हिंदी और मध्यम वर्ग का विकास / अमृतलाल नागर

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समय निकल जाता है, पर बातें रह जाती हैं। वे बातें मानव पुरखों के पुराने अनुभव जीवन के नए-नए मोड़ों पर अक्‍सर बड़े काम की होती हैं। उदाहरण के लिए, भारत देश की समस्‍त राष्‍ट्रभाषाओं के इतिहास पर तनिक ध्‍यान दिया जाए. हमारी प्रायः सभी भाषाएँ किसी न किसी एक राष्‍ट्रीयता के शासन-तंत्र से बँध कर उसकी भाषा के प्रभाव या आतंक में रही हैं। हजारों वर्ष पहले देववाणी संस्‍कृत ने ऊपर से नीचे तक, चारों खूँट भारत में अपनी दिग्विजय का झंडा गाड़ा था। फिर अभी हजार साल पहले उसकी बहन फारसी सिंहासन पर आई. फिर कुछ सौ बरसों बाद सात समुंदर पार की अंग्रेज़ी रानी हमारे घर में अपने नाम के डंके बजवाने लगी। यही नहीं, संस्‍कृत के साथ कहीं-कहीं समर्थ, जनपदों की बोलियाँ भी दूसरी भाषाओं को अपने रौब में रखती थीं। प्राचीन गुजराती भाषा पर ब्रजभाषा का भी गहरा प्रभाव था। बँगला भाषा उड़िया और असमिया पर रौब रखती थी। मलयालम कभी तमिल भाषा की दबोच में थी। यह सब भी चलता था। मैं समझता हूँ कि शायद इसी की ऊब, आजादी की नई चेतना में, अब भारत के हर भाषा क्षेत्र के शिक्षित जनों और उनके प्रभाव से अर्थाभावग्रस्‍त चिड़चिड़े जनसाधारण में गहरी घुटन-सी फूट रही है। भारत की हर भाषा, हर बोली अब अपनी स्‍वतंत्र स्थिति चाहती है। स्थिति यह है कि इस समय हर व्‍यक्ति बस 'स्‍वतंत्र' होना चाहता है, 'स्‍व' से 'तंत्र' का सम्बंध और उसका करतब समझे बिना ही।

बारहवीं-तेरहवीं शताब्‍दी से हमने देखा कि हर भाषा अपने क्षेत्रीय-जन की आध्‍यात्मिक और सांस्‍कृतिक भूख को शांत करने में समर्थ होकर संस्‍कृत भाषा के अंकुश से उबरने लगी थी। ज्ञानेश्‍वर ने गीता रचने के लिए अपनी मातृभाषा मराठी की शरण ली। कृतिवास ने बँगला में, कंबन ने तमिल में, तुलसी ने हिन्दी की अवधी बोली में रामायण लिखी। इसी तरह रस-अलंकार आदि समान नियमों से शास्‍त्रबद्ध भारत की सभी भाषाओं के साहित्‍य में भी एकरसता थी; अब भी है। मजे की बात है कि भाषाएँ अपनी रचना-शक्ति और कौशल दिखलाने में तो ज़रूर स्‍वतंत्र हो गईं, पर उनकी भाववस्‍तु एक ही रही। भाषाओं की ऐसी स्‍वतंत्र सत्‍ता हमें तनिक भी घातक नहीं मालूम होती। लल्‍लेश्‍वरी उर्फ लालदे कश्‍मीरी भाषा में अपने आराध्‍य का स्‍मरण करती हैं। आंडाल तमिल भाषा में अपने आराध्‍य को भजती हैं। मीरा ब्रजभाषा, राजस्‍थानी और गुजराती भाषाओं में अपने आराध्‍य को और जनाबाई मराठी में अपने आराध्‍य भाव को, लेकिन इन चारों के आराध्‍य भारत भर के आराध्‍य थे। भारत का जनमानस एक भाव में बहता था। चैतन्‍य, रामानंद, वल्‍लभाचार्य, कबीर, सूर, तुलसी, तुकाराम, नरसी, नानक आदि कोई व्‍यक्ति किसी भी भाषा-क्षेत्र का हो, सारे भारत का प्रतिनिधित्‍व करता था। इनके इष्‍टदेव अलग-अलग, सगुण या निर्गुण हो सकते हैं, पर ये सभी भक्तिमार्गी थे। ये अपने इष्‍टदेव की महिमा बढ़ाने के लिए दूसरों के इष्‍टदेवों पर घृणा के गोले नहीं दागते थे। इनका महाभाव किसी भी इष्‍ट देवी-देवता के उपासक को अपने ढंग से स्‍पर्श और आंदोलित करने की क्षमता रखता था। यही कारण है कि मुसलमान सूफी और भारतीय भक्‍त तक अपनी-अपनी आराधना पद्धतियों के जुदा होने पर भी यह पहचान सके कि दोनों के भजन-पूजन का आधार एक ही है। जहाँ यह भावनात्‍मक एकता हो वहाँ चौदह क्‍या चौदह-सी भाषाएँ अलग होकर भी दरअसल एक ही हैं।

