हारिति / अज्ञेय
वह सुन्दरी नहीं थी। उसके मुख पर सौन्दर्य की आभा का स्थान तेज की दीप्ति ने ले लिया था। उसकी आँखों में कोमलता न थी, वहाँ कृतनिश्चय की दृढ़ता ही झलकती थी। उसके सिर की शोभा उस पर की अलकावलियों में नहीं थी, वरन कटे हुए बालों के नीचे उस उघड़े हुए प्रशस्त ललाट में।
कहते हैं, स्त्री के जीवन में आनन्द हैं, स्नेह है, प्रेम है, सुख है। उसके जीवन में वे सब कहाँ थे? जब से उसने होश सम्भाला, जबसे उसने अपने चारों ओर चीन से प्राचीन देश का विस्तार देखा; जबसे उसने अपनी चिरमार्जित सभ्यता का तत्त्व समझा, तब से उसके जीवन में कितनी दु:खमय घटनाएँ हुई थीं! जब वह छ: वर्ष की थी, तभी उसके पिता को जर्मन सेना ने तोप के मोहरे से बाँधकर उड़ा दिया था; क्योंकि वे ‘बाक्सर’ नामक गुप्त-समिति के सदस्य थे। उसके बाद 1900 वाले ‘बाक्सर’-विप्लव में, जब उसकी आयु 11 वर्ष की भी नहीं हुई थी, जर्मन और अँगरेज सेना ने आकर उसके छोटे-से गाँव में आग लगा दी थी। वहाँ के स्त्री-पुरुष सब जल गये। उसमें उसकी वृद्धा माता भी थी। केवल उसे, उस अनाथिनी को, जो उस समय सीक्यांग नदी से पानी भरने गयी हुई थी, न जाने किस अज्ञात उद्देश्य की पूर्ति के लिए, किस भैरव यज्ञ में आहुतिरूप अर्पण करने के लिए, विधाता ने बचा लिया। वह गाँव की ओर आयी, तो दो-चार बचे हुए लोग रोते-चिल्लाते भागे जा रहे थे। वे उसे भी खींचकर ले गये। वह बेचारी अपनी माता के शरीर की राख न देख पायी। उस दिन से कैसा भीषण रहा था उसका जीवन! फूस की झोपडिय़ों में रहना या कभी-कभी सीक्यांग के किनारे, टिड्डी-दल की तरह एकत्रित, अँधेरी गन्दी, धुएँ से काली डोंािगयों में पड़े रहना... उसके अभिभावक, गरीब मछुए, दिन में अफीम खाकर सो रहते। वह उस गर्मी में बन्द एक कोने में बैठकर सोचा करती, कब तक देश की यह दशा रहेगी, कब तक विदेशी सिपाही इस प्रकार पहले हमारे घर जलाएँगे और फिर हमें दंड देंगे, हमारे देश से करोड़ों रुपये ले जाएँगे...
आज वह युवती थी। अभी अविवाहिता थी, कुमारियों के जीवन में जो आनन्द होता है, वह उसने अपने निर्दय जीवन में कभी नहीं पाया। उन मछुओं की सदस्य, किन्तु निर्धन, शरण से निकलकर उसने कुली का काम किया, और उससे संचित धन से अपना शिक्षण किया था। अब वह कैंटन-सेना में जासूस का काम करती थी।
वह सुन्दरी नहीं थी। उसके जीवन में सौन्दर्य के लिए कोई स्थान ही न छोड़ा था। उसकी एकमात्र शोभा-उसके केश-भी आज नहीं रहे थे। आज वह जासूस का काम करने के लिए सर्वथा प्रस्तुत थी। वह प्राय: पुरुष-वेश में ही रहती, कभी-कभी आवश्यकता होने पर ही स्त्री-वेश पहन लिया करती। उसकी सहचारियाँ जब कभी उससे इस विषय में प्रश्न करतीं, तो वह कहती, ‘‘जिस देश में पुरुष भी गुलाम हो, उसमें स्त्री होने से मर जाना अच्छा है।’’
उसकी बात शायद सच भी थी। चीन की दशा उन दिनों बहुत बुरी थी-अशान्ति सब ओर फैली हुई थी। इधर कैंटन में सनयात-सेन अपनी सेना का संगठन कर रहे थे। उधर से समाचार आया था कि मंचूरिया से सम्राट का सेनापति युवान शिकाई बहुत बड़ी सेना लेकर आ रहा है। कैंटन की औद्योगिक अशान्ति का स्थान अब एक नये प्रकार के संजीवन ने ले लिया। जिधर आँख उठती, उधर ही लोग वर्दियाँ पहने नजर आते। कैंटन-सेना स्वयं-सेवी थी, युवान शिकाई की सेना में सभी वेतन पाकर काम करते थे। कैंटन-सेना के सैनिकों के आगे साम्य का आदर्श था, युवान शिकाई के आगे व्यक्तिगत लाभ का। कैंटन-सैनिकों के हृदय में प्रजातन्त्र की चाह थी, युवान शिकाई के सैनिक साम्राज्यवाद की हिली हुई नींव फिर से जमाना चाहते थे। कैंटन की सेना विश्वास के कारण लड़ती थी, युवान शिकाई की लोभ के कारण। पर कैंटन के सैनिक बहुत थोड़े थे, और उनके विरुद्ध युवान शिकाई एक शस्त्र-वेष्टित प्रलय-प्रहरी लिये बढ़ा आ रहा था। उन थोड़े से गुप्तचरों को दिन-रात अनवरत काम करना पड़ता था; कभी इधर, कभी उधर, कभी सन्देश पहुँचाना कभी खबरें लाना- कभी-कभी एक-एक रात में चालीस-चालीस मील तक पैदल चलना पड़ जाता था; पर उनके सामने जो आदर्श था, हृदय में जो दीप्ति थी, वह उन्हें प्रोत्साहित करती, उन्हें शक्ति प्रदान करती, उन्हें विमुख होने से बचाती थी।
