हासिल / राजेन्द्र यादव

Gadya Kosh से
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इस कहानी का पहला प्रारूप मैंने 8 दिसंबर, सन् 84 को लिखा था; यह अपने वर्तमान रूप में 6 नवंबर, सन् 88 को लिखी गई, आई. आई. टी. के विजिटर्स हॉस्टल में। तब मैं वहां अतिथि लेखक की तरह रह रहा था और ‘अपने’ साथ था। जाहिर है, दिमाग में यह सन् 84 के भी पहले एक-दो साल रही होगी। ‘गड़ा खजाना’ पिछले 35 साल से भी अधिक समय से मन में है। आज तक नहीं लिखी गई।

सचाई यह है कि इसे छपवाने (या छापने) की हिम्मत आज तक नहीं जुटा पाया हूं। पात्र में लोग मुझे देखेंगे-यह डर ही रहा होगा। हालांकि कहानी अनेक मित्रों के के अनुभवों से बनी है। कभी लगता है कि यह शुद्ध बुढ़भस और बकवास है-कुंठित वासना-पीड़ित लेखक की ठरक। फिर कभी लगता है कि ऐसी साहसिक कहानी केवल टॉल्सटाय ही लिख सकता था-हालांकि कलात्मक स्तर पर यह उसके पैरों की धोवन भी नहीं है। संशयात्मा लेखक को यह कहानी अपनी महान और निकृष्टतम-एक साथ ही लगती है।

नामवर जी का कहना है कि यह शुद्ध राजनीतिक कहानी है और 50 साल के भारत का रूपक है। हो सकता है, उनके भीतर लेडी चैटरली के संदर्भ में क्रिस्टोफर कॉडवेल की आत्मा जाग्रत हो गई हो। मेरा आग्रह था कि यह बात वे लिखकर दें, तो मैं कहानी प्रकाशित करा दूं। आखिर इस बार वह तैयार भी हुए, तो उनकी हिम्मत जवाब दे गई और बीमारी का बहाना करके ‘होली फैमिली’ में जा छिपे। शायद यह भी क्रिश्चियन-मॉरेलिटी शरणं गच्छामि का ही रूपक हो। बहरहाल, वे अभी तक तो अपनी बात पर ‘दृढ़’ हैं, मगर बात चूंकि मौखिक है, इसलिए हस्बे-मामूल बदल भी सकते हैं। -लेखक


बहरहाल खेल शुरू हो चुका था और न चाहते हुए भी नवल को उसमें शामिल कर लिया गया था। सच बात तो यह है कि अब खेलने के प्रति न वैसा उत्साह रह गया है, न हार-जीत को लेकर वह लापरवाही, क्यों इस उम्र में रही-सही प्रतिष्ठा धूल में मिलाई जाए! अब दूसरों को खेलते देखना ही अच्छा लगता है। भीतर एक गर्वीला संतोष है : इन नयों को क्या मालूम कि हम किन-किन खेलों से गुजर चुके हैं!

लेकिन अचानक ही उस दिन देखा कि धूप का चश्मा लगाए सामने एक लड़की खड़ी है। ‘‘जी, मेरा नाम स्वप्ना संदीप है। आपकी जगह की तलाश करते-करते घंटा-भर हो गया। आप ही नवल जी हैं न?’’ कंधे पर सफरी बैग बौर चेहरे पर थकान।

नवल जैसे चौंककर एकदम उठ खड़ा हुआ, ‘‘अरे, तुम?’’ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे-उत्साह में गले लगा ले या...मगर हाथ बढ़ाकर मेज के पार सिर्फ उसका हाथ पकड़ा, ‘‘बैठो, बैठो न,’’ फिर हाथ छोड़ दिया। गेहुंआ रंग, सही कद-बुत। कुछ दुबली। बहुत सुंदर न हो, मगर चेहरे पर अजीब-सी लुनाई, जिसे अंग्रेजी में कहते हैं सेक्स-अपील। उसने चश्मा उतारकर मेज पर रखा और पर्स से रूमाल निकालकर चेहरा पोंछा-बिंदी बचाते हुए। बैग कुर्सी की पीठ पर लटका दिया था। इस बीच वह कुर्सी पर बैठ गई थी। नवल को लगा जैसे उसे देखकर हलकी-सी चौंकी। क्या दिमागी तस्वीर को झटका लगा? झट कहा, ‘‘पानी पीउंगी।’’

नवल ने आवाज दी, ‘‘बहादुर, पानी दो। फिर दो चाय बना देना,’’ उसे गौर से देखा-तौलते हुए। लड़की में आत्मविश्वास है। पूछा, ‘‘अकेली ही आ रही हो? कहां ठहरी हो?’’

‘‘हमारे साथ आने को कौन था?’’ उठती सांस को दबाकर कहा, ‘‘इंटरव्यू का बहाना करके आई हूं। वैसे तो पापाजान को कोई चिंता-फिक्र है नहीं, मगर आने में जरूर अड़ंगा लगाएंगे।’’

‘‘खैर, पानी लो पहले...’’ फूली सांस अब सम पर आ रही थी। शरीर पर सलवार-समीज, दुपट्टा। पानी वह एक ही सांस में पी गई। दिसंबर के मौसम के बावजूद प्यासी थी। काफी भटकना पड़ा है। एक नथुना हलका फड़क रहा था। कानों में छोटे टॉप्स। नवल उसे एक साथ नहीं, हिस्सों में देख रहा था। मुस्कराकर कहा, ‘‘तो आखिर आ ही गई...’’

‘‘लगा, आपसे सलाह लेना जरूरी है।’’ अब उसने इधर-उधर देखा। ‘‘जल्दी निकलना चाहती थी। सोचा था, एक-दो घंटे बाद लौट जाऊंगी। निकलते-निकलते देर हो गई। पांच घंटे का बस का सफर है। आज लौटना तो शायद...’’

‘‘ठीक है, कल चली जाना। यह तो बताकर आई होगी...’’ अभी तक नवल संभल नहीं पाया था। स्थिति के लिए तैयार होता, तो बात दूसरी थी। वह बता रही थी, ‘‘दिक्कत सिर्फ मां की है। गठिया की वजह से उन्हें देख-भाल की जरूरत है।’’ फिर गंभीरता उतारकर कहा, ‘‘बाकी हमारी खातिर चिंता करने के लिए कौन बैठा है? मां के लिए बोलती आई हूं पड़ोस की एक फ्रेंड से...’’ नवल को लगा, वह ना-मालूम ढंग से जायजा ले रही है। इच्छा हुई, एकदम उठे और जाकर शीशे में अपना चेहरा देखे। उम्र से चाहे जितना कम लगता हो, फिर भी 50-55 का तो लगता ही होगा। पूछा, ‘‘यहां कोई रिश्तेदार या...?’’

‘‘हैं तो सही। जमुना पार, लेकिन फिर वहां समय से पहुंचना होगा...’’ कुछ सोचते हुए कहा, ‘‘सुबह जल्दी निकलना चाहती हूं। दोपहर तक पहुंच जाऊंगी।’’ शायद नर्वसनेस बचाने के लिए मेज पर रखे चश्मे की कमानियों से खेल रही थी।

‘‘हमारे यहां तो आजकल कोई नहीं है। यही बहादुर और मैं...’’ पता नहीं क्यों, यह कहते हुए संकोच हो रहा था कि यहीं ठहर जाओ...फिर लगा, क्यों झंझट न्यौता जाए।

‘‘तो क्या हुआ? आप तो मेरे लिए...’’ वह रुक गई।

नवल ने मन में वाक्य पूरा किया, ‘पिता समान हैं’ भीतर जैसे किसी ने दांत पीसे। पता नहीं यह किस क्षण बालकृष्ण ‘नवीन’ बनने का भूत सवार हुआ था। काश, उन जैसा खिला और खुलता हुआ रंग भी होता! सांवले रंग का सफेद दुधिया बाल ही आपके चेहरे को गरिमा और तेज देते हैं। ‘माई फुट’ इन्हें शुरू से ही काले करता, तो कम-से-कम दस साल तो उम्र कम लगती ही...अब मन में खीज महसूस हो रही थी। झंझट ही है, इस झमेले को टालो...पता नहीं...अरे, अपनी ही समस्याएं क्या कम हैं? इस तरह हर पाठक के माई-बाप बनते रहे, तो अनाथाश्रम ही खोलना पड़ेगा। ऊपर से बोला, ‘‘खैर, वह तो कोई बात नहीं...तुम सोच लो...हम लेखक लोग वैसे ही...’’

‘‘वह डर मुझे आपसे नहीं है।’’ इस बार वह गौर से आंखों में देखती हुई मुस्कराई, ‘‘फिर अब चली भी गई, तो आपके साथ समय नहीं मिलेगा। बहुत बातें करनी हैं...’’

चाय आ गई थी और वह कुछ दुष्टता से होंठों को प्याले की तरफ बढ़ाते हुए कह रही थी। होंठ पतले हैं। ऐसी लड़कियां संकल्प की दृढ़ होती हैं। तभी तो हिम्मत से चली आई। अब वह कहीं खोई हुई-सी कह रही थी, ‘‘पता नहीं क्यों, मुझे लगता है, मन की बात मैं सिर्फ आपसे ही कह सकती हूं। फिर, रिश्तेदारों के यहां ठहरना मुझे पसंद भी नहीं है। वही दकियानूसी सवाल-जवाब...’’ फिर जैसे चुनौती की तरह पूछा, ‘‘आपको तो कोई असुविधा नहीं होगी...?’’

नवल सायास हंस पड़ा, ‘‘बहुत! महीने-भर का खाना खा जाओगी, बिजली खर्च कर दोगी...इत्यादि...इत्यादि...’’ ऊपर से वातावरण सहज हो गया। नवल झटके से उठ खड़ा हुआ, तो उसने बैठे-बैठे ही सिर उठाकर देखा, उसकी चाय अभी बाकी थी। ‘‘ठीक है, बात करेंगे...पहले अंदर जाकर मुंह-हाथ धो लो...पांच-छह घंटे का बस का सफर करके आई हो...मैं जरा पास ही एक साहब से मिलकर आता हूं। माफ करना, फिर वे निकल जाएंगे। यह बहादुर सब बता देगा। किसी भी चीज की जरूरत हो, तो मांग लेना। जैसे ठंडे या गरम पानी की जरूरत हो या...’’ कोई रोक रहा था, शिष्टाचार के लिए ही कुछ देर और रुकना जरूरी है।

और नवल बाहर आ गया। बेचैनी-सी क्यों होने लगी थी? भागकर बाहर आया है क्या? क्या काम है, किससे मिलना है? किस डर पर काबू पाने के लिए समय चाहता है? जिस स्थिति की प्रतीक्षा में इतना उत्तेजित और उत्सुक था, अचानक उसका सामना करने पर इतनी घबराहट और भय क्यों है? दूर-दूर का खेल सही और सुरक्षित था-बात सिर पर ही आ पड़ेगी, ऐसा तो...खुली सांस चाहिए, मगर इस तरह एकदम भाग आना सही नहीं है। क्या सोचेगी? वह बेचारी इतना विश्वास करके भरी हुई आई है और आप हैं कि भाग आए-मूर्ख है? समझेगी नहीं? ऐसा न हो कि जब तक लौटूं, जा चुकी हो...काश, ऐसा ही हो...लानत है! तुम्हें डर किस बात का...साले, पिता समान...मगर इस तरह हिम्मत करके अकेली चली आई है, कुछ बात तो जरूर है। अरे, होना क्या है, मां-बाप जबरदस्ती शादी किए दे रहे हैं, किसी और को चाहती होगी...हो सकता है, वहां देखने के लिए कोई आने वाला हो और यह यहां भाग आई हो, या किसी के साथ आई हो और वह इधर-उधर कहीं चला गया हो। इसे साथ न रख सकता हो। सोचा, चलो, रात में ठहरने की समस्या नवल जी के यहां ही हल कर ली जाए। यह तो मैं पत्र में लिख ही चुका हूं कि इन दिनों अकेला हूं और सिर्फ नौकर है...साली, किसी मुसीबत में न डाल दे...पुलिस-वुलिस का न झमेला हो...

