हाल पूछने वाले / नीरजा हेमेन्द्र
सुरसतिया भोर में ही उठ कर घर का किवाड़ खोल कर बाहर आ गई। बाहर झुंड बना कर लेटे हुए सुअरों की तरफ दृष्टिपात किया। अपने लगभग बीस सुअरों के झुंड को आराम से सोता देख कर वह संतुष्ट हो कर घर के अंदर आ गई। घर के रूप में सुरसतिया की यह टूटी-फूटी झोपड़ी है, जिसकी दीवारें कच्ची मिट्टी की बनी हैं। मिट्टी भी स्थान-स्थान से टूट रही है। घास-फूस से बनी जर्जर हो चुकी छत है, जिनसे गर्मियों की धूप व वर्षा का जल अबाध रूप से अन्दर आ सकता है। सुरक्षा के लिए बने झोपड़ी के दरवाजे को खोलने व बन्द करने की सिर्फ औपचारिकता ही करनी होती है। इनकी लकड़ी व कब्जे गल चुके हैंै। दरवाजे को धीरे से खड़ा कर इसकी सांकल लगानेकी औपचारिकता प्रतिदिन करनी पड़ती हैै। औपचारिकता इसलिए कि ये एक धक्के या तेज हवाओं से स्वतः गिर जातें हैं। फिर भी बन्द करने की औपचारिकता प्रतिदिन करनी पड़ती हैैै।
लम्बे कद साँवले रंग की सुरसतिया दुर्बल काया, झुर्रीदार त्वचा, व पक्षी के घांेसले के मानिंद उलझे हुए बाल, जिनका कई महीनों से कंघी व तेल से सामना न हुआ हो,अपनी उम्र से काफी बड़ी प्रतीत होती है।
अंदर आ कर सुरसतिया ने कोने में जमीन पर बिछे पुआल के बिस्तर पर लेटी हुई लक्ष्मी की तरफ देखा। लक्ष्मी उसकी बड़ी पुत्री है,उम्र लगभग पन्द्रह वर्ष। दुनिया के छल-द्वद से दूर, राग-द्वेष से रहित उसका चेहरा भावरहित व अत्यन्त मासूम लग रहा था। उसकी बाल्यावस्था व मासूमियत को देख कर यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि कुछ दिनों पूर्व ही इस नन्ही-सी जान पर ऐसी आपदा आ पड़ी थी कि सुरसतिया समझ भी न पायी कि कौन से बड़े-बड़े लोग इसका हाल लेने आ गये। कुछ झोंपडि़यों व कच्चे घरों वाले इस छोटे-से गाँव में जहाँ सुरसतिया रहती है, वहाँ तक विकास की रोशनी कभी पहुँची ही नही। उसकी टूटी-फूटी झोंपड़ी व मैले- कुचैले परिवेश में उजले कपड़े पहनें बड़ी-बड़ी गाडि़यों से बड़े-बड़े साहब लोगों की भीड़ प्रतिदिन उसके दरवाजे पर रहने लगी।
लक्ष्मी के बगल में उसके दो छोटे भाई उसी पुआल के बिस्तर में धँसे हुए सो रहें थेे। साँवले रंग व इकहरे बदन के दो लड़के जिनकी उम्र दस-बारह वर्ष के बीच की होगी दिन- भर धूल मिट्टी में खेलने के बाद पुआल के बिस्तर पर फटी कथड़ी ओढ़े बेफिक्र हो कर सो रहे थे। उनके सूखे हाथों-पैरों में अब भी धूल-मिट्टी लगी थी। झोंपड़ी के दूसरे कोने में सुरसतिया का पति औतार सो रहा था। उसकी ओढ़ने की फटी कथड़ी माघ की ठंडक को रोक पाने में असमर्थ हो रही थी। वह बार-बार कथड़ी में खुद को समेटने का प्रयत्न करने लगा। कुछ क्षणों के पश्चात् वह उठ कर पुआल के बिछौने पर बैठ गया।
“सवेरा हो गया क्या?” उठते ही उसने सुरसतिया से पूछा।
“हाँ, सवेरा होवे का है।“ कोने में जल रही ढि़बरी को बुझाते हुए सुरसतिया ने जवाब दिया।
कमरे में सन्नाटा छा गया। कुछ क्षणों पश्चात् औतार ने पूछा-“ साहब लोग आज भी नही आयें हैं क्या?” पूछने के पश्चात् उसने उम्मीद भरी आँखों से सुरसतिया की तरफ देखा।
“साहब लोग तो कई दिनों से नही आवे हैं। तुम हो कि रोज उनके बारे में पूछत हो।“