पर सभी के हृदय में वह आदर्श-वह दीप्ति नहीं थी। कुछ व्यक्ति ऐसे भी थे, जिनके हृदय में दूसरी इच्छाओं, दूसरी आशाओं, दूसरी स्मृतियों ने घर कर रखा था। जिनका ध्यान युवान शिकाई की प्रगति की ओर नहीं, प्रणय की प्रगति की ओर था; जिनके मन में दृढ़-विश्वास का आलोक नहीं, विरह का प्रज्वलन था। पर जिस तरह कसौटी पर चढऩे से पहले सभी धातुएँ सोने की तरह सम्मानित होती हैं, उसी तरह वे भी संघर्ष से पहले सच्चे वीरों में गिने जाते थे। जिस महान परीक्षा से पृथक्करण होना था, वह अभी आरम्भ नहीं हुई थी।
वह नित्यप्रति जब उठकर अपनी मर्दानी वर्दी पहनती, तो किसी अनियन्त्रित शक्ति से प्रार्थना किया करती : ‘‘शक्ति! मुझे इतनी दृढ़ता दे कि मैं उस आनेवाली परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकूँ। मैं स्नेह से वंचित रही हूँ, अनाथिनी हूँ, प्रेम करने का अधिकार मुझे नहीं है-मैं दासी हूँ। कीर्ति की मुझे इच्छा नहीं है-गुलाम की क्या कीर्ति; पर मुझे पथ-भ्रष्ट न करना, मुझे विश्वास के अयोग्य न बना देना।’’
फिर वह शान्त होकर अपने तम्बू से बाहर निकल आती, और दिन-रात दत्त-चित्त होकर अपना काम करती। दिन में उसे कभी अनिश्चय का, विश्वास का, कातरता का अनुभव न होता। सभी उसके प्रशस्त ललाट, उसके प्रोज्ज्वल नेत्र, उसके तेजोमय मुख को देखकर विस्मित रह जाते।
घनघोर वर्षा हो रही थी। पाँच दिन से वह अविरल जल-धारा नहीं रुकी थी वह पीतवर्णा, कृशकाया, सीक्यांग आज घहर-घहर करती बह रही थी। उसका पाट पहले से दुगना हो गया, और रंग बदल कर लालिमामय हो रहा था। उसके किनारे, वही जहाँ दस वर्ष पहले अँग्रेज और जर्मन सेना ने एक छोटे-से गाँव को अधिवासियों सहित जला दिया था, आज एक बड़ा फौजी शिविर था, और कितनी ही छोटी-छोटी छोलदारियाँ इधर-उधर लग रही थी।
वर्षा हो रही थी, पर कैंटन के सेना के उस शिविर में उसकी बिलकुल उपेक्षा थी। कितने ही सैनिक चुपचाप अपने स्थानों पर खड़े पहरा दे रहे थे उनकी वर्दियाँ भीग गयी थीं। बूट कीचड़ से सन गये थे। हाथों की उँगलियों पर झुर्रियाँ पड़ गयी थी; पर वे अपने स्थानों पर सावधान खड़े थे।
रात बहुत बीत चुकी थी, छोलदारियों में अँधेरा था। केवल बीचवाले एक बड़े तम्बू में प्रकाश था। उसे बाहर बहुत-से पहरेदार थे। वे एक-दूसरे के सामने खड़े थे फिर भी कोई किसी से बात नहीं कर रहा था।
एकाएक भीतर से आवाज आयी, ‘‘क्वेनलुन!’’
एक पहरेदार अन्दर गया, और क्षण-भर में बाहर आकर छोलदारियों की ओर चला गया।
थोड़ी देर में वह लौट आया। अब वह अकेला न था। उसके साथ थी एक स्त्री, जिसका शरीर एक भूरे फौजी कम्बल में ढँका था; पर सिर खुला था, उसके केश कटे हुए थे।
दोनों अन्दर चले गये।
अन्दर एक बड़े गैस-लैम्प के प्रकाश में चार-पाँच अफसर बैठे हुए थे। एक कुछ चिटि्ठयाँ पढ़ रहा था। एक ने दो-तीन नक्शे अपने आगे बिछा रखे थे, और उन्हें ध्यान से देख रहा था-कभी-कभी पेंसिल से उन पर चिह्न भी लगा देता था। एक ओर बैठा हुआ लिख रहा था। उसकी वर्दी की आरे देखने से मालूम पड़ता था कि वह कर्नल था। और बाकी सब उससे छोटे पद के थे। पहरेदार और वह स्त्री कर्नल के आगे सलाम करके खड़े हो गए। उसने कुछ देर ध्यान से स्त्री की ओर देखा, और बोला, ‘‘नम्बर 474?’’
