की हुलार उतरता हुआ।
"ओह, यह तो नेपाली है- नेपाली जंग बहादुर।" मन को मज़बूत करते हुए स्वयं से कहा, "वह ज़रूर हवाघर की तरफ़ ही आएगा।"
मेरा अनुमान ठीक नहीं बैठा, जंग बहादुर उतराई की रेलिंग से टेक लगाकर खड़ा हो गया, यकायक गुनगुनाती बहती हवा, चहकती चिड़िया और आकाश में खेलते बादलों के बच्चों ने जैसे उसका भी मन मुग्ध कर लिया था। यही मौसम था जब वह अतीत को भुलाकर, भविष्य की चिंता से बेख़बर यहाँ का जन-जीवन अपना वर्तमान जी रहा था। जंग बहादुर का चेहरा भी अपना रंग बदलने लगा। अब तक मैंने उसके विषय में जितना सोचा था वे सभी बातें कपोल कल्पित और बेमानी लगने लगी थी।
आख़िर मुझसे रहा नहीं गया, दो तीन बार हवा में हाथ लहराकर मैंने उसे इशारा कर अपने पास बुलाना चाहा। वह जस-तस खड़ा रहा, मैं बैंच पर से उठा और आठ-दस कदम चलकर उसके सामने खड़ा हो गया।
"अपने देश नहीं गया जंग बहादुर?"
वह चौंका शायद उसका मस्तिष्क भी झनझना उठा, उसकी आँखें अनायास गोल-गोल घूमने लगीं, मैंने पूछा, "क्या हुआ जंग बहादुर?"
"नहीं नहीं, कुछ नहीं साब!" कहते उसकी घिघी बँध गई, उसने स्वयं को सँभाला। "ओह!" उसके मुँह से निकल गया हवा का भभका हमारे बीच की हवा को गंदला कर गया। उसने अपनी फतुई ठीक की, पसीने से लथपथ बू मारते शरीर को तरोताज़ा करने का प्रयास किया, कंधे पर झूल रही रस्सी को ठीक करते हुए "कुछ नहीं हुआ साब" जैसा वाक्य दोहरा दिया।
"तुम नेपाल नहीं गए अपने देश?"
"अपना देश, अपना ही होता है-बार-बग्वाल पर कौन नहीं चाहेगा वहाँ जाना।" उसने अपने निराश स्वर में कहा।
"दीपावली के अभी दो दिन बाकी हैं।"
"हाँ साब! दो दिन दो माह दो साल भी हो सकते हैं, बहुत बड़ा देश है नेपाल, मुझे तो अपना मुल्क डोटी तक ही जाना है।" उसका सदा मुस्कराने वाला चेहरा सफ़ेद फीका पड़ गया, वह कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका, बचपन से वह हमारी कॉलोनी में आता-जाता था, यहाँ की हवा-पानी में उसकी पहचान शामिल हो गई थीं, कॉलोनी से उसका जीवन जुड़ गया था। माल, लोअर बाज़ार से घर-गृहस्थी का बोझ ही नहीं, जीवन-मरण के काम भी वह स्नोडन तक करता था, सुबह आख खुलने पर वह दिख जाए तो सारे काम चुटकी भर में होने की सकारात्मक धारणा लोगों में घर कर गई थी, किंतु आज उसके सफ़ेद चेहरे को देखकर सारी उम्मीदें बेमानी लग रही थी।
"आओ, वहाँ बैंच पर बैठ लेते हैं।" मैंने कहा, मन हुआ कि उसकी बाँह थामकर हवाघर तक ले चलूँ। उसके बू मारते शरीर की हालत देखकर मुझे उबकाई-सी आने लगी, मैंने उसकी बाँह नहीं पकड़ी, वह मेरा अनुसरण करता स्वयं हवाघर की ओर चला आया।
बैंच पर कंधे पर झुलता बैग मैंने रखा और बैठ गया।
मैं उसे देखता रहा, वह मेरे लिए पहले जैसा नेपाली नहीं रह गया था, जिसकी आवाज़ में खनक और चाल में ज़मीन धँसती थी- वह असहाय, निरीह लग रहा था।
जंग बहादुर ने कंधे पर झूल रही रस्सी बैंच पर रखी, बैंच की धूल अपनी हथेलियों से साफ़ की और एक लंबी फूँक मारकर सारी धूल उड़ा दी, फिर निश्चिंत भाव से वह बैठ गया, हौले-हौले वह बोला गोया शब्द उसके होंठों से झर्र रहे थे- "दीपावली की ख़रीददारी करने आया साब जी।"
"हाँ।"
"तो सामान मैं ले जाएगा साब। कितना सामान है।"
"ज़्यादा नहीं, मगर तुम तो..."