ऐसा नहीं है कि इतनी उम्र में नवल ऐसी स्थितियों से गुजरा न हो, मगर तब और बात थी। पार्क में बैठा, वह यही सब सोच रहा था, ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे यह स्थिति पहली बार आई है और जिन्दगी में पहली बार इसका सामना करना पड़ रहा है? याद आया, जब कहानियां लिखा करता था, तो हर बार लगता था, जैसे वह पहली कहानी लिख रहा है; मालूम नहीं, कैसी बनेगी! हां, यह जरूर था कि एक बार कहानी शुरू करने के बाद वह उसे संभाल ले जाता था। अब बरसों से कहानी नहीं लिखी, तो वही आत्म-संशय कचोटने लगा है, शुरू कर दूं और आगे न संभली, तो? कितने पत्र आते थे पहले लड़कियों के...अब तो...

वही तो मुसीबत हो गई। बात दो साल पहले की है, अचानक एक पत्र मिला, लिफाफे के कोने पर लिखा था, ‘स्वप्ना संदीप’। किसका होगा? खोला, ‘आदरणीय’ और ’आपके लिए मैं एकदम अपरिचित हूं’ से शुरू हुआ था। ऐसे पत्रों को नवल अब अच्छी तरह जानता है। ये या तो भावनाओं के संकट में पड़ी हुई रूमानी लड़कियां होती हैं या शोध-छात्राएं। और छात्राएं पहले तो सारी श्रद्धा-भक्ति दिखाकर यह सिद्ध करती हैं कि कैसे नवल जी की रचनाओं से प्रभावित होकर उन्होंने हठपूर्वक उन्हें ही अपने विषय के रूप में चुना, उनके गाइड कौन हैं और इस कार्य के लिए कैसे नवल जी के सहयोग की जरूरत है। साथ ही, प्रायः लगी होती है एक प्रश्नावली। उन प्रश्नों का ईमानदारी से जवाब देने का मतलब यह होता हे कि सारा शोध-प्रबंध आप ही लिख दें। उन्हें वह अपनी रचनाओं की सूची और शुभकामनाओं के साथ प्रायः लिख देता है कि एक बार पहले उन्हें ध्यान से पढ़ लो। कभी आ जाना और स्वयं इन प्रश्नों पर बात कर लेना। ये अपने किसी भाई-बाप या गाइड के साथ आती हैं। कुछ मूर्ख होती हैं, कुछ समझदार, लेकिन सारा संबंध बड़ा कामकाजी-सा होता है। लड़की अगर सुन्दर है, तो गाइड और छात्रा का सम्बन्ध जरूर कथाकार की तरह नवल को आकर्षित करता है...दूसरी तरह की पत्र-लेखिकाएं या तो खुद उदीयमान लेखिकाएं होती हैं या किसी एक रचना से अभिभूत होकर लिखती हैं। वे आपकी सारी चीचें पढ़ने के बजाय दूसरे लेखकों की ऐसी ही रचनाएं पकड़ लेती हैं। यह यह पत्र भी नवल के एक उपन्यास दूसरा शिखर से प्रभावित होकर लिखा गया था। लगा, लड़की समझदार है और गहराई से सोचती है। पात्रों की मानसिकता और संबंधों को लेकर, दूसरे लेखकों की रचनाओं से हवालों के साथ कुछ सवाल उठाए गए थे। देखा जाए, तो एक शुद्ध बौद्धिक पत्र था। नवल ने एक औपचारिक-सा उत्तर दे दिया, अपनी और रचनाओं के बारे में राय पूछी और जब लगा कि सारा पत्र बहुत मशीनी हो गया है, तो एक लाइन डाल दी कि ऐसे छोटे-से कस्बे में रहकर तुम इतनी गहराई से पढ़ती-सोचती हो, यह अच्छी बात है। और क्या-क्या पढ़ा है? कहीं पढ़ाती हो क्या?...

खैर, इसके बाद नवल भूल गया। ऐसे पत्र अब बहुत रोमांचित नहीं करते। पहले की तरह छाती से लगाकर घूमने की उम्र भी बहुत पीछे छूट गई है। अब तो ऐसे पत्र रुटीन में आ गए हैं। कुछ दिनों के बाद फिर एक पत्र आया। कुछ ऐसे व्यक्तिगत सवाल थे, जिन्हें सामान्य बनाकर पेश किया गया था-जीवन का उद्देश्य वगैरह-छोटे कस्बे में किताबें और वातावरण न मिलने की शिकायत थी। ऐसे में आप जैसे महान व्यक्ति की कुछ लाइनें कभी-कभी मिलती रहेंगी-इसका आश्वासन मांगा गया था। लेखकीय व्यस्तता में खलल डालने की माफी। अच्छी रचनाओं के नाम पूछे गए थे और बौद्धिक-भावनात्मक दृष्टि से एकाकी और निर्वासित जीवन बिताने की तकलीफ। नवल ने भी एक सामान्य-सा जवाब लिख दिया कि संवेदनशील व्यक्ति तो सभी जगह अकेला और अनसमझा होता है और यही शायद हम दोनों के बीच कॉमन है। सोचा, या तो यह कोई टीचर है या तबादले में आए किसी अफसर की पत्नी।

ऐसी लड़कियां जब दिल्ली-लखनऊ-इलाहाबाद के वातावरण से नौकरी के लिए या मां-बाप, पति इत्यादि के पास जाती हैं, तो छोटी जगहों में काफी छटपटाती हैं। अपने को कहीं-न-कहीं बड़े शहरों के वातावरण से बौद्धिक या भावनात्मक रूप से जोड़े रखती हैं। और इसी तरह अपना खालीपन भरती हैं। ये अस्थाई रूप से, अपने घरों या रिश्तेदारियों में, दो इम्तहानों के बीच छुट्टियों में आई होती हैं, किसी जगह हॉस्टल में रहती हैं और इस माहौल में अपने को अनफिट पाती हैं! नवल ने हिसाब लगाया, शिक्षण-संस्थाओं की छुट्टियां नहीं हैं, यानी एक-दो संभावनाएं खत्म हो जाती है! जरूर यह कोई ऐसी लड़की है, जिसके आस-पास उसकी बात समझनेवाला कोई नहीं है और इस तरह पत्र लिखना इसका शगल भी है और साथ ही अभिव्यक्ति की एक जरूरत भी। निश्चय ही वहां अपने को सबसे ऊंचा समझती होगी, तभी इश्क-विश्क में भी नहीं पड़ी है। इसी तरह एक सही संवाद का सुख या निजी और व्यक्तिगत संतोष तलाश कर रही है-जब अपने वातावरण में थीं, तो अज्ञेय और मुक्तिबोध को पढ़ती थीं, अब इस जंगल में शिवानी और गुलशन नन्दा को कहां तक पीसें...?

लेकिन इन सारे सवाल-जवाबों का मौका ही नहीं आया और उसने दूसरे-तीसरे पत्र में बता दिया कि वह लेखिका बिलकुल नहीं है, न कहीं पढ़ाती है। साहित्य की नहीं, अर्थशास्त्र की विद्यार्थिनी रही है। साहित्य पढ़ने का शौक है और अमुक-अमुक लेखकों को पत्र लिखती रही है! पते पर उसने ‘कुमारी’ शब्द को विशेष बनावट में लिखा था, अब नवल चौंका। लड़की भोली नहीं है, बात को बिना कहे भी अगले तक पहुंचाना जानती है। औरों को भी लिखती रही है, यानी शगल-वृत्ति ज्यादा है, अभिव्यक्ति या संवाद की जरूरत कम। हो सकता है, किसी और लेखक के इशारे पर लिख रही हो। इस लेखक की बात उसे बताकर मित्रों-सहेलियों के बीच मजे लेती हो, ‘देखा, कैसा बेवकूफ बनाया! एक शब्द में असलियत पर आ गए।’

अब नवल थोड़ा सावधान हुआ। मुस्कराकर मन में कहा, ‘बेटे, यह खेल हम खुद भी बहुत खेल चुके हैं। कभी किसी को नीलिमा बनर्जी बनकर लिख रहे हैं, तो कभी शुभा प्रियदर्शनी बनकर महंगे रेस्तरां में बुला रहे हैं।’ पहले तो लगा, छोड़ो यार, मारो गोली, कहां इस उम्र में आकर बचपने के इस खेल में लगे हो? फिर सोचा, ‘चलो, जरा देख ही लिया जाए, कि खुद इसमें या इसके पीछे के खिलाड़ी में कितना दम-खम है? खेले हुए भी तो बहुत अरसा हो गया। एक बाजी और बस-तो बहुत होशियारी से तारीफ करते हुए लिखा कि अर्थशास्त्र की विद्यार्थिनी होने के बावजूद साहित्य, दर्शन और जिन्दगी की समझ अच्छी है। लिखने की कोशिश करेगी, तो अच्छा और प्रौढ़ लिखेगी-न कोई व्यक्तिगत प्रश्न पूछा, न बताया। और इसी तरह एक-दो पत्र आए-गए। एकाध में यह भी टटोला कि कहीं लड़का तो नहीं समझे बैठी है, मगर किताबों पर जन्मतिथि भी छपती है। जरूर पढ़ी होगी। खैर, नवल की दिलचस्पी अब कम हो गई थी। सोचा, शायद वह भी समझ गई है कि इससे आगे नहीं बढ़ेंगे...’

