हाइकु का कारवाँ / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
काव्य मानव की संवेदनशीलता का भावानुवाद है। सुख हो या दु:ख, भावानुभूति की गहनता मन को उद्वेलित कर जाती है। यदि सहृदय के पास अनुकूल भाषा है, तो वह अपने भाव-अनुभावों को सम्प्रेषित कर सकेगा। सारा दारोमदार अनुभूति की सान्द्रता और शब्द-सामर्थ्य का है। जब यह अभिव्यक्ति कुछ गिने-चुने शब्द / वाक्यों तक सीमित हो जाए, तब केवल दक्ष कवि ही इसमें सफल हो सकता है। आधुनिक काव्य-जगत् की बात करें, तो 'हाइकु' वह काव्य विधा है, जिसने देशकाल की सीमाओं का उल्लंघन करके इसको को विस्तार दिया है। जापान तो हाइकु का मूल गृह है: पर अंग्रेज़ी में जितना वैविध्यपूर्ण सर्जन किया गया है, उसका भी अलग महत्त्व है। उच्च कक्षाओं में जहाँ हाइकु गहन अध्ययन का विषय रहा है, वहीं इसकी जानकारी कैनेडा और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों के कक्षा 5-6 के पाठ्यक्रम में भी दी जाती है। लगभग 12 वर्ष पहले एन.सी.ई.आर.टी. ने 'हाइकु' की जानकारी अपनी गणित की पाठय-पुस्तक में दी थी। काव्य की कोई अन्य विधा इतनी चर्चित नहीं हुई, जो भाषायी और भौगोलिक सीमाओं को पार करके अधिकतम लोगों तक पहुँची हो। टैग टी. वी. कैनेडा ने हाइकु विधा पर लगभग 50 मिनट का मेरा साक्षात्कार और कृष्णा वर्मा का वाचन (डॉ. शैलजा सक्सेना द्वारा) भी प्रस्तुत किया।
हिन्दी में पिछले 38 वर्षों में हाइकु को लेकर नई जाग्रति आई। सर्जन, शोध और समीक्षा को लेकर प्रचुर कार्य हुआ है। हिन्दी हाइकु की विधिवत् शुरुआत डॉ. सत्यभूषण वर्मा जी ने 1978 में भारतीय हाइकु–क्लब बनाकर की। इसे विस्तार देने के लिए एक लघु पत्रक 'हाइकु' के माध्यम से हिन्दी और भारतीय भाषाओं के रचनाकारों को जोड़ा। वर्मा जी के शोधग्रन्थ 'जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता' (1983) से इस विधा को और पहचान मिली। सन् 1983 तक हिन्दी में रचनाकर्म बहुत सीमित था। जहाँ तक 'जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता' शोधग्रन्थ की बात है, इसमें हाइकु के बारे में विस्तार से बात की गई है, लेकिन उसमें प्रस्तुत आधुनिक हिन्दी कविता का गहन समावेश नहीं हो सका। हाइकु सम्बन्धी कुछ अवधारणाएँ भी आज ज्यों की तों स्वीकार्य नहीं हैं। यद्यपि उस समय एक छोटे-से समूह द्वारा चलाया गया हिन्दी हाइकु का यह अभियान आज विस्तार पाकर भारत के अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया, कैनेडा, यू के, यू एस, नेपाल आदि देशों तक भी पहुँच चुका है। हाइकु के इसी कारवाँ को डॉ. भगवत शरण अग्रवाल जी ने विस्तार देकर और गुणात्मक बनाया। सन् 1995 में आपके 65 हाइकु का एक संग्रह 'अर्घ्य' छपा, जिसमें प्रत्येक