हाइकु : बाशो की समय चेतना: / कुँवर दिनेश
जापान में ईडो कालावधि के दौरान प्रख्यात दार्शनिक एवं कवि मात्सुओ बाशो (ई. 1644-1694) के नेतृत्व में हाइकु काव्य-विधा ने अत्यधिक लोकप्रियता और सफलता प्राप्त की। अपनी युवावस्था में बाशो एक समुराई थे, लेकिन 1666 के बाद उन्होंने अपना जीवन काव्य-सर्जन के लिए समर्पित कर दिया। उनके हाइकु की संरचना उनकी सहज-सरल जीवन-शैली और जीवन में ध्यान एवं अध्यात्म की महत्ता को दर्शाती है। जब उन्हें एकांत की आवश्यकता अनुभव हुई, तो वे अपने 'बाशो-अन' , बाशो यानी केले के पत्तों से बनी एक झोपड़ी में चले गए-इसी कारण उनका छद्म नाम 'बाशो' था। ज़ेन बौद्ध धर्म से प्रभावित, बाशो ने अपनी कविता में एक रहस्यमयी प्रवृत्ति का संचार किया और सरल प्राकृतिक छवियों के माध्यम से शाश्वत एवं सार्वभौमिक विषयों को व्यक्त करने का प्रयास किया। बाशो ने अपने जीवन के अंतिम दस वर्षों में सुदूरवर्त्ती क्षेत्रों में भ्रमण किया, जिससे उनकी मनोदशा प्रभावित हुई और उनकी अधिकांश कविताएँ यात्रा वृत्तांतों में परिवर्तित हो गईं। इन यात्राओं से प्राप्त अनुभवों ने उनकी कविता की संरचना एवं शैली को अत्यधिक प्रेरित किया और चिन्तन की गहनता प्रदान की।
हाइकु एक संक्षिप्त और संघनित काव्यरूप है और समझाने के बजाय संकेत अथवा सुझाव देती है। हाइकु का सौन्दर्यपरक और आध्यात्मिक अनुशासन महत्त्वपूर्ण है, जिसमें इसके आकार, स्वरूप, पंक्ति-गणित और वर्णक्रम की आवश्यकताओं के साथ-साथ इसकी अन्त: संरचना सम्बन्धी परिपाटी का पालन करना अनिवार्य होता है। एक हाइकुकार को प्रकृति के एक विशिष्ट क्षण में देखे गए पहलू को केवल सत्रह वर्णों की सँख्या को तीन पंक्तियों में संघनित, आसुत और अनुशासित ढंग से कहना होता है। हाइकु की समृद्धि इसकी संक्षिप्त और संघनित संकेतात्मकता, सुझावात्मकता एवं ध्वन्यात्मकता में निहित है, जो पाठक को इस तरह से आकृष्ट व प्रवृत्त करती है कि वैसा लंबी कविता नहीं कर सकती। हाइकु का अर्थ पाठकों की ग्राह्यता एवं प्रतिक्रियात्मकता पर निर्भर है। प्रकृति के एक पल के दृश्य में मानवीय अंतर्दृष्टि व अनुभूति के समागम से हाइकु में अर्थ और भाव समृद्ध होते हैं।
हाइकु में एक क्षण विशेष का महत्त्व है, जिसमें समाहित एक क्षण के दर्शन का आधार बौद्ध धर्म की ज़ेन की ध्यान पद्धति / क्रिया में है। हाइकु एक अनित्य परन्तु अविस्मरणीय क्षण को ध्यान में और शब्दों में आबद्ध कर लेने की कला है। बाशो का निम्न हाइकु समय की असीमित शृंखला में से एक क्षण पर ध्यान केन्द्रित करके बहुत ही सुंदर बिम्बों के साथ अनुभूतिजन्य सत्य को उद्घाटित करता है; सूर्यास्त के समय में असँख्य झींगुरों का नाद प्रस्तर का भी वेध कर डालता है:
कितने शांत!
चट्टानों के हिय में
झींगुर-नाद!
