हाइकु की यात्रा / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
संस्कृत की एक बहुत पुरानी काव्यशास्त्रीय उक्ति है-
'कवि करोति काव्यं रसं जानाति पण्डित:’
कवि तो काव्य की रचना करता है , पर उसका रस पण्डित या काव्य मर्मज्ञ ही जानता है । काव्य एक सर्जन है , सर्जन में भाव,विचार, कल्पना का सौन्दर्य होना ज़रूरी है ; तभी वह रसोद्रेक का आधार बन सकता है । कबीर ,सूर तुलसी , मीरा जन सामान्य के हृदय से जुड़े थे । यही कारण है कि उनके काव्य का रस आज भी निरन्तर देशकाल की सीमाओं को लाँघकर प्रवाहित हो रहा है । उनका चिन्तन आज सिर्फ़ भारतीय समाज का ही नहीं वरन् विश्व समाज की धरोहर बनता जा रहा है । इसकी वास्तविकता को तो हमारा समाज पहले ही स्वीकार करता आया है कि’स्वदेशे पूज्यते राजा , विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’ यही बात हाइकु के सम्बन्ध में भी खरी उतरती है ।
कुछ शुद्धतावादी ( इन्हें संकीर्णतावादी या कट्टर और कूप- मण्डूक कहना ज़्यादा उचित होगा) तो इस बात से परेशान हैं कि इस अभारतीय छन्द को भारत में क्यों प्रवेश दे दिया ? अगर प्रवेश दे दिया तो देखिए कि वेदों या हमारे शास्त्रों में इसके सींग -पूँछ मिलते हैं या नहीं। अगर नहीं मिलते हैं, तो मिलाने का द्रविड़ प्राणायाम करना चाहिए । यदि कुछ नहीं हो सका तो कम से कम इसका नाम ही बदल देना चाहिए। हाइकु का नाम कायकु कर देना चाहिए । आखिर क्यो? शायद उनको नामकरण - संस्कार करने का श्रेय मिल जाए । कुछ ग़ज़ल का भी नाम बदल देना चाहते हैं। कृपया बताइए कि ‘दोहा’ का नाम पोहा किया जा सकता है क्या , या चौपाई का नाम चारपाई किया जा सकता है ? यदि नहीं तो हमें इन वितण्डों में न पड़कर सार्थक रचनाकर्म में अपनी शक्ति लगाना चाहिए ।‘अभिज्ञान शाकुन्तलं” में दम न होता तो जर्मन महाकवि गेटे मन्त्रमुग्ध न हो जाता । यह मन्त्रमुग्ध करने वाली शक्ति ही किसी काव्य का जीवन है , वह चाहे किसी भी देश और भाषा का क्यों न हो । ‘ माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:’ का मन्त्र देने वाला देश व्यापक सोच का धनी रहा है , आज किसी छन्द की उपेक्षा की बात करना किसी भी साहित्यकार के लिए उसके पिछड़ेपन की ही निशानी है । यह बात हाइकु पर भी पूरी तरह से लागू होती है।
आज के दौर में हाइकु ऐसा काव्य है जो पूर्व से उगकर सुदूर पश्चिम तक अपना उजाला फैला चुका है । यह जहाँ गया है ,अपने पारम्परिक रूप के साथ वहाँ के जन जीवन और मूल्यों का भी संवाहक बन गया है । इसकी वंश-परम्परा पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि आठवी शती में जापान में 5+7+5+7+7= 31 अक्षरीय ( हिन्दी के सन्दर्भ में इसे वर्णिक छन्द के ही रूप में समझा जाए) छन्द के रूप में ताँका अपना प्रभुत्व स्थापित कर चुका था और राजदरबार के काव्य का मानक रूप प्राप्त कर चुका था । इसके बाद रेंगा का प्रारम्भ हुआ । 5+7+5 और7+7 तथा इसी का शृंखलाबद्ध बिस्तार । प्रमुख कवि 5+7+5 की रचना करता दूसरा कवि उसके आगे 7+7 की दो पंक्तियाँ जोड़ता । पुन: 5+7+5 और7+7 का क्रम चलता । दसवीं शती के प्रारम्भ में इसे प्रसिद्धि मिलने लगी थी ; लेकिन इसे साहित्यिक पहचान और महत्त्व चौदहवीं शती मिले। आने वाले कई सौ साल तक इसका वर्चस्व बना रहा । जैसा की ऊपर कहा जा चुका है कि प्रमुख कवि 5+7+5 की रचना करता था । यह रेंगा का प्रारम्भ का भाग था, जिसे होक्कु (hokku) कहते थे । इसका रचयिता कोई न कोई सिद्धहस्त कवि हुआ करता था । अपनी इस उत्कृष्टता के कारण इन उद्घाटक तीन पंक्तियों ने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बना लिया ।स्वतन्त्र रूप से होक्कु की रचना होती रही । सन् 1900 ई0 के लगभग इसी होक्कु का नाम हाइकु (Haiku) हो गया । यह नाम मासाओका शिकि ( 1867-1902) ने दिया ।आज जापान में लाखों लोग इस छन्द में रचना करते हैं । भारत की अनेक भाषाओं के साथ -साथ हाइकु विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में लिखा और पढ़ा जा रहा है । जापान में विभिन्न मौसम-वसन्त , ग्रीष्म , पतझर , शीत , प्यार और अन्य विषयों को केन्द्र में रखकर ताँका लिखे गए । इसी क्रम में हाइकु की इस यात्रा से से जुड़ी अन्य शब्दावली को भी जानना ज़रूरी है-
