हिंदी और डॉगी / शोभना 'श्याम'
आज अगर सभी पर हिन्दी दिवस का रंग चढ़ जाए तो सारे पशुप्रेमियों के डॉगी जी क्या करेंगे उन्हें तो सिरफ अंग्रेज़ी ही आती है अरे हैरानी से काहे देख रहे? आप किसी भी 'डॉग-प्रेमी' घर में जाइये या सुबह-शाम बाहर अपने डॉगियों को घूम-घूम कर निवृत कराते सज्जनों सज्जनियों, बच्चों को देख सुन लीजिए।
उससे भी पहले तो इन वेरी लकी डॉगियों के नाम ही देख लीजिए-
टॉमी, जॉर्जी, ब्रूनो, फिन, जैक, जोई, लुई, ब्रूडी, बॉक्सर पॉक्सो, रॉकी आदि आदि
कभी अपने बबलू पप्पू, बंटी, डब्बू, बब्बू, बीनू वीनू बहादुर जैसे नाम सुने, नही न? ये नाम तो घर के बच्चों के लिए प्यार से पुकारने के लिए सुरक्षित है वैसे भी इन नामों से डॉगी जी बुरा मान जाते हैं।
हमारे बचपन में (घर में तो कभी पाले नही) मुहल्ले के कुत्ते भी पालतू समान ही थे। सो उनके जन्मते ही हम बच्चे ही उनके नाम रख दिया करते थे। अब उस समय हमें व्हाट्स योर नेम, माइ नेम इज... से ज़्यादा अंग्रेज़ी आती नहीं थी (इतनी भी बड़ी मुश्किलों से अतिथियों के सम्मुख प्रदर्शन हेतु सिखाई जाती थी) सो नाम कैसे अंग्रेज़ी रखते। उनकी शक्ल या रंग, अपनी अकल और उनकी प्रवृत्ति यूं कहें आदत, स्वभाव के आधार पर वही ले दे के भूरे, गोलू, लहरों, चीकू, झबरा, कल्लू, सोनिया, गोरा रख देते थे। कसम से इन बेचारों ने कभी बुरा नहीं माना। ये उसी वफादारी से हमारे ले, ले कहने पर दुम हिलाते पीछे चल देते और इसी वफादारी के तहत अजनबी के धोखे में दूसरे शहर से हमारे घर आने वाले और ज़रा से भी संदिग्ध दिखते मौसा, फूफा, भैया आदि के पैर में बुड़की भर लेते थे ऐसे में सामान्य अभिवादन पैर छुलाई, आशीर्वाद के बदले प्रवेश यूँ होता था, " अरे कहाँ है सब? हाय य...ये देखो तुम्हारे महल्ले के कुत्ते ने क्या किया हाय... आ।आ...ऊऊ।
और स्वागत पानी, छाछ, शर्बत के बजाय लाल मिर्चों से होता था जो उनके घाव में भर दी जाती थी ये आश्वस्त कर देती थी कि जिसका मुहल्ले के पालतू कुत्ते द्वारा दंत-स्वागत हुआ है वह भी भौ-भौ न करने लगे या जहरबाद न फैल जाए (जी, उस समय सेप्टिक को इसी नाम से जानते थे हम) इस आश्वस्ति के बाद में पानी आदि भी पिला दिया जाता था।
खैर ये पुराने जमाने का मामला ज़रा रायते की तरह फैल रहा है सो असली मुद्दे पर आते है कि आजकल इन क्यूट, ब्यूट से लेकर भयूट डॉगियों के साथ सारा वार्तालाप अंग्रेज़ी में ही होता है।
टॉमी गो ...
ब्रूनो कम-कम ।
जॉर्जी नो! नो डोन्नू डू दिस
रूडी! सुपरर! यू डन इट
जैक! ईट इट
व्हाट हैप्पण्ड बेबी,
फिन! ब्रिंग इट
और ...जो अभी याद नहीं आ रहे, क्योंकि एक तो हमने डॉगी पाले नहीं और जिन्होंने पाले है उनके घर में घुसते ही डॉगी के प्रेमपूर्ण स्वागत का जवाब डरके किल्लियाँ मारते और इसको हटाओ जैसी असभ्य क्रूरता और गवाँरता से करते है।
खैर फिर असल टॉपिक पर...
बेशक ये कुत्ता प्रजाति से है, लेकिन इनको घर में कोई कुत्ता नहीं कह सकता। मेरी एक मित्र को एक बार मेहमान के (मेरे) नाश्ते पर उचकते, तंग करते अपने डॉगी पर बड़ा असली वाला गुस्सा आ गया सो उन्होंने गुस्से में 'कुत्ता कहीँ का' कह दिया।
उफ़्फ़ बेचारे डॉगी की बटननुमा अँखियों में जल भर आया, वो इतना हर्ट हुआ कि ये बुरे आदमियों को दी जाने वाली संज्ञा मुझ जैसे मासूम को क्यों दी गयी और दूर जाकर बैठ गया। वैसे इससे पहले ही मित्र को अपनी गलती का अहसास हो गया था सो बेचारी सेंटर टेबल पर रखे चाय-समोसों को ठंडा होते छोड़ उसके पीछे भागी और सॉरी, सॉरी कहते उसे बाहों में भर लिया फिर प्यार से पुचकार कर कहा—"बेबी व्हाई यू डू दिस, मम्मा टोल्ड यू ना, थिस इस नॉट फॉर यू" पुच्च! पुच्च! गुड़ ब्वाय, डोंट डू अगेन। गो ...पुच्च! ईट योर फ़ूड। "
अब अगर हिन्दी दिवस होता और उन्हें इसका सम्मान करना ही होता तो वह कैसे मनाती अपने डॉगी को, जिसको उन्होंने भूल से इत्ती बड़ी गाली दे दी थी?
लेकिन शुक्र है कि हिन्दी दिवस का झंडा मात्र हिन्दी लेखकों अनुवादकों और सरकारी असरकारी अध्यापकों अधिकारियो, (जिन्हें ऊपर से आदेश मिलता है) को ही उठाना, फहराना पड़ता है इसलिए सभी पालतू कुत्ते, सॉरी-सॉरी डॉगी निश्चिंत रह कर अपनी दुम हिला सकते हैं। हिन्दी उनपर कतई नहीं लादी जाएगी।