"जी ख़राब है साब, भौत-भौत ख़राब है।"
"क्यों ऐसा क्या हुआ," मैंने सहजता से पूछा।
"अपना देश याद आ रहा है, मुलुक याद आ रहा है, सैणी और बच्चे सब याद आ रहा हैं।" कहते-कहते कंठ भर आया, आँखों में जैसे पसीना-सा पानी तैरने लगा।
"तो, चले क्यों नहीं गए?"
"कैसा जाता, जंग बहादुर का जाना अब पहले जैसा आसान नहीं है, तुम तो जानता है साब।"
"क्या?"
"तुमने कभी सुना, जैसा अपना ये देश है वैसा ही अपना मुल्क भी और वैसा ही अपना घर भी।"
"तो, पूरी बात बताओ, रुक क्यों गए?"
"क्या बताएगा साब।" कहते ही जंग बहादुर ने अपना माथा पकड़ लिया, एक विचित्र किस्म की चुप्पी-गोया उसकी ज़बान ने उसका साथ छोड़ा, शरीर भी निर्जीव-सा प्रतीत हुआ। उसकी आँखें जो ज़मीन को एक टक घूर रही थीं, उनसे प्राण फुर्र उड़कर सैणी के पास डोटी चले गए थे। उसे देख कर मैं भी चुप्प हो गया।
जंग बहादुर से अधिक कुछ कहना उचित नहीं लगा। बड़ी देर तक जब उसने गर्दन नहीं उठाई तो उसके सचेत करने का बहाना मैं भी ढूँढ़ने लगा, प्रकृति के मनोरम दृश्य को देखने जब सुबह से ही 'मालिंग' करते लोगों की भीड़ उमड़ आई थी, ऐसे में मुझे अपने पूरे दिन की बलि जंग बहादुर के लिए देनी पड़ सकती थी, मैंने अपनी जेब टटोली और बीड़ी का बंडल निकाल कर जंग बहादुर की तरफ़ बढ़ा दिया।
"बीड़ी खाओगे, जंग बहादुर।" मैंने उसे कहा।
वह चुप रहा, मुझे उम्मीद थी कि वह झट से कहेगा। "तुम भी नेपाली हो गया साब, तुम भी बीड़ी खाएगा बोलता है।"
इस बार उसने अपनी गर्दन उठाई, देखा उसकी गहरी नीली आँखें उघड़ी-उघड़ी-सी जिनमें सुर्ख लालिमा सरसरा रही थी। इस समय वह सामान्य-सा लगने वाला जंग बहादुर नहीं, फन फैलाया कोबरा बन गया जिसने मेरी हथेली में रखे बीड़ी-माचिस को देखकर आँखें बंद कर ली। फुंकारते हुए बोला, "तुम भी हमको बंद करना चाहता है साब। हमने इतने साल तुम लोगों का सेवा किया है।"
मैं एकदम हकबक, मेरी समझ में जितनी बातें उसकी पीड़ा परेशानी से संबंधित समझ में आईं वह सब मस्तिष्क से ग़ायब हो गईं। मैं एकटक उसके चेहरे की भाव भंगिमा देखता रहा गया, "आख़िर हुआ क्या जंग बहादुर, तुम इस तरह क्यों बिफर रहे हो।"
"कमेटी वाला देख लेगा तो हमको पकड़ कर ले जाएगा।"
"मैं भी तो पी रहा हूँ।"
"तुम्हारा बीड़ी खाना दूसरी बात है, बड़ा आदमी का बड़ा बात, हम तो मज़दूर हुआ। परदेशी है न हम, हमारा यहाँ कौन है साब- अपना हाथ-पाँव चलता है बस, इनका साथ है, तुम लोग सिगरेट खाएँगा, उसको भी देगा-बस-"