स्त्री ने शान्त-भाव से उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ।’’
‘‘तुम कैंटन में दायना पेइफू का घर जानती हो?’’
‘‘जी हाँ, वह नदी के किनारे ही एक लाल मकान में रहती है।’’
‘‘हाँ।’’
कर्नल ने एक पत्र निकाला, और उस पर मुहर लगाकर उसे दे दिया। फिर कहा, ‘‘नम्बर 474, यह पत्र उन्हें पहुँचाना है।’’
‘‘कब तक’’
‘‘वैसे तो कोई जल्दी नहीं है, पर बाढ़ आ रही है, शायद रात-रात में रास्ता बन्द हो जाए।’’
‘‘बहुत अच्छा।’’ कहकर वह जाने लगी।
जो व्यक्ति नक्शा देख रहा था, उसने कहा, ‘‘कर्नल, यहाँ से कैंटन के रास्ते में तो युवान शिकाई की सेना पहुँच रही है।’’
‘‘हाँ, मुझे याद आ गया। नम्बर 474!’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘हाँ काऊ से समाचार लेकर तुम्हीं आयी थीं न?’’
‘‘जी हाँ।’’
‘‘फिर तुम्हें पूरी स्थिति मालूम ही है। अपने साथ दस चुने हुए आदमी लेती जाओ।’’
‘‘बहुत अच्छा।’’
‘‘तुम्हारे पास वह जासूस का चिह्न है?’’
‘‘नहीं, मैंने हाँकाऊ से आते ही उसे वापस कर दिया था। अब आप दें।’’
कर्नल ने जेब में से चाँदी का बना हुआ एक छोटा-सा चीनी अजगर निकाला, और देते हुए बोला, ‘‘हमें तुम पर पूरा विश्वास है।’’
उस स्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह चुपचाप विचित्र चिह्न लेकर सलाम करके चली गयी। कर्नल ने लिखना बन्द कर दिया। एक हल्की-सी सन्तुष्ट हँसी उसके मुँह पर दौड़ गयी।
‘‘क्या बात थी, हारिति?’’
‘‘कुछ नहीं, एक दौड़ और लगानी होगी।’’
‘‘कहाँ की?’’
‘‘कैंटन।’’
‘‘पर अभी कल ही तो तुम हाँकाऊ से आयी थीं?’’
‘‘तो क्या? काम तो करना ही होता है।’’
‘‘ये नब्बे मील अकेली ही जाओगी?’’
‘‘नहीं, साथ दस आदमी और जाएँगे।’’
‘‘पर जो बाढ़ आ रही है...’’
‘‘उससे आगे बढऩा होगा। अगर कैंटन का पुल पार कर लूँगी, तो हमारी जीत है।’’
‘‘और अगर न कर पायी तो?’’
‘‘तैरना जानती हूँ-मछुओं के यहाँ पली हुई हूँ।’’
‘‘हारिति!’’
‘‘हाँ, क्या है?’’
‘‘मुझे साथ ले चलोगी?’’
‘‘क्यों?’’
‘‘यों ही तुम्हारे साथ जाने को जी चाहता है।’’
‘‘पर फिर मेरे बाद यहाँ किसी की जरूरत हुई तो?’’
‘‘तुम वापस नहीं आओगी?’’
‘‘पता नहीं। कैंटन में जो आज्ञा मिलेगी, वह माननी होगी। फिर शायद यहाँ से तुमको भी जाना पड़े-युवान शिकाई बहुत पास आ पहुँचा है।’’
‘‘फिर तो तुम नहीं जाओगी हारिति?’’
हारिति कुछ बोली नहीं। उसने चुपचाप अपनी मर्दानी वर्दी पहनी, और कोट के अन्दर वह चीनी अजगर लगा लिया। फिर बिना कुछ ही वह छोलदारी से बाहर निकल गयी।
‘‘क्वानयिन! क्वानयिन’’
‘‘कौन है?’’
‘‘मैं हूँ, हारिति।’’
‘‘इस समय क्या काम है, हारिति?’’
‘‘काम मिला है, अभी जाना होगा। वर्दी पहन कर बाहर आओ।’’
‘‘इतनी रात को काम? कितनी दूर जाना है?’’
‘‘बहुत दूर। समय नहीें है, जल्दी करो।’’
‘‘लो, आया, और कौन साथ जाएगा?’’
‘‘तुम्हीं नौ आदमी चुनकर ले आओ-मैं घोड़े चुनने जाती हूँ।’’
‘‘अच्छा, मैं फाटक पर अभी पहुँचता हूँ; पर इतने आदमी क्या होंगे?’’
हारिति ने धीरे से कहा, ‘‘रास्ते में युवान शिकाई की सेना से मुठभेड़ की आशंका है।’’
‘‘अच्छा, फिर तो पूरी तैयारी करनी होगी?’’
