हादसा / राजनारायण बोहरे

Gadya Kosh से
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लोग कई दिनों से उसके इंतजार में थे।

लोक सभा चुनाव के लिए नामाँकन फॉर्म भरने का सिलसिला पिछले तीन दिन से जारी था और उसका कोई अता-पता नहीं था।

यूं सामान्य दिनों में तो वह रोज ही हमे दिख जाता था। ...कभी तेज कदमों से जाने कहाँ जाने की जल्दी में चलने के उपक्रम में, ...कभी किसी अधिकारी से भिढ़ता हुआ। ...तो कभी किसी नेता को तीखी बातें सुनाता हुआ! ...सक्षेप में कहें कि चुनाव की गहमागहमी शांत हो जाने के बाद पांच साल में जितने भी दिन होते वह हमारे इर्द-गिर्द ही रहता। हर दिन बेमतलब ही कस्बे की सड़कें नापता दिखता वह हमे। रानीपुर टेरीकॉट का सफारी सूट पहने, पांव में हवाई-चप्पल उलझाये वह दिमागी रूप से हमेशा मशरूफ़ दिखता। हर वक्त अपने बगल में दबी एक काली डायरी के पन्ने फड़फड़ाता जाने क्या-कुछ नोट करता रहता। कोई देखता तो झट से डायरी बन्द कर देता।

लेकिन इन दिनों तो वह गधे के सिर से सींग की तरह नदारद था।

कस्बे के लोग सन् अस्सी के आम चुनाव से उसे पूरे उत्साह से हरेक चुनाव लड़ता देख रहे हैं। बीते वर्शों के हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में यहाँ का मतपत्र उसके नाम से विभूषित रहा आया है। ये बात अलग है कि हमारे देश के महाविद्यालयों की स्नातक कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाले संविधान के मुताबिक तो इस अवधि में मात्र चार-पांच चुनाव होना था, लेकिन राजनैतिज्ञों की पारस्परिक पटेबाजी, असली-नकली जनआंदोलन और घोटालों के चलते हमारा प्रदेश छै-सात चुनाव झेल चुका है, इस अवधि में।

हर चुनाव में वह हम पचास लोगों से पचास रूपये प्रति व्यक्ति चन्दा लेता और बाकायदा रसीद जारी करता। एकत्रित हुये चंदे में से पांच सौ रुपया जमानत की फीस भरता और शेष दो हजार रुपया अपनी चुनावी यात्राओं के लिये सुरक्षित रखता। बस इतने से खर्च का बजट रहा है सदा से उसके पास, न इससे ज़्यादा और न इससे कम। चुनाव आयोग बहुत खुश रहा होगा उससे।

हर बार नया चुनाव-चिन्ह मिलता रहा है उसको। उस चिह्न को वह आटे की लेई बनाकर हार्डबोर्ड में चिपका लेता और अपनी साइकिल पर टांगकर घूमता रहता। प्रचार के दिनों में निहत्था वह होता है, उसकी साइकिल होती है और समूचा चुनाव क्षेत्र होता है। कहीं भी नजर मारिये उसका कुछ भी फिजूल खर्च नहीं दिखेगा-पोस्टर-बैनर नहीें, चुनाव कार्यालय नहीं, नुक्कड़ सभायें नहीं। एकला चलो की तर्ज पर लोकतंत्र का रक्षक बना, रात-दिन दौरे करता वह अकेला। कंधे पर टंगे भूदानी थैले मंे भुने हुये चने या गेहूँ आटे की पंजीरी होती, जिसे वह भूख लगने पर फास्ट-फूड की तरह गपागप गड़पता। अपनी अतिप्रिय काली डायरी ज़रूर साथ रखता था वह उन दिनों और इस डायरी में चुनाव क्षेत्र की खास-खास समस्याओं को नोट भी करता रखता।