सुरसतिया ने उसके प्रश्न का उत्तर तो दे दिया, किन्तु वह भी तो प्रतिदिन सवेरे से ही एक उम्मीद भरी दृष्टि दरवाजे पर डाल लेती है कि शायद बड़ी -सी गाड़ी में, उजले वस्त्रों से लकदक कोई साहब आ जाए और उसका बोझिल हृदय कुछ हल्का अनुभव कर सके।
औतार उठा। झोंपड़ी से बाहर निकल कर खेतों की तरफ चला गया। सुरसतिया घर के कार्यों में व्यस्त हो गई। उसने मिट्टी के चूल्हे में उपलों को सुलगाया व रोटियां बनाने का उपक्रम करने लगी। थोड़ी देर के पश्चात् अवतार भी हाथ- मुँह धो कर आ गया।
माघ के कड़ाके की ठंड में धूप तो देर से निकलेगी किन्तु रोजमर्रा के काम तो समय से करने होंगे। बाहर कोहरे की धुंध में कुछ भी स्पष्ट नही दिख रहा है। सुरसतिया कार्य करने के साथ ही साथ बच्चों को भी आवाज देती जा रही है। बच्चे हैं कि हिलडुल कर, कुनमुना कर पुनः पुआल तथ कथरी के बीच में दुबके जा रहें हैं।सुरसतिया ने शीघ्रता से रोटियां बना कर गुड़क के साथ औतार को दे दीें तथा कुछ रोटियां एक तरफ बच्चों के लिए रख दीं। लक्ष्मी तथा दोनो लड़कें के झकझोर कर जगाया व घर के काम समझा कर ठीक से घर में रहने की हिदायत दे कर काम पर जाने को तत्पर हो गई।वह एक आशा भरी दृष्टि अपने टूटे दरवाजे की तरफ पुनः डालती है कि कहीं काई बड़ा साहब उसकी जर्जर झोंपड़ी के बाहर खड़ा तो नही है। सूना दरवाजा, सूने दलान देख कर वह उदास हो गई और वही उदासी भरी दृष्टि लक्ष्मी के चेहरे पर डाल देती है, जो लोटे में पानी ले कर कुल्ला- दातुन कर रही है तथा सुरसतिया के हृदय में उठने वाले मनोभावों से अनभिज्ञ है। सुरसतिया के चेहरे पर दर्द व विषाद की रेखायें उभर आतीें हैं। वह औतार के साथ सुअरों को ले कर खेतों की तरफ बढ़ जाती है। पथरीले रास्तों से होती हुई नाले के किनारे खली पड़े मैदान में वह सुअरों को छोड़ देती है। वह और औतार सुअरों को वहीं छोड़ कर आगे बढ़तें हैं।आगे मार्ग के दोनो तरफ साहबों के अनेक फार्म हाउस हैं, जिनमें सजावटी फूलों के साथ फलों सब्जियों इत्यादि की खेती होती है।प्रतिदिन की तरह वह इन फार्म हाउसों के मुख्य द्वार पर खड़े हो कर काम के लिए पूछेगें। यदि कहीं कोई काम हुआ तो इन्हे बुला लिया जायेगा। बदले में इन्हें जो मजदूरी मिलती है उन्ही से ये अपनी घर-गृहस्थी की गाड़ी को आगे खींच रहें हैं वरना सुअर पालन के कार्य से इस महगांई में घर चलाना असम्भव-सा है। इस प्रकार फार्म हाउसों के मुख्य द्वार पर खड़े हो कर काम मांगना प्रतिदिन का कार्य है।कभी- कभी कोई काम नही मिलता और ये खाली हाथ वापस आ जातें हैं।शहर से बाहर बसे इस छोटे-से गाँव में रोजगार का कोई साधन नही है। कुछ लोग तो शहर चले जातें हैं काम की तलाश में।कुछ इन्ही फार्म हाउसों व उद्यानों में मजदूरी कर लेते हैं।
सुरसतिया और औतार को आज एक फार्म हाउस पर काम मिल गया। वे काम पर जुट गये।आज दोनो रोजगार पा कर खुश थे। सुरसतिया काम में मग्न हो गई। जाड़े की गुनगुनी घूप भली लग रही थी। खिली धूप में रंग-बिरंगे पक्षी चहचहा रहे थे। यद्यपि वसन्त आने में अभी देर थी। किन्तु प्रकृति हरे-भरे रूप के साथ श्रृंगार किये हुए अंगड़ाई ले रही थी। प्रकृति का हर रूप पुष्पित-पल्लवित हो रहा था। सृष्टि को इस नैसर्गिक सौन्दर्य में अचानक सुरसतिया के विचारों का प्रवाह तीव्र हो गया व चेहरे पर विषाद की लकीरें फैेलतीं चलीं गयीं। सुरसतिया की