कुछ दिनों तक चुप्पी रही। महीने-भर बाद पत्र आया, घर की परेशानियों के कारण लिख नहीं पाई। मां की तबीयत खराब थी। गठिया में सारे हाथ-पांव जकड़ गए थे। लकवा मार जाने का डर था। नौकरी के इंटरव्यू के लिए दिल्ली आई थी। एक-दो बार करोलबाग से गुजरी, तो सोचा कि आपसे मिल लूं, मगर हिम्मत नहीं पड़ी और अपने इस छोटे से कस्बे में वापस लौट आई। यह थी तीन-चार महीने में लिखी गई पहली व्यक्तिगत चिट्ठी। लिहाज के नाते नवल ने न मिलने का उलाहना दिया, इंटरव्यू के बारे में जानना चाहा और जो कुछ मदद कर सकता है, उसका आश्वासन दिया। यह भी लिख दिया कि अगर वह ठीक समझे, तो यहां उसकी नौकरी की बात की जा सकती है। इसके लिए यह भी जरूरी होगा कि अपने बारे में कुछ और सूचनाएं दे दे, संभव हो तो अपनी योग्यताओं के बारे में भी लिखे। अब पहली बार जिज्ञासा हुई कि देखें तो सही, यह चीज क्या है, रहस्य सूंघकर तो लेखक वैसे भी चौकन्ना हो उठता है। सच बात तो यह थी कि यह चिंता और सरोकार कम, उसके बारे में ज्यादा जानने की तरकीब अधिक थी। नवल मानकर बैठा था-किसी भी बिंदु पर पत्र-व्यवहार बंद हो सकता है। हो जाए, मेरा क्या जाता है। उसके लिए तो यह अभी भी हलका मजाक ही था, मगर कुछ दिनों बाद फिर पत्र आया। चिंता के लिए आभार प्रकट किया गया था। बताया कि वहां के जिस कॉलेज के लिए इंटरव्यू था, उसके ट्रस्टी दिल्ली में रहते हैं, लेकिन वहां किसी दूसरे का चुनाव हो गया है और वह मां की सेवा में लगी है। आकांक्षा और आशा की गई थी कि नवल उसके प्रति जैसा सद्भाव महसूस करता है, वह बना रहेगा, क्योंकि उससे उसे बहुत बल मिलता है। मैट्रिक से लेकर इम्तहानों की सूचना थी-वर्षों के अनुसार। जन्मतिथि नहीं थी। शुरू में सेकेंड क्लास था। एम. ए. में फर्स्ट, जाहिर है लड़की चाहे जितनी मेधावी हो, इस योग्यता से तो वहीं कस्बे में कहीं अध्यापकी ही पा सकती थी। व्यक्तिगत परेशानियों के बारे में बताया गया था कि सारी बातें पत्र में नहीं लिखी जा सकतीं। कभी मिलेगी, तो विस्तार से बता देगी। उसे नवल पर बहुत भरोसा है! और नवल ने बैठकर हिसाब लगाया कि उम्र 26-27 की होनी चाहिए। साल-भर से तो रिसर्च ही कर रही है-नवल ने फिर भी सावधान भाषा में मदद का आश्वासन दिया। साफ है कि किसी भी कारण से हो, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना चाहती है। पूछा, किस तरह की नौकरी करना चाहोगी? दिल्ली में कोई सिलसिला बैठा, तो रहने का क्या होगा? आगे-पीछे कौन है?

उत्तर में सूचनाएं मिलीं-‘दो भाई हैं और अपना-अपना सिलसिला देखकर बाहर चले गए हैं। मां का गठिया इतना बढ़ा हुआ है कि लगभग अपाहिज हैं। मां-बाप के बीच संबंध बहुत मधुर नहीं हैं। बाप के पास बच्चों या परिवार के लिए न कभी समय रहा, न ध्यान। इस हालत में मां को अकेला नहीं छोड़ा जा सकता, यानी दोनों लड़ मरेंगे-जहां भी नौकरी करेगी, मां साथ रहेंगी। पढ़ाने की नौकरी एकदम पसंद नहीं है। पी-एच. डी. करना चाहती है। बिजनेस मैनेजमेंट का इम्तहान देने का भी इरादा है। आपके मार्गदर्शन का बहुत सहारा है।’

नवल का ध्यान गया, शायद पहली बार पत्र में ‘आपकी, स्वप्ना’ लिखा गया था। नाम असली है या बाद में लिया गया? संदीप बाप का नाम होगा। आजकल तो परित्यक्ताएं भी अपने नाम के आगे कुमारी लगाने लगी हैं। अब इतने दिनों बाद नवल ने लिख दिया कि इधर आने का प्रोग्राम बनाओ, तो विस्तार से सारी बातें समझी जाएं-कोई-न-कोई रास्ता तो निकलेगा ही। हिम्मत से सारी स्थिति को संभालने और सामना करने की सलाह दी गई थी। भरसक कुछ करने का आश्वासन था, वचन नहीं। नवल अपनी स्थिति समझता था!

और अब नवल के अन्दर बैठा लेखक पूरी तरह जाग उठा था। कौन है यह? कैसी है? रंग-रूप, कद-काठी कैसी है? आर्थिक स्थिति निम्न-मध्यवर्गीय ही होनी चाहिए। शादी अब तक क्यों नहीं हुई? अगर आ ही गई, तो इसकी क्या मदद करूंगा? कहीं से अनुवाद या लिखने का काम दिलाऊं, तो कर पाएगी? वैसे, भाषा और लिखावट तो बुरी नहीं है। अपने-आपको गालियां भी देता कि इस उम्र में इतनी जिंदगी देख चुकने के बाद क्यों इस कस्बाई लड़की के प्रति इतनी दिलचस्पी पैदा हो गई है? आखिर वह चाहता क्या है? इस बात को उससे ज्यादा और कौन समझ सकता है कि यह शुद्ध मानवीय सरोकार नहीं है। अगर यह लड़का होती, तो? तब भी क्या इसमें उसकी दिलचस्पी इतनी ही बनी रहती? या मान लो, कल को अचानक एक काली-कलूटी देहातिन लड़की आकर सामने खड़ी हो जाए, तब भी क्या सारा मानवीय सरोकार ऐसा ही बना रहेगा? यह लड़की क्या सचमुच, मेरी रचनाओं या लेखकीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर मुझ पर इतना विश्वास दिखा रही है या मेरे प्रभाव से अपनी व्यक्तिगत समस्या हल करना चाहती है?

यह तो साफ है कि लड़की के व्यक्तित्व में कहीं कुछ कमी है, जो अभी तक ‘कुमारी’ शब्द पर इतना जोर है। नवल का अनुभव यह भी है कि बढ़ती उम्र की ऐसी लड़कियां बाहरी दुनिया से इतनी हताश और निराश हो जाती हैं कि एक अस्वाभाविक शिद्दत के साथ मांओं से जा चिपकती हैं, शायद उपेक्षिता मां में ही अपने-आपको देखने लगती हैं और बाप के रूप में बाहरी दुनिया को-अपमान, प्रताड़ना, धोखे के डर से इस सुरक्षा के बाहर कदम रखते हुए डरती हैं-शायद बाहर चलना तब भूल जाती हैं और डरते-डरते किसी की उंगली पकड़कर ही निकलने की बात सोचती हैं, कहीं खो या भटक न जाएं। बार-बार मां के पास वापस आने के लिए तैयार-कहीं यह इसी तरह तो मेरी उंगली पकड़कर अपने आप से बाहर निकलने की बात नहीं सोचती-बहरहाल, अब तो खेल शुरू हो चुका है, इसे किसी-न-किसी परिणति तक तो ले जाना ही है-मान लो मैं आज अपनी तरफ से चुप हो जाऊं और देखूं कि एक दिन अचानक वह सामने आ खड़ी हुई है...तो?

और आज वह आखिर ठीक उसी तरह आकस्मिकता से आ ही गई और नवल साहब उसे घर में छोड़कर पार्क में चक्कर काट रहे हैं-एक तरह से सामना करने की हिम्मत जुटा रहे हैं! मगर क्यों, आखिर ऐसा है क्यों? क्यों नहीं वह इसे स्वाभाविकता से ले पाता-एक जरूरतमंद लड़की की मदद करने के रूप में सारी बातें उसके सामने क्यों नहीं आतीं? ताज्जुब की बात है कि उस समय नवल के दिमाग से शुरू वाली आशंका अपने-आप पूरी तरह निकल गई कि कोई साथी या नया शैतान लेखक चटखारे के लिए अपनी प्रतिभा का कमाल दिखा रहा हो-या लड़की ही मजा लेने के लिए अपने को ऐसी असहाय और जरूरतमंद बनाकर पेश कर रही हो? असलियत खुले, तो पता लगे कि किसी कलक्टर-कमिश्नर की पत्नी या व्यवसायी परिवार से जुड़ी है, एक्टिंग का शौक है या किसी से शर्त लगाए बैठी है-हो सकता है, कहानी या उपन्यास पढ़ने के बाद यही बात दिमाग में आई हो कि चलो, एक मन-बहलाव यह भी सही-यहां तो अक्सर लड़कियां छेड़-छाड़ के लिए ऐसे उल्टे-सीधे टेलीफोन करती ही रहती हैं। अच्छा, मान लो, ये ही सब हैं, फिर भी बात को एक सिरे तक तो पहुंचाना ही होगा और अब तो देखे बिना कोई चारा ही नहीं है कि कितने बड़े ‘खिलाड़ी’ से पाला पड़ा है। और मान भी लो कि खुद खेल रही है, फिर तो ऐसी जिंदादिल को जीतने का संतोष मिलना ही चाहिए-नवल अपने पत्रों की एक-एक पंक्ति याद करने की कोशिश करने लगा। नहीं, मैंने ऐसा कुछ भी नहीं लिखा है, जो अशालीन हो या अगर कल छाप दिया जाए, तो शर्मिंदा होने की जरूरत पड़े-अपने कुछ और साथियों के किस्से याद आए-पांच उंगलियों में दस अंगूठियां धांसे अपने को यूसुफ का अवतार समझनेवाले संपादक कुंदन जी का किस्सा याद आया, तो बेसाख्ता हंसी आने लगी-एक लेखिका को दूसरे ही पत्र में ऐसा कुछ लिख मारा कि तीसरे दिन उसका पति जूता लेकर चढ़ दौड़ा-केबिन से जब चश्मा उछलकर बाहर आया, तो सारा स्टाफ हंसने लगा-अरे भाई, कुछ भी लिखने से पहले देख तो लेते कि सामनेवाला कौन है, कैसा है? नहीं कह सकता कि यह नवल के मन की दमित कामना थी या दूसरे पहलू को देखने का आग्रह। डरते-डरते यह भी सोचता, यही क्यों माना जाए कि लड़की कुरूप-कुंठित और कुंद जहन ही है! सुन्दर सलीकेवाली और समझदार भी तो हो सकती है। यह तो पत्रों से ही जाहिर है कि संवेदनशील और कलात्मक सोच वाली है। बाप फिक्र नहीं करता। भाई लोग बाहर हैं और इसी स्थिति में लड़की निर्णय करती है कि अपनी लड़ाई खुद लड़ेगी, आत्मनिर्भर होगी। हो सकता है, इसी घरेलू खींच-तान में शादी का सिलसिला न बैठा हो-दहेज-जाति-पांति दुनिया भर के तो चक्कर हैं हिन्दू समाज में। स्वतंत्र ढंग से सोचनेवाली है, इसलिए हर ऐरे-गैरे से तो शादी नहीं कर सकती-छोटी जगह में रास्ते भी क्या हैं? हो सकता है, मेरे ही सहारे निकलने की बात सोचती हो-यहां कोई काम-धाम करेगी, तो आत्मविश्वास आएगा। सही साथी मिलने पर शादी भी कर ही लेगी-चलो, अपने ही माध्यम से किसी की जिंदगी बन जाए, तो बुरा क्या है!

