हादसा / रूपसिह चंदेल
गुजरते वक्त की प्रभाव से कोई नहीं बच पाता. वे भी न बच सकीं. सुदीर्घ, सुडौल और संगमरमरी शरीर अब ढीला पड़ने लगा है. गोल, सुगढ़ मुख पर टंकी आंखों के नीचे काली झायीं-सी उभर आयी है, जिसे उन्होनें चश्मे के नीचे चुपा रखा है. होठों का गुलाबी सौन्दर्य धूमिल पड़ चुका है. कितना परिवर्तन दिख रहा है उनमें ! हिरणी की तरह चंचल आंखें, जो सदैव अपने प्रति दूसरों के आकर्षण से चैतन्य रहा करती थीं, अब केवल सलाइयों से खेलते हाथों की गतिविधियों पर ही स्थिर हैं. एक समय यही आंखें लोगों की चर्चा का विषय हुआ करती थीं.
लेकिन यह एक अभीष्ट सत्य है कि एक सीमा तक ही कोई चर्चा में रहा करता है--- वैसा ही उनके साथ हुआ. वैसे उस छोटी-सी जगह, जहां मात्र एक फैक्ट्री के कर्मचारियों के परिवार ही रहते हैं, सदैव कोई-न कोई लड़की चर्चा के केन्द्र में रहती है, लेकिन जिस तेजी से किसी के बारे में चर्चा शुरू होती है, साल-दो साल में उसी तेजी से ठण्डी भी हो जाती है. लेकिन वे इस बात का अपवाद रहीं. लगातार चौदह-पन्द्रह वर्षों तक वे चर्चा के केन्द्र में रही हैं.
पहली बार फैक्ट्री क्वार्टर्स एक-दूसरे से उनके बारे में कानाफूसी करने लगे थे, जब वह बी०ए० अंतिम वर्ष में थीं. अविनाश फैक्ट्री में 'टूल-रूम' में सुपरवाइजर थे. कुछ दिन पहले ही चण्डीगढ़ से आए थे. चौबीस-पचीस के अविनाश फुटबाल के अच्छे किलाड़ी थे. उनका भाई भी फैक्ट्री में था और अविनाश के साथ खेलता था. दोनों में मित्रता हो गयी और अविनाश प्रायः उनके घर आने लगे. प्रारंभ में उन्होंने बिल्कुल ध्यान नहीं दिया. लेकिन एक दिन उन्हें लगा कि अविनाश उनमें रुचि लेने लगे हैं. उन्हें यह अच्छा लगा था.
वह उम्र कल्पनाओं में खो जाने वाली थी. वे भी अनेकानेक कल्पनाओं के किले बनाने लगीं. जिस अविनाश को शुरू में वे साधारण कर्मचारी और खिलाड़ी समझती थीं, अब उसमें ही उन्हें अनेकानेक गुण दिखाई देने लगे थे. प्रायः वे उसके साथ चर्चा करने लगतीं, पढ़ाई, खेल, संगीत और कला की. इन विषयों में उनकी जितनी जानकारी थी, अविनाश से बात करके उन्हें लगता कि वह कितनी कम थी. एक बार किसी विषय पर बहस करते हुए शाम को वह गंग नहर तक चले गये. लौटकर आए तो पिता ने मीठी झिड़की के साथ पूछा, "तुमी को थाम गिये छिले."
"नहर की ओर ----- बाबा."
पिता कुछ न बोले. अविनाश की ओर देखा और कमरे में चले गये.
"मिस चौधरी ---- आपके पिता---- बुरा तो न माने होगें----?" अविनाश ने पूछा तो वे उनकी आंखों में देखते हुए बोली थीं, "मेरे बाबा बहुत अच्छे हैं---- नाराज भी होते हैं तो ऎसा कि किसी को कुछ पता नहीं चल पाता---- "रियली हि इज़ अ नाइस फा़दर !"
"लेकिन तुम नहीं जानती--- वे मेरे फोरमैन हैं ---- मेरे अफसर."
"तो इसमें डरने की क्या बात है ?"
"बहुत सख्त हैं---- सभी उनसे डरते हैं वर्कशॉप में---- मैं भी----."
वह हंस पड़ी थीं---- उन्मुक्त हंसी. हंसी रुकती न अगर पीछे से सिर पर हल्की-सी चपत न पड़ी होती. उनका भाई था तुषार. फुटबाल खेलकर आया था.
