हाइकु-काव्य: शिल्प एवं अनुभूति / कुँवर दिनेश
हाइकु-काव्य: शिल्प एवं अनुभूति , सं.रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' व डॉ. भावना कुँअर, मूल्य-500 रुपये। पृष्ठ: 264; वर्ष: 2015, अयन प्रकाशन, महरौली दिल्ली-110030
गत कुछ दशकों से हिन्दी में हाइकु लेखन द्रुत-तर गति से हुआ है और भारतीय निवासी एवं प्रवासी हिन्दी कवियों ने इस छंद के कई प्रयोग प्रस्तुत कर इसे लोकप्रिय बनाया है। जापान की पारम्परिक काव्य विधा हाइकु तीन पंक्तियों में 5-7-5 वर्णक्रम में मूलत: प्रकृति विषयक कविता है, जिसे आज विश्व की अनेक भाषाओं में अपनाया गया है और विभिन्न भाषाओं में इसके विविध रूप / स्वरूप देखे जा सकते हैं। तथ्यगत है कि यह छंद उत्तरोत्तर लोकप्रिय हुआ है। अन्य भाषाओं की भांति हिन्दी में भी हाइकु के नानाविध प्रयोग हुए हैं किंतु हाइकु की आत्मा को सही ढंग से बूझने-समझने वाले कवि बहुत कम हैं। बहुत से तथाकथित हाइकुकार किसी विचार अथवा भाव को तीन पंक्तियों में विभक्त कर सपाटबयानी / गद्योक्ति कर डालते हैं और हाइकु की अन्तरात्मा तक नहीं पहुँच पाते। न तो वे हाइकु के कथ्य / विषयवस्तु को समझ पा रहे हैं और न ही इसके शिल्प, शैली, तकनीक और उद्देश्य को ही समझ पा रहे हैं। परिणामत: कोई भी व्यक्ति साधारण-सी तीन पंक्तियों की सपाटबयानी करके हाइकुकार कहलाने का यत्न करते देखा जा सकता है। ऐसे परिप्रेक्ष्य में हाइकु छंद / विधा के शिल्प, शैली, कथ्य, भाषा, भावबोध एवं कलात्मक पक्षों को समझने / समझाने के लिये एक ऐसी दिग्दर्शिका की आवश्यकता अनुभव की जाती है, जिससे हाइकु रचनाकारों को सही मार्गदर्शन प्राप्त हो सके. इस दिशा में हाइकु के सौंदर्य-शास्त्रीय विवेचन एवं अभ्यास / व्यवहार को एक साथ प्रस्तुत करता सद्य: प्रकाशित रामेश्वर काम्बोज हिमांशु व डॉ. भावना कुँअर द्वारा सम्पादित आलेख संग्रह "हाइकु-काव्य: शिल्प एवं अनुभूति" एक बेहद महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है।
प्रस्तुत आलेख संग्रह में समकालीन हिन्दी हाइकु के विविध रूपों / स्वरूपों के विवेचन के साथ-साथ हाइकु-सृजन सम्बन्धी अत्यावश्यक एवं व्यवहार्य नियमों का विस्तृत उल्लेख मिलता है। विषय, अनुभूति तथा सौंदर्य-बोध के विविध आयामों को लेकर यह पुस्तक व्यापकता के साथ हिन्दी हाइकु की समीक्षा एवं मूल्यांकन प्रस्तुत करती है। विविध आलोचनात्मक लेखों में उत्कृष्ट हाइकु रचना के निमित्त अपेक्षित प्रतिमानों का व्यवस्थापन करती यह पुस्तक हाइकु प्रेमियों, चाहे रचनाकार हों अथवा सुधी पाठक हों, सभी के लिए अनिवार्य है।
डॉ. भगवत शरण अग्रवाल ने अपने लेख 'हाइकु: शिल्प पक्ष' में हाइकु की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि सहित इसके शिल्प एव म् तकनीक के सम्बन्ध में सार्थक चर्चा के साथ-साथ हाइकुकारों को स्पष्ट शब्दों में निर्दिष्ट किया है कि '5, 7, 5 अक्षर-क्रम में, त्रिपदी अतुकांत रचना-यह हाइकु का फ़्रेम है; परंतु यही सब कुछ नहीं है। मूलवस्तु है, उस फ़्रेम में जड़ा भावोन्मेष से परिपूरित काव्यात्मक सौंदर्य का कलात्मक चित्रांकन' (पृ। 23) । अपने लघु किंतु सारगर्भित लेख 'हाइकु काव्य की विश्व भूमिका' में नलिनीकान्त ने हाइकु के निरंतर बदलते स्वरूप एवं विषयवस्तु पर विशेष टिप्पणी की है।