ये सब सोचकर नवल को बहुत अच्छा लगता और वह अपने को शाबाशी देता कि वह लेखक है, इसलिए दूसरों का भला करने की बात सोचता है। क्या फायदा ऐसे लेखन से, जो लेखक को ही निःस्वार्थ और बेहतर आदमी बनाने की दिशा में न बढ़ाए? दूसरों की मजबूरी से फायदा उठानेवाले घटिया आदमी और एक लेखक में कुछ तो फर्क होना ही चाहिए-मगर यह ऊंचाई बहुत देर नहीं टिकती और वह अपने-आप से सवाल करता-‘सच बताओ बेटा नवल, उस लड़की को लेकर तुम्हारे मन में सिर्फ यही भावनाएं हैं? फिर, उसे लेकर तुम्हारे पूरे भीतरी भावनात्मक जगत् में इतनी खलबली क्यों मची है? तुम क्या इसमें कोई और संभावना नहीं देख रहे? अगर बात इतनी ही सीधी और सरल है, तो क्यों बार-बार मन में वह धिक्कार जागता है कि कहीं तुम कुछ खिलवाड़ कर रहे हो? कि उसकी उम्र तुम्हारी बेटी की उम्र से कुछ कम ही है? 30-32 साल के फर्क को कहां ले जाओगे? जिस दिन से तुम्हें यह लगा है कि यह लड़की तुम्हारे ऊपर विश्वास करती है या तुम्हारे ऊपर निर्भर करने लगी है, क्या उसी दिन से तुम्हारे भीतर कुछ योजनाएं नहीं बनने लगी हैं? नौकरी या काम दिलाने या सिर्फ उसे मानसिक शक्ति देने के एहसान के बदले क्या तुम सचमुच कुछ नहीं चाहते? इस तरह की संभावनाओं को लेकर 25-30 वर्ष पहले की तुम्हारी बेचैनी समझ में आ सकती है और तुम उनसे गुजरे भी हो, लेकिन इतना सब देख और भोग लेने के बाद भी तुम्हारे भीतर का यह कुंठित किशोर क्यों इस तरह सिर उठा रहा है? एक अपाहिज इच्छा ही तो नहीं है? कुछ तो अपनी उम्र और सफेद बालों का लिहाज करो बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’...

भीतर यह धिक्कार चलता रहता और ऊपर से नवल अपने-आपको एक अनवरत प्रतीक्षा में पाता। उसने लिखा था कि वह मिलकर ही बातें करेगी। इंटरव्यू के लिए दिल्ली आई भी थी, यानी यहां आना ऐसा मुश्किल नहीं है, किसी भी दिन सामने आ खड़ी हो सकती है। प्रतीक्षा के इस तनाव में वह हमेशा नहाया-धोया, चुस्त-दुरुस्त रहता। पता नहीं, कब चली आए? बार-बार लगता-इधर तो मैंने जैसे कपड़े-लत्तों, शक्ल-सूरत सब पर ध्यान देना ही छोड़ दिया है। दाढ़ी बनाते समय हर बार उल्टा हाथ फिराकर देख लेता, ठीक तो बनी है। हाथ के पंजे के पीछे की चमड़ी देखकर मुट्ठी बांधता, नहीं, ऐसी झुर्रियां तो नहीं हैं। उसकी उम्र में तो लोग कैसे छुहारे हो जाते हैं, कम-से-कम वैसा तो नहीं लगता है-बरसों से वह अपनी उम्र को लेकर इतना कॉन्शस नहीं हुआ था, जितना अब रहने लगा था। एकाध बार मिलनेवालों से पूछा, ‘‘किसी सभा-गोष्ठी में जा रहे हैं क्या?’’-‘‘हांऽऽ, जाना तो है। मन बना, तो चला जाऊंगा।’’ मन होता, थोड़ी खुशबू-वुशबू भी लगा ली जाए...


मन में उठते धिक्कार को वह तरह-तरह के तर्क देकर पछाड़ता रहता। अरे, इसी तरह देखो, तो दुनिया की सारी औरतें मां-बहन-बेटियां ही हैं। हमेशा यही सोचते रहो, तो कहीं कुछ नहीं हो सकता। ये तो सामाजिक नियम है, आज एक है, कल दूसरे हो जाएंगे। इस तरह की सामाजिक मर्यादाओं से प्रकृति का अपना प्रवाह कभी रुका है? फिर हम लेखक लोग रचनाकार हैं, सर्जक हैं। बहुत स्वाभाविक है कि प्रकृति की सर्जक नारी के प्रति हमारा आकर्षण सहज और प्राकृतिक हो। यह वासना या व्यभिचार नहीं, दो समानधर्माओं की देश-काल-उम्र सबको लांघकर एक-दूसरे का अभिनंदन करना है। नारी प्रकृति की श्रेष्ठ कृति है और जब कलाकार उधर आकर्षित होता है, तो इस कलाकृति को एप्रिशिएट करता है। अगर यह संबंध सामाजिक मर्यादाओं से ऐसा ही अनुशासित होता, तो क्यों ब्रह्मा अपनी ही पुत्री, सरस्वती पर इस तरह आसक्त होते? क्यों कलाएं नारी को ही केंद्र बनातीं? नवल को एक और बात अपने पक्ष में बल और प्रेरणा देती। वह महसूस कर रहा था कि जब से इस लड़की ने उसकी सलाह, सहायता और सौहार्द में विश्वास प्रकट किया, तभी से उसकी कल्पना को जैसे पंख लग गए हैं और वह दिवास्वप्नों में जीने लगा था। ‘पता नहीं, कब से मेरी कल्पना इतनी निर्बाध और निर्बंध नहीं हुई?’ वह साश्चर्य अपने-आपसे कहता, अब मेरी समझ में आ रहा है कि दसियों बरस से मैंने कुछ भी रचनात्मक क्यों नहीं लिखा? सिर्फ स्मृतियां आपका कितना साथ दे सकती हैं? अगर कल्पना नहीं हो, तो उन स्मृतियों को अतीत के गड्ढों से बाहर निकालकर कैसे कलाकार भविष्य में फेंकेगा? वे तो आपको भी जड़ ही बना देंगी। स्वप्ना सचमुच सपने देखने का माध्यम बनकर आई है...लोगों ने तो पता नहीं कब से घोषणा कर दी है कि लेखक के रूप में नवल मर चुका है। सच पूछिए तो वह खुद विश्वास करने लगा था कि अब कभी भी कोई चीज उसकी कलम से नहीं आएगी...बस, हमेशा अपने आपको आश्वासन दे देता है कि एक दिन ऐसा चमत्कार होगा कि बैठूंगा और पागल की तरह लिखना शुरू कर दूंगा-लिखता ही चला जाऊंगा और समाप्त करने पर पाऊंगा कि मैंने एक कालजयी उपन्यास की रचना कर डाली है! सिर्फ अपने को बहलाने और स्थगित किए जाने का बहाना-मजा यह कि इस बारे में खुद नवल कभी साफ नहीं हो पाया कि आखिर यह चमत्कार घटित कैसे होगा? वह तो केवल एक अंधविश्वास की तरह प्रतीक्षा कर रहा था। शायद अपने अवचेतन में इतना जरूर जानता था कि यह चमत्कार उसी दिन घटित होगा, जिस दिन मूल से झकझोर देनेवाला कोई अनुभव इस जड़ता को ठोकर से तोड़ देगा-जैसे वाल्मीकि को दीमकों के ढूह से, एक बड़े अनुभव ने निकालकर बाहर खड़ा कर दिया था...

और जाने क्यों, नवल को लग रहा था कि यही वह झकझोर डालनेवाला अनुभव है, जिसकी प्रतीक्षा वह अवचेतन में कर रहा था। कैसे करेगा इसका सामना? साबुत भी निकल पाएगा या नहीं? बहरहाल, जो भी हो, इस स्वप्ना ने ही तो उसे भीतर तक उद्वेलित कर दिया है और सोई हुई कल्पना स्वच्छंद हो उठी है। अगर स्वप्ना मुझे इस जड़ता से निकाल कर बाहर खड़ा कर देती है, तो सच कहता हूं, मैं उसके चरण धोकर पीने के लिए तैयार हूं, वह अपने से कहता! अपने को पुनर्जीवन देने के लिए नैतिक-अनैतिक, जायज-नाजायज कुछ भी क्यों न करना पड़े-मुझे कोई अपराध-बोध नहीं होगा...हम कलाकारों के पास यह कल्पना और दिवास्वप्न न हों, तो कैसे कुछ रचेंगे? भाड़ में गईं नैतिक मर्यादाएं और शील-सच्चरित्रता! यह हमारा सारा लेखन इन्हीं बंधनों के खिलाफ ही तो विद्रोह है। अगर कलाकार इन्हीं में बंध जाएगा, तो ‘कुमार-संभव’ नहीं, ‘मनुस्मृति’ लिखेगा! कुछ नहीं होता, पाप और अपराध! अगर ‘स्वप्ना’ नाम की यह संजीवनी बूटी फिर से मुझे चैतन्य प्रदान कर देती है, तो इससे बड़ी नैतिकता और क्या होगी? मौका मिला और जरूरत हुई, तो सीधे उसी से कह दूंगा कि मरता हुआ एक आदमी अगर तुम्हारी कृपा से बच जाता है, तो इससे बड़ी नैतिकता क्या है? अगर ‘किसी की जान बचाने’ और ‘सामाजिक मर्यादा’ में से किसी एक को तुम्हें चुनना हो, तो क्या तुम उस झूठी मर्यादा को चुनना पसंद करोगी? अब नवल को जैसे एकदम साफ दिखाई देने लगा था कि नारी कैसे पुरुष की मूलभूत प्रकृति को, उसकी आदिम जिजीविषा को छूकर जीवित कर देती है। वह इन्हीं अर्थों में तो प्रेरणा, आद्याशक्ति है कि अपनी हल्की-सी ऊष्मा से साठ साल के प्रौढ़ को (वह अपने को वृद्ध कहते डरता था) पल-भर में एक बेचैन किशोर में बदल डालती है। साला, अजब देश है अपना यह हिन्दुस्तान भी! यहां 45 के बाद आदमी को ‘बुड्ढा’ घोषित कर दिया जाता है और समझा जाता है कि दुनिया की किसी खूबसूरत या स्वादिष्ट चीज में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं होनी चाहिए। अगर है, तो अनैतिक है। फ्रांस में साठ साल का पिकासो, पच्चीस साल की फ्रैंस्वा जिलों से न सिर्फ खुले-खजाने इश्क करता है, बल्कि बाकायदा शादी करके रहने लगता है। हेमिंग्वे खुलेआम कहता है कि हर नई औरत के आत्मीय और अंतरंग प्यार ने उसे नए उपन्यास की प्रेरणा दी है। हम ढोंगियों की कौम, ऐसा कह या सोच भी नहीं सकती! वे लोग वर्जनाहीन और खुले हुए हैं। तभी तो बुढ़ापे तक सर्जना करते रहे हैं। चाहे टॉलस्टॉय या रवींद्रनाथ, रविशंकर या अज्ञेय, क्या भगवान भरोसे बैठकर अंतिम समय तक रचना और चिंतन करते रहते थे? नेहरू के व्यक्तित्व की ऊर्जा और गत्यात्मकता हवा में से आ गई थी क्या?