गहरे ताँबई रंग की चमकती-सी खाल, दुबला बदन, सरकंडे से खड़े सिर के बाल और आँखों के इर्द-गिर्द गहरे काले गढ़े़ उसके चेहरे को असामान्य बना देते। जाने उसकी अजूबी-सी शक्ल-सूरत का कमाल है या उसकी चितवन की कोई विशेषता कि वह हरदम बेचैन-सा दिखाई देता। जब भी मिलेगा, नजरें नहीं मिलायेगा, इधर-उधर ताकता आधी-अधूरी-सी बेतरतीब बात करेगा। गहरी काली आँखों में एक उदासी-सी पाले रहेगा, दुनिया-जहान की चिंतायें सीने में पाले होगा, जिन्हे आपसे शेयर करने का प्रयास भी करेगा, फिर यकायक खिसक लेगा, बिना कुछ कहे। लोग हक्के-बक्के से एक दूसरे का मुंह ताकते रह जायेंगे, पर वह तो यह जा और वह जा।

उसकी चुनावी सभाओं में प्रायः पच्चीस आदमी से ज़्यादा इकट्ठा नहीं होते हैं। हाँ जब लोगों को मजे लेना होता है तो बाकायदा तख्त और माईक का इंतजाम कराके उससे भाशण देने का आग्रह किया जाता है। सच मानिये, उसकी ऐसी चुनावी-सभाओं में हजार-दो-हजार की भीड़ जुट जाना आम बात है। उसके भाशण सूत्रात्मक रहते हैं, जिन्हें सुन के लोग हँसी खेल में कंठस्थ कर लेतेे है, ं फिर दूसरों को सुनाते रहते हैं।

"प्यारे मतदाताओ, आपने पिछली बार गलती की, मुझे नहीं जिताया, इसका नतीजा देख लिया। आपकी चुनी हुयी सरकार साल भर में ही गिर गई. कोई बात नहीं, अब आप गलती न करना, मैं फिर आपसे वोट माँगता हॅू, इस बार मुझे ही जिताना।"

"यदि आपने मुझे विधायक बना दिया, तो मैं वादा करता हूँ कि एक एम्बूलैंस आप लोगों की बहु-बिटिया की डिलिवरी के लिये हमेशा तैयार रहेगी।"

"यदि मैं जीता तो हर गाँव में टट्टीघर और पेशाबघर बनवाना मेरा पहला काम होगा।"

"हर गाँव में छायादार खलिहान बनवाना चाहते हैं, तो मुझे ही वोट दीजिये!"

"इस कस्बे की राजनीति को क्राइम, कास्टिज्म और करैप्सन से मुक्ति दिलाना चााहते हैं तो मुझे वोट दीजिये।"

सड़क छाप आदमी के ऐसे अकादमिक आश्वासन सुन लोग उसे शेखचिल्ली समझते थे, उस पर हँसते थे।

एक बार ऐसी ही सभा में उसने देश के प्रधानमंत्री पर भ्रश्टाचार के आरोप लगा दिये। उसी रात किसी अज्ञात व्यक्ति ने उस पर हमला कर दिया था। कस्बे के पत्रकारों ने उसका मामला हाथों-हाथ लिया, कलेक्टर और एस.पी. परेशान हो उठे। उसको श्रेश्ठतम चिकित्सा मुहैया कराई गई और आनन-फानन में उसे एक-तीन का सुरक्षा गार्ड दे दिया था।

अब साहब, गार्ड मिले या कमाँडो, वह अपनी औकात जानता था सो उसे कोई फर्क़ नहीं पड़ा। उसकी अपनी चुनावी दिनचर्या पहले की तरह चलती रही। यानी कि तड़के जगना, गाँव बाहर जाकर दिशा मैदान से निवृत्त होना, लौटकर किसी पड़ौसी के घर चाय का सरूटा भरना और फिर चने की पोटली लेकर क्षेत्र में निकल जाना। असली मुसीबत थी गार्ड की। दूसरी जगह बॉडीगार्ड बन कर जाते तो, खूब मजे मेें रहते, यहाँ ऐसे फटेहाल आदमी से फ़क़त चाय की भी आशा न थी। यूं तो उसके साथ रहना ही कम कश्टकर न था उनके लिये, ऊपर से तालाब किनारे जाकर इत्मीनान से मलत्याग कर रहे उस के चारों ओर सुरक्षा घेरा बनाकर खड़े रहना तो तोबा, तोबा। पर ड्यूटी तो ड्यूटी थी जनाब, सो चेहरे पर बेबसी लिये वे लोग, उसके इर्द-गिर्द रहने को मजबूर थे।