इसी प्रकार डॉ. सुधा गुप्ता ने अपने लेख "हिंदी हाइकु काव्य में प्रकृति" में हाइकु के विषयवस्तु के साथ-साथ इसके गुण-विधान के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण विवेचना की है। हाइकु एक क्षण की कविता है; अत एव डॉ. सुधा गुप्ता ने "क्षण" में उत्पन्न "भाव की एकाग्रता" को हाइकु का अनिवार्य तत्त्व माना है। सहजता व ऋजुता हाइकु की विशेषताएँ; हैं किंतु डॉ. सुधा गुप्ता ने स्पष्ट किया है कि इस का अभिप्राय सपाटबयानी हरगिज़ नहीं है। उनका यह बिन्दु विचारणीय है: "तटस्थ चित्रांकन," जो जैसे है, वैसा ही"का यथार्थ अंकन हाइकुकार के लिए आवश्यक है, अर्थात्" निरपेक्ष दृष्टि"से द्रष्टा मात्र होना, तभी सफल हाइकु का सर्जन सम्भव है" (पृ। 30) ।
प्रस्तुत पुस्तक में सम्मिलित समीक्षा-लेखों में चर्चा में आए हाइकु के मानकों को ध्यानगत रखते हुए हिन्दी के कुछ सशक्त हाइकुकारों में अग्रणी हैं: डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. भगवत शरण अग्रवाल, नलिनीकांत, नीलमेंदु सागर, डॉ. भावना कुँअर, रामेश्वर काम्बोज "हिमांशु" , कमलेश भट्ट कमल, डॉ. सतीश राज पुष्करणा, डॉ. हरदीप कौर सन्धु, डॉ. मिथिलेश दीक्षित, जगदीश व्योम, अनिता ललित, कमला निखुर्पा, तुहिना रंजन, सुशीला शिवराण, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, जेन्नी शबनम, , कृष्णा वर्मा, प्रियंका गुप्ता, रचना श्रीवास्तव, ज्योत्स्ना प्रदीप, डॉ. सुधा ओम ढींगरा, ऋता शेखर मधु, शशि पाधा, सुभाष लखेड़ा, उर्मिला अग्रवाल इत्यादि। बानगी के लिए शिल्प व कला की दृष्टि से कुछ सबल हाइकु उद्धरणीय है:
रोती तितली / कंक्रीट जंगल में / फूल कहाँ है (डॉ. सुधा गुप्ता, पृ। 41)
अकेलापन / मन-दर्पण यादें / चंदन वन (डॉ. भगवत शरण अग्रवाल, पृ। 237)
सूर्य से कुट्टी / खोल दी है धुँध ने / गुस्से में मुट्ठी (डॉ. भावना कुँअर, पृ। 98)
बजा माँदल / घाटियों में उतरे / मेघ चंचल (रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , पृ। 34)
छुई-मुई-सी / चुप मिले अकेली / धूप सहेली (डॉ. हरदीप कौर सन्धु, पृ। 102)
गाँव के बीच / दादा-सा बरगद / यादों में बसा (डॉ. सतीश राज पुष्करणा, पृ। 235)
समता भरी / आकाश की आँखें हैं / ममता भरी (डॉ. कुँवर दिनेश सिंह, पृ। 123)
बूँदों से बातें / धरती ने फिर दीं / प्यारी सौगातें (डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, पृ। 34)
सूरज झाँका / कर जोड़े पुकारे / बरसो मेघ (डॉ. जेन्नी शबनम, पृ। 92)
शीत ऋतु में / बारिश की बौछारें / चुभें शूल—सी (अनिता ललित, पृ। 102)
माँग में तारे / थामे हाथों में दीप / रजनी वधू (कमला निखुर्पा)
वृक्ष की छाँव / सभ्यता के मरु में / ढूँढता गाँव (नीलमेन्दु सागर, पृ। 39)
बर्फ़ीली वर्षा / शीशे-सी चमका दे / सर्दी में धरा (डॉ. सुधा ओम ढींगरा, पृ। 103)
हाइकु के 'थीम' यानी कथ्य / विषयवस्तु को लेकर काफ़ी विवाद रहता है-परम्परावादी हाइकुविद् प्रकृति-चित्रण, विशेषत: ऋतु वर्णन अथवा संकेत को हाइकु का मूलाधार मानते हैं, तो आधुनिकतावादी / प्रयोगवादी रचनाकार हाइकु के विषयवस्तु में विस्तारण का समर्थन करते हुए मानवी जीवन एवं समाज के विविध पहलुओं को हाइकु शैली में अभिव्यक्त करने लगे हैं। किन्तु यदि हाइकु की अन्तरात्मा को अक्षुण्ण रखना है, तो यह स्वीकारना होगा कि प्रकृति इसका अभिन्न अंग है; मानवीय सम्वेदनाएँ तो प्रकृति के नाना बिम्बों में सहजत: उद्घाटित होती हैं। डॉ. सुधा गुप्ता के लेख 'पर्यावरण और हिन्दी के हाइकुकार' व 'दर्द गौरैया और गुलाब का' , डॉ. भावना कुँअर के लेख 'हिंदी-हाइकु में फूलों की सुगन्ध' सहित 'ग्रीष्म ऋतु वर्णन' सम्बन्धी डॉ. अर्पिता अग्रवाल के लेख तथा 'शीत-ऋतु एवं वर्षा-ऋतु वर्णन' सम्बन्धी डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा के दो लेख पठनीय हैं।