‘‘हाँ, पर जल्दी।’’
हारिति चली गयी। उसके बाद छोलदारी के अन्दर से बहुत कोमल ध्वनि आयी, आरिति, हारिति, कितनी दृढ़ हो तुम? मैं कभी तुम्हारी बराबरी कर सकूँगा।
हारिति वहाँ सुनने को या उत्तर देने को नहीं खड़ी थी।
वर्षा अभी हो रही थी। सीक्यांग का नाद घोरतर होता जा रहा था। उसकी अरुणिमा बढ़ती जा रही थी...
वे ग्यारह व्यक्ति रास ढीली किये, घोड़े दौड़ाये जा रहे थे। कोई कुछ बोलता नहीं था, पर हर एक के मन में न जाने क्या-क्या विचार उठकर बैठ जाते थे। किसी के हृदय में भय न था, पर कितने चौकन्ने होकर वे चारों ओर देखते जाते थे!
वर्षा की और नदी की ध्वनि में उन घोड़ों के दौड़ाने की ध्वनि डूब गयी थी। उनकी प्रगति काल में प्रवाह की तरह रवहीन किन्तु अविराम मालूम हो रही थी। किसी महती कामना की प्रतिच्छाया की तरह शान्त, किसी बे-रोक मशीन की तरह नियन्त्रित, वे घोड़े जा रहे थे। और उनके सवार धीरे-धीरे हिसाब लागते जाते थे कि इस गति से कब पुल पार करेंगे-करेंगे भी या नहीं....
नदी भी बढ़ी चली जा रही थी। उसके प्रवाह में दर्प था, अवमानना थी, सिंह का गर्जन था, और थी प्रकांड प्रलय-कामना। घोड़ों के उस क्षुद्र प्रयत्न को कितनी उपेक्षा से देख रही थी वह, और मानो हँसकर कह रही थी-प्रकृति के प्रवाह को ललकारोगे, जीतोगे, तुम!
‘‘हारिति, कुछ सुनाई पड़ता है?’’
‘‘नहीं। क्या है?’’
‘‘मुझे भ्रम हुआ कि मैंने कहीं गोली चलने की आवाज सुनी।’’
‘‘सम्भव है। हमारा सब सामान तो ठीक है न?’’
‘‘हाँ, चिन्ता की कोई बात नहीं।’’
क्षण-भर शान्ति।
‘‘क्वानयिन, वह देखते हो?’’
‘‘किधर?’’
‘‘वह दाहिनी ओर। कहीं आग का प्रकाश।’’
‘‘हाँ, हाँ’’
‘‘वह है शत्रु का शिविर।’’
‘‘हमने गोलियाँ भर रखी हैं। कितनी दूर और जाना है?’’
‘‘अभी बहुत है-कोई 35 मील।’’
‘‘पुल कितनी दूर है?’’
‘‘तीस मील।’’
फिर क्षण-भर शान्ति।
‘‘क्वानयिन, साथियों को सावधान कर दो। लड़ाई होगी। वे घुड़सवार हमसे भिडऩे आ रहे हैं।’’
‘‘रुककर लडऩा होगा?’’
‘‘नहीं। रुकने का समय नहीं है। हम बढ़ते जाएँगे।’’
‘‘पर-’’
‘‘क्या?’’
‘‘हमारे घोड़े थक गये हैं।’’
‘‘फिर?’’
‘‘हमें रुककर लडऩा चाहिए, और उनके घोड़े छीन लेने चाहिए।’’
‘‘और अगर हमारे घोड़े भी मारे गये तो?’’
‘‘घोड़ों पर से उतरकर अलग हटकर लड़ेंगे, उन्हें बचा लेंगे।’’
‘‘वे बहुत आदमी हैं, हम थोड़े।’’
‘‘वे वेतन के लिए लड़ते हैं, जान देने के लिए नहीं।’’
‘‘अच्छा, जैसा तुम उचित समझो।’’
घोड़े रुक गये। उन्हें इकट्ठा खड़ा कर दिया गया। हारिति उनके पास खड़ी हो गयी। क्वानयिन और उसके साथी कुछ आगे हटकर खड़े हो गये।
ठाँय! ठाँय! ठाँय!
फिर दस गोलियाँ छूटीं। अबकी बार उत्तर आया।
हारिति चुपचाप देख रही थी। जब शत्रु-पक्ष की ओर से बौछार आती, तब वह कुछ चिन्तित होकर पूछती, ‘‘क्वानयिन, कहाँ हो तुम?’’ और वह हँसकर उत्तर देता-’’हारिति हमारी जीत होगी।’’ फिर वह शान्त हो जाती थी।
एकाएक गोली चलनी बन्द हो गयी। क्वानयिन बोला, ‘‘हारिति, वे भाग रहे हैं-हम घोड़े पकड़ लेते हैं!’’
थोड़ी देर में आठ नये घोड़े एकत्रित हो गये। हारिति, क्वानयिन और पाँच अन्य व्यक्तियों ने घोड़े बदल लिये। बाकी उस लड़ाई में खेत रहे थे।
‘‘क्वानयिन, अपने घोड़ों का क्या करना होगा?’’
‘‘यहीं छोड़ दिए जाएँ?’’
‘‘शत्रुओं के लिए! नहीं, उन्हें खाली साथ ले चलेंगे?’’
‘‘और जो न दौड़ सकते हों?’’
‘‘उन्हें गोली मार देंगे।’’
‘‘हारिति!’’
‘‘क्या है?’’