चुनाव अधिकारियों से लेकर चुनाव आयोग तक वह हर चुनाव में सैकड़ों शिकायतें फाइल करता। उन पर गौर किया जाये या नहीं उसे इसका मलाल न रहता।

उसे भोला-सा विस्मय होता कि हर चुनाव में पोलिंग-बूथों पर उसका अभिकर्ता बनने के लिये जितने युवक हर बार उससे सम्पर्क करते हैं, उसेे आखिर उतने वोट भी क्यों नहीं मिल पाते। सचमुच एजेन्टों की फौज लगातार बढ़ती थी उसके चुनाव में, पर वोट नहीं।

हालांकि एक बार तो ऐसे समीकरण बने थे कि नेताओं से उकताये लोगों ने उसको वोट दिया। वह दूसरे स्थान पर रहा। बाल-सुलभ उत्साह से अपने आर्थिक सहयोगियों के पास आकर "मतपत्र लेखा" दिखाते हुये बोला-"देखो मेरा जनाधार बढ़ रहा है। अगली बार सब कुछ ठीक रहा तो मैं ही जीत रहा हूँ।"

लोग उस भोले और ईमानदार आदमी का विश्वास न तोड़ते। उससे कैसे कहते कि ज़्यादा खुश मत होओ यह तुम्हारा जनाधार नहीं, लोगो की खीझ है, याद करो यूं इसी प्रकार एक जगह नेताओं से उकताए लोगों ने किन्नर तक को वोट दे दिये हैं और आज उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व एक किन्नर कर रहा है।

वह स्टेशनरी की दुकान से खूब सारे कागज खरीदता, लिफाफे खरीदता और दर्जनों बाल पेन भी।

कोई आदमी इतनी स्टेशनरी का सबब पूछता तो बताता कि वह कस्बे की समस्याओं के बारे में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कोः पत्र लिखता रहता है।

कोई उत्सुक तमाशबीन अगर आगे पूछता कि इससे क्या कोई हल निकलता है?

तो उत्तर में वह प्रायः कहता "इतने भ्रष्टाचार और गुण्डागर्दी के बाद भी हमारे देश में अभी न्यायपालिका जीवित है। हमारे देश के प्रशासन का समूचा तंत्र अभी भी विश्वास के काबिल है। ये क्या कम बात है कि देश का कोई भी नागरिक किसी भी बड़ी अदालत में जाकर बिना एक धेला खर्च किये जनहित याचिका पेश कर सकता है, कोई भी नागरिक किसी भी पद का चुनाव लड़ सकता है। मैं खुद अगली बार राश्ट्रपति का चुनाव लड़ने जा रहा हूँ।"

लोग उसके प्रति सहानुभूति रखते और उसके भोले विश्वासों की लम्बी उम्र के लिये प्रार्थनाएँ करते। आखिर अधिकांश नागरिकों की मान्यताओं को ही तो शब्द देता था वह। देश और गणतंत्र के प्रति उनका विश्वास ही तो मजबूत करता था वह।

उसके घर की बड़ी कमजोर हालत थी। उसकी माँ आसपास के घरों में झाडू बर्तन करके दो जून की रोटी कमाती। गाहे-बगाहे वह खुद गाँव बाहर से कनस्तरों में पानी भरके पूरे बाज़ार में बेचता, पर प्रायः निठल्ला ही घूमता रहता। साल में कभी कभार कोई दोस्त यार मउरानीपुर टैरीकोट का कपडा लाकर दे देता तो अपने एक शुभचिंतक दर्जी से बिना मजदूरी के वह सफारी सूट सिला लेता। दो-चार साल में जब कहीं बाहर जाना होता तो कस्बे के अपने शुभचिंतकों से पूरे हक के साथ बेहिचक आने जाने का खर्चा माँग लाता था वह, यह धोंस अलग कि मैं आप लोगों के हित बचाने के लिये ही तो राजनीति में हूँ, नहीं तो चैन से घर बैठ कर आराम न करता।