हाइकु केवल प्रकृति विषयक कविताएँ नहीं कही जा सकती हैं। नि: सन्देह पारम्परिक जापानी हाइकु में प्रकृति प्रमुख विषय है, लेकिन प्रकृति की जापानी अवधारणा में मानवीय क्रियाकलाप एवं जीवनानुभव भी सम्मिलित हैं, क्योंकि इसमें मनुष्य भी प्रकृति का अभिन्न अंग हैं।
एक कुशल हाइकु कवि वस्तु अथवा क्षण के संवेदी अनुभव और मनोदशा को अपनी पाँच इंद्रियों-दृष्टि, स्वाद, स्पर्श, ध्वनि और / या गंध के माध्यम से अनुभव करता है। वह उस क्षण विशेष की प्रतीक्षा करता है जब दृष्ट वस्तु एवं अनुभूत क्षण के सार का बोध होता है और उसे न्यूनतम-आवश्यक शब्दों में व्यक्त करता है और एक कुशल हाइकु कवि के लिए प्राय: इस सहज अभिव्यक्ति में रूपक, उपमा या विशेषणों जैसे भाषिक अलंकरणों के उपयोग की आवश्यकता नहीं रहती। हाइकुकार हाइकु की छवियों अथवा बिम्बों के संश्लेषण व मीमांसा को, अर्थ / अर्थों के अनुभव को सुधी-सहृदय पाठक पर छोड़ देता है।
कवि मात्सुओ बाशो ने हाइकु के माध्यम से समय और प्रकृति के साथ मानव के अन्त: सम्बन्ध को गम्भीरता एवं दार्शनिकता के साथ अभिव्यक्त किया है। मनुष्य जीवन की सीमितता एवं क्षणभंगुरता में अकथ्य उदासी का भाव, प्रकृति के साथ तादात्म्य की अनुभूत एवं परिष्कृत सादगी, आडम्बर की अस्वीकृति और सांसारिक चिंताओं से मुक्ति-उनके हाइकु काव्य में प्रमुखता से मुखरित हुए हैं।
समय परिवर्तनशील है; हर बदलते मौसम के साथ मनुष्य का स्वभाव भी बदलता हुआ देखा जा सकता है। इस अनुभव को बाशो ने पतझड़ के मार्मिक चित्रों के साथ अभिव्यक्त किया है:
देखो मेरी सू / इस ख़िज़ाँ की शाम / मैं अकेला हूँ।
इस राह में / साथ नहीं है कोई / पतझड़ में।
साँझ की बेला / एक नंगी शाख पर / कौआ अकेला।
शीत लहर / सारस भीगा-भीगा / पुलिन पर।
ख़िज़ाँ अथवा पतझड़ के मौसम को वृद्धावस्था से भी जोड़कर देखा जा सकता है। बुढ़ापे के दिनों में मनुष्य को प्राय: घोर अकेलेपन का सामना करना पड़ता है, जिसकी पीड़ा अवर्णनीय है। शिशिर के अनुभव को बाशो ने कुछ इस प्रकार कहा है: "बात करते / शिशिर की वात में / होंठ भी जमे।" यानी शिशिर के प्रभाव में जीवन थम—सा जाता है। भावनाएँ उमड़ती भी हैं तो अत्यधिक शीत में उनकी अभिव्यक्ति शिथिल पड़ने लगती है। इस हाइकु में शिशिर-वात को भावनाओं के शैत्य का रूपक माना जाए तो हदय की शैत्यवृत्ति के कारण भावनाओं को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है। बाशो ने जीवन और प्रेम के उस निर्णायक क्षण के महत्त्व को आख्यायित करने का प्रयास किया है, जिसमें सुस्पष्ट एवं सच्ची अभिव्यक्ति के अभाव में सम्बन्ध बिखरने की कगार पर पहुँच जाते हैं। एक बार समय बीत जाए तो फिर उसे पकड़ पाना असम्भव होता है, इस सर्वविदित तथ्य को बाशो ने निम्न हाइकु में अत्यन्त भावपूर्ण ढंग से उकेरा है: "वसन्त जाए / मीन आँसू बहाए / खग चिल्लाए।"