हाइकु का भारत की 18 और विश्व की 7 भाषाओं में अनुवाद किया गया है। इस कारवाँ में डॉ. सुधा गुप्ता जी जैसे हाइकु के उत्कृष्ट रचनाकार जुड़े। इनके सम्पादन में 'हाइकु भारती' ने नए आयाम स्थापित किए। महिला रचनाकारों पर केन्द्रित अंक इस दिशा में महत्त्वपूर्ण क़दम 'हाइकु-काव्य विश्वकोश' इनकी विश्व प्रसिद्ध महत्त्वपूर्ण कृति है, जिसके द्वारा हाइकु को उच्चकोटि के काव्य का शास्त्रीय रूप प्रदान किया गया।
डॉ. सुधा गुप्ता हिन्दी हाइकु-जगत् में अपने सर्जन और उत्कृष्ट सम्पादन और समीक्षा के क्षेत्र में शिरोमणि कवयित्री हैं, जिनका रचना-संसार कई दशक में फैला है। 'हिन्दी हाइकु, ताँका, सेदोका की विकास यात्रा (एक परिशीलन-2017) ग्रन्थ में इनकी समीक्षा दृष्टि ने अनेक रचनाकारों को सँजोया है। इनकेऔर डॉ. उर्मिला अग्रवाल द्वारा सम्पादित हाइकु के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व कार्य-' हिन्दी हाइकु प्रकृति-काव्यकोश'2015 है। इस कोश में अकारादि क्रम से 235 रचनाकारों के 6खण्डों में 2196 हाइकु समिलित किए गए हैं। साथ ही सन्दर्भित 151 हाइकु-संग्रहों की सूची भी सम्मिलित की गई है। आप दोनों द्वारा सम्पादित' सवेरों की दस्तक'(नारी विषयक हाइकु-संग्रह-2012) हाइकु की विषय-वैविध्य की शक्ति का दर्पण है। रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'और डॉ. भावना कुँअर के' डॉ. सुधा गुप्ता के हाइकु में प्रकृति (शोध-ग्रन्थ) , हाइकु-काव्यशिल्प एवं अनुभूति (एक बहु आयामी अध्ययन) जैसे ग्रन्थों ने हाइकु विषयक 22 लेखों के द्वारा हाइकु के वैविध्य और सामर्थ्य को हिन्दी-जगत् तक पहुँचाया।
डॉ इन्द्र माली अपनी पत्रिका 'नेवा: हाइकु' के माध्यम से नेपाली और हिन्दी हाइकु प्रस्तुत कर चुके हैं। विधा को लेकर गहन शोध-ग्रन्थ भी इन्द्र माली जी ने प्रस्तुत किए। अपनी पत्रिका के हाइकु विशेषांक प्रकाशित कर माली जी ने नेपाल में हिन्दी हाइकु को पहुँचाया।
डॉ. हरदीप कौर सन्धु ने 4 जुलाई-2010 (https: / / hindihaiku. wordpress. com) हिन्दी हाइकु ब्लॉग के माध्यम से जो विस्तार दिया वह हिन्दी-जगत् की बहुत बड़ी उपलब्धि है। इन पंक्तियों का लेखक भी इस ब्लॉग से जुड़ा। आज विश्व के 112 देशों तक इसकी पहुँच है। आज 4 नवम्बर-19 तक इसके 3, 87671 हिट्स, 3579935 पृष्ठ पढ़े गए। चार सौ से अधिक कवि इससे जुड़े। जुलाई 2010 से इससे जूड़ने वाले कुछ नए कवि ऐसे भी हैं, जिनका सर्जन भविष्य में हाइकु-काव्य के प्रतिमान स्थापित करेगा। 21 वीं शताब्दी के प्रथम दशक के अन्त में जिन सृजकों को डॉ. हरदीप कौर सन्धु ने जोड़ा, उनमें गुणात्मक सर्जन करने वालों में पहले दशक के अन्तिम वर्ष में कमला निखुर्पा, रचना श्रीवास्तव, प्रियंका गुप्ता, प्रमुख हैं। दूसरे दशक में डॉ. जेन्नी शबनम, भावना सक्सैना, कृष्णा वर्मा, डॉ. ज्योत्स्ना शर्मा, अनिता ललित, शशि पाधा, डॉ. कविता भट्ट, डॉ. सुरंगमा यादव और डॉ. पूर्वा शर्मा विशेष हैं। सहृदय रचनाकारों का यह कारवाँ निकट भविष्य में विश्व-हाइकु-जगत् में अपनी रचनाधर्मिता को और आगे बढ़ाएगा।
