हाथी के दाँत / विष्णु नागर

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हाथी के दाँत खाने के और, दिखाने के और, लेकिन बच्चों को उसके खिलौने के दाँत प्रिय थे, क्योंकि वे सुंदर थे। बड़ों को भी वे प्रिय थे, क्योंकि कीमती थे। एक बार बच्चे हाथी के पास गए। उन्होंने कहा-- "हाथी दादा, हाथी दादा, अपने दाँत हमें दे दो।"

हाथी ने कहा-- "खाने के तो दे नहीं सकता। दिखाने के चाहो तो ले लो।"

"हाँ–हाँ, हमें दिखाने के ही चाहिएँ। बड़े सुंदर हैं। हम इनसे खेलेंगे।" --बच्चों ने एक स्वर से कहा।

"लेकिन बड़े तुम्हें खेलने देंगे?" --हाथी ने कहा।

बच्चों ने कहा-- "क्यों नहीं, क्यों नहीं? बड़ों को हमारे खेलने से कोई एतराज नहीं है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि हम खतरनाक चीज़ों से न खेलें।"

हाथी ने व्यंग्य से मुस्कराकर कहा-- "ये भी खतरनाक हैं।"

"नहीं, आप झूठ बोलते हैं। खतरनाक नहीं है।" --बच्चों ने उत्तर दिया। हाथी ने कुछ सोचकर कहा-- "अच्छा चलो, ले जाओ मेरे दाँत। बड़े जब मेरे दाँत मांगें तो कहना, हाथी से सावधान, हाथी की पूँछ भले ही छोटी हो, उसके पाँव बहुत भारी होते हैं। वे आदमी को कुचल सकते हैं। फिर भी वे माँगें दाँत तो कहना, सावधान, हाथी को अपने दिखाने के दाँतों से भी उतना ही प्यार होता है, जितना खाने के दाँतों से, और हाथी दूर भी नहीं है। यहीं–कहीं है।"

बच्चे घर आए। हाथी के दाँत लाए। बड़ों ने देखे। बड़े बच्चों के लिए बड़े–बड़े तोहफे, सुंदर–सुंदर खिलौने लाए। उन्हें सैर के लिए ले गए। बच्चे हाथी के दाँतों को भूल गए। बड़े गुपचुप उन्हें ले गए और उन्होंने अपना काम कर लिया। उधर हाथी बहुत ख़ुश रहा करता कि बच्चे उसके दाँतों से खेल रहे होंगे। और एक दिन, जब वह बच्चों की खुशी का अंदाज़ा लेने आया, तो बच्चे बड़े हो चुके थे।