‘‘कुछ नहीं, चलो।’’
फिर वही होड़, वही सीक्यांग के प्रवाह से प्रतियोगिता, वही नि:शब्द प्रगति...
‘‘हारिति!’’
‘‘क्या है?’’
‘‘वे फिर आ रहे हैं।’’
‘‘आने दो। अब रुकना नहीं होगा।’’
‘‘एक बात कहूँ?’’
‘‘कहो।’’
‘‘तुम आगे चली जाओ, हम रुक कर उनसे युद्ध करते हैं।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘अबकी बार उन्हें भगा नहीं सकेंगे, कुछ देर रोक पाएँगे।’’
‘‘फिर क्या होगा?’’
‘‘होगा क्या? यदि रोक सकेंगे, तो अच्छा। नहीं तो-’’
‘‘नहीं तो क्या?’’
‘‘मैं फिर तुमसे आ मिलूँगा।’’
क्षण-भर निस्तब्धता।
‘‘क्वानयिन!’’
‘‘हारिति!’’
‘‘तुम ठीक कहते हो, मैं अकेली हो जाती हूँ।’’
‘‘जाओ। शायद मैं फिर आ मिलूँ।’’
‘‘शायद!’’
रात्रि के अन्धकार का रूप कुछ बदलने लगा था। बादल अब भी घिरे हुए थे। वर्षा अब भी हो रही थी पर जहाँ पहले एकदम निविड़ अन्धकार था, वहाँ अब कुछ भूरा, कुछ सफेद, मिश्रित-सा अन्धकार हो गया था। और धरती पर से भाप उठकर जमने लग गयी थी। पहले की प्रगाढ़ नीलिमा में जो वस्तुएँ कुछ अस्पष्ट दीखती थीं, वे अब एकदम लुप्त हो गयी थीं। अभी उषा के लालिमामय आगमन में बहुत देर थी। सीक्यांग का पुल भी अभी दस मील दूर था। हारिति थक गयी थी। उसका घोड़ा भी थक गया था। और उन बिछुड़े हुए साथियों की, क्वानयिन की, स्मृति उसे खिन्न कर रही थी; पर उसके हृदय में जो शक्ति थी, जिसके आगे उसने इतनी बार दृढ़ता की भिक्षा माँगी थी, वह शक्ति आज उसकी सहायता कर रही थी, उसके शरीर में नयी स्फूर्ति का संचालन कर रही थी। उसने घोड़े की गति धीमी नहीं की थी; जिस गति से यात्रा का आरम्भ किया था, उसी से अब भी चली जा रही थी। उसके पीछे एक ओर सवार चला आ रहा था; पर उसे इसका ध्यान न था। वह पीछे नहीं देखती थी, न उसे पीछे से घोड़े की टाप सुनाई पड़ती थी उसका ध्यान उस क्रमश: घटते हुए दस मील के अन्तर पर स्थिर था। वह सवार धीरे-धीरे पास आ रहा था। जब वह कुछ ही पीछे रह गया, तब उसने पुकारा, ‘‘हारिति, मैं आ गया।’’
हारिति के मुख पर प्रसन्नता की रेखा दौड़ गयी, पर उसने घोड़े को रोका नहीं। जब क्वानयिन बिलकुल उसके बराबर आ गया, तब उसने पूछा, ‘‘क्वानयिन, बाकी साथी कहाँ रहे?’’ क्वानयिन ने बिना उसकी ओर देखे ही उत्तर दिया, ‘‘नहीं रहे।’’
बहुत देर तक दोनों चुपचाप बढ़ते गये। फिर हारिति बोली, ‘‘और घोड़े?’’
‘‘मर गये। मैं भी दूसरा घोड़ा लेकर पहुँच पाया हूँ।’’
‘‘शत्रु कहाँ हैं?’’
‘‘बहुत पीछे रह गये हैं।’’
‘‘फिर मुठभेड़ की सम्भावना है?’’
‘‘अवश्य।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘उन्हें शक हो गया है कि हम पत्र-वाहक हैं, और हमसे कुछ पाने की आशा है।’’
हारिति कुछ हँसी। ‘‘कुछ पा लेने की आशा! कितने मूर्ख हैं वे!’’
‘‘क्यों?’’
‘‘कैंटन के सैनिक धन के लिए विश्वास नहीं बेचते?’’ कुछ देर चुप रहकर क्वानयिन बोला, ‘‘हारिति, कैसी रहस्यमयी स्त्री हो तुम? अगर-’’
‘‘देखो क्वानयिन, ऐसी बातों से मुझे दु:ख होता है।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘हम गुलाम हैं। हमें अपने आदर्श के अतिरिक्त किसी बात का ध्यान करने का अधिकार नहीं है।’’
क्वानयिन ने धीमे स्वर में कहा, ‘‘सच कहती हो हारिति। मैं बार-बार भूल जाता हूँ।’’ और फिर चुप हो गया।
‘‘दो मील।’’
‘‘पर हम इतना जा पाएँगे, हारिति! वह देखो, शत्रु कितना पास आ गये हैं।’’
‘‘कोई चिन्ता नहीं। हम पुल पार कर लेंगे, फिर इनका डर नहीं रहेगा।’’
‘‘पर पुल तक के दो मील...’’