और इसी जोश में नवल दुनिया के एक से एक बड़े कलाकार, लेखक, वैज्ञानिक, दार्शनिक (मार्क्स, आइन्स्टाइन, बर्टेण्ड रसेल) की जीवनियों से ऐसे प्रसंग निकाल-निकालकर अपने-आपको बल देता रहा, नारी क्या है? सिर्फ एक बहता हुआ सोता! उसे तो बहना ही है। अगर आप कुछ मिनट उसके किनारे अपनी थकान मिटा लेते हैं, दो घूंट पानी पीकर, अगली लंबी यात्राओं पर निकल पड़ने के लिए तरोताजा हो जाते हैं, तो इसमें बुराई कहां है? नहीं, न इसमें कुछ गलत है, न अनैतिक।

अपने भीतर निरंतर चलते इन सवाल-जवाबों से नवल स्वयं चकित था, लेकिन इन्हीं सबके बीच कभी-कभी, किसी कोने के बिल से मुंह निकालते सांप की तरह एक और आशंका सिर उठाने लगती! अच्छा, मान लो, जैसा मैं चाहता हूं या जैसी कल्पनाएं रात-दिन करता रहता हूं-सभी कुछ वैसा हो भी गया और फिर भी मैं कुछ नहीं लिख पाया, तो? इस सारी जोखिम, दुस्साहसिकता का हासिल या जस्टिफिकेशन क्या होगा? क्या उसकी स्थिति भी अकील अहमद नाज जैसी नहीं हो जाएगी? नाज साहब किसी जमाने में बहुत खूबसूरत और जबरदस्त शे’र कहते थे। दो-तीन संग्रह भी छपे और उर्दू साहित्य में उनकी धूम मच गई, मगर इधर दसियों बरसों से उन्होंने कोई शे’र नहीं कहा। हां, प्रतिष्ठा खूब हो गई। शान से रहने-सहने का वसीला और रोज शराबों का दौर। शुरू में पता नहीं, किसी छोटे-से गांव में इक्का चलाते थे या मस्जिद बुहारते थे। शायरी की बदौलत बढ़ते चले गए। मुशायरा लूट लेनेवालों में हंगामी। खुद मुशायरा ऐसी खूबसूरती से संयोजित करते कि लोग वाह-वाह करते रहते। बात-बात में अपने और दूसरों के बेहद मौजूं शे’र कहना, निहायत नाटकीय ढंग से हर शायर का परिचय कराना, उसे पेश करना! क्या गजब की याद्दाश्त! इधर यह दौर आया कि जिनके बाप-दादों ने पैसे की शक्ल नहीं देखी थी, उनके पास अंधाधुंध पैसे आ गए, तो उन्हें आर्ट और कल्चर का चस्का लगा। झूठ, बेईमानी और मूल्यहीनता की इस मानसिकता को सामंती उर्दू शायरी की जहनियत से अच्छा आधार और कहां मिलता! वही शराब, साकी और महबूबा उन्हें परोस सकती थी। वह हमेशा से ही दरबारों, महफिलों और कोठों की चीज रही है और उसे क्रेज बना दिया बेगम अख्तर, मेहंदी हसन, गुलाम अली, पंकज उधास और अनूप जलोटा ने-सौ-सौ रुपये के टिकट-हाथो-हाथ गायब-नतीजे में पैसे वाले पंजाबियों और मारवाड़ियों में भी उर्दू शायरी का शौक फूटा, फैशन की चीज थी। मालूम हुआ कि नाज साहब हर शाम किसी-न-किसी पैसेवाले के यहां या पांच सितारा होटल में गोष्ठी संजोए उसे रंगीन किए हैं, स्कॉच उड़ा रहे हैं। लापरवाही से कहते हैं, ‘‘क्या करें, साले गाड़ी भेजते हैं, बुलवाते-पहुंचवाते हैं और हजार-दो हजार नजर कर जाते हैं। दिन में इनकी औरतें आ जाती हैं, शे’र नोट करती हैं, तलफ्फुज दुरुस्त कराती हैं, लिखती हिन्दी में हैं, लेकिन हिज्जे और मायने पूछती हैं। तोहफे और नोट देती हैं और बिस्तर गरम कर जाती हैं। कमबख्तों से शीन-काफ सधकर ही नहीं देता। खैर, आप तो जानते ही हैं, औरत और शायरी का तो चोली-दामन का साथ है, मगर हमने देख लिया, शायरी साली जागती ही नहीं। हम भी सोचते हैं, न सही शायरी, इस मजे से क्यों महरूम रहें? साल में दस-पांच नए जायके मिल ही जाते हैं। कलाम तो जागता नहीं, कुछ सबाब और धर्म का काम ही हो जाता है।’’

नवल सोचता था कि इतने सब कुछ के बाद भी अगर सोई हुई सरस्वती नहीं जागी, तो क्या होगा? इससे बड़े नए अनुभव की तलाश? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं भी इसी स्थिति से समझौता कर लूंगा और नाज साहब की तरह पुरुष-वेश्या बनकर अपने मन में या दोस्तों के बीच शेखी मारा करूंगा कि इतनी औरतों के साथ सोया?

बहरहाल, उन दिनों नवल के दिमाग में सिर्फ स्वप्ना संदीप छाई हुई थी, और वह या तो हर समय उसी से सवाल-जवाब करता रहता या फिर अपने-आपसे लड़ता रहता! यह अफसोस मन में जरूर होता कि जब हमारे दिन थे, तब ये सारी स्वप्नाएं कहां मर गई थीं? कमबख्त आई भी तो कब?

और अब वह सचमुच आ गई है, तो नवल पार्क में बैठा सिगरेटें फूंक रहा है!


नवल जब लौटकर फ्लैट में घुसा, तो नौ बज रहे थे। घंटी बजाने और दरवाजा खुलने के बीच उसे लगता रहा कि कोई जादू हो जाए और स्वप्ना वहां से जा चुकी हो। अभी भी समय है और वापस जाकर किसी दोस्त के यहां सो जाए, कहीं कोई अनिवार्यता है, जो टल जाएगी। बहुत कुछ ऐसा है जिंदगी में, जो सोचने में उत्तेजक, रोमांचकारी और प्रेरक लगता है, वास्तविकता का रूप लेते ही अपना सारा सम्मोहन खो देता है, वह गलत वक्त पर, गलत जगह और गलत स्थिति में अपने आपको झोंक रहा है। यह दरवाजा जल्दी से क्यों नहीं खुलता, कहीं किसी ने देख लिया, तो? एक बार देखा, घर तो अपना ही है न?

बहादुर न दरवाजा खोला, तो नवल जैसे सरककर अंदर जा गया। कुछ पूछता, इससे पहले उसने देखा कि पीछे स्वप्ना खड़ी है, चॉकलेटी साड़ी में। शायद नहाई है, बाल खुले हैं। अनायास ही मुंह से निकल पड़ा, ‘‘माफ करना स्वप्ना, देर हो गई। जिन साहब से जरूरी काम था, वे किसी और जगह शतरंज खेल रहे थे, वहां जाकर उन्हें पकड़ा। तुम्हें असुविधा तो नहीं हुई? तुम भी क्या सोचोगी...’’ साबुन या शैंपू की खुशबू बुरी नहीं है।

‘‘कोई बात नहीं। मैंने भी सोचा, जरूरी काम होगा, तभी तो...’’ स्वप्ना बहुत सहज थी और इस तरह बोल रही थी, जैसे यहीं रहती हो, ‘‘इस बीच इस बहादुर से हमारी दोस्ती हो गई।’’

‘‘मेम साहब ने खाना बनाया।’’ बहादुर ने हंसकर कहा, रसोई में जाते हुए।

नवल अपने कमरे में जाते हुए ठिठका, फिर जाकर देखा-कमरा साफ-सुथरा, व्यवस्थित है, पीछे-पीछे स्वप्ना थी। ‘‘तुमने तो सब कुछ इस तरह बना दिया, जैसे...’’

‘‘बाप का घर हो...’’ स्वप्ना ने हंसकर बात पूरी की।

नवल दुहराकर रह गया, ‘‘बाप का घर...’’ आगे कुछ सूझा नहीं। लड़की तेज है, सारी सावधानियां बरत रही है। घर की सुरक्षा और एकांत में आकर नवल अपने-आप ही सहज हो आया, अब जो होगा, देखा जाएगा। वह दीवार से लगी किताबों की अलमारी को इस तरह देख रही थी, जैसे कि चार-पांच सौ साल पहले की इमारत के भित्ति-चित्र देख रही हो। ‘‘यहां कितनी किताबें हैं। वहां हम उनकी शक्ल देखने के लिए तरस जाते हैं। कुछ ले जाएंगे...’’

नवल हंसा, ‘‘अगर इसी तरह हर किसी को ले जाने देता, तो ये इतनी होतीं?’’ वह इस बात से बेचैन हो रहा था कि दो घंटे की अनुपस्थिति में ही लड़की का रवैया इतने अधिकार और विश्वास का हो गया है, मानो यहां कब से आती रही हो...वह कुर्सी पर बैठ गया, ‘‘चाय-वाय हो गई? खाना कब खाओगी? क्या कर डाला इस बीच में...’’ ‘‘कुछ नहीं-आप कुछ लेंगे, चाय-कॉफी...’’ फिर बाद की बात का जवाब दिया, ‘‘हम और बहादुर उधर टी. वी. देख रहे थे।’’

‘‘हुम्...अच्छा, तुम्हें भूख हो, तो खा लो, मैं तो कुछ रुककर खाऊंगा...’’ कहकर नवल ने उसे गौर से देखा-सचमुच सुंदर है या मुझे ही लग रही है?

‘‘नहीं, बाद में ही खा लेंगे...’’ वह बताने लगी, ‘‘चाय के साथ बिस्कुट ले लिए थे। चार-पांच घंटे की बस की थकान थी। नहाने से एकदम फ्रेश हो गई...’’

नवल कुछ व्यस्त भाव से बोला, ‘‘जरा बहादुर को बुलाओ।’’ तब तक बहादुर स्वयं वहां आ गया था। शोध-इंटरव्युओं के लिए तरह-तरह के लोग आते ही रहते हैं। इसलिए बहादुर को अजीब नहीं लगना चाहिए। लापरवाह लहजे में कहा, ‘‘सुनो बहादुर, ये यहीं रहेंगी आज। उधर के कमरे में बिस्तर लगा दो। पानी और गिलास रख देना। और देखो, खाना बाद में खा लेंगे। तुम बनाकर रख जाना...कोई और तो नहीं आया था? इन्हें चाय-वाय पिला दी न...’’ वह सारी बातें इस तरह एक साथ बोल रहा था कि बहादुर को कुछ पूछने का समय न मिले, ‘‘इनका सामान किधर है?’’ बरांडे से टी. वी. की आवाज आ रही थी।

‘‘उधर ही है सा’ब,’’ कहकर बहादुर चला गया। उसने टी. वी. बंद कर दिया, तो एकदम ऐसा सन्नाटा छा गया कि नवल और स्वप्ना जैसे झटके से एक-दूसरे के सामने आ खड़े हुए हों। या अब तक आवाज की आड़ थी। अब तक स्वप्ना दूसरी कुर्सी पर बैठ गई थी, बीच में छोटी मेज थी। नवल ने सिगरेट जलाई और माचिस को कुछ ज्यादा ही हिलाकर बुझाया। फिर धुआं उगलते हुए पूछा, ‘‘हां, तो अब बताओ...’’

‘‘मुझे तो लगता ही नहीं कि पहली बार आपसे मिली हूं। वरना लेखकों की बात सोचकर बड़ा डर लगता है। पता नहीं उनके सामने बोला भी जाएगा या नहीं। आप तो एकदम...’’

‘‘आदमी जैसे हैं।’’ नवल ने बात पूरी कह दी और हंस पड़ा। ‘‘हैं, ऐसे भी लेखक हैं हमारे यहां। तुम अज्ञेय जी से मिली हो?’’

‘‘नहीं।’’ उसने कुछ ज्यादा ही नाटकीय भोलेपन से सिर हिलाया, ‘‘एक बार हमारे यहां आनेवाले थे, कॉलेज में। पता नहीं, क्या हुआ! नहीं आए...’’ फिर हल्की झेंप के साथ कहा, ‘‘कभी ‘शेखर : एक जीवनी’ के पीछे पागल थे हम लोग...’’

‘‘अब?’’ नवल आधा खोया हुआ-सा देख रहा था-अंडाकार चेहरा, गेहुंआ रंग, नहा-धोकर लड़की बुरी नहीं लगती। खुले बाल। बिंदी।

‘‘अब नवल जी की रचनाएं अच्छी लगती हैं।’’ जैसे वह जान-बूझकर शैतानी से बता रही थी, ‘‘वह 20-22 तक की उम्र की रचनाएं थीं, जैसे ‘गुनाहों के देवता’ 16 और 18 के बीच की चीज है...’’

