हाइकु और ताँका - अनिता-कपूर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
हाइकु पर सतही बात करते समय कुछ लोगों की कई बातें सामने आती हैं-1-भारत में क्या छन्दों की कमी है, जो हाइकु लिखा जाए. 2-हाइकु का नामान्तरण कर दिया जाए. 3-हाइकु के छन्द की तलाश में वेद आदि को खँगालना शुरू कर देना (यह प्रवृत्ति हर बात या विधा के लिए हमारी कमज़ोरी बनकर रह गई है।)
1-यहाँ यह बताना ज़रूरी है कि हाइकु केवल छ्न्द नहीं है। इस छन्द में आत्मा भी है, वह है काव्यात्मा; जिसके बिना छन्द निष्प्राण शरीर है। काव्यात्मा उस देश समाज की मिट्टी से उपजी होती है। परिधान से किसी व्यक्ति के व्यक्तित्त्व का निर्धारण नहीं किया जा सकता आचरण और चिन्तन ही वास्तविकता है। बरसों से कुछ लोग हाइकु को साहित्य का सरल मार्ग समझकर केवल छन्द लिखते रहे हैं, आज भी थोक में लिख रहे हैं, सीधे-सीधे वर्णमाला ही लिख दे रहे हैं; छन्द में बँधे हैं, पर हैं पूरी तरह स्वच्छन्द, अराजकता की सीमा तक। काव्यात्मा की तरफ़ बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया है। इधर के वर्षों में एक पीढ़ी ऐसी उभरी है, जिसका जीवन-अनुभव व्यापक है, सोच गहरी है। इस पीढ़ी में वे रचनाकार ज़्यादा हैं, जिनका काव्य आत्मानुभूति की गहनता से सम्पृक्त है। केवल छ्न्द को साध्य समझकर शब्दों का खर-पतवार उगाने वाले इनकी उपस्थिति से हैरान और परेशान हैं। कुछ तो ताल ठोंकने लगे हैं कि वे इन्टरनेट पर छाने वाले लोगों को ध्वस्त कर देंगे। हाइकु के इन हितैषियों की हताशा समझी जा सकती है।
2-नामकरण के लिए परेशान शुद्धतावादियों पूछा जाए कि क्या जापान का नाम पाकिस्तान किया जा सकता है या किसी का नाम धर्मराज से-से बदलकर यमराज किया जा सकता है? नहीं, तो भाई अगर यह ऐसा होता तो चौपाई का नाम कभी का चारपाई हो जाता, त्रिपदी का तिपाई. अपनी ताकत सर्जन में लगाइए विसर्जन में नहीं। गाड़ी और कुत्ते की कहानी सबने सुनी होगी। कुत्ते ने सोचा गाड़ी उसके दम से चल रही है। कुत्ता बैठ गया, गाड़ी चली गई.
3-जो कवि हिन्दी छन्द कवित्त की वर्ण गणना का नियम जानते है कि लघु-दीर्घ दोनों मात्राओं वाले वर्ण समान मूल्य रखते हैं, उनके लिए हाइकु की वर्ण-गणना (5+7+5) कोई नई बात नहीं है।
भाव को पूँजी मानकर हाइकु रचनाकर्म में ऐसे लोग आए हैं, जिनमें काव्य प्रतिभा है, कुछ ऐसे भी हैं जो काव्य के क्षेत्र में पहले से ही अपनी पहचान बनाए हुए थे। डॉ। अनीता कपूर, डॉ। अमिता कौण्डल, डॉ। उमेश महादोषी, उमेश मोहन धवन, ॠता शेखर प्रसाद, कमला निखुर्पा, कृष्णा वर्मा, डॉ। जेन्नी शबनम, ज्योतिर्मयी पन्त, डॉ। ज्योत्स्ना शर्मा, तुहिना रंजन, दविन्द्र कौर सिद्धू, दिलबाग सिंह विर्क, नवीन चतुर्वेदी, निर्मला कपिला, प्रियंका गुप्ता, डॉ। भावना कुँअर, मंजु मिश्रा, मुमताज टी एच खान, रचना श्रीवास्तव, वरिन्द्रजीत बरार, शशि पुरवार, डॉ। श्याम सुन्दर 'दीप्ति' , संगीता स्वरूप 'गीत' , डॉ। सरस्वती माथुर, सारिका मुकेश, सीमा स्मृति, सुदर्शन रत्नाकर, सुभाष नीरव, सुशीला शिवराण, सोनल रस्तोगी, स्वाति भालोटिया, डॉ। हरदीप कौर सन्धु। हिन्दी हाइकु में डॉ। भावना कुँअर, सुदर्शन रत्नाकर और पंजाबी हाइकु मेंडॉ। हरदीप कौर सन्धु पहले ही अपनी पहचान बना चुकी हैं। डॉ। अनीता कपूर भी विगत वर्ष में इस विधा से जुड़ी हैं।
डॉ। अनीता कपूर की कविताओं का मैं लगभग 1985 से पाठक रहा हूँ। मुझे आपके चारों काव्य-संग्रह पढ़ने का भी अवसर मिला है। इनकी कविताओं में संवेदना की जो गहन अनुभूति, कल्पना की सतरंगी उड़ान मिलती है और पीड़ा का जो मर्मान्तक अहसास होता है, वह इनके हाइकु में भी मौज़ूद है। सौन्दर्य बोध के नए उपमान, जीवब के मधु-तिक्त अनुभव इस लघु छन्द में मोती की तरह पिरो दिया गया है।
माँ के रूप को बेटी स्वयं धारण कर लेती है। इस रूप की ताज़ा और टटकी अभिव्यक्ति पर्त दर पर्त माँ के महत्त्व को उद्घाटित करती है-माँ तुम सीप / मैं हूँ सीप का मोती / तुझ-सा दिखूँ।
माँ के जीवन का दूसरा पक्ष आज के युग का कटु यथार्थ है। यह उसके नारी होने की एक और त्रासदी है—माँ को चुराते / थोड़ा-थोड़ा करके / बच्चे उसके.