"क्यॊं रे अविनाश ---- आजकल तू इस चुड़ैल कान्ता से गप लड़ाने के चक्कर में फुटबाल खेलने भी नहीं आता---."
अविनाश का मुख विवर्ण हो उठा था. कुछ बोल नहीं पाये थे. स्थिति संभालते हुए वही बोली थीं, "भइया----- मुझे इनसे अंग्रेजी का एक लेसन पढ़ना था---- मैंने ही बुलाया था."
"ओह---- सॉरी--- पढ़ाई के मामले में मैं दखल न दूंगा---- खुद तो इंटर से आगे पढ़ नहीं पया इसलिए----." दोनों कान पकड़ता तुषार भाग गया था.
दोनों हंस पड़े थे---- खिलखिलाकर.
उस दिन के बाद वे प्रायः नहर की ओर घूमने जाने लगे थे.
पिता, मां और भाई की उदासीनता से उन्हें उन्मुक्तता ही मिली थी. वह यह अनुभव करने लगी थीं कि शायद मां और बाबा को उन दोनों का मिलना अच्छा ही लगता है. इसके लिए वे मन ही मन तर्क दे लेती कि बंगाली परिवारों में व्याप्त दहेज-दानव के कारण शायद वे भी अविनाश को पसन्द करने लगे हैं.
धीरे-धीरे वह अविनाश के होस्टल तक जाने लगीं, और इतना ही पर्याप्त था फैक्ट्री वालों को चर्चा के लिए. शायद यह चर्चा भी दूसरों की तरह ही अल्पजीवी हुई होती, यदि वह हादसा उनके साथ न हुआ होता.
वह हादसा वर्षों-वर्षों तक उन्हे चर्चा के केन्द्र में बनाए रखने के लिए पर्याप्त था.
उस दिन अविनाश ने प्रस्ताव रखा कि वे नहर की ओर न जाकर दक्षिण की ओर खेखड़ा गांव के किनारे के तालाब की ओर चलें. वे चल पड़ीं, कुर्ता-पायजामा में---- यही वे उन दिनों पहना करती थीं. लेकिन उस दिन अविनाश ने जिद की कि वे साड़ी पहनकर चलें. कभी पहनी न थीं, इसलिए झिझकती रहीं. लेकिन जीत अविनाश की ही हुई. मां की साड़ी पहनकर जब वे निकलीं, अविनाश देखते रह गये थे उन्हें. वे स्वयं अपने को आदमकद शीशे में देखकर आय़ी थीं और मन-ही मन स्वयं पर मुग्ध हो उठी थीं. अविनाश का इस तरह देखना उन्हें अन्दर तक गुदगुदा गया था. वे चित्रलिखित-सी खड़ी रही थीं.
तालाब के किनारे एक झाड़ी के पास दोनों खोये रहे थे बातों के नवीन गुंजलक में. दिसम्बर की शाम की ठण्डी हवा और बसेरे की ओर लौटती चिड़ियों की चहचहाहट से सर्वथा अस्पर्शित वे भावी रेत-महल के निर्माण में निमग्न थे.
गर्मी की तलाश में सुर्य़ पश्चिमी क्षितिज में खो गया था. निकट गन्ने के खेत से काली चादर का फैलाव बढ़ता जा रहा था, वे स्थिर थे, ज्यों के त्यों.
अकस्मात अविनाश को पता नहीं क्या सूझा----- उन्हें अवसर दिए बिना ही उनके हाथ भी सक्रिय हो उठे थे---- अविनाश ने उन्हें आगोश में आबद्ध कर लिया था. उन्होंने कोई प्रतिरोध नहीं किया---- और दोनों एक-दूसरे की सांसें गिनने लगे थे---- तभी अंधेरे की चादर ने दोनों को पूरी तरह ढक लिया था.
पता नहीं कब तक दोनों यों ही खोये रहते---- यदि कुछ लोगों की खिलखिलाहट ने उन्हें अचकचा न दिया होता---- दोनों तुरन्त उठ खड़े हुए थे. लेकिन वे उनके बिलकुल निकट आ पहुंचे थे. वे तीन थे और उनके हाथों में हॉकियां थीं. दो ने अविनाश को पकड़ लिया था. उनके प्रतिरोध करने पर वे उन पर हॉकियों से प्रहार करने लगे थे. एक उन्हें पकड़कर गन्ने के खेत की ओर खींचने लगा था. वे चीखने लगीं तो चाकू उनके चेहरे के पास करके वह बोला, "आवाज निकाली तो एक मिनट में चेहरा छीलकर रख दूंगा."