पिछली बार उसका नामाँकन फॉर्म निरस्त किया जाने लगा तो वह खूब चीखा-चिल्लाया। अंततः उसकी बात तो मानली गई, पर पहली बार उसे लगा कि वह एक निर्दलीय उम्मीदवार है, इस कारण उसे चुनाव अधिकारी पर्याप्त सम्मान नहीं दे रहे हैं। यार-दोस्तों के पास आकर वह यही दर्द बयान करता रहा था-अब तो पार्टीयों की बपौती हो गयी है चुनाव पर। अगर कोई प्रत्याशी निर्दलीय रूप में चुनाव लड़ रहा है तो उसका कोई मूल्य नहीं है। पार्टी का आदमी है तो ही उसकी प्रतिश्ठा है, तो ही चुनाव प्रक्रिया पर प्रभाव डाल सकता है उसका होना न होना। अपने देश के लिये एक ग़लत शुरूआत है यह। आम आदमी की कीमत गिरना शुरू हो गई है अब।

पिछले विधानसभा चुनावों में वह बुरी तरह पिटा भी था। दरअसल चुनाव के दिन दूर गाँव के एक पोलिंग-बूथ पर जब वह दौरे पर था तो उसने देखा कि जीप मंे भर के आये बीस-पच्चीस गुण्डों ने पूरा बूथ घेर लिया है। उनका विरोध करने वह आगे बढ़ा तो दो गुण्डों ने उसकी अच्छी-खासी मरम्मत कर दी थी। उस मतदान-केन्द्र के सारे वोटों पर सत्ताधारी पार्टी के प्रतिनिधि के निशान पर सीलें छपने लगीं थीं।

बाद में अखबारों से लेकर चुनावी अधिकारियों तक उसने आपत्ति दर्ज कराई, लेकिन उसकी किसी ने न सुनी। अब हाईकोर्ट में रिट दायर करना उस जैसे साधनहीन व्यक्ति को तो संभव था नहीं, सो वह थक हार के चुप बैठ गया था।

पिछले तीन दिन में कस्बे के दर्जनों लोग आपस में जब भी मिले परस्पर यही पूछते रहे हैं कि इस बार उसने फॉर्म क्यों नहीं भरा। लेकिन जवाब किसी के पास न था, अंत में चार-पांच लोगों ने उसी शाम घर जाकर उसससे मिलना तय किया।

वह बीमार था शायद।

देखा कि तख्त पर एक फटा-सा कम्बल लपेटे बैठा है। अपने घर इतने लोगों को आया देखकर पहले वह बिस्मित हुआ, फिर मुस्कराया और आगे बढ़कर उन सबका स्वागत किया। उसने तख्त पर पड़े फटे पुराने कपड़े हटाये। उन सबको बड़े सम्मान से वहाँ बिठाया और खुद खड़ा रहा। लोगों ने उसके घर का मुआयना किया। घर क्या था, रियासत के जमाने की घुड़साल के इस कमरे में ही पूरी गृहस्थी थी उसकी, यानी कि एल्यूमिनियम के पांच-सात बरतन, फटे पुराने रजाई-गद्दे और अलगनी पर झूलते उसके और माँ के जीर्ण-शीर्ण कपड़े। जब तक उसकी माँ ने मेहमानों के लिये चाय बनने नहीं रख दी, वह अपनी चिर-परिचित बैचेनी की मुद्रा में खड़ा ही रहा, फिर कुछ निश्चिंत-सा होकर मेहमानों के पास आकर बैठा तो उनमें से एक बुजुर्ग ने उससे बातचीत शुरू की, "क्या हुआ भैया, तुम इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हो क्या?"