नि: सन्देह मनुष्य का मन कल्पनाशील है, आकांक्षाओं से भरा है; परन्तु यह शाश्वत सत्य है कि मानव-मन की स्पृहा समय की सत्ता के आगे क्षीयमान है। निम्न हाइकु में बाशो का कविमन एक अतीव सुन्दर व चित्ताकर्षक क्षण को संजोने की इच्छा व्यक्त करता है, किन्तु समय के विध्वंसक रूप के आगे विवश हो जाता है:
है हरी-भरी
वाह! रहे ऐसी ही
मिर्च की फली।
कवि मात्सुओ बाशो की समय-चेतना वर्तमान से अतीत और पुन: वर्तमान में और कभी भविष्य की स्थितियों में पहुँच जाती है और समय के नैरन्तर्य को दार्शनिक आयाम देती हुई प्रतीत होती है। निम्न हाइकु में वर्तमान और अतीत का युग्मित भाव देखा जा सकता है:
ग्रीष्म घास में
पुराने योद्धाओं के
शाही सपने।
समय के बदलते स्वरूप में चमत्कृति का भाव भी निहित है। बाशो का यह हाइकु पत्थरों में भी बहार के दृश्य का वर्णन सशक्त बिम्बों के माध्यम से करता है: "गुल दाऊदी: / पत्थरों के बीच में / बहार खिली।" बाशो के कुछ हाइकु तो एक क्षण के अनुभव में पूरे जीवन का दर्शन कह देते हैं, यथा: "ताल पुराना: / दादुर की डुबकी / जल तराना।" और "मंडूक, सर- / एक पत्ता है गिरा / उठा न स्वर।" जहाँ पहले हाइकु में ताल रूपी सुशान्त मन में भावों के उद्दीपन का चित्र मिलता है, तो वहीं दूसरे हाइकु में गहन ध्यान की अवस्था में बाह्य वस्तुओं की उत्तेजना के निष्फल होने से ध्यान की सिद्धि की बात की है। निम्न हाइकु में कवि बाशो ने समय के अस्थविर स्वरूप को बहुत ही मार्मिक चित्र के साथ प्रस्तुत किया है:
दिन तपता
ले गई मोरगामी
सिन्धु में बहा।
पारंपरिक जापानी हाइकु प्रकृति और समय के अनुभवों से सम्बंधित हैं। समय का जटिल स्वरूप हाइकु में निहित रहता है। स्थान के अनुभव के साथ ही निरन्तर गतिशील समय की अनुभूति हाइकु का एक अनिवार्य अंग है। बाशो के हाइकु में समय के अनुभव के साथ-साथ कालातीतता का भाव भी द्रष्टव्य है।
हाइकु को कविता के आसुत सार के रूप में वर्णित किया जा सकता है-संक्षिप्त, संघनित और विचारोत्तेजक; लेकिन हाइकु लिखने के कार्य में सौंदर्य और आध्यात्मिकता दोनों का समान महत्त्व है। अत्र एवं अद्य पर केन्द्रित ज़ेन बौद्ध धर्म का गहन प्रभाव, हाइकु के रूप-स्वरूप एवं सौंदर्यशास्त्र में व्याप्त है। हाइकु केवल एक कला नहीं है, बल्कि एक आध्यात्मिक अनुशासन है, जैसे योग व ज़ेन अथवा ध्यान। अपने उच्चतम अनुभव में, हाइकु असाधारण सौंदर्य और आध्यात्मिक सुंदरता की कविता है जो अंतर्दृष्टि, चैतन्य और अनुभूति के विशिष्ट क्षण को आत्मसात् करती है। बाशो ने सही कहा था-वह जो अपने जीवनकाल में तीन से पाँच हाइकु रचता है वह हाइकु 'कवि' है; वह जो दस तक पहुँच जाता है वह 'गुरु' है।