अभिव्यक्ति की सादगी और प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य इनके हाइकु की अनन्य विशेषता है। सवेरा निश्छलता और बालसुलभता का प्रतीक है, जिसका निर्वाह बखूबी किया गया है-
रात ने पूछा- / 'क्यों चुराए सितारे' ? / सवेरा हँसा!
सिगरेट जलती भी है और पीने वाले को जलाती भी है। उम्र के लिए सिगरेट का उपमान छोटे-से कथ्य को गहन अर्थ-छवि प्रदान करता है। धुआँ अनुपस्थित है अर्थात् उस दु: खद जीवन-यात्रा का कोई साक्षी भी नहीं, कोई लक्षण भी नहीं बचा-
जल ही गई / सिगरेट उम्र की / धुआँ भी नहीं।
जीवन जीने के लिए सपने भी मधुर सम्बल होते हैं। यदि वे सपने ही क्षत-विक्षत हो जाएँ, तो जीवन कितना कुरुप हो जाएगा! दु: ख की रजनी काफी लम्बी है और भोर अभी दूर है। इस तथ्य को हाइकु के लघु कलेवर में समाविष्ट करना एक सफल हाइकुकार की सबसे बड़ी सफलता है।
जख़्मी सपने / तोड़ते मेरी नींद / भोर है दूर।
दोस्तों के सम्बन्धों को कवयित्री ने रेल के मुसाफ़िर कहकर स्वार्थपरता की ओर संकेत ही नहीं किया है, सावधान भी किया है-
मौसमी दोस्त / रेल के मुसाफ़िर / सचेत रहो।
हाइकु में प्रकृति-चित्रण का अपना महत्त्व है। सर्दी के मौसम में धूप की स्थिति का बहुत ही सुन्दर बिम्ब प्रस्तुत किया गया है-
धूप-टुकड़ा / बच्चे-सा ठिठुरता / सर्द हवाएँ।
सहमी धूप / बर्फीले थपेड़ों से / हो गयी फीकी।
प्रकृति का अद्भुत सौन्दर्य चाँद के रूप में भी व्यक्त हुआ है। इस हाइकु में चाँद की अनुपस्थिति को बहुत ही सहज भाव से अभिव्यक्त किया है-
चाँद का फूल / लेकर भागी रात / घुप्प अँधेरा।
रिश्तों को लेकर रचे हाइकु एक अलग चिन्तन और भाव-संवेदना के रस से पगे हैं-
फूलों को बीजने से ही रिश्तों का जन्म होता है, अत: आपने कहा है-
बीजो फूल को / रूह की बगिया में / महके रिश्ते।
रिश्तों को लेकर रचा गया यह हाइकु जितना अभिव्यक्त करता है, उससे ज़्यादा अव्यक्त छोड़ जाता है, पाठक के सोचने के लिए, उसका समाधान तलाशने के लिए और रिश्तों की गरिमा का बोध कराने के लिए. रिश्ते किस प्रकार मुनीम की भूमिका में प्रवेश कर जाते है, इसका बहुत सार्थक चित्र खींचा है-
कोख का कर्ज़, / कोख का बहीखाता / रिश्ते मुनीम।
रिश्तों का सबसे बड़ा आधार है-विश्वास। आदमी उसी के सहारे अपना जीवन बिता देता है। विश्वास का यह आकाश सँभालना ज़रूरी है। कहीं ये रिश्ते रेत की तरह हैं, जिनका डूबना अपरिहार्य है-
मेरा आकाश / तेरी हथेली पर, / गिराना मत!
रेत-से रिश्ते / दुनिया है सागर / डूबना तय।
इसी तरह का सौन्दर्य, नवीन उद्भावना इनके ताँका का भी अंग है। प्रकृति का नवल रूप और उससे अन्तरंगता माधुर्य का सर्जन करती है-
नदी में चाँद / तैरता ही रहता / पी लिया घूँट / नदी का वही चाँद / उतरा हथेली पर।
नारी केवल भोग्या ही नहीं है। वह अपना सम्मान और अधिकार चाहती है, अत: एक सीधा-सा सन्देश देती है-
मैं उतरन / बनना नहीं चाहूँ / तू तो हवा-सा / तू बदलता रिश्ते / कपड़ों की तरह।
जीवन की आपाधापी महानगरों की पहचान बन गई है। आपने बहुत सूक्ष्मता से इसका चित्र उकेरा है-
दौड़े शहर / रेलगाड़ी हुआ-सा / लटके हम / ज़िन्दगी को पकड़ें / जैसे गोद में बच्चा।
ज़िन्दगी की रूई से साम्य स्थापित करने वाली यह परिभाषा कितनी व्यावहारिक है। ताँका की पाँच पंक्तियों के 31 वर्ण में इस हक़ीकत को बाँध दिया है—ज़िदगी रूई / मत डुबाओ और / बनाओ भारी / दुखों वाले पानी में / उड़ाओ आसमां में।
यदि आपके सभी हाइकु और ताँका के मूल स्वर की बात करें तो एक गहरा अवसाद इन रचनाओं के नेपथ्य में नज़र आता है। कवयित्री अपनी सभी रचनाओं में यह आभास बड़ी आतुरता से कराती हैं। आशा है सहृदय पाठक इस संग्रह का स्वागत करेंगे।
5 जून, 2012