Renga-रेंगा - शृंखलाबद्ध काव्य(लिन्क्ड पोयट्री)
Ageku -एगेकु=अन्तिम भाग यानी रेंगा के अन्तिमअवतरण का 7-7 अक्षर वाला भाग ,जिसके समापन पर विशेष ध्यान दिया जाता है ।
Daisan =दाइसन =रेंगा के 5+ 7+5 वाला तीसरा अवतरण
Fushimono=फ़ुशिमानो= वह छवि या शब्द जो आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से रेंगा क्रम का भाग हो
haiban =हाइबन वह गद्य जो जो मनोरंजन के बतौर लिखा गया हो और जिसमे हाइकु का भी समावेश कर दिया गया हो ।
haikai=हाइकाइ=काव्य शैली,जिसमे रेंकु और इससे जुड़े रूप यथा हाइकु हाइगा,हाइबन और सेन्रर्यू समाहित हैं ।
kireji =किरेजि= परम्परागत जापानी भाषा और हाइकु में इसका प्रयोग होता रहा है ।यह एक प्रकार का विराम चिह्न की तरह का शब्द है । कविता को संरचनात्मक सहायता देने के लिए ये कुछ शब्द जोड़े जाते हैं, जिनका अर्थ निर्धारण में विशेष महत्त्व होता है ।
ka:वाक्यांश के अन्त पर , यह प्रश्न का संकेत करता है
kana: बल देने के लिए प्राय: कविता के अन्त में आश्चर्य व्यक्त करने के लिए, जैसे -
Utsutsu naki
Tsumami-gokoro no
KochO kana
—YOSA BUSON
Ya-आश्चर्य सूचक भाग
Haru-same ya
Yabu ni fukaruru
Sute tegami -KOBAYASHI ISSA
keri: विस्मयादिबोधक क्रियात्मक प्रत्यय पूर्ण भूतकाल के लिए-
Hana chirite
Ko-na-ma -no-tera to
nari ni keri
-YOSA BUSON
ramu या - ran: सम्भाव्यता सूचित करने के लिए क्रियात्मक प्रत्यय।
shi: उपवाक्य के अन्त में विशेषणात्मक प्रत्यय के लिए ।
tsu: क्रियात्मक प्रत्यय पूर्ण वर्त्तमान के लिए ।
romaji, = रोमनीकृत जापानी, जिसमें ऊपर -YOSA BUSON के दो हाइकु लिखे गए हैं
kasen=कासेन-दिव्य कवि = वह रेंगा जिसमे क्रमश: 36 भाग हो। पुराने समय में 36 अवतरण के काव्य को ‘दिव्य कवि’ अभिहित किया जाता था ।।
kigo=किगो- ॠतुसूचक शब्द या वाक्य । याशिमोतो ने ने इस प्रकार लगभग 180 किगो की सूची दी जो बाद में यह सूची 5 हज़ार तक पहुँची । कुछ कवियों ने इस तरह की सूची को निरस्त कर दिया ।
senryu= सेन्र्यू- हाइकु की विषयवस्तु से मुक्त ( यह तब की बात है जब हाइकु को केवल प्रकृति वर्णन तक सीमित किया हुआ था)
Tanka ताँका=लघुगीत, 5-7-5-7-7 अक्षर का काव्य ( हिन्दी में 5-7-5-7-7=31 वर्ण का]
waki , wakiku वाकि/वाकिकु=रेंगा का 7-7 वाला दूसरा अवतरण । यदि हाइकु वाला 5-7-5-का भाग जनरल है ,तो दूसरा भाग चीफ़ ऑफ़ स्टॉफ़ है जो जनरल के मुख्य कथन का पूरक हो , उस पर अलग तरह का प्रकाश डाले न कि खुद को भिन्नमतावलम्बी सिद्ध करे।याशिमोतो के अनुसार -‘’ कुछ अलग तरह से कहा जाए लेकिन असम्बद्ध रूप से नहीं’’something different in a manner not detached’’-ONE HUNDRED FROGS FROM RENGA TO HAIKU TO ENGLISH : By HIRAKOI SATO-Page -31
इस तकनीकी शब्दावली के बाद हाइकु के लिए अक्षर , वर्ण या जापानी भाषा का शब्द ग्रहण करें तो परस्पर पर्याय की समानता तलाशना मुश्किल है । अक्षर के लिए निकटतम शब्द syllable है लेकिन जापानी में इसके लिए कुछ समतुल्य ‘on’ है , पूरी तरह पर्याय नहीं ;,क्योंकि जापानी में ‘on’ का अर्थ syllable से थोड़ा कम है । जैसे - haibun अंग्रेज़ी में दो अक्षर हैं- हाइ-बन परन्तु जापानी में चार अक्षर या चार ‘on’ हैं- (ha-i-bu-n)=हा-इ-ब-न इसी तरह
furuike ya kawazu tobikomu mizu no oto
हाइकु जापानी में ‘ऑन’ के अनुसार इस तरह होगा-
1
fu-ru-i-ke ya (5)
ka-wa-zu to-bi-ko-mu (7)
mi-zu no o-to (5)
2
Ha-ru-sa-me -ya (5)
Ya-bu- ni -fu-ka-ru-ru (7)
Su-te -te-ga-mi (5)
-KOBAYASHI ISSA
जो हिन्दी के वर्णिक छन्द के निकट है । जापानी भाषा और अंग्रेज़ी भाषा के बारे मे syllable की व्याख्या इस प्रकार की है
“English is ‘stress timed’’ and Japanese ‘’ syllable timed.’’