‘‘यानी 22 के बाद आदमी को गीता पढ़नी चाहिए...’’

‘‘यानी आपकी रचनाएं गीता हैं।’’ और इस बार वह खिलखिलाकर हंस पड़ी। फिर लगा शायद कुछ ज्यादा छूट ले ली है। बोली, ‘‘वे द्वीपों और एकांत पहाड़ों में विचरने वाले अकेले और इकलौते लोग हैं। होल टाइम लवर्स। पाठक चाहता है कि कुछ हम-आप जैसे हों। अड़ोस-पड़ोस भी हो। कहां रहते हैं, क्या खाते हैं, पैसों का हिसाब-किताब क्या है? कहीं कोई समाज है भी या नहीं? यही कुछ तो पात्रों को अपना बनाता है।’’ दांत सुंदर हैं।

‘‘यह तो उन्होंने खुद साफ कर दिया है। वे लोग समय के प्रवाह में बह आए द्वीप हैं। न उनके आगे कुछ है, न पीछे। जैसे और जितने हैं, उतना ही काफी है।’’ नवल ने तर्क दिया।

वह गंभीर हो गई, ‘‘सुनने में बात अच्छी ही लगती है, मगर सवाल यह भी तो उठता है कि उन्हें किस धरातल पर अपना मानें? कहां आइडेंटिफाई करें? वह सब कुछ तो एक स्वप्न जैसा लगता है। और सपनों का तर्क भी होता है कि जैसे और जितने हैं, बस, उतने ही हैं, वही काफी है, मगर...’’

नवल को लगा, वे दोनों बेकार की बातें कर रहे हैं। शायद चाहता था कि बात खुद उस पर आए। कल की लड़की बराबर से तर्क कर रही है। कहा, ‘‘यह बताओ, तुम्हें मेरी रचनाओं में औरों से अलग क्या लगता है?’’

‘‘पात्रों का आंतरिक वार्तालाप...ऊपर से हम जो कहते हैं, वह हमारा एक धरातल होता है। एक सामाजिकता होती है। समानांतर चलता है भीतरी वार्तालाप- असली आदमी वही होता है, चाहे जितना टुच्चा और छोटा हो...’’ वह इस तरह बोली, जैसे पता था कि यह सवाल आएगा, ‘‘यही कशमकश तो पात्र और स्थिति को नाटकीयता देती है...’’

नवल को अच्छा लगा-लड़की इंटेलिजेंट है और अपने ढंग से सोचती है, मगर कहीं यह मेरे भीतर चलनेवाले वार्तालापों को तो नहीं पढ़ रही है? हो सकता है, संकेत से बता रही हो कि उसके मन में जो कुछ हो रहा है, उसकी जानकारी उसे है। व्यक्तियों, स्थितियों को पढ़ने की तीसरी आंख होती है इन कमबख्तों में...

नवल को आश्चर्य होता है, ये लड़कियां हर स्थिति में इतनी जल्दी सहज कैसे हो जाती है? उसे अच्छा भी लग रहा था। खयाल आया, लड़की अगर तेज है और खुद सोचती है, रटी या सुनी हुई बातें नहीं बोल रही है, तो क्यों न इसे अपनी सारी रचनाएं पढ़वाई जाएं, अपने जीवन के बारे में बताया जाए और इससे एक जीवनी लिखवाई जाए? हमारे यहां अच्छी जीवनियां हैं ही नहीं। एकाध आत्मकथा तो मिल जाएगी, लेकिन किसी दूसरे की गहराई में उतरकर संवेदना और विश्लेषण के साथ किसी ने कुछ लिखा हो, ऐसा कहां है? जीवित लेखकों के बारे में तो कहीं भी, कुछ नहीं मिलता। अंदरूनी तहों में एक बात शायद और भी थी कि ये साहित्य-वाहित्य की बातें अभी खत्म हो जाएं, तो अच्छा है, ताकि बाद में व्यक्तिगत बातें करने का निर्विघ्न मौका मिल सके।

ठंड थी। शॉल ओढ़कर नवल ने एक बार दोनों कमरों और बालकॅनी का चक्कर लगाया। उसका तौलिया सूख रहा था। दूसरे कमरे में सफरी बैग रखा था-करीने से बंद किया हुआ। मन-ही-मन मना रहा था कि कोई आ न जाए-पड़ोसी या मिलनेवाला। खाना खाया। सब्जी नए हाथ की थी, इसलिए अच्छी लगी। बीच-बीच में वह चुप होकर जैसे कहीं खो जाता। भौंहों से सटी बिंदी, फिर नाक, कभी-कभी फड़कता एक नथुना-इस चेहरे का वर्णन करना हो, तो कैसे करेगा? अब लग रहा था, शायद किसी भी लड़की का चेहरा गौर से देखे उसे बरसों हो गए हैं, इसलिए पहले जैसी फोटो उतारनेवाली निगाह नहीं रह गई है-फिर अचानक ही, ‘एक जरूरी प्रोग्राम देखना है।’ कहकर टी. वी. चालू कर दिया। खबरें सुनीं और एक साहित्यकार राजदूत का इंटरव्यू देखता-सुनता रहा। शॉल ओढ़े वह भी चुपचाप बैठी रही। शायद सोच रही हो कि वह किसी महान विचार में डूबा है, इसलिए छेड़ना नहीं है। शायद अवचेतन में प्रतीक्षा थी कि बहादुर रसोई समेटकर चला जाए, तभी असली बातें शुरू हों और जब वह जाने लगा, तो पूछा, ‘‘कॉफी लोगी?’’ ‘‘नहीं, जरूरत होगी, तो खुद बना लेंगे। कहां क्या है, मुझे पता है।’’ बहादुर ऊपर बरसाती में सोता है। वह चला गया, तो नवल ने अंदर से चिटखनी लगाई और गहरी निश्चिंतता की सांस ली। हां, तो अब आया है वह असली ‘क्षण’-बाथरूम में ब्रश करते हुए उसने अपने-आपको बताया।

‘‘आओ, इधर ही बैठते हैं।’’ नवल अपने तख्त पर बैठ गया। रजाई खोलकर पैरों पर डाल ली। वह बेंत की कुर्सी पर बैठ गई। बहुत डरते-डरते संकोच से पूछा, ‘‘अच्छा, एक बात बताओ तुम थक भी गई हो, सर्दी काफी है। थोड़ी-सी ब्रांडी लोगी?’’

‘‘नहीं, मैं नहीं लेती।’’ स्वर में क्षमा-याचना थी। वह एक पत्रिका खोलकर किसी कहानी में डूबी थी, ‘‘आप लेते हों, तो लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है।’’

‘‘अच्छा, तुम टी. वी. बंद कर आओ और कुछ ओढ़ने को ले लो।’’ कहकर नवल ने गिलास में ब्रांडी ली और बैठकर ‘चीयर्स...’ कहते हुए एक घूंट भरी। अपने भीतर अतिरिक्त हिम्मत लाने के लिए ले रहा है क्या? उसे गौर से देखकर कहा, फिर सोचा, ‘लड़की तो तुम बुरी नहीं हो...’ शायद समझ गई थी कि वह प्रशंसा से उसे देख रहा है, ‘कोई गहना-वहना...कुछ भी नहीं...’

‘‘शुरू से ही शौक नहीं रहा...’’ फिर उमड़ती झेंप समेटकर एकदम बोली, ‘‘सच बताऊं, आते हुए आपसे बहुत डर लग रहा था।’’ फिर शायद लगा कि कुछ ऐसी ही बात वह पहले भी कह चुकी है।

‘‘क्यों?’’ नवल फिर चौंका। यह किसी तरफ इशारा या पहले से ही रोकने की सावधानी तो नहीं है?

‘‘सोचती थी, ऐसा महसूस करूंगी, जैसे एक्सरे मशीन के सामने खड़ी हूं, पर मिलकर कुछ लगा ही नहीं। आप तो बिलकुल हम-तुम जैसे ही हैं।’’

‘‘सींग-पूंछ कुछ नहीं दिखाई दिया?’’

‘‘होंगे जरूर। तभी तो आप लेखक हैं, वरना हम नहीं लिखने लगते...?’’

दोनों हंस पड़े। लड़की हाजिर-जवाब है। हलके से उभरे हुए गाल कभी-कभी गड्ढे होने का भ्रम देते हैं। नुकीली ठुड्डी बीच से बंटी हुई है। कहीं-न-कहीं तो इसका वर्णन करना ही है, इसलिए गौर से नोट्स ले लो...? हल्की-सी खुशबू लगाई है क्या? नहीं, कुछ देर पहले यहां अगरबत्ती जलाई गई होगी।

कुछ देर की असुविधाजनक चुप्पी को तोड़कर नवल ने घूंट भरा और बोला, ‘‘तो क्या समस्या है?’’ नवल को हर क्षण लग रहा था, जैसे सब कुछ कई बार ठीक इसी तरह घटित हो चुका है और दुहराया जा रहा है। जैसे ऐसे बने-बनाए सेटों को वह पहले भी कई बार देख चुका है...सिर्फ एक ही कसर है। ऐसे माहौल में बत्ती ऊपर की नहीं जलती, टेबुल-लैंप जलता है, ताकि नीम अंधेरे का सपनीला वातावरण अपना जादू खुशबू की तरह भरने लगे-वह भी होगा। मगर कुछ देर रुककर।

‘‘समझ में नहीं आता, कैसे शुरू करूं?’’ कुर्सी के हत्थे पर कुहनी टिकाकर वह उंगलियों से होंठ छूती हुई सोचती-सोचती बोल रही थी, फिर धीरे-धीरे बताने लगी। कहना चाहिए, प्रायः छिपाया कुछ नहीं। हां, बताने में कोई तरतीब नहीं थी। बाप सेना में मेजर था। शादी पहले ही हो चुकी थी, मां बहुत पढ़ी-लिखी नहीं है, गांव की है। पिता का साथी मिलिटरी अफसरों में उठना-बैठना होता था। पार्टियां और रिसेप्शन होते रहते थे। उनके परिवार के लोग यहां आपस में आते-जाते थे। इसलिए मां को कभी साथ नहीं रखा। हम लोग प्रायः गांव में ही रहे, शुरू में वहीं पढ़े। पिता कभी-कभार या तो खुद आ जाते या पैसे भेज देते। जगह-जगह तबादले होते हैं, बच्चों और परिवार को कहां लिए-लिए फिरेंगे।

‘‘फैमिली क्वार्टर इतनी आसानी से कहां मिलता है? उधर शायद अपने साथियों में बता रखा था कि शादी हुई तो थी, बीवी मर गई। फिर वहीं के एक अफसर की बहन से शादी कर ली। अब रिटायर होकर इसी कस्बे में आ गए हैं। अलग घर है। एक लड़की और एक लड़का। दोनों बाहर रहकर पढ़ रहे हैं। कभी-कभी इस घर में भी आते हैं। दूसरी मां कभी नहीं आती। शायद कस्बे में आने से पहले यह शर्त रही होगी। मां भी नहीं जाती। हम लोग एक-दो बार गए थे। लेकिन सारे व्यवहार से लगा कि होली-दीवाली हो आना ही ठीक है-एक तरह से हम लोगों ने अपनी जिंदगी खुद बनाई है। दो छोटे भाई हैं, एक टीचर है, शादी करके अलग रहता है। दूसरा कुवैत चला गया। अब एक तरह, बस मां है और हम हैं। जिस दिन हमारा दिल्ली आने का प्रोग्राम था, पिता आए थे। पूछते रहे, दिल्ली क्यों जा रही है, आठ-दस दिनों बाद मुझे भी काम है, साथ ही चली चलना। मैंने नौकरी के लिए इंटरव्यू और तारीख की बात बताकर जिद की कि नहीं, मैं तो अकेले ही जाऊंगी, इस तरह न किसी के इंटरव्यू रुके रहते हैं, न नौकरियां। लड़-भिड़कर आई हूं। बोलो, न किसी के शादी-ब्याह की चिंता, न हारी-बीमारी की। बस, रोक लगाने आ गए-अकेली लड़की वहां कहां रहेगी, वहां कौन है? जब सब कुछ हमें ही करना है, तो इस टोका-टाकी का क्या मतलब है? खुद ही लखनऊ से एम. ए. किया है। मां ने किस तरह पढ़ाया है, वही जानती है। अब समस्या है कि न वहां रह सकती हूं, न मां को अकेले छोड़ सकती हूं...’’