सम्पादित संग्रहों-चन्दनमन, यादों के पाखी, स्वप्न-शृंखला ने विश्व स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ की। सन् 1994 से हाइकु के लिए समर्पित कुँअर दिनेश जी ने 'हाइफन' पत्रिका के माध्यम से एक बडे पाठक वर्ग को जोड़ा। 'हाइफन' के दो विशेषांक (2013 और 2018) अपनी गुणवत्ता के कारण उल्लेखनीय हैं। हाइफन, सरस्वती सुमन, नेवाहाइकु, अविराम साहित्यिकी के दो-दो विशेषांकों ने हिन्दी जगत् के बड़े वर्ग तक अपनी पहुँच बनाई है। हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक डॉ. कुमुद बंसल (जिनका हाइकु-ताँका आदि के सर्जन में विशेष नाम है) ने हरियाणा नवलेखन समूह के पाठ्यक्रम में हाइकु एव अन्य जापानी विधाओं को स्थान दिया, साथ ही हरिगन्धा का विशेषांक (अतिथि सम्पादक-सुदर्शन रत्नाकर) भी प्रकाशित किया तथा सितम्बर 2017 में अकादमी भवन में हाइकु पर एक विशेष सत्र भी आयोजित किया जो उल्लेखनीय है।
हाइकु में बहुत सारे शोध कार्य हुए। डॉ. भगवत शरण अग्रवाल का कार्य सर्वोपरि है। पीएच. डी. की उपाधि के लिए किए गए प्रयासों के कारण कुछ शोधकार्य प्रकाश में आए। उन्हें हाइकु के क्षेत्र की जाग्रति के रूप में देखा जा सकता है। जिस तरह के गुणात्मक शोध की हिन्दी जगत् को आवश्यकता थी, उस तरह का काम समाने नहीं आया। इसका कारण था–केवल उपाधि प्राप्त करने तक शोधार्थियों का सीमित रह जाना। कुछ से मेरा सम्पर्क भी रहा, जिसने मुझे निराश ही किया। कारण था-गहन अध्ययन का अभाव, सही दिशा निर्देशन की कमी और किसी भी तरह से उपाधि प्राप्त कर लेने की जल्दबाजी।
डॉ. भगवत शरण अग्रवाल जी के शोध-कार्यों के बाद इस कड़ी में दूसरा श्रम साध्य कार्य डॉ. पूर्वा शर्मा का 'आधुनिक हिन्दी कविता में हाइकु का स्वरूप: एक अनुशीलन' (शोध निदेशक-हसमुख परमार) मुख्य है। पूर्वा शर्मा जी से मेरा परिचय डॉ. अग्रवाल जी के माध्यम से हुआ। शुरू में बात करने पर मैं ज़्यादा उत्साहित नहीं हुआ, क्योंकि एक शोधार्थी कई वर्ष पहले मुझसे मिले थे और बहुत सारी सामग्री भी ले गए थे। पारिवारिक विवशताओं के कारण वे कार्य ही शुरू न कर सके। यह बात मैंने पूर्वा शर्मा को भी बताई। अयन प्रकाशन से मैंने कुछ किताबें (जो मेरे पास नहीं थीं) मँगाने को कहा, तो पूर्वा शर्मा ने सभी उपलब्ध पुस्तकें अविअलम्ब मँगाकर पढ़ना शुरू कर दिया। जो मेरे पास थी, वे पुस्तकें भी अपने किसी परिचित के माध्यम से मँगा लीं।