‘‘गति तेज कर दो। अब तो इन्हेंं रोकने का भी प्रयत्न नहीं कर सकते।’’
‘‘मेरे पास पाँच भरे हुए पिस्तौल हैं, और यह बन्दूक तो है ही।’’
‘‘पाँच पिस्तौल!’’
‘‘हाँ, अपने साथियों के उठा लाया हूँ।’’
‘‘दो मुझे दे दो। शायद-’’
क्वानयिन ने जेब से निकाल कर दो पिस्तौल उसे पकड़ा दिये। उसने उन्हें अपने कोट में डाल लिया, और बोली, ‘‘अगर निर्णय ही करना होगा, तो पुल पर करेंगे। वहाँ बना-बनाया मोर्चा मिल जाएगा।’’
‘‘शायद पार निकल सकें। नहीं तो-’’
‘‘क्या?’’
‘‘इतने दिन सीक्यांग के ऊपर रही हूँ, आज उसके नीचे तो आश्रय मिल ही जाएगा।’’
‘‘हारिति!’’
‘‘वह देखो क्वानयिन! सामने पुल आ गया।’’
‘‘प्रजातन्त्र की जय!’’
प्राची दिशा से बादलों को चीर कर फीका पीला-सा प्रकाश निकल रहा था। उसके समाने ही सीक्यांग के प्रमत्त प्रवाह के ऊपर पुल का जँगला दीख रहा था। कितना विमुग्धकारी था वह दृश्य, और साथ ही कितना निराशापूर्ण! नदी की सतह पुल की पटरियों को छू रही थी। कभी-कभी किसी लहर का पानी पुल के ऊपर से भी छलक जाता था। और ठीक मध्य में, जहाँ नदी का प्रवाह सबसे अधिक था, पुल का एक अंश टूटकर बह गया था। दोनों ओर से दो पटरियाँ आतीं और बीच में लगभग 20-22 फुट का खुला स्थान छोडक़र ही समाप्त हो जातीं। उस स्थान में केवल विपुल जल-प्रवाह का गर्जन और उसकी अथाह अरुणिमा ही थी।
‘‘हारिति, वह देखो, क्या है!’’
‘‘मैंने देख लिया है।’’
‘‘अब क्या करना होगा?’’
हारिति ने कुछ उत्तर नहीं दिया। रास खींच कर घोड़े को रोक लिया। क्वानयिन ने भी उसका अनुसरण किया। हारिति ने मुडक़र पीछे की ओर देखा, शत्रु अभी आध मील दूर थे। क्षण-भर वह अनिश्चित खड़ी रही; फिर बोली, ‘‘क्वानयिन, हमारी परीक्षा का समय आ गया।’’
क्वानयिन कुछ नहीं बोला। प्रतीक्षा के भाव से हारिति के मुख की ओर देखने लगा। हारिति घोड़े पर से उतर पड़ी। क्वानयिन ने भी उतरते हुए पूछा, ‘‘क्या करोगी?’’
‘‘बताती हूँ।’’ कहकर वह अपने पुराने घोड़े पर सवार हो गयी। ‘‘देखो क्वानयिन, तुम यहाँ खड़े होकर मोर्चा लेना, मैं जा रही हूँ।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘पार।’’
‘‘कैसे?’’
‘‘कूद कर।’’
‘‘कूद कर? यह तुमसे नहीं होगा, हारिति! तुम्हारा घोड़ा भी तो थका हुआ है।’’
‘‘मैंने निश्चय कर लिया है। और कोई उपाय नहीं।’’
क्वानयिन ने अनिच्छा से कहा, ‘‘तो नया घोड़ा ही ले जातीं।’’
‘‘उसका मुझे अभ्यास नहीं। पुराना घोड़ा ही ले जाना होगा।’’
हारिति ने जल्दी से अपना कोट उतारा और पिस्तौल क्वानयिन को दिये। वह चाँदी का अजगर चिह्न उसने अपनी कमीज में लगा लिया, और पत्र को अच्छी तरह लपेट कर कमरबन्द में रख लिया।
‘‘हारिति, यह क्या कर रही हो?’’
‘‘शायद कूद न पाऊँ, व्यर्थ का भार नहीं रखना चाहिए।’’
‘‘हारिति, क्या यह विदा है?’’
‘‘हाँ। वह देखो, शत्रु आ रहे हैं। मुझे विदा दो।’’
‘‘तुम्हारे बाद मुझे क्या करना होगा?’’
हारिति क्षण-भर स्थिर दृष्टि से क्वानयिन की ओर देखती रही। फिर बोली, ‘‘शायद कुछ भी नहीं करना होगा। अगर-अगर बच गये, तो पार कूद आना, और क्या करोगे?’’
‘‘जाओ, हारिति, जाओ। तुम वीर हो, मैं भी अधीर न होऊँगा।’’
हारिति ने झुककर घोड़े का गला थपथपाया और बोली, ‘‘बन्धु, अब मैं फिर वही अनाथिनी रह गयी हूँ। मेरी मदद करना।’’ उसने घोड़े को एड़ लगायी, रास ढीली कर दी। घोड़ा उन गीली पटरियों पर दौड़ा। हारिति कुछ आगे झुकी।
ठाँय! ठाँय! ठाँय!