"लो पहले मैं सुलगा लेता हूँ - खुश।"
"इस टैम हम नहीं खाएगा, हवाघर को सुबह-सुबह हम ख़राब नहीं करेगा।" जंग बहादुर के स्पष्ट इंकार करने से मुझे बड़ी हैरानी हुई, उसके प्रति मन में सहानुभूति उपज रही थी तो दूसरी तरफ़ उसकी परेशानियों से उसे मुक्त करने की चाह, जब भी भारी बोझा वह बिसारता तो एकायक उसका हाथ अपनी जेब में चला जाता था। हाथ जेब से खाली कभी नहीं लौटता, कभी साबुत बीड़ी तो कभी बुझी हुई, वक्त-वेवक्त वह माचिस माँग ही लेता था। किंतु, आज- वह एक ही धुन पर था- "नहीं, नहीं साब, हम नहीं खाएगा।"
उसने मुझसे पिंड छुड़ाना चाहा, फ़ुर्ती से उठा और अपनी रस्सी भी उतने ही झटके से उठा ली।
"लो मैं भी नहीं पीऊँगा।" कहकर मैंने सुलगाई हुई बीड़ी बुझा दी और उसकी ठुड्डी हवाघर की रेलिंग से बाहर फैंकते हुए कहा, "अब तो बैठ लो।"
उसने हाथ से कसकर पकड़ी हुई रस्सी बैंच पर रख दी।
हम दोनों के बीच एक अजीब तरह का मौन फैल गया। जब काफ़ी देर हो गई, मौन असहनीय हो गया तो मैंने फिर से पहल की, जंग बहादुर के चेहरे को नज़र उठाकर देखा।
वह ज़रा भी विचलित नहीं था, आँखे भी एकटक सामने की पहाड़ी पर टिकी हुई थी- जहाँ बादलों के नन्हें-नन्हें बच्चे स्वच्छंद खेल रहे थे।
मैंने भी उसकी नज़र का लक्ष्य देखना चाहा, मुझे बादलों के बच्चे अब पहले जैसे नहीं दीखे - वे बड़े हो गए थे, उन्होंने काफ़ी विस्तार लेना शुरू कर लिया था, उनका घेरा धीरे-धीरे हमारी आँखों के कक्ष से भी बाहर जा रहा था- अब वे पहले की भाँति सफ़ेद भी नहीं थे, दिन के चढ़ने के साथ अपना रंग भी बदलने लगे। मैंने सोचा जंग बहादुर की आँखें जीवन के आनंद को महसूस कर रही हैं जिस तारतम्यता से वह उन्हें देख रहा है, उसकी लय को समझना आवश्यक है, उसके जीवन की लय को समझना चाहिए। उसकी तरह की चुप्पी का साथ मुझे देना चाहिए आख़िर हम दोनों इंसान हैं, एक ही मिट्टी के बने हुए। एक विचित्र किस्म की सोच मुझमें पनपने लगी।
जंग बहादुर नेपाली था, जो कि मैं नहीं हो सकता, उसकी सोच, खान-पान और रहन-सहन एकदम अलग- उसके अलग होने की पहचान करवा देता था, हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे को जानते थे फिर भी उसमें अपना अलग होने का अहसास जब तब सिर उठाता रहता था, वह स्वयं को एक मेट, एक बोझारी, और एक डोटियाल होने का एहसास कराता था। जो एक बित्ता भर का जीव था। एक इंसान होने का भ्रम तो कभी नहीं रहा। मैं अपने ही विचारों की उधेड़-बुन में उलझता-उलझता गया। मुक्त होने की राह नहीं सूझी तो अपनी सोच का एक नया पहलू हाथ लग गया, जंग बहादुर के अस्तित्व को समझने की चेतना मुझ में जागी। मैं उसकी चुप्पी में ही शामिल हो गया।