भक्तिमार्ग के अलावा ज्ञानमार्गी पद्धति भी भारत भर में व्‍याप्‍त थी। पेशावर, कश्‍मीर, पंजाब, अवध, मगध, गुजरात, बंगाल या धुर‍दक्षिण, कहीं का भी निवासी विद्वान, शास्‍त्री, संन्‍यासी हो, समूचे देश में हर जगह अपनी विधा की छाप छोड़कर अपना सिक्का जमा सकता था। संस्‍कृत भाषा हिंदुस्‍तान भर में इनको कहीं भी परायापन अनुभव नहीं होने देती थी।

इन दो मार्गों के अलावा एक और मार्ग भी था। भगवती बाबू के उपन्‍यास सामर्थ्‍य और सीमा में शिवानंद द्वारा एक नारा बखाना गया है-'लूटो मेरे भाई.' चूँकि हिन्दी की समझ हिंदुस्‍तान को अभी कम और अंग्रेज़ी की अधिक है; इसलिए 'बोल-चाल' की, चाँदनी चौक की भी भाषा में उस नारे को 'एल.एम.बी.' कहना हमने आरंभ कर दिया है। कहिए तो और नाम के अभाव में हम उसे फिलहाल अनंत काल तक 'एल.एम.बी. मार्ग' अर्थात 'लूटो मेरे भाई मार्ग' के नाम से पुकार लें। महानुभाव अपनी अवतारी लीला पूरी करके चले जाते थे। एल.एम.बी. मार्गी उन के नाम पर पंथ चला कर अपना धर्म पालन करते थे। यह एल.एम.बी. ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी अपने-अपने इष्‍टदेवों के अखाड़े बनाकर लड़ता भी था, घृणा भी फैलाता था; पर इसके लिए भी जिस तंत्र का वह उपयोग करता था, वह भारत भर में एक-सा ही था; पाप में भी वह मजबूरी इसलिए थी कि भारतीय शिक्षा-पद्धति एक थी। सारे भारत में असंख्‍य ब्राह्मण, जैन या बौद्ध आचार्यों के गुरुकुल थे-अपने-अपने घरों में थे, वे अपनी शिष्‍य-मंडली को शिक्षा देते थे। संस्‍कृत साहित्‍य की शिक्षा के लिए बड़े-बड़े नगरों या उनके आस-पास की जगहों में विद्यापीठ कायम थे। नगरों और ग्रामों की पाठशालाएँ अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं और संस्‍कृत के व्‍यावहारिक ज्ञान के अलावा महाजनी हिसाब-किताब में अपने-अपने जन को कुशल बनाती थीं। राज्‍य और महाजनी निगम अथवा व्‍यक्तिगत दोनों और क्षेत्रीय जातीय पंचायती पैसे से भी यह शिक्षा अमीर-गरीब सबके लिए सुलभ थी। श्री सुंदरलाल लिखित 'भारत में अंग्रेज़ी राज' के छत्‍तीसवें अध्‍याय में ये सारी कहानी संक्षेप में पढ़ने को मिल जाती है। इसी अध्‍याय में उद्धृत सन 1832 ई. की ईस्‍ट इंडिया कंपनी की एक सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है-"शिक्षा की दृष्टि से संसार के किसी भी अन्‍य देश में किसानों की अवस्‍था इतनी ऊँची नहीं है, जितनी ब्रिटिश भारत के अनेक भागों में।" तरीका यह था कि ऊँचे दर्जों के विद्यार्थी निचली कक्षाओं के विद्यार्थियों को पढ़ाते थे और साथ-साथ अपना ज्ञान भी पोढ़ाते और बढ़ाते चलते थे। 'म्‍युचुअल ट्यूशन' की इस भारतीय शिक्षा-पद्धति को इंग्लिस्‍तानी शिक्षा-पद्धति में जोड़ लिया गया और हिंदुस्‍तान में तोड़ दिया गया। मुसलमानी शासन-काल में अरबी, फारसी और उर्दू पढ़ाने के लिए बहुत से मकतब और मदरसे भी स्‍थापित थे, अंग्रेज़ी नीति ने उन्‍हें भी उजाड़ा। पंडित सुंदरलाल ने अपने इतिहास ग्रंथ में लिखा है-"सन 1757 से लेकर पूरे सौ वर्ष तक लगातार बहस होती रही कि भारतवासियों को शिक्षा देना अंग्रेजों की सत्‍ता के लिए हितकर है या अहितकर।" सन 1833 में ब्रिटिश गवाही देते हुए श्री जे.सी. मार्शमैन ने पार्लियामेंट की सेलेक्‍ट कमेटी के सामने कहा था-"भारत में अंग्रेज़ी राज कायम होने के बहुत दिनों बाद तक भारतवासियों को किसी प्रकार की भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध होता रहा। ...कंपनी के एक डायरेक्‍टर ने कहा कि हम लोग अपनी इसी मूर्खता से अमेरिका से हाथ धो बैठे हैं, क्‍योंकि हम ने उस देश में स्‍कूल और कालेज कायम हो जाने दिए, अब भारत के विषय में हमारा उसी मूर्खता को दोहराना ठीक नहीं है।"

