हवा भी गाती है /रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
ताँका-शब्द का अर्थ है लघुगीत। लयविहीन काव्यगुण से शून्य रचना, छन्द का शरीर धारण करने मात्र से ताँका नहीं बन सकती। साहित्य का दायित्व बहुत व्यापक है; अत: ताँका को किसी विषय विशेष तक सीमित नहीं किया जा सकता। ताँका जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य शैली है। इस शैली को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ। इसकी संरचना 5+7+5+7+7=31वर्णों की होती है।
एक कवि प्रथम 5+7+5=17 भाग की रचना करता था, तो दूसरा कवि दूसरे भाग 7+7 की पूर्त्ति के साथ शृंखला को पूरी करता था। फिर पूर्ववर्ती 7+7 को आधार बनाकर अगली शृंखला में 5+7+5 यह क्रम चलता; फिर इसके आधार पर अगली शृंखला 7+7 की रचना होती थी। इस काव्य शृंखला को रेंगा कहा जाता था। इस प्रकार की शृंखला सूत्रबद्धता के कारण यह संख्या 100 तक भी पहुँच जाती थी।
ताँका पाँच पंक्तियों और 5+7+5+7+7= 31 वर्णों के लघु कलेवर में भावों को गुम्फित करना सतत अभ्यास और सजग शब्द साधना से ही सम्भव है। इसमें यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि इसकी पहली तीन पंक्तियाँ कोई स्वतन्त्र हाइकु है। इसका अर्थ पहली से पाँचवीं पंक्ति तक व्याप्त होता है।
सुदर्शन रत्नाकर जी हाइकु-रचना में 1989 से ही रचना-रत थी / इनके ताँका का आरम्भ त्रिवेणी के 18 दिसम्बर, 2011 के अंक में 'हवा गाती है' शीर्षक के अन्तर्गत 10 ताँका से हुआ। आज तक इनका सर्जन अनवरत हो रहा है।
'हवा भी गाती है' संग्रह तीन खण्डों में विभाजित है-1.आद्या प्रकृति, 2.जीवन-पथ और 3.विविधा। प्रकृति के आलम्बन और उद्दीपन दोनों ही रूपों में आपका मन रमा है। तुलनात्मक रूप से कहा जाए, तो प्रकृति के आलम्बन रूप से आपका जुड़ाव अपेक्षाकृत अधिक है।
पत्तियों पर टपकी ओस की बूँदों का सौन्दर्य अद्भुत है। मोती भी इतने नाज़ुक कि यह डर लगा रहता है कि कहीं धरती पर पाँव पड़ने से ये मोती टूट न जाएँ। हवा के साथ पत्तियों का नाचना, फूलों का खुशबू फैलाना, पंछियों का जागना, पत्तों का गुनगुनाना और सूरज का मुस्कुराना; एक साथ कितने क्रियाकलाप शुरू हो जाते हैं-
• पत्तियों पर / मोती-सी ओस-बूँदें / मोहती मन / सूरज सोख लेता / पर उसका तन।
• ओस की बूँदें / ओढ़ ली धरती ने / झीनी चादर / मत रखना पाँव / मोती टूट न जाएँ।
• हवा गाती है / पत्तियाँ नाचती हैं / फूल फैलाते / माहौल में ख़ुशबू / मन को महकाते।
• भोर होते ही / बहीं ठंडी हवाएँ / पंछी हैं जागे / पत्ते गुनगुनाएँ / सूरज मुस्कुराया।