सभी आलेख समकालीन हिन्दी हाइकु में प्रकृति के वैविध्यपूर्ण चित्रण की मार्मिक प्रस्तुति देते हैं। डॉ. भावना कुँअर के ' हिन्दी-हाइकु: सुधियों में गाँव: कल और आज"एवं डॉ. अर्पिता अग्रवाल के" हिन्दी-हाइकु काव्य में ग्राम्य-जीवन का चित्रांकन", दोनों लेखों को डॉ. कुँवर दिनेश सिंह के लेख" कंक्रीट जंगल में: समकलीन हिन्दी-हाइकु में नगरीय सम्वेदना"के साथ तुलनात्मक दृष्टि से पढ़ने पर आज के ग्राम व नगर के व्यतिरेक / द्वन्द्व को भली-भाँति समझा जा सकता है। रामेश्वर काम्बोज हिमांशु के लेख" हिन्दी-हाइकु में प्रेम-निरूपण"तथा डॉ. सतीशराज पुष्करणा के लेख" हिन्दी-हाइकु काव्य में शृंगार रस" में हाइकु छन्द में प्रणय की मनोहारी सूक्ष्मानुभूतियाँ द्रष्टव्य हैं।
हालाँकि हाइकु का मूल विषय प्रकृति रहा है, किन्तु समकालीन हिन्दी हाइकु में जीवन के विविध अनुभव, मानव की आह्लाद एवं विषाद की विभिन्न मनोदशाएँ, आध्यात्मिक अनुभूतियों, सामाजिक सरोकारों पर व्यंग्य इत्यादि-सभी हाइकु के कथ्य में सम्मिलित किए जा रहे हैं। कमला निखुर्पा के लेख 'हिन्दी-हाइकु में त्योहार' में भारतीय समाज में संस्कृति व परम्परा को जीवन्त रखते त्योहारों के चित्रण के विशेष उल्लेख से हाइकु के कथ्य में समृद्धि देखी जा सकती है। इसी प्रकार "नारी-चित्रण" पर डॉ. उर्मिला अग्रवाल तथा "आत्मीय सम्बन्ध" पर केन्द्रित अनिता ललित के लेख भी हाइकु के विषयवस्तु को प्रकृति से इतर ले जाते हुए मानवी जीवन एवं अस्तित्व के विभिन्न महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को छूते हैं। डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव के लेख 'विविधवर्णी अनुभूतियों की अनुगूँज' में यही चर्चा का विषय है कि किस प्रकार हाइकु एक वैश्विक छन्द बन गया है और विश्व के कवियों ने "हाइकु की सृजन-भूमि में बहुत अधिक विस्तार कर उसे बहुवर्णी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया है" (पृ। 224) ।
हाइकु के विषय ही नहीं अपितु इसकी शैली पर भी विवाद बना रहता है। बहुत से आलोचक हाइकु को सहजानुभूति मानते हुए इसमें भाषिक अलंकारों के प्रयोग को नकारते हैं। नीलमेंदु सागर ने अपने लेख "हिन्दी-हाइकु काव्य में मानवीकरण: हेय या प्रेय" में हाइकु के मानवीकरण के उद्देश्य एवं प्रासंगिकता पर तर्कपूर्ण विवेचना की है: " सम्पूर्ण पृथ्वी हमारे लिए मानवीकृत है; क्योंकि वह सचेतन है। इसलिए हिन्दी हाइकु में मानवीकरण खोजने का अर्थ है-उसकी जीवन्तता का तत्त्व खोजना, जो उसके शब्द-शब्द और अक्षर-अक्षर में परिव्याप्त है; इसलिए मानवीकरण कोई अलंकार नहीं, हाइकु की सहज भाषा शैली है, उसकी आत्मिक पह्चान है। यह किसी प्रकार हेय और त्याज्य नहीं, सर्वथा प्रेय और श्लाघ्य है (पृ। 94)
डॉ. हरदीप कौर सन्धु का आलेख "पंजाबी-हाइकु और हाइकु लोक" बेहद महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है, जिसमें पंजाबी में हाइकु के प्रयोगों को रुचिकर ढंग से प्रस्तुत किया गया है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' का लेख ' जापानी काव्य-शैली के प्रवासी रचनाकार" विदेशों में रहने वाले हिन्दी कवियों की हाइकु-सृष्टि का विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है और हाइकु-प्रेमियों एवं शोधार्थियों को और अधिक सूक्ष्म अनुशीलन की ओर प्रेरित करता है।
निस्सन्देह प्रस्तुत ग्रन्थ में हिन्दी हाइकु की विशद् समीक्षा हुई है। सभी आलेख समकालीन हिन्दी हाइकु के महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं को उजागर करते हैं। स्थापित व नवोदित सभी हाइकु सर्जकों एवं पाठकों के लिए यह पुस्तक संग्रहणीय है। आकर्षक जिल्द में सुन्दर संयोजन के साथ पुस्तक के कुशल सम्पादन के लिए सम्पादक-द्वय-रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' और डॉ. भावना कुँअर साधुवाद के पात्र हैं। -0-