ये सब बताते हुए कई बार उसकी आंखों में आंसू आए, गालों से ढुलककर बूंदें टपकीं, चेहरा विकृत हुआ, कभी रूमाल से और कभी उंगलियों से पोंछा, फड़कते नथुनों और कांपती ठोड़ी को कुछ समय चुप रहकर शांत होने का समय दिया। नवल कभी टकटकी लगाए उसे देखता और कभी सिगरेट के जलते गुल पर निगाहें टिकाए एकाग्र भाव से सुनता रहा। अचानक उसे लगा कि वह निहायत आत्मीय और अंतरंग आत्मस्वीकार इतनी रोशनी-भरे कमरे में यों बैठकर सुनना अनुचित है। दो पैग ब्रांडी का दिया आत्मविश्वास और ‘डैम-केयर’ का भाव था या सचमुच, इस अंतरंग क्षण को संपूर्णता में सोखने की इच्छा, उसने अहिस्ता से उठकर ऊपर का बल्ब बुझाकर सिरहाने का टेबुल-लैंप जला दिया। अब सेट पूरा हो गया था। स्वप्ना सिर उठाकर उसे देखती रही। वह फिर अपनी जगह आ बैठा, पैरों पर रजाई डाल ली और सिरहाने पीठ टेककर एक घूंट लिया। रोशनी का दायरा स्वप्ना के हाथों और धड़ तक आकर समाप्त हो गया था। नवल को रह-रहकर लगता, जैसे स्वप्ना का हाथ, नीचे का धड़ कोई स्वतंत्र हिस्सा है, जिसका ऊपर अंधेरे में, भावोच्छ्वास में डूबी स्वप्ना से कोई संबंध नहीं है। अंधेरे में उसके चेहरे की रूप-रेखा अब साफ होने लगी थी। वह अभी भी अपने में डूबी थी। रुंधे स्वर में कहने लगी, ‘‘अब आप ही बताइए, वहां जिंदा रहने का किताबों के सिवा और क्या तरीका है? छोटी जगह है, न किसी से खुलकर मिल सकते हैं, न हंस-बोल सकते हैं, लेकिन लगता तो रहता ही है कि अपने लिए जो कुछ भी करना है, खुद ही करना है। मन तो होता है, बाहर कहीं नौकरी का सहारा मिले, तो वहां से भाग आएं और कभी मुड़कर न झांकें, मगर फिर मां का क्या होगा...’’

अब नवल ने आगे बढ़कर उसका सिर प्यार से थपथपाया-‘‘हिम्मत रखो, कोई-न-कोई रास्ता तो मिलेगा ही...’’, गीले गालों पर हाथ फेरते हुए उसी की शॉल से आंसू पोंछ दिए। कुछ देर हाथ कंधे पर ही रहने दिया।

‘‘ऐसे में आप ही सोचिए, आपके पत्र कितनी बड़ी हिम्मत बांधते रहे हैं-आपके पास ऐसे बीसियों पत्र आते होंगे, लेकिन कमजोर क्षणों में किसी की कही या लिखी बात कैसे आदमी को आत्महत्या के किनारे से वापस ले आती है, यह शायद आप नहीं सोच सकते...’’, वह अटक-अटककर बोल रही थी।

नवल सचमुच भावुक हो आया था। ‘‘क्या बात करती हो...’’, कहकर उसने स्वप्ना की बांह पकड़कर उठाते हुए कहा, ‘‘इधर आओ।’’ उसने हल्का-सा प्रतिरोध किया, ‘‘नहीं, मैं ठीक हूं।’’ ‘‘आओ न,’’ नवल ने कहा, तो वह ना-मालूम ढंग से उठकर पास ही बैठ गई। कंधे पर बांह रखकर, अपने से सटाए नवल उसे जैसे सांत्वना देता रहा, लेकिन अनचाहे ही नसें खिंचने लगी थीं।

जो कुछ भीतर हो रहा था, उसे देखते हुए नवल खुद डर रहा था। यों अपने से उसे चिपकाकर सांत्वना देना गलत या झूठ लग रहा हो-यह भी नहीं है, मगर लगता था-अंदर एकदम अलग ही दुनिया है। टेबुल लैंप की रोशनी, शेड के ऊपरी हिस्से से कमरे की छत पर छपा हुआ छाया-प्रकाश का बड़ा-सा फूल, झम-झम बजता-सा एकांत और दिसंबर की सर्दी का उकसाता शब्दहीन संगीत...नवल को लगता जैसे वह एक बहुरूपिया है, जो सफेद बाल और प्रौढ़ चेहरा लगाए लोगों को अपनी लच्छेदार भाषा में बेवकूफ बनाता है-वह जो कुछ भीतर है, उसे कोई नहीं जानता। इस भव्य, सम्मानजनक आदरणीय मेकअप में बाकायदा राक्षस-पता नहीं कब ऊपर का यह मुलम्मा, यह मुखौटा खिसक कर नीचे आ जाए और बड़े-बड़े दांतों वाला चेहरा दिखाई देने लगे-अपने उस चेहरे से उसे खुद डर लगने लगता। कभी अपने चारों ओर देखता और लगता, जैसे वह बड़ा मकड़ा है और चारों ओर मुलायम रेशम का खूबसूरत, तरतीबदार जाल फैलाकर बीच में बैठा चौकन्ना और चुस्त इधर-उधर देख रहा है कि कब मक्खी हमले की सीमा के भीतर आती है। अपनी यह कल्पना उसे इतनी सच्ची, घिनौनी और भयावह लगी कि बेचैनी से उसका दम घुटने लगा, जैसे पानी से बाहर सिर निकालकर सांस लेना जरूरी है। एकाएक मन हुआ कि खिड़की खोल दे और अपने बनाए जाल को छिन्न-भिन्न करके असलियत बता दे, ‘‘स्वप्ना, तुम किसके सामने ये सब बता रही हो? तुम नहीं जानतीं...’’ यह सीधी-सादी लड़की कमबख्त कहां से यहां आ मरी?

लेकिन ये सारी बातें अंदरूनी सतहों पर ही चल रही थीं और ऊपर का खेल अपनी जगह जारी था। वह बता रही थी कि घर छोड़कर एक दिन के लिए भी निकलना कितना मुश्किल है। आज तो साग-सब्जी से लेकर डॉक्टर के यहां जाना, घर का टैक्स जमा कराना-सभी कुछ उसे करना पड़ता है। बिजली चली गई, तो पेंचकस लेकर फ्यूज ठीक कर रहे हैं; पानी टपक रहा है, तो स्टूल लगाकर टंकी की मरम्मत कर रहे हैं, रात में उठकर मां को बाथरूम ले जाना...घर में वही लड़की है और वही लड़का भी। सारा वातावरण ऐसा भावुक और करुणामय हो आया था कि नवल ने अनायास वह भी कर डाला, जिसके लिए घर में प्रवेश करने के क्षण से ही वह अपने-आपको तैयार कर रहा था। उसकी बांह पकड़कर सीधा किया और एकदम छाती से चिपकाकर चारों तरफ रजाई लपेट ली। छाती पर गुदगुदे दबावों को सोखता वह उसकी कनपटी सहला रहा था। कुछ ही देर में वह उसकी गोद में थी। पता नहीं कब यह बात नवल के मन में उठने लगी थी, क्या यही सही क्षण है? अभी नहीं। अभी शायद जल्दी हो जाएगी। मिट्टी को थोड़ा और मुलायम होने दो...कुछ और रुको...मुड़कर गिलास उठाया और ब्रांडी का एक बड़ा घूंट भरकर कहा, ‘‘तुम भी ले लो, ठंड है।’’

छाती से चिपका उसका सिर हिला, ‘‘ऊंहुंक।’’

हठ से बोला, ‘‘नशा नहीं दवा है।’’ और गिलास उसके होंठों के बीच लगकर दांतों से टकराया, शायद मुंह खुला और जानबूझकर लगभग पूरी ब्रांडी गले में उड़ेल दी...स्वप्ना घूंट भरते ही जैसे तड़पकर उठ बैठी, दोनों हाथ छाती पर रखकर कराहते हुए कहा, ‘‘उफ् आग है। जल गई...’’ वह दोनों हाथ इस तरह झटकने लगी, जैसे ततैया मिर्च खा ली हो...नवल को झटके से लगा, बहुत बड़ी गलती हो गई। कहीं यह कमबख्त चीखने-चिल्लाने न लगे-वह घबरा उठा। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे-एकदम तबीयत खराब हो गई या कै-वै करने लगी, तो कैसे संभलेगा...? लेकिन स्वप्ना धीरे-धीरे शांत हो गई, तो नवल की मानो सांस आई...‘‘तुमने तो यार, मेरे हाथ-पांव फुला दिए।’’ नवल ने कहा।

‘‘आपने भी तो एकदम गिलास ही उड़ेल दिया।’’ उसने शिकायत से देखकर उलाहना दिया। ‘‘नशा चढ़ गया, तो?’’

‘‘तो क्या? सो जाना चुपचाप-’’ और इस बार बेझिझक नवल ने उसकी बांहों के नीचे हाथ लगाकर पास खींच लिया, फिर उसके बाल, गर्दन, बांहें और कंधे सहलाता रहा। अभी गजब हो जाता न-सारा किया-धरा एक मिनट में चौपट हुआ जा रहा था। झिझकता-सा हाथ कंधे से सरककर छातियों पर देर तक रखा रहा, हलके बढ़ते दबाव के साथ-सिर्फ ब्लाउज पहने है, और कुछ नहीं-कितनी अजीब बात है कि छातियों पर ऐसा दबाव ‘स्वाभाविक’ लगता है, उंगलियों की जरा सी हरकत उसे ‘योजना’ बना देती है-अंदर। सिर्फ एक आवाज उठ रही थी, बहुत हो गया ‘स्वाभाविकता’ का नाटक, अब अपने असली रूप में आ जाओ-

अब फिर स्वाभाविक होकर स्वप्ना जैसे इस सबसे बेखबर अपनी बात बताए चली जा रही थी, ‘‘आपसे पत्र-व्यवहार न होता, तो शायद किसी पागलपने में मैं कुछ खा-पीकर सो जाती...’’

‘‘बेवकूफ-पगली...’’ नवल ने मन-ही-मन में कहा, ‘साली, फिर ये सब जो हो रहा है, वह कहां से होता...?’