जंग बहादुर ने करवट बदली- शायद पीठ थक गई थी।
मैंने उसकी करवट को वक्त की नज़ाकत समझ कर कहा- "यह एकांत का सुख है, क्या अब मन शांत हुआ?" वह फिर भी चुप रहा।
"अपना मन छोटा न कर जंग बहादुर- ख़राब हो जाएगा, तुम परदेश में हो, परदेश हमेशा निर्जन स्थान-सा होता है, यहाँ उदास बैठे रहोगे तो कोई पूछेगा भी नहीं।"
"तो तुम ही बता देगा साब, अपना देश कहाँ है- यहाँ या वहाँ।" जंग बहादुर जैसे बिफर पड़ा।
जंग बहादुर के चेहरे पर लुक्की-छिप्पी खेलते भावों से मेरा मन डर-सा गया, उसको उसके देश, मुल्क का नाम याद दिलाने की हिम्मत तक नहीं जुटा सका, फिर थोड़ी देर बाद ही हमारे बीच वही शून्यता-सी फैल गई।
"तुम कह रहा था साब कि हम त्यौहार पर डोटी क्यों नहीं गया, गया था-तभी तो मालूम लगा कि मेरा देश अलग और अपना यह देश अलग है, तुम दिल से अलग हम अलग, आप तक तो ऐसा नहीं था साब।"
"दिल तो जुड़े हैं जंग बहादुर," मैंने उसे सांत्वना देने के लिए कहा।
"झूठ, झूठी आस मत दो साब, ऐसा होता तो 'बार्डर' की दीवार ऊँची क्यों की? यहा देश ही नहीं बँटा, दिल भी बाँट दिया साब, अपना ही देश जाना था हमको, अपना घर-डोटी, अपना जिला-डोटी, बाप-डोटी, इजा डोटी, सैणी डोटी और बाल बच्चा भी डोटी तो फिर मैं जंग बहादुर वल्द तोप बहादुर वल्द धर्म बहादुर अपना देश क्यों नहीं जा सकता, तीन पुश्तों का जोत हमारा जेब में तो नहीं होता, डोटी जाता फिर तहकीकात करता-"
मुझे लगा कि जंग बहादुर की परेशानी साधारण नहीं है, दूसरी तरफ़ यह भी लगा- उसे वास्तविकता से दूर किसी गलतफ़हमी का शिकार होना पड़ रहा है, उसे धीरज दिलाने के उद्देश्य से मैंने उससे कहा, "तुमसे कहा न -ऐसा ऊलजलूल सोचकर उदास न बैठो, जो सोचते हो उसे कह डालो- दिल में जो बात हो उसे निकाल लो, यही न कि सुनने वाले को अच्छा न लगे तो बुरा भी नहीं लगेगा, बल्कि मुझ जैसे को अच्छा लगता है, तुम्हारे विचारों को जानकर, देखो मेरी तरफ़, क्या मैं तुम्हारी बात सुनकर दु:खी हूँ-परेशान हूँ।"