अंग्रेज जानता था कि भारतीय शिक्षा-पद्धति को तोड़ना भारत-भारती की तब तक सकुशल अखंड प्रतिमा को खंडित करना है। सैकड़ों सदियों से लगे सुव्‍यवस्थित ज्ञान-बगीचे को उन्‍होंने अज्ञान का बीहड़ जंगल बना दिया। हमारी परंपराएँ छिन्‍न-भिन्‍न करके उन्‍होंने हमें जंगली बना देने का भरसक प्रयत्‍न किया।

यहाँ एक बात और भी ध्‍यान में रखने की है। भारत अनेक राष्‍ट्रीयताओं और जातियों-उपजातियों का देश है। इन में आपस में राजनीतिक स्‍वार्थवश सदा से फूट और बैर भाव भी रहा है। ज्ञानमार्ग हो या भक्तिमार्ग इनके आपस के मत-मतांतर जब जन समुदायों में अपनी ताजगी लेकर जाते हैं, तब तो उनमें महाभाव जगा कर एकता लाते हैं, उन्‍हें सभ्‍य बनाते हैं, पर जब वे रूढ़ होकर लौकिक स्‍वार्थों अर्थात एल.एम.बी. के प्रभाव में आ जाते हैं, तब अपनी असलियत खोकर बैर और फूट बढ़ाने के कारण भी बन जाते हैं। भारतीय शिक्षा-पद्धति, तीर्थ-यात्रा के आकर्षण से साधु-संन्‍यासियों का परिभ्रमण, पौराणिक कथाओं की एकसूत्रता इस फूट को बराबर जोड़ती भी रहती थी। जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, भारत के किसी भी कोने में उत्‍पन्‍न होने वाले महापुरुष सारे भारत को प्रभावित करने की क्षमता रखते थे। अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा-पद्धति को उजाड़कर हमारी एकता के उस सूक्ष्‍म तंतुजाल को काटना चाहा। लेकिन इस महादेश पर शासन करने के लिए उन्‍हें दफ्तरी कारिंदों की आवश्‍यकता भी थी। कहाँ से लाएँ? राज-काज यहाँ की भाषाओं में चलाएँ या अंग्रेज़ी भाषा में? मैकाले ने सन 1835 ई. में फतवा दिया कि ऊँची श्रेणी के भारतीयों को अंग्रेज़ी में शिक्षा देकर उनका एक ऐसा वर्ग बनाना चाहिए जो रंग और खून से तो हिंदुस्‍तानी हो पर जो रुचि, मतों, शब्‍दों और बुद्धि से अंग्रेज हो। हमारे देश में बहुत-से लोग यह समझने और मानने लगे हैं कि अंग्रेज़ी ही हमारी इस व्‍यापक राष्‍ट्रीय एकता का कारण है। लेकिन मेरी विनम्र समझ में उनका यह मत ठीक नहीं। नया ही सही पर अंग्रेजों की अशिक्षा प्रसार-नीति के बाद शिक्षा प्रसार का यह माध्‍यम पुरानी भारतीय सभ्‍यता को, हमारी भावात्‍मक एकता को पुनर्प्रतिष्ठित करने में तत्‍काल