पुष्पों का उत्सव भी अनोखा है। गुलमोहर, मधुमालती, अमलतास, हरसिंगार, चम्पा, कनेर, रजनीगंधा, पलाश, आम्र-मंजरी सब अपने अनुपम सौन्दर्य से अभिभूत कर रहे हैं। लगता है सारी सृष्टि सौन्दर्य की वर्षा कर रही है-
• खिल रहे हैं / ग्रीष्म की आतप में / गुलमोहर / दहकते अंगार / धरा पर बिखरे।
• लता झूमती / लद गई फूलों से / मधुमालती / दूध-केसर रंग / लटकें ज्यों झूमर।
• अमलतास / लटकें हैं झूमर / पत्ते गिरते / पीतवर्णा वसुधा / सजी सजीली सेज।
• हरसिंगार झरते रात भर / मेरे अँगना / / उज्ज्वल हुई धरा / महकती हवाएँ।
• साँझ की बेला / खिलने लगी चम्पा / शशि-किरणें / फैली जग-आँगन / सुरभित उजाला।
• बुँदे पहने / खड़ा पेड़ कनेर / सुगंधहीन / पीले फूलों से लदा / व्यर्थ जीवन ऐसा।
• भीनी सुगंध / रजनीगंधा खिली / चाँदनी रात / महकी है धरती / झूमा आसमान।
• सूरज से ले / ऊर्जा तप जाने की / खिले पलाश / प्रकृति का नियम / तपता, वो खिलता।
• भीनी-सी गंध / खिली आम्र-मंजरी / बौरी होकर / कुहुकती कोयल / गूँजते मीठे बोल।
ॠतु-परिवर्तन पूरी प्रकृति को नया स्वरूप प्रदान करता है। कलियों का मुस्काना, दुग्ध-धवल सुवासित दिशाएँ, कोकिल की तान से गूँजती दिशाएँ पूरे वातावरण को मोहक बना देते हैं-
• मौसम बदला / कलियाँ मुस्कुराईं / दुग्ध-धवल / सुवासित दिशाएँ / महका उपवन।
• दिग्दिगन्त ही / कोकिल का बसंत / छेड़ी जो तान / हुए संगीतमय / धरती व अम्बर।
प्रतीक रूप में लहलहाते पत्ते, ठूँठ, डालियाँ सूखीं नए अर्थ गढ़ते दिखाई देते हैं। तृष्णाओं का न मिटना, स्पर्श की चाह, जीवन-इन सभी शब्दों के प्रयोग से सज्जित ये सब ताँका पाठक के मानस-पटल पर खूबसूरत चित्र अंकित कर देते हैं-
• घबरा मत / लहलहाते पत्ते / ठूँठ से बोले- / हम तेरे साथ हैं / हाथ आगे तो बढ़ा।
• डालियाँ सूखीं / तृष्णाएँ नहीं मिटीं / स्पर्श की चाह / खींचतीं उस ओर / जीवन जहाँ खड़ा।
चाँदनी, चाँद और सितारों का मानवीकृत रूप कितना मोहक है! चाँद-सितारे का रात भर चिट्ठियाँ बाँचते रहना एक दम नूतन प्रयोग है। इस छोटे से जापानी छन्द में रत्नाकर जी ने अपनी ऊँची कल्पना की उड़ान भरी है। ऐसे में खिड़की बन्द करके सोते रहने का मतलब है-बहुत कुछ खो देना।
• खिली चाँदनी / शरद पूर्णिमा की / फीकें हैं तारे / धवल वसुन्धरा / चाँद संग मुस्काई.
• चाँद आया था / उजियारा लेकर / मेरे आँगन / पर मैं सोती रही / बंद किए खिड़की।
• बाँचते रहे / रात भर चिट्ठियाँ / चाँद-सितारे / धरा ने भेजी थीं जो / आसमान के लिए.