उसके चेहरे पर खुशी की लहर-सी दौड़ गई, शायद उसे लगा हो-कोई न कोई है जो उसकी पीड़ा को समझता है, किंतु वह कुछ बोला नहीं, काफ़ी देर तक हवाघर की बैंच पर हम दोनों अपरिचित-से बैठे रहे- हिमाच्छादित चोटियों को देखते रहे- गोया वर्षों की जमी पीड़ा को बढ़ती तपिश में पिघलाने का उपक्रम कर रहे हों, आकाश में चंचल बादलों के बच्चों का खेल जारी था, वे अब भिन्न-भिन्न तरह के चित्र बना रहे थे, मैंने मौन तोड़ते हुए कहा - "जंग बहादुर देख रहे हो, आकाश में खेलते बच्चे एकदम झक सफ़ेद चूजे से सुंदर लग रहे हैं।"
"जी ठीक नहीं साब, अब हमको कुछ न कहो।"
"क्यों? अब क्या हुआ।"
"क्या इन बादलों के अच्छा लगने से मन ठीक होगा, मेरा पेट भर जाएगा, जंग बहादुर का बच्चा इससे कम सुंदर है क्या? जंग बहादुर की सैणी इनसे कम सुंदर है क्या? तुम लोगों का है ये सब हमारा तो डोटी अच्छा है, वहाँ भी ऐसा ही सूरज, ऐसा ही बादल और ऐसा ही जून दीदी और इससे अच्छी जूनाली रात।"
जंग बहादुर के कहने के अंदाज़ को मैं भली-भांति समझने लगा, मन ठीक नहीं तो दुनिया की हर चीज़ बेमानी हो जाती है, यह मन ही है जो हमेशा रस्सी की तरह बट जाता है और छोटी-सी बात पर टूट-टूट कर तार-तार हो जाता है, यही मन है जो शांति के फाखते उड़ाता है और यही व्यक्ति के स्वरूप में विद्रुप जगाता है। अच्छा ख़ासा शांत चित लग रहा था जंग बहादुर- मैंने उसके मन को कुरेदकर अच्छा नहीं किया। फिर भी उसे धैर्य दिलाने के लिए कहा, "अपना घर अपना ही होता है, अपना बच्चा अपनी सैणी सबसे सुंदर होते हैं- ओ बातों में समय का पता ही नहीं रहा।"
मैं उठने लगा।
जंग बहादुर मुझे उठता हुआ देख, बोला, "अब सौदा करेगा साब।"
"हाँ, थोड़ा खील बतासे बस-" मैंने सहज भाव में कहा।
"खिलौने भी लेगा साब।" उसने झटके से पूछा।
"खिलौने, अब बच्चे खिलौनों से खेलने की उम्र के कहा रहे- बच्चे बड़े हो गए हैं।" मैंने स्पष्ट किया।
"उम्र बढ़ने के साथ खेल भी बदल जाता हैं- खिलौने भी। परंतु उम्र के बढ़ने के साथ खेल खेलना बंद तो नहीं हो जाता, बड़ा लोगों का बड़ा खेल और छोटे लोगों का छोटा खेल, खेल तो खेल है जो जीवन के साथ चलता रहता है।" उसने कहा।
मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ, यह कौन कह गया। जंग बहादुर तो ऐसा नहीं कह सकता, किंतु डोटी न जा सकने की कुंठा से जोड़ते हुए मैंने सोचा -उसका डोटी नहीं जा सकने के पीछे भी तो जीवन का खेल था, जिसको सत्ता के गलियारों में खेला गया है। जिसमें हार जंग बहादुर की हुई है -"कभी-कभी ऐसा भी होता है जंग बहादुर खेल कोई और खेलता है, और हार किसी और की होती है, हम सब की होती है, हम सभी की होती है।"