ही सहायक हो गया। अंग्रेज़ी पढ़कर भारत में एक नया काला अंग्रेज तैयार तो हुआ, पर ठीक-ठीक अंग्रेज़ी सरकार की धारणा के अनुसार सभी अंग्रेज़ी पढ़ने वाले ऐसे न बने। अंग्रेज़ी के अध्‍ययन ने उन्‍हें अपना पुराना और विदेशों का नया ज्ञान वैभव प्रदान कर के कट्टर भारतभक्‍त, स्‍वतंत्रता प्रिय, न्‍यायी और विवेक-शील बना दिया। ये भारतीय ही हमारे नए राष्‍ट्रनिर्माता बने। हमारा आधुनिक मध्‍यम-वर्ग इन्‍हीं अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे, स्‍वस्‍थचेता भारतीयों और काले अंग्रेजों का है। स्‍वस्‍थचेता अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे भारतीयों ने अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को नए सिरे से उठाया, उसमें उन्‍होंने साहित्‍य-रचना करनी आरंभ की, सामाजिक वैचारिक आंदोलनों को मातृभाषा के माध्‍यम से जनमानस में आंदोलित किया। नई वैज्ञानिक शक्तियों का माहात्‍म्‍य बखाना। हमारे हिन्दी भाषा प्रदेशों में भी एक नया युग आरंभ हुआ।

हिंदी के पुराने सुलेखक श्रीयुत ज्ञानचंद जैन ने वर्षों पहले अपनी किसी प्रस्‍तावित थीसिस के लिए बड़े श्रम से बड़ा मसाला जुटाया था। उनके एक रजिस्‍टर में मुझे सन 1853 ई. में आगरा के मोती-कटरा मुहल्‍ले से प्रकाशित होने वाले साप्‍ताहिक समाचार पत्र बुद्धि प्रकाश के कई उद्धरण टँके हुए मिले। पत्र के संपादक मुंशी सदासुखलाल थे। काशी की नागरी प्रचारिणी सभा में उक्‍त साप्‍ताहिक पत्र की कुछ फाइलें सुरक्षित हैं। गदर से चार वर्ष पहले की हिन्दी की बानगी देखने के साथ ही नयी चेतना के शुभागमन की सूचनाओं पर भी गौर करना उचित होगा। 20 अप्रैल, 1853 के अंक में 'लोहे की सड़क के समाचार' प्रकाशित हुए हैं। रेल शब्‍द जो आज भारतीय जन साधारण में खूब प्रचलित है, उस समय अपरिचित था। समाचार की भाषा इस प्रकार है-"हिंदुस्‍तान के निवासियों को प्रकट हो कि एक लोहे की सड़क इस देश में भी बन गई और वर्तमान महीने को 4 तारीख से पंथियों का आवागमन भी उस पर होने लगा और ये लोहे की सड़क जो बंबई में बनी है हिंदुस्‍तान में सब से पहली है।" उस समय कोई 'हिंदी फोनेटिक' तो मौजूद न था। पर समाचारों की भाषा फिर भी हिन्दी ही थी।