मैं पूर्वा शर्मा के गहन अध्ययन, विश्लेषण और अध्यवसाय का साक्षी रहा हूँ। आपने इस शोध-कार्य के लिए गहन अध्ययन तो किया ही, एक-एक हाइकु की भाषा, उसके प्रभाव और मूल उत्स तक की पड़ताल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। मुझसे फ़ोन पर लगातार चर्चा होती रही। हर बिन्दु को गहराई से समझने की ललक, विषयवस्तु और शिल्प का तटस्थ विश्लेषण, हिन्दी के प्रमुख हाइकुकारों का एक ही स्थान पर विस्तृत परिचय, हाइकु की व्यापकता को रेखांकित करने के लिए विभिन्न विषयों से जुड़े हाइकु की तलाश की उत्कण्ठा महत्त्वपूर्ण रही। शोध की वैज्ञानिक-प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए शोध के उच्च स्तर को बरकरार रखा। डॉ. सुधा गुप्ता, डॉ. कुँवर दिनेश, डॉ. गोपालबाबू शर्मा, प्रो नीलमेन्दु सागर, कविता भट्ट तथा प्रवासी रचनाकारों (डॉ. भावना कुँअर, डॉ. हरदीप सन्धु, कृष्णा वर्मा) के भी सम्पर्क में रहीं। लम्बी दूरी तय करके डॉ. पूर्वा शर्मा साक्षात्कार के लिए डॉ. सुधा गुप्ता जी के पास मेरठ गईं, तो मेरे पास नोएडा भी आई। शोधार्थियों में इस तरह का जुनून मैंने नहीं देखा। इसी बीच अपने हाइकु विषयक गुणात्मक लेखन से 'गगनांचल' , हिन्दी चेतना (कैनेडा) , शोध दिशा, हाइफन जैसी पत्रिकाओं में भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ की। हाइकु समीक्षा पर इतनी गहरी पकड़ बहुत कम समीक्षकों में देखने को मिलती है। साथ ही डॉ. पूर्वा शर्मा सहृदय कवयित्री भी हैं। विभिन्न संकलनों और पत्रिकाओं में इनके हाइकु भी प्रकाशित हुए हैं। इनका यह शोध-कार्य गुणवत्ता की दृष्टि से पूर्व के शोधार्थियों से कहीं आगे है। शोध-कार्य के लिए जितना इनका अध्ययन और सामग्री-संयोजन रहा, वह बहुत अधिक था। पूरी सामग्री को एक ग्रन्थ में समाहित करना दुष्कर था। आशा है भविष्य में वह कार्य भी सामने आएगा। इनका यह कार्य केवल पी-एच.डी.की डिग्री प्राप्त करने तक सीमित नहीं था। एक सजग अध्येता के रूप में डॉ. पूर्वा शर्मा ने हाइकु विधा के सभी पक्षों के गहन अवगाहन किया। ये चिन्तन-मनन के लिए प्रतिक्षण सजग थी। हाइकु-प्रेमियों, अध्येताओं और शोधार्थियों के लिए यह केवल शोध-ग्रन्थ ही नहीं, वरन् अच्छे हाइकु का कोश भी सिद्ध होगा। जो इस विधा में सक्रिय होना चाहते हैं, उनके लिए भी इस शोध की उपादेयता रहेगी। हिन्दी-जगत् में इस ग्रन्थ की उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए डॉ. हसमुख परमार जी का दिशा-निर्देश सचमुच में अभिनन्दनीय है।
मैं आशा करता हूँ कि डॉ.पूर्वा शर्मा का यह कार्य हिन्दी हाइकु-जगत् में मील का पत्थर प्रमाणित होगा। -0-
नवम्बर 5, 2019 (13 मेपल सीरप स्ट्रीट, ब्रम्पटन (कैनेडा)