हवा-हवाएँ / सुधा भार्गव
-बेटा, मैंने एक गलती कर दी है। तुम्हारे पापा की फोटो पर तो माला चढ़ा रखी है, पर तुम्हारे बाबा-दादी, नाना-नानी की फोटो पर माला नहीं है। यह बात बड़ी खलती है। यदि बाजार जाओ तो दो मालायें ज्यादा ले आना । सुबह उठकर जब प्रणाम करूँगी तो पूज्य माता-पिता और सास-ससुर जी को भी माला पहना दूँगी। इन्हीं लोगों के आशीर्वाद से हम फल-फूल रहे हैं।
-बुजुर्गों की बात तो समझ में आती है पर, पति को भी रोज फूल चढ़ाओ…मेरी तो समझ से बाहर है। पति क्या परमेशवर है? ये सब तो पहले की बातें हैं…छोड़िए इन सबको। पर आपसे कहने का कोई फायदा नहीं, दक़ियानूसी जो ठहरीं।
-बहू, दकियानूसी नहीं…बात तो मानने की है । तुम्हारे ससुर मेरे मार्ग-दर्शक थे और उम्र में बड़े भी, इस नजरिये से वे सम्मान के हकदार तो हैं हीं।
सास तो चुप हो गई, पर माँ की भावनाओं की कदर करते हुए बेटे की आँखें अनायास चमक उठीं और अन्य दो आँखें झुकी-झुकी थीं।