17 अगस्‍त, 1853 ई. के अंग में लखनऊ के समाचार पढ़िए. वाजिद अली शाह की फिजूलखर्ची इस समाचार में बखानी गई है। लिखा है-"पहले महीने के पिछले दिनों में अवध के बादशाह ने बड़ी जिवनार की। नगर के निवासियों को केवल इसीलिए बुलाया था कि श्रीयुत बादशाह सलामत कहते हैं कि आज देखें लोग जोगिए भेस में कैसे दृष्टि आते हैं। सो आज्ञा हुई कि जितने सेवक इस दरबार के हैं सब गेरुए वस्‍त्र पहनकर आएँ। उनके अनुसार लोग वही भेस बना के इकट्ठे हुए और यह जमाय परस्‍तान बाग में हुआ। तीन दिवस तक खान-पान, नाच-रंग होता रहा और प्रत्‍येक दिन एक लक्ष्‍य मनुष्‍य से अधिक इकट्ठे होते थे। क्‍यों न हों, राजाओं के योग्‍य यही बातें हैं। आशय यह कि जब धूमधाम हो चुकी साहिब रजीडेंट बहादुर असिसटैंट साहिब को साथ ले बादशाही दरबार में सिधारे। निश्चित होता है कि इस मूर्खता के विषय में कुछ कहने गए होंगे।"

उसी वर्ष में 26 अगस्‍त के अंक में मुरादाबाद में मुहर्रम के अवसर पर शिया-सुन्‍नी झगड़े और दशहरे पर अलीगढ़ में हिंदू-मुस्लिम दंगे की खबरों के साथ ही बंगाल में होने वाली एक सामाजिक सभा के समाचार भी छपे हैं-"राजा राधाकांत बहादुर ने पिछले महीने की 26 तारीख मंगलवार को पंडितों की सभा इस निमित्त की कि विधवा स्त्रियों के पुनर्विवाह के विषय शास्‍त्रार्थ होने के पीछे जो कुछ निर्णय हो सो व्‍यवस्‍था की रीति पर लिखा जाए."

एक सौ नौ वर्ष पहले की यह हिन्दी भाषा क्‍या बनावटी है? कठिन है? नहीं, हमारे लिए नहीं, पर हिन्दी की परंपरा को 'फैनेटिसिज्म' के नाम पर रद्दी मोल तोलने वालों को यह भी शायद कठिन और बनावटी लगे। राजर्षि टंडन के स्‍वर्गवास का समाचार रेडियो की प्रयोगवादी भाषा में यों प्रसारित किया गया था-"...चल बसे।" 'स्‍वर्गवास' शब्‍द दिल्‍ली के चाँदनी चौक में प्रचलित नहीं, 'आधीन' शब्‍द भी चाँदनी चौक में प्रचलित नहीं, वहाँ केवल 'मातहत' ही लोकप्रिय है। चाँदनी चौक की हिन्दी के नाम पर हाल ही में रेडियो मंत्रियों ने बड़े तूफान खड़े किए थे। मैं दिल्‍ली के चाँदनी चौक की जनता से सीधा प्रश्‍न करता हूँ, क्‍या चाँदनी चौक के निवासी स्‍वर्ग नहीं, केवल जन्‍नत ही जानते है? चाँदनी चौक किसी भी शहर के चौक से बहुत अलग होकर भी एकदम निराला तो नहीं हो सकता। हम 'आधीन' तो बोलते ही हैं, 'मातहत' शब्‍द बहुत कम और 'आधीन' बहुत अधिक प्रचलित है, रामाधीन, श्‍यामधीन, शिवाधीन आदि नाम हम में से हर एक ने खूब सुने होंगे।

फिल्‍लौर, जिला जालंधर, पंजाब के पंडित श्रद्धारामजी ने सन 1877 ई. में भाग्‍यवती नाम का एक उपन्‍यास लिखा था। उस समय भी कोई 'हिंदी फैनेटिक' नहीं था। इसलिए भाग्‍यवती की भूमिका गंभीरतापूर्वक ध्‍यान देने के योग्‍य है। फिल्‍लौरी जी लिखते हैं-... "इस ग्रंथ में वह हिन्दी भाषा लिखी है जो दिल्‍ली और आगरा, सहारनपूर, अंबाला के इरदेगिरद के हिंदू लोगों में बोली जाती और पंजाब के स्‍त्री-पुरुषों को भी समझनी कठिन नहीं है। इस ग्रंथ में जिस देश और जिस भाँति के स्‍त्री-पुरुषों की बात-चीत हुई है वह उसी की बोली और ढंग से लिखी है, अर्थात पूरबी पंजाबी पढ़ा-अनपढ़ा, स्‍त्री और पुरुष गौण और मुख्‍य जहाँ पर कोई जैसे बोला उसी की बोली भरी हुई है।"