अब वह ज्यादा आराम से और ढीठ होकर उसकी छातियां सहला रहा था-जैसे उसकी सहानुभूति अधिक सक्रिय हो उठी है। पता नहीं, धीरे-धीरे चढ़ते नशे से या अपने-आप ही वह भी हिल-डुलकर अधिक सुविधा और आराम से लेटी थी। नवल देर से महसूस कर रहा था कि टेबुल लैंप बुझा देना चाहिए। रोशनी की जरूरत नहीं है। एक एकाग्र रोशनी में वह ‘मेरे बुढ़ापे’ को ज्यादा नजदीक से देख सकती है। चेहरे की झुर्रियां, सफेद बाल, सांवला रंग, आंखों का मटमैलापन इतने पास से ज्यादा विरक्ति पैदा करेंगे-वह उसके खुले बालों में, गर्दन पर उंगलियां फिराकर उसे ‘जगा’ रहा था। उसे इस तरह अपनी गोद में इतमीनान से खुलकर लेटे पाकर एक क्षण को कौंधा, जैसे वह बीस बरस पीछे लौट गया है और बेटी प्रज्ञा को गोद में लिटाकर सुला रहा है-आज वह अपनी ससुराल से दुखी और प्रताड़ित होकर आए और रोते हुए अपनी तकलीफ बताने लगे, तो क्या मैं उसे इसी तरह लिटाकर सांत्वना नहीं दूंगा...? स्वप्ना को कभी बाप का प्यार नहीं मिला। वह बाप की खोज में ही मेरे पास नहीं आई है? और मैं हूं कि उसकी छातियों की गोलाइयों और कूल्हे के कटाव देखकर अनुमान लगा रहा हूं कि कितने पुरुष हाथों के दबाव जगा रहा होगा, मेरा वह सहलाना...इस विचार के साथ ही सचमुच नवल एकदम ठंडा होने लगा-जैसे कहीं से कोई धिक्कार शब्दाकार ले रहा था-खत्म करो यह चालाकी और सिर्फ आदमी की तरह हमदर्दी दे सकते हो, तो दो-क्यों अपनी और उसकी निगाहों में गिर रहे हो? सहसा स्वप्ना ने लड़खड़ाती-सी आवाज में पूछा, ‘‘एक बात बताएंगे...’’

उसके सवाल को झटके से लपककर नवल ने जवाब दिया, ‘‘मत पूछो-जो तुम जानना चाहती हो, मुझे मालूम है-किसी को मेरे साथ रहने का शौक नहीं है। अब बेटे-बेटी ज्यादा प्यारे हैं। बाप शुरू से खलनायक रहा है, आज भी खलनायक है। मैंने तुम्हें लिखा था कि अकेलापन हम सबकी नियति है। एक दिन काले हाशियों के बीच तुम भी खबर पढ़ लेना...’’

रोको-रोको-नवल, साला यह इस वक्त आत्मकरुणा का ज्वार कहां से उमड़ने लगा? यह भी कोई मौका है? और उसने मुड़कर गिलास में फिर ब्रांडी डाली और एक घूंट में जैसे अपने को संभाल लिया। अचानक ही उसके भीतर गुस्से जैसा कुछ उभरने लगा-जाए भांड़ में सारी दुनिया...नवल, यह जिंदगी का एक अनमोल और अलभ्य अनुभव तुम्हारी गोद में लेटा है और तुम उल्लू के पट्ठे...

और यह भी सच है कि समानांतर चलते इस धिक्कार या गुस्से के बावजूद इस वातावरण का बोझ कुछ ऐसा सजीव उकसानेवाला था और ढाल पर लुढ़कते चले जाने की लाचारी कुछ ऐसी निरवरोध थी कि इस प्रक्रिया को बीच में रोक देना नवल के बस में नहीं था। भीतर से ग्लानि उठे या धिक्कार, मंत्रबिद्ध आदमी की तरह उसे वही करना था, जो हो रहा था। सारी स्थिति को वह जिस बिंदु पर ले आया था, वहां खुद वह एक स्वतंत्र और प्रबल कोड़ेबाज की तरह उसे सब कुछ करा रही थी। वह सिर्फ माध्यम था। लोगों पर देवी या भूत आता है, तो शायद इसी तरह असहाय माध्यम के रूप में बदल जाते होंगे। और तब उसने एक झटके से बत्ती बुझा दी, नीचे हाथ लगाकर सिर उठाया और बेझिझक स्वप्ना के होंठ चूम लिए-शराब और सिगरेट की बदबू स्वप्ना को उबकाई ला सकती है। इस भावना को उसने जबरदस्ती दबा दिया...लगा-या तो वह खुद इस स्थिति के लिए तैयार थी या नशे में इतनी बेसुध कि वहां कोई प्रतिरोध नहीं था। पता नहीं क्यों एक क्षण लगा कि अभी वह एक झटके से रजाई, नवल और सब कुछ को दूर हटा देगी और जोर से चीखती हुई नवल को, उसकी नीचता को गालियां सुनाना शुरू कर देगी-इससे पहले ही जो कुछ करना है, कर लो-लेकिन स्वप्ना ने कुनमुनाकर बहुत अहिस्ता से नवल के माथे पर हाथ लगाया और सिर अलग कर दिया-फिर जैसे बहुत स्वाभाविक स्वर में बोली, ‘‘पिला दी है, तो क्या है, गंध तो लगती ही है...’’

लेकिन अब नवल कुछ नहीं सुन रहा था। उसके कानों में अजीब सनसनाहट गूंज रही थी। लगभग किशोर हड़बड़ी में उसने साड़ी खींचकर बाहर फर्श पर पटक दी-बाकी कपड़े खींच-खोलकर उतार डाले-कपड़े उतारते समय लगा-उतनी अबोध नहीं है-बहुत बार इस तरह उतरवाए होंगे-अबोध हो, तो ठीक; न हो, तो ठीक-अब क्या फर्क पड़ता है-नवल को याद आया कि अंदर वह ‘ब्रा’ नहीं पहने हुए है, यह बात उसने पहले भी मार्क की थी...यानी मेरी अनुपस्थिति में जब नहाने गई थी, क्या तभी से जानती थी कि हमें यहीं पहुंचना है, और जब उसने कहा था कि वह मेरे यहां ही रह जाएगी, क्या तब भी इसके दिमाग में यह बात थी...?

इससे पहले कि नवल के दिमाग में कोई बात आकार ले, स्वप्ना ने जैसे कुछ सूंघ लिया। कम-से-कम नवल को यही लगा, क्योंकि वह खुद कुहनियों के बल उठी और बहुत हलके से नवल के होंठ चूम लिए...शायद लगा हो कि इस तरह हटाए जाने का मैं बुरा न मान लूं...और तभी उसके भीतर चौंक उठा...तो क्या वह सारी नीचता और इस दिशा की ‘पहल’ सिर्फ मेरी ओर से ही नहीं हो रही...? इस बोध के बीच ही नवल ने पाया कि स्वप्ना दोनों बांहें फैलाकर उसकी छाती से चिपक गई है और मुंह तथा गाल बालों में रगड़ती हुई बुदबुदा रही है, ‘‘मुझे नशे में पागल कर दिया है आपने’’ उसका नीचे सरकता हाथ वहीं रुक गया...और इन सबको जानने का एहसास या बोध का क्षण ही था कि नवल को लगा, जैसे किसी ने उसे पहाड़ की चोटी से अचानक धक्का दे दिया है और वह असहाय लाश की तरह धप्प् से नीचे आ गिरा है...


इस बात की आशंका नवल को स्वप्ना से मुलाकात के पहले क्षण से ही उसकी अंतश्चेतना में कुलबुलाती महसूस हो रही थी। आशंका के सच हो जाने का यह धक्का कुछ-कुछ वैसा ही आतंकप्रद था, जैसे दुश्मन पर हमला करते हुए हथगोला हाथ में ही फट जाए और शरीर के चिथड़े-चिथड़े उड़ा दे। निढाल और लगभग अचेत होने से पहले धुंधला-सा सिर्फ एक ही खयाल क्षण-भर को कौंधा था कि अपमानित और शर्मिंदा वह चाहे जितना रहा हो, अपराध-बोध जैसा कोई भाव नहीं था। साहित्य, कला, साधना का इस्तेमाल अगर उसने इस निरीह लड़की को फंसाने के लिए किया था, तो उसने भी उसे अपनी असहायता, लाचारी और अनाथ होने को यहां तक पहुंचने की सीढ़ी बनाया था। निश्चय ही वह उसमें ‘बाप’ खोजने आई और कूड़ा-करकट छील-तराश कर मेरे भीतर से उसने ‘बाप’ ही निकाल लिया था-एक मां की तरह मल-मूत्र और गंदगी-पोंछकर...

नवल की छाती पर सिर रखकर अब वह बेहद सुख, अधिकार और निश्चिंतता से लेटी थी। उसने अपने-आप से पूछा, ‘क्या वह मुस्करा रही है, अपनी सफलता पर संतोष और अपनी खोज की तृप्ति से या व्यंग्य और भर्त्सना से? मुझे मालूम था, तू मुझे यहीं लाकर छोड़ेगा...!’ लेकिन नवल का शिथिल हाथ उसकी नंगी पीठ पर था और उस समय वह सिर्फ एक ऐसा थका-हारा, टूटा चकनाचूर बूढ़ा था, जो पोटाशियम साइनाइड जैसी कोई भी चीज खाकर अपने-आपसे और इस सबसे मुक्त हो जाना चाहता था-एक मरणांतक उत्कटता से चाह रहा था कि किसी जादू से वह देखते-देखते अदृश्य हो जाए-छाती पर रखा वह छोटा-सा सिर एक भयानक बोझ बनकर सांसों में उतर गया था और असहनीय हो उठा था...

और यह बोझ आज तक नवल की छाती पर लदा है कि उसने यह खतरनाक खेल क्यों खेला? उस दिन सुबह चाहे स्वप्ना से आंखें न मिला पाया हो, लेकिन यह सच है कि स्वप्ना आज उसकी बेटी ही है-वैसी ही निश्छल, वैसी ही अंतरंग, लेकिन उस समय स्वप्ना के माध्यम से क्या वह सिर्फ अपनी ‘क्षमता’ या रचनात्मक ऊर्जा में अपने विश्वास को फिर से पाना चाहता था? या गांधी की तरह इस खतरनाक प्रयोग द्वारा अपने समाप्त हो जाने पर अंतिम मुहर लगाकर निश्चिंत हो जाना चाहता था? मगर उसके भीतर वह कौन-सा आत्महंता पागलपन, आत्मपीड़क या परपीड़क राक्षस था कि स्वप्ना जैसी युवती को उसने सिर्फ कसौटी का पत्थर मानकर इस्तेमाल किया, ताकि अपने कंचन की खोट को तीसरे आदमी की निगाह से जांचकर अंतिम फैसला सुना सके? फिर संपूर्ण पराजय स्वीकार करने से पहले की दयनीय छटपटाहट क्या थी? वह एक लेखक और कलाकार की तरह अपने ही शव का घिनौना पोस्ट-मार्टम कर रहा था या सिर्फ अतृप्त वासना-कुंठित बूढ़े की गंदी-कुचेष्टा और ठरक, जो प्यार और वात्सल्य की मिठाई देकर तेरह साल की लड़की की छातियां टटोलकर सुख पाता है?

बहरहाल, नवल के मन में आज भी उस सबको लेकर ग्लानि, जुगुप्सा या परिताप नहीं है। सब कुछ हार जानेवाले जुआरी की छाती चीरकर निकलती सांस ही उस खेल का हासिल है...?