बादल की गोद से बूँदों का टपकना, अन्तर्मन का भीगना, प्रकृति का खिलना, लहरों का शरमाना-लगता है कोई चित्र खींच दिया गया हो-
• टपकी बूँदें / बादल की गोद से / धरा समाईं / अंतर्मन है भीगा / खिल उठी प्रकृति।
• लहरें उठीं / छूने क़दम मेरे / शरमा गईं / आँचल को समेटा / लौट गईं भीतर।
'जीवन-पथ' मानवीय सुख-दु: ख, हर्ष-विषाद आदि भावों की प्रस्तुति की है। यह प्रस्तुति कहीं सीधे तौर पर है, तो कहीं व्यंजना के रूप में प्रकट हुई है। जिस प्रकार पानी से तरंग उत्पन्न होती है, तो उसी में विलीन हो जाती है; यही साथ अधिक सच्चा और आन्तरिक होता है।
• मेरी आँखों से / बहे तुम्हारे आँसू / मिटे शिकवे / मिटी सब दूरियाँ / तुम हुए अपने।
• तुम्हारी आँखें / बहुत बोलती हैं / चुप भी करो / दिल से भी तो कहो / विश्वास भी कर लूँ।
• तुम्हारा संग / पानी में ज्यों तरंग / अस्तित्व पानी / उसमें ही उठती / हों उसीमें विलीन
• तुम्हारे दिए / शूल भी स्वीकारें हैं / मुस्कराकर / फूल देकर देखो / कैसे सहेजती हूँ।
• थोडी देर तो / आओ मिल के बैठें / बीते कल की / कुछ तो बात करें / दिल भरा हुआ है।
विश्वास आगे भी बढ़ाता है; लेकिन सब विश्वास के योग्य नहीं होते-
• चढ़ती रही / बना कर सीढ़ियाँ / विश्वास की मैं / टूटी सारी कड़ियाँ / औंधे मुँह जा गिरी।
माता-पिता, बचपन का दुलार, सगे जैसे ही पीपल की छाया; सब अनमोल हैं, जिन्हें दुबारा उसी रूप में पाना असम्भव है, फिर भी किसी कोने में पाने की हसरत दबी रह जाती है-
• माँ की ममता / पिता का दुलार / कहाँ खो गए / अपनों की भीड़ में / क्यों अकेले हो गए.
• चुपके आना / आँखें बंद करना / फिर पूछना- / बोलो माँ, कौन हूँ मैं / वाह रे बचपन।
• शीतल छाया / पीपल के पेड़ की / खो गई कहीं / सपना लगता है / बड़ी याद आती है।
प्रिय के स्पर्श की सरस अनुभूति की याद विषादग्रस्त कर जाती है-
• छूते हैं जब / सर्द हवा के झोंके / स्पर्श तुम्हारा / आता है याद तब / बिखर जाता मन।
'विविधा' में टूटते दम तोड़ते सम्बन्धों के साथ, सामाजिक सरोकारों एवं पर्यावरण की दुर्गति पर भी कवयित्री की दृष्टि गई है। गौरैया उदास है, तो घर में पसरी चुप्पी आहत करती है। जिसकी उम्र पढ़ने की थी वह कचरे में सपने तलाश रहा है। उसके पास जीवन के न्यूनतम साधन भी नहीं हैं-
• सूखी नदियाँ / रोएँ दोनों किनारे / पेड़ न कोई / गौरैया उदास है / नहीं गीत सुनाए.
• पसर रहीं / ख़ामोशियाँ हैं यहाँ / सूना घर हो / कोई बोलता नहीं / सरहदें हैं बँधीं।
• उतरी शाम / घिरती ख़ामोशियाँ / उदास चेहरे / प्रश्न हैं वे पूछते / दिन बीता या हम।
• ढूँढ रहा है / कचरे में सपने / भोर बेला में / वह नन्हा बालक / पढ़ने की वय में।
• नंगे बदन / सोता है बचपन / नहीं साधन / कँपाती ये हवाएँ / क़हर ढाती जाएँ।
विषयवस्तु का वैविध्य, भाषा की प्रांजलता, भावों की गहनता और सजग चिन्तन का आधार सुदर्शन रत्नाकर जी के ताँका-संग्रह 'हवा गाती है' की विशेषता है। विधा और काव्य दोनों ही निकष पर 'हवा गाती है' संग्रह खरा उतरेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
22 अगस्त-2019 (ब्रम्प्टन)