"साब जी ठीक कहा तुमने," जंग बहादुर ने कहा, "सब किस्मत का ही खेल होता है साब, उसी का रंग होता है," ऐसा कहकर जंग बहादुर ने जैसे अपने अधूरे छूटे पाठ को पूरा करने का प्रयास किया। वही लय, वही शब्द मेरे लिए ज़रूरी हो गया कि अब उसकी बात को सुन लूँ, उससे उस अधूरे छूटे पाठ को पूरा करवा लूँ, मैंने कहा, "तुम खिलौनों की बात कह रहे थे जंग बहादुर।"
"तुम बड़ा लोग हमारी छोटी बात को कितना ध्यान से सुनता है साब।" कहते उसके चेहरे पर खुशी दौड़ गई। उसने बिना किसी लाग लपेट के आगे बात बढ़ाई, "बार बग्वाल है न साब, सैणी हर बार खिलौनी मँगवाती है-साबुत खिलौना-हाथी, घोड़ा, हिरण, खरगोश, एक बार तो-"
मैंने उत्सुकता से उसको टोकते हुए कहा, "किसलिए।"
"पूजा को, पूरा बार -बग्वाल मनाती है सैणी, बड़ा मज़ा आता है साब-एक बार की बात बताऊँ साब।"
"हाँ बताओ," मैंने उत्सुकता से कहा।
"अपना रामबहादुर है न साब, उसने सभी खिलौना तोड़ दिया, अपशकुन हो गया, सैणी ने बहुत-बहुत पीटा, हमने कहा बच्चा है- बच्चा लोग ऐसा ही करता है, वह जानता तो ऐसा कभी नहीं करता, तब से हमने सोच लिया कि सैणी का खिलौना अलग और रामबहादुर का अलग से ले जाएगा।"
"तो फिर ले जाते हो।"
"एक बग्वाल पर ले गया, अपना राम बहादुर एक ही बार में वह खरगोश खा गया," कहते-कहते जंग बहादुर खिलखिला पड़ा, मुझे अच्छा लगा कि वह अपनी सोच की पीड़ा से उबर रहा है, वह बात आगे बढ़ाते हुए बोला-"फिर बोला मैं तो हाथी खाऊँगा।"
"तो फिर-"
मैंने कहा- रामबहादुर खरगोश खाने के लिए लाया था-वह दे दिया, अब हाथी कहाँ से लाएगा।"
"ईजा से लेकर दे दो न?" उसने कहा।
"वह पूजा का है, हाथी को खाते थोड़ा हैं, उसका तो सवारी करता है आदमी, ऐसा रामबहादुर को बहलाने के लिए कहा।"
"तो फिर-"
"तब तो मैं हाथी में जाऊँगा," कहकर उसने ज़िद पकड़ ली, हमने समझाया-रामबहादुर हाथी में राजा लोग बैठता है, हम तो साधारण लोग हैं, साब एक बात कहूँ मैं - राम बहादुर को हाथी की सवारी कैसे करवाता और हमारे मुलुक में हाथी आता कहाँ से, घोड़ा तक तो जाता नहीं वहाँ, खच्चर होता है-उसी को घोड़ा मानता है लोग।"
कहते-कहते जंग बहादुर अटक गया, मैंने फिर पूछा, "तो फिर क्या हुआ जंग बहादुर-रुक क्यों गए?"
