हाथ वाले / महावीरप्रसाद जैन

Gadya Kosh से
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शो शुरू होने में अभी देर है; और इस तरह के खाली समय का उपयोग भी वह सार्थक ढंग से करता है यानी—फुटपाथ पर बिखरी किताबों के ढेरों को देखना-टटोलना। उसका अनुभव है कि इन फुटपाथी ढेरों में कभी-कभार बड़ी उम्दा किस्म की किताबें हाथ लग जाती हैं। उसके कदम उस परिचित दुकान पर जाकर रुक गए। यह बहुत पुरानी फुटपाथी दुकान है…और इसके मालिक के दोनों हाथ कटे हुए हैं।

दुकानदार उसे देखकर हल्के-से मुसकराया और उसने एक तरफ इशारा किया, जिसका मतलब था कि इस ढेर से आपको कुछ न कुछ मिल जाएगा। वह किताबें देखने लगा। तभी उसकी बगल में एक युवक आकर खड़ा हो गया। उसने उसे एक नजर देखा। वह युवक किताबें छाँटने में लग गया। कुछ देर बाद उसकी नजरें फिर उस युवक की ओर उठीं, और उसने देखा कि एक किताब को बगल में दबाए वह अभी-भी किताबों को उलट-पलट रहा था। दुकानदार अन्य ग्राहकों को निपटाने में लगा हुआ था कि वह युवक चल दिया। उसने देखा—उसकी बगल में पुस्तक दबी है। बिन पैसे दिये…यानी…ऐसे ही…चोरी? और उसके मुँह से निकल पड़ा—“वह तुम्हारी किताब ले गया है…बिना पैसे दिये…!” उसने जाते युवक की ओर इशारा भी किया।

“मुझे मालूम है भैयाजी…!”

“यार, बड़े अहमक हो!…जब मालूम है, तो रोका क्यों नहीं?”

कुछ देर वह चुप रहा और फिर उसके सवाल का जवाब देते हुए बोला,“हाथ वाले ही तो चोरी कर सकते हैं भैयाजी!”