[HAIKU: An Anthlogy of Japanese Poems : page VII ]
हिन्दी की भाषा वैज्ञानिक शब्दावली में इसे 5-7-5 वर्ण का छन्द कहा जाना चाहिए न कि 5-7-5 अक्षर का छन्द । इसका कारण है कि हिन्दी मे अक्षर का अर्थ है- वह वाग् ध्वनि जो एक ही स्फोट में उच्चरित हो । उदाहरण के लिए -
कमला= कम-ला=2 , धरती=धर-ती=2।, मखमल=मख- मल=2, करवट= कर-वट=2, पानी=पा-नी=2,अपनाना=अप-ना-ना=3,चल=1, सामाजिक= सा-मा-जिक=3 (ये अक्षर =गणना दी गई है)
आ , न , ओ हिन्दी मे वर्ण भी हैं, एक ही स्फोट में बोले जाते हैं -अक्षर भी हैं और सार्थक भी हैं( आ-आना क्रिया का रूप , न= निषेध के अर्थ में, ओ-पुकारने के अर्थ में , जैसे ओ भाई! इसी तरह गा , ला आदि भी हैं।]
हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में
कमला= क-म-ला=3 , धरती=ध-र-ती=3, मखमल=म-ख- म-ल=4, करवट= क-र-व-ट=4 पानी=पा-नी=2, अपनाना=अ-प-ना-ना=4,चल=2, सामाजिक= सा-मा-जि-क=4 वर्ण गिने जाएँगे।
हाइकु के बारे में सीधा और सरल शास्त्रीय नियम है- 5-7-5=17 वर्ण ( स्वर या स्वरयुक्त वर्ण) न कि अक्षर जैसा कि असावधानीवश लिख दिया जाता है । रही बात विषयवस्तु की कोई भी विषय हाइकु के लिए अछूता नहीं है।कवि अपने सामाजिक सरोकार से विमुख नहीं हो सकता ।समाज की हँसी -खुशी , संघर्ष-सहयोग , सफलता -विफलता सभी यहाँ झेलना है । सरल समझकर जो हाइकु में कुछ भी लिखने के लिए उद्यत हैं-चारण गाथा से लेकर व्यक्ति-वस्तु की नामावली तक , या मीटर, किलोग्राम से लीटर तक । वे हाइकु के साथ उसी तरह अनाचार कर रहे हैं ,जिस तरह लोग ग़ज़ल , लघुकथा और क्षणिका की दुर्गति कर रहे हैं। ऐसे आशु यशकामी कहीं भी सफल नहीं हो सकते । हिन्दी हाइकु अच्छे रचनाकर्म से आगे बढ़ेगा , नई पीढ़ी को आगे बढ़ाने से और आगे बढ़ेगा। फ़तवे जारी करने से या स्वयंभू हाइकु सम्राट बनने से काम नहीं चलेगा । आज के इस समय में एक लाइन को तोड़कर ऊलजलूल लेखन करने वाले देर -सवेर गायब हो जाएँगे । मेरा यह सुदृढ़ मत है कि जो अच्छा कवि है ,जिसके पास संलिश्ष्ट भाषा है , जो अपनी अनुभूति के प्रति ईमानदार है, जो पाठकों को अपने अनुभूत सत्य से जोड़ने की कला जानता है , वह जो रचेगा , स्थायी महत्त्व का रचेगा। तिकड़मों से प्रजानीति ,साहित्य और समाज अधिक दिनों तक खुराक नहीं ले सकते । जीवन की सर्जनशीलता बेईमानी और छल -प्रपंच के घाट का प्रदूषित जल पीकर ज़्यादा दिन स्वस्थ नहीं रह सकती ।
-0-