"साब क्या बताऊँ, मेरा तो मन ही डर गया, सोचा कि अब यह घोड़ा सवारी की हठ करेगा, तो उससे पहले कह दिया-घोड़ा सवारी तूने किया था न उस दिन, आ, अब हाथी की सवारी करवा देता हूँ।"
"अच्छा।" यकायक मेरे मुँह से निकल गया, वह मुझे आश्चर्य की गर्त में डूबने से बचाने में सफल रहा-मेरा कुछ कहने से पहले वह बैंच से उठा और ज़मीन पर बैठ गया, फिर धीरे से बोला, "साब ऐसा ही होता है न हाथी।"
जंग बहादुर घुटनों के बल बैठा, फिर कुहनियाँ टिकाईं और फिर हाथी की मुद्रा में बैठ गया, फिर धीरे से बुदबुदाया-राम बहादुर, आ हाथी में बैठ।" एक पल की चुप्पी के बाद अपनी बात को जोड़ते हुए बोला, "बड़ा मज़ा आएगा रामबहादुर, ठीक से बैठ गया न।"
सचमुच का दृश्य मेरी आँखों में उतर आया हाथी बन गया जंग बहादुर पीठ पर सवार उसका बेटा राम बहादुर फिर वह उसी मुद्रा में चार कदम चला और फिर लौट कर आ गया। सवार उतरा। जंग बहादुर लौट आया यथास्थिति में। उठा और बैंच पर बैठ गया।
जंग बहादुर ने अपनी कुहनियाँ झाड़ी, हथेलियाँ और कपड़े झाडे और बड़ी देर तक वह शरीर के कपड़ों पर लगी धूल झाड़ता रहा।
"तुम्हें कुहनियों में चोट तो नहीं आई जंग बहादुर।"
"मैं रामबहादुर के लिए कुछ भी कर सकता हूँ। पिछले तीन-चार वर्षों से बग्वाली के दिन या फिर दूसरा दिन पहुँचा था साब डोटी, बाज़ार से खिलौना ख़रीद नहीं सका, रामबहादुर हाथी माँगता-मैं हर साल ऐसा ही हाथी बन जाता, वह बहुत खुश होता।"
"हाथी की सवारी किसे बुरी लगती है जंग बहादुर," मैंने कहना चाहा, होठों से फिसलती हँसी को रोक नहीं सका, मुझे लगा जंग बहादुर बिफर गया तो अभी हाथी बनकर मुझे कुचल देगा, वह आक्रोश में था परंतु एक तरह से संतुष्टि के भाव इस समय चेहरे पर दिख रहे थे, मैंने जब उसकी आँखों में झाँका और कहना चाहा- "सचमुच बहुत प्यार करते हो बेटे से।"
जंग बहादुर बहुत खुश हुआ वह मुस्कराते हुए बोला-"जी साब, इस बार तो उसे शेर की सवारी करवाने को कहा था।"
"शेर की सवारी, वह कैसे? शेर खा नहीं जाएगा!" मैंने उससे चुहल करते हुए कहा।
"खिलौना में शेर भी होता है, उसी का सवारी ।" उसने गंभीर होकर कहा।
"इस बार यहीं से ख़रीद ले जाते। यहाँ भी तो त्यौहार में ये सब चीज़ें मिल जाती हैं," मैंने सुझाव दिया।
"ख़रीद लिया था-पूरा बार बग्वाल के लिए, क्या मालूम था कि वह खिलौने वाला शेर सचमुच का शेर बन जाएगा, ज्योंही अपनी बार्डर पर पहुँचा - सभी बड़ा-बड़ा शेर बंदूक लेकर मेरे सामने खड़ा हो गया, सबने मेरी तरफ़ देखा-मैं डर गया, बोला - "तुम्हारा नाम-जंग बहादुर, बाप का नाम-तोप बहादुर, दादा का नाम।"
"दादा का नाम?" मैंने उसे स्मरण दिलाने के लिए पूछा वह सचमुच दादा का नाम भूल गया था। बड़ी कोशिश की याद करने की, एक अजीब किस्म का भयावह दृश्य उसकी आँखों में तिर गया।
मैंने पुन: याद दिलाने के लिए कहा- "हाँ, याद करो दादा का नाम, अभी-अभी थोड़ी देर पहले तुमने बताया था, याद करो?
जंग बहादुर ने अपनी स्मृति पर ज़ोर डाला उसे कुछ भी याद नहीं आया, उसके अश्रुपूरित गालों को देखकर लगा- अभी बहुत कुछ है उसके चेहरे पर पढ़ने को- मैं जितना ग़ौर से उसको देखता रहा उतना ही अधिक कुछ छूट जाने का अहसास होता गया। सचमुच कहीं कुछ छूट गया है, मैंने उससे कुछ नहीं कहा, सिर्फ़ उसकी ओर देखता रहा।
वह उठा और हवाघर की उतराई उतरने लगा।