अविनाश को वे बेरहमी से पीट रहे थे. उनके हांफने- कराहने की आवाज उनके कानॊं में टकरा रही थी. वह कसाई के हाथ पड़ी गाय की तरह छटपटा रही थीं और वह उन्हें घसीटता जा रहा था. अन्ततः वे फैल गयीं. वह उनका दाहिना हाथ पकड़कर घसीटने लगा. घास और कंकड़ॊं से कमर के पास का भाग छिलता जा रहा था. वह शक्ति भर उससे मुक्त हो जाने का प्रयत्न कर रही थीं, लेकिन लग रहा था कि शक्ति जवाब देने लगी है. शरीर शिथिल होता जा रहा था.
उन्होंने अंतिम कोशिश की---- हाथ झिटककर उठ बैठीं---- भागना चाहा अविनाश की ओर--- लेकिन तभी कमर के पास उसने पैर से चोट की और वे फिर ढेर हो गयीं---- उसके बाद उन्हें होश नहीं रहा---- और जब होश आया तब गन्ने के खेत में उन्होंने अपने को उन तीनों के बीच घिरी पाया. था.
गिद्धों की भांति वे एक के बाद एक उनके शरीर को नोंचते रहे थे. वे पुनः बेहोश हो गयी थीं. जब दोबारा होश आया था---- तब वे जा चुके थे. वे किसी प्रकार लड़खड़ाती अविनाश तक पहुंची थीं. वह तालाब के कीचड़ में पड़ा कराह रहा था. उन्होंने उन्हें कीचड़ से बाहर निकाला था किसी प्रकार, लेकिन उन्हें सहारा देकर घर ले जाने या स्वयं घर तक जाने की ताकत उनमें न बची थी. शायद दोनों ही रात भर वहीं पड़े रहते, यदि तुषार अपने मित्रों के साथ उन्हें खोजता न आ पहुंचता. उन्हें फैक्ट्री अस्पताल पहुंचाया गया था. दो दिन बाद वह वहां से डिस्चर्ज हो आयी थीं---- अविनाश को गहरी चोटें लगी थीं---- . अस्पताल से बाहर आते ही उन्होंने बाहर की हवा का रुख बदला हुआ पाया था---- एक -ब-एक फैक्ट्री के आवासीय क्षेत्र में चर्चाओं का बाजार गर्म हो उठा था.
चर्चा ने तब और तूल पकड़ ली जब चौथे दिन अविनाश की मृत्यु का समाचार फैला . अविनाश चले गये---- उन्हें अपराधिनी-सा अभिशप्त जीवन जीने के लिए छोड़कर. समाचार पाकर चण्डीगढ़ से उनके पाता-पिता और कुछ रिश्तेदार आए थे. लोगों ने मां को नमक-मिर्च लगाकर बताया तो वे उसके सामने छाती पीटकर रोने लगी थीं उन्हें कोसते हुए. वह मुंह छुपाकर उनके सामने से हट गयी थीं.... बाद में पुलिस आयी ---- पूछताछ हुई---- और हाथ हिलाते पुलिस लौट गयी थी.
दिन, महीने और वर्ष बीतते गये, किन्तु वे आज भी अपराध-बोध से ग्रस्त हैं. उनके बाबा फैक्ट्री से रेटायर्ड हो चुके हैं. तुषार को दूसरा क्वार्टर मिल गया है.. सारा परिवार उसी नये क्वार्टर में शिफ्ट हो गया है.
तुषार की शादी हुई तो कुछ रिश्तेदारों ने उनके बारे में भी चर्चा चलाई ---- लेकिन बाबा और मां का साहस उनसे बात करने का नहीं हुआ---- उन्होंने स्वयं ही उस चर्चा को वहीं दबा दिया था---- अविनाश की यादों की अर्थी ढोना ही उन्होंने अपनी नियति मान ली थी----.
"आण्टी ये स्वेटर मेरे लिए बना रही हैं..?" तुतली आवाज में तुषार के ढाई साले के बेटे ने पूछा तो ऊन और सलाइयां एक ओर रखकर उन्होंने उसे गोद में उठा लिया और प्यार करने लगीं.
उस क्षण अविनाश उनकी पलकों में आ विराजमान हुए थे.