शत्रु पहुँच गये। क्वानयिन हारिति को कूदते हुए भी नहीं देख पाया। उसने शत्रुओं को बन्दूक से जवाब दिया, और फिर पिस्तौल उठा लिये।
क्षण-भर के लिए आक्रमणकारी रुक गए। क्वानयिन ने घूमकर देखा।
पुल की पटरियाँ दोनों ओर खाली थीं। उसने देखा, हारिति के घोड़े के अगले पैर पुल के टूटे हुए भाग के उस पार की पटरियों पर पड़े, किन्तु पिछले पैर नीचे स्तम्भ में टकराये, फिसले, और फिर घोड़े समेत हारिति उसी अथाह अरुणिमा में गिर गयी।
क्वानयिन धीरे-धीरे पुल से हटने लगा। शत्रु आगे बढ़ते आ रहे थे। उस खुले स्थान में क्वानयिन ने देखा, हारिति का घोड़ा अभी डूबा नहीं था, एक बहुत बड़े भँवर में फँसकर घूम रहा था। तैर कर निकलने की उसकी सारी चेष्टाएँ निष्फल हो रही थीं, और हारिति उस पर बैठी शायद कुछ सोच रही थी।
क्वानयिन ने चाहा, मैं भी कूद पड़ूँ, शायद उसे बचा पाऊँ। फिर उसे हारिति के शब्द याद आये, ‘‘हमारी परीक्षा का समय आ गया।’’ उसने मन-ही-मन कहा, ‘‘हारिति, हमारे कर्तव्य अलग-अलग हैं। तुम अपना करो, मैं अपना। मैं शत्रु को रोकता हूँ, तुम्हें कैसे बचाऊँ?’’ फिर वह एकाग्र होकर निशाना लगाने और युवान शिकाई के सौनिकों को उड़ाने लगा।
हारिति सँभलकर उठी, और घोड़े की पीठ पर खड़ी होकर बोली, ‘‘बन्धु, तुमने तो मेरी सहायता की, अब मैं तुम्हें छोडक़र जा रही हूँ।’’ फिर उसने एक लम्बी साँस ली, और उछलकर पानी में कूद पड़ी- भँवर के बाहर।
गोलियाँ अभी चल रही थीं। एक गोली क्वानयिन के कन्धे में लगी, एक पैर में। उसने अब शत्रु की चिन्ता छोड़ दी। उसकी आँखों हारिति को ढूँढने लगीं। पुल से कुछ दूर उसने देखा, एक केशहीन सिर। हारिति तैरती जा रही थी। घोड़े का कहीं पता न था।
क्वानयिन ने कहा, ‘‘हारिति, मेरा काम पूरा हुआ।’’
उसने पिस्तौल उठाया और अपने माथे के पास रखा। फिर-
‘‘प्रजातन्त्र की जय!’’
जब शत्रु वहाँ पहुँचे, तो क्वानयिन का प्राणहीन शरीर वहाँ पड़ा था। उसके मुख पर विजय का गर्व था। उन्होंने जल्दी-जल्दी उसके कपड़ों की तलाशी ली, फिर धीरे-धीरे ली। कुछ न मिला। क्रुद्ध होकर उन्होंने ठोकरें मार-मार कर उसके शरीर को नदी में गिरा दिया। वह कुछ देर चक्कर खाकर डूब गया। कुछ बुलबुले उठे, फिर सीक्यांग का प्रवाह पूर्ववत् हो गया। युवान शिकाई के सैनिकों ने देखा कि दूर पानी में कोई तैर रहा है। उन्होंने उसका ही निशाना लेकर गोलियाँ चलानी प्रारम्भ कर दीं। कितनी ही देर तक वे गोलियाँ चलाते रहे। धीरे-धीरे उस व्यक्ति का दीखना बन्द हो गया, शायद डूब गया, या उस अनियन्त्रित प्रवाह में बह गया। वे लौट गये।
कैंटन के बाहर, सीक्यांग के किनारे, बहुत-से मछुए आकर बैठे हुए थे। कुछ पकडऩे की आशा से नहीं केवल इसी चिन्ता का निवारण करने के लिए कि बाढ़ कब उतरेगी। सूर्य का उदय हो गया था। बादल फट रहे थे, वर्षा का अन्त होने वाला था, पर नदी में पानी अभी बढ़ता जा रहा था, और वे मछुए बैठकर देख रहे थे। कोई कह रहा था, ‘‘बाढ़ से एक फायदा है। युवान शिकाई इस पार नहीं आ सकेगा।’’
कोई और पूछ रहा था, ‘‘सुना है, युवान शिकाई की सेना कुल पचास मील दूर रह गयी है। क्या यह ठीक बात है?’’
एक तीसरा बोला, ‘‘हमारी सेना में बहुत अच्छे-अच्छे आदमी हैं। हमारी हार नहीं हो सकती।’’
दूर कहीं कोलाहल हुआ, ‘‘वह देखो, क्या है? कोई मरा हुआ जानवर बह रहा है! नहीं-नहीं, यह तो आदमी है, आदमी!’’