उसने साफ शब्दों में बताया कि वह अब चुनाव नहीं लड़ेगा।

बुजुर्ग ंने फिर कहा कि कहाँ तो तुम इस बार राश्ट्रपति का चुनाव लड़ने का हौसला बाँध रहे थे और कहाँ लोकसभा चुनाव की हिम्मत नहीं कर पा रहे।

"एक आम आदमी के लिए बहुत महँगा हो गया है अब चुनाव" दर्द भरी आवाज में वह कह रहा था "आप ही बताओ कि जमानत के लिए पांच सौ रूपये की जगह दस हजार रुपया क्यों कर दिये गये हैं? इतने सारे रूपये जमानत में भरना अब किस गरीब-गुरवा के वश की बात है! पचास रूपये के हिसाब से कितने लोगों से चंदा करने जाऊँगा मैं...! फिर दूसरे खर्चे भी तो जुटाना पड़ेंगे न! किसी पार्टी से मुझ जैसे फक्कड़ को अब टिकट तो मिलने से रहा, सो स्वतंत्र ही लड़ना होगा और फिर अब तो निर्दलीय उम्मीदवार की जान की भी कोई कीमत नहीं चुनाव में। मुझे कहीं भी कोई मार डाले, किसे क्या फर्क पड़ेगा? चुनाव अपनी जगह होते रहेंगे।"

उसकी आवाज यकायक फुसफुसाहट के रूप में मंदी हो गई, वह बोला "आप नहीं जानते बाबूजी, ये सब पैसे वालों के षडयंत्र हैं, वे कहाँ से सहन करेंगे कि कोई सड़क छाप आदमी चुनाव लढ़ें और चुनकर ऊपर आये। ये नेता लोग क्यों चाहेंगे कि कोई गरीब आदमी किसी सड़ी-सी चीज के लिए इस देश की सबसे बड़ी अदालत में अपनी गांठ से बिना एक धेला लगाये ह़क की लड़ाई के पक्ष में खड़ा हो जाये, जनता के हित के लिए अपनी आवाज बलन्द करे।"

सबने देखा यह कहते वक्त वह किन्ही अनाम लोगें से डर-सा रहा है। लगा वह दिमागी रूप से कुछ खिसक गया है अब अपनी जगह से।

बुजुर्ग सज्जन ने औपचारिकतावश उसे आश्वस्त किया "तुम पैसों की चिंता मत करो, बहुत चाहने वाले है तुम्हारे। पैसों का तो बंदोबस्त हो जायेगा कैसे न कैसे।"

फीकी-सी हँसी हँसा वह "ये तो आपकी कृपा है बाबूजी. पर मेरा मन सचमुच खट्टा हो गया है।"

"क्यों?"

लोगों ने देखा कि इस क्यों शब्द का जवाब देने में उसे बड़ी परेशानी हो रही है, शरीर काँप-सा रहा था उसका। होंठ फड़क रहे थे और हाथ की मुट्ठियाँ भींच ली थी उसने, फिर बड़े कड़वे स्वर में बोला था "दरअसल मेरा इस पूरे तंत्र से विश्वास उठ गया है।"

सुनकर स्तब्ध हो गये सब। लगा कि मन-मस्तिश्क में एक भीशण विस्फोट हुआ है और रह रहकर एक गड़गड़ाहट-सी गूँजने लगी है। जैसे ट्विन टॉवर पर लगातार हमले हो रहे हों। उन सबका भी मस्तिश्क साथ छोड़ रहा था और मन में एक अजीब-सी घबराहट पैदा हो रही थी। एक अनाम-सा भय उन सबके मन को जकड़ रहा था। यदि ब्लड प्रेशर नापने की मशीन पास में होती तो उन सबका रक्तचाप निश्चित ही 140 / 240 होता।

फिर उनसे बैठते नहीं बना वहाँ। वह अपनी उत्सुक और प्रश्नाकुल भोली दृश्टि से बेध रहा था उन सबको। वह शायद किसी के कुछ बोलने की उम्मीद कर रहा था। पर उनमेें साहस ही कहाँ बचा था!

उससे नजरें न मिलाते हुये बुजुर्ग सज्जन ने उसके कंधे हौले से थपथपाये और वे सब वहाँ से मायूस हो लौट आये-यानी इस बार के मतपत्र में उसका नाम नहीं होगा।

इस हादसे के बाद से बहुत बेचैन हो चुके हैं कस्बे के वे सब लोग! क्योंकि हो सकता है कि किसी और को ये बात बहुत छोटी लगे, पर हम सबको भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह सबसे बड़ा हादसा ही लगता हैं।

एक आम-आदमी का हमारे समूचे तंत्र से विश्वास उठ जाना भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा हादसा है। आप क्या सोचते हैं इस विषय में?