आँखों के समक्ष लगभग एक माह पूर्व की वो घटना पुनः घूमने लगी और उसका हृदय दर्द के चित्कार से जैसे फटने लगा। वो मनहूस शाम ! शीत और कोहरे से पूरा गाँव ढँका था। शाम के सात बजने को थे किन्तु ऐसा लग रहा था जैसे मध्य रात्रि का समय हो। लक्ष्मी को घर के पीछे खाली पड़े खेतों की तरफ जाना पड़ गया। उसने सात बजे ही फैल चुके अन्धेरे को देखते हुए सबसे छोटे लड़के को लक्ष्मी के साथ लगा दिया। थोड़ी ही देर में छुटका रोता हुआ घर आया। उसके बाद सुरसतिया व औतार के पैरों तले जमीन खिसक गई। गाँव के ही दो लड़कों ने लक्ष्मी की आबरू के साथ खिलवाड़ किया व गाँव से भाग गये। निढ़ाल पड़ी लक्ष्मी व बेदम होती सुरसतिया को गाँव के उसके बिरादरी के लोग समझा कर थाने में रिपार्ट लिखवाने ले गये। अगर उसकी बिरादरी के लोग उसे न समझाते तो सुरसतिया हृदय पर पत्थर रख कर यह सब सहन कर लेती। ग़रीब व दलित जाति की लड़की की सुनवाई कहीं न होगी, यह सोच कर औतार व सुरसतिया हृदय को समझा लेते, किन्तु जब लोगों ने यह समझाया कि यदि इन बिगड़ैल लड़कों के खिलाफ कोई कार्यवाही न की गई तो इस गाँव में बहू-बेटियों का घर से बाहर निकलना मुश्किल हो जाएगा। इससे पूर्व भी इन बिगड़ैल लड़कों ने हमारी बहू-बेटियों के साथ अभद्रता की है किन्तु अपना सम्मान व आबरू बचाने के लिए हम लाग चुपचाप बैठ गये।हमारे चुप रहने से इनका हौसला बढ़ता ही जा रहा है। ये हमारे सम्मान के आवरण को तार-तार करते जा रहें हैं। विरोध स्वरूप सुरसतिया व औतार का स्वर मुखर होता गया।
रिपोर्ट लिखाते ही उनके दरवाजे पर बड़े लोगों की दस्तक हुईं। वो इस दुख की घड़ी में औतार व सुरसतिया का साथ देने का आश्वासन देते रहे, तथा अपनी पार्टी को उसकी बिरादरी का सच्चा हितैषी बताया।ये लोग किसी राजनीतिक दल के थे। उनकी तरह कुछ और भी राजनीतिक दलों के लोग आये। सभी ने स्वयं को उसकी बिरादरी का सच्चा हितैषी बताया। इस प्रकार पुलिस की सक्रियता व अनेक दलों का समर्थन पा कर सुरसतिया व औतार अपनी तकलीफ भूल गये। एक दिन गाँव के ही लोगों ने अखबार में छपी उनकी व्यथा पढ़ कर सुनाई। अखबार में उसकी, औतार की व उसकी इस टूटी झोंपड़ी की फोटो भी छपी थी। कलक्टर साहब भी उस निर्धन की झोंपड़ी में कई बार आये।
उसकी व्यथा कई बार अखबारों की सुर्खियां बनी दो सप्ताह तक उसके दरवाजे पर बड़े-बड़े लोगों की भीड़ जुटती रही वो दुराचारी लड़के पकड़े गये। अब सुना है उनकी जमानत होने वाली है । धीरे-धीरे लगभग एक माह होने को है। बड़े-बड़े लोगोें का आना कम होते-होते अब खत्म हो गया है। इधर एक सप्ताह से इन लागों का हाल पूछने कोई नही आया है। उनकी आशा भरी दृष्टि अब भी द्वार की तरफ उठ जाती है कि उनके व्यथित हृदय को सांत्वना देने कदाचित् कोई पुनः आ जाये। सही मायनों में सांत्वना देने न कि उनकी निर्धनता, उनकी पिछड़ी सामाजिक स्थिति व उनके साथ घटी उस दुघर्टना का लाभ उठाने के लिए।
खेतों में काम करते-करते अचानक सुरसतिया के हाथों में कुछ चुभ-सा जाता है। वह कल्पना से सतह पर आ जाती है, जहाँ शाम को मजदूरी करने के उपरान्त सुअरों को हाँकते हुए घर जाना है तथा टूटी झोंपड़ी में अपनी निर्धनता तथा सम्मान को बचाने का असफल प्रयत्न करना है। प्रतिदिन की भाँति, सदैव की भाँति।