सब लोग उधर देखने लगे। फिर कहीं से दो आदमी, एक छोटी-सी नाव पर बैठकर, तीव्र गति से उधर चले। उन्होंने दो-तीन बार जाल डाला, पर असफल हुए। फिर किनारे पर खड़े दर्शकों ने देखा कि वे दोनों धीरे-धीरे कुछ खींच रहे हैं।
थोड़ी देर में उन्होंने एक शरीर निकालकर नाव में रखा और किनारे चले आये।
दर्शकों की भीड़ लग गयी। सब अपने-अपने मत का दिग्दर्शन करने लगे।
‘‘कैसा बाँका जवान है।’’
‘‘अभी बिलकुल बच्चा है।’’
‘‘वह देखो, बाँह से खून निकल रहा है।’’
‘‘फौजी वर्दी पहने हुए है।’’
‘‘युवान शिकाई का आदमी तो नहीं है?’’
‘‘नहीं, सिर पर चोटी नहीं है, कैंटन का सिपाही होगा।’’
‘‘यह बाँह में गोली लगी है।’’
‘‘कितना खून बह गया है, पीला पड़ गया है।’’
‘‘मर गया है?’’
‘‘नहीं, अभी जीता है।’’
वह शरीर कुछ हिला, फिर उसने आँखें खोलीं, ‘‘मैं कहाँ हूँ?’’
‘‘यह है कैंटन। कहाँ से आ रहे हो?’’
‘‘कैंटन, वह लाल मकान?’’
आँखें फिर बन्द हो गयीं। थोड़ी देर बाद शरीर में कम्पन हुआ, आँख खुलीं। उनमें एक विचित्र तेज था।
‘‘मुझे उठाकर ले चलो।’’
‘‘कहाँ?’’
‘‘वह बड़ा मकान-डायना पेइफू का-उसमें!’’ वे उसे उठाकर सावधानी से धीरे-धीरे ले चले।
‘‘जल्दी! जल्दी!’’
वे तेज चलने लगे, तब भी उसे सन्तोष न हुआ।
‘‘और जल्दी!’’
वे दौडऩे लगे।
थोड़ी देर में उस मकान के सामने पहुँच गये। वह शरीर फिर संज्ञाशून्य हो गया था।
उसने धीरे-धीरे आँखें खोलीं। वह एक बड़े सुन्दर कमरे में सोफे पर पड़ी हुई थी। पास एक स्त्री खड़ी हुई थी। आँखें खुलती देखकर उसने चिन्तित स्वर में पूछा ‘‘अब कैसा हाल है?’’
हारिति ने प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। बोली, ‘‘आप ही डायना पेइफू हैं?’’
‘‘हाँ, कहिए!’’
‘‘आपके लिए एक पत्र है।’’ हारिति ने पत्र निकालने का प्रयत्न किया, पर हाथों में शक्ति नहीं थी। अपने कमरबन्द की ओर इंगित करके ही वह रह गयी।
डायना ने स्वयं पत्र निकाला, और खोला। उसका मुख लाल हो गया। आँखों लज्जा से कुछ झुक गयीं। उसने पत्र को चूम लिया, और धीरे से कहा, ‘‘प्रियतम!’’
हारिति देख रही थी। यह दृश्य देखकर उसके नेत्रों का तेज एकाएक बुझ गया। उसने आँखें मूँद लीं। दो-तीन चित्र उसके आगे दौड़ गये-दो-तीन स्मृतियाँ-वे मरते हुए बन्धु-वह दीन घोड़ा-क्वानयिन और उसके शब्द-’’हारिति, हमारी जीत होगी।’’ ‘‘हारिति, क्या यह विदा है?’’ ‘‘जाओ, हारिति, जाओ। तुम वीर हो-मैं भी अधीर नहीं होऊँगा।’’
व्यथा की एक रेखा उसके मुख पर दौड़ गयी। यही था काम, जिसके लिए उसने इतनी मेहनत की थी; यही थी सेवा, जिसके लिए उसने इतना बलिदान किया था; यही था अनुष्ठान, जिसकी पूर्ति के लिए उसने उस घोड़े की, उन बन्धुओं की, और क्वानयिन-की आहुति दी थी-यह प्रेम-प्रवंचना।
हारिति को मालूम हुआ, उसका गला घुट रहा है। उसके निर्बल शरीर में एकाएक स्फूर्ति आ गयी। उसने एक झटके में अपनी मोटी कमीज फाड़ डाली। उसके मुख पर एक आन्तरिक विचार-तरंग की झलक, एक हल्की-सी हँसी छा गयी-एक हँसी, जिसमें सफलता की शान्ति नहीं थी, विजय का गर्व नहीं था, था केवल एक भयंकर उपहासमय तिरस्कार।
डायना ने उसकी ओर देखा और चौंकी। उसके मुख पर से वह अनुराग की आभा बुझ गयी। हारिति के वक्ष की ओर देखती हुई विस्मित, चिन्तित, भीत स्वर में वह बोली, ‘‘ओह! तुम-तुम तो स्त्री हो!’’ पर तब हारिति स्त्री नहीं रही थी। वहाँ जो पड़ा हुआ था, वह था केवल किसी स्वर्गीय व्यक्ति का परित्यक्त शरीर।
और हारिति के उर पर पड़ा हुआ वह चीनी अजगर मानो उसके मुख पर व्यक्त उस तिरस्कार को प्रतिबिम्बित करके हँसे जा रहा था।