श्रीयुत डॉ। गोपाल रेड्डी कृपा करके इस भाषा परंपरा पर ध्‍यान दें। आंध्र प्रदेश में हैदराबाद के निजामी प्रभाव से उर्दू का खास चलन चला। राघवेंद्र राव आदि कुछ तेलगु भाषी हिंदुओं ने उर्दू काव्‍य साहित्‍य को अपनी प्रतिभा का दान भी उसी तरह से दिया है जिस तरह पंजाब, दिल्‍ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्‍यभारत के हिंदू परंपरागत शब्‍द मिट गए? क्‍या वे जनसाधारण की बोल-बाल से भी उठ गए? सीताराम राजू की 'बोरो कथा' में 'ओ तेलुगु बिड्डला ओ वीर योधुड़ा' वाली उत्‍साहवर्धक पंक्तियाँ अगर 'तेलगु फैनेटिसिज्म' की परिचायक है, 'कंबन पिरंद तमिलनाड' गीत गाने वाले अगर तमिल-फैनेटिक है, 'बांगालेर माटी' की महिमा गाने 'फैनेटिक' है तो हमें भी 'हिंदी-फैनेटिक' कहलाने में गर्व का ही बोध होगा।

उन्‍नीसवीं सदी केवल हिन्दी या हिन्दी भाषा-भाषियों के समाज ही में क्रांति नहीं लाई, बल्कि पूरे देश की भाषाओं और उनके बोलने वालों के समाज में भारी परिवर्तन ला रही थी। बढ़ते हुए अंग्रेज़ी प्रभाव को देखकर सारे देश भर में यहाँ का पुराना निवासी एक साथ जागा था। कलकत्ता, मद्रास, बंबई, काशी, पूना, इलाहाबाद, पटना, लाहौर, कराँची, आदि नई मध्‍यवर्गीय चेतना के तीर्थ थे। नागरिक और हद से हद प्रादेशिक स्‍तर पर सारे साहित्यिक, सामाजिक और जातीय आंदोलन हो रहे थे। वह हमारे नए जागरण का पहला दौर था। छापेखानों के प्रचार ने इसमें बड़ा योगदान दिया है। अंग्रेज़ी पढ़ना नौकरी पाने के लिए ज़रूरी था, पर ईसाइयों के स्‍कूलों में न पढ़ाना पड़े, इसलिए भारतीयों द्वारा चंदे से स्‍कूल खोले जाने लगे। आरंभ में अंग्रेज़ी पढ़ने के सम्बंध में घरों में बिरादरी वालों से लेकर गाँव के जमींदार तक में कुलीन नौजवान का विरोध भी हुआ है, पर जान पड़ता है कि अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए बड़ा जर्बदस्‍त आकर्षण भी समाज में क्रमशः घर करता गया। एक बुजुर्ग से मैंने सुना था कि उनके बाबा अपने बाप से छिप कर अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए गाँव से गए थे। पिछ़वाड़े के द्वार से छिपकर अपनी माँ से मिलने घर आया करते थे। पाँच-छह वर्षों तक यों ही चलता रहा। फिर पिता भी राजी हो गए. पंडित मदनमोहन मालवीय, महाराज के चबूतरे पर स्‍थापित पाठशाला में पढ़ने वाला, दरिद्र किंतु सत्‍यनिष्‍ठ कथावाचक का बेटा, पढ़ने के लिए ईसाइयों के स्‍कूल में तो भेजा जाता है, पर प्‍यास लगने पर वहाँ पानी नहीं पी सकता। प्‍यास बेकाबू होने पर और मौलवी साहब के छुट्टी न देने पर लड़का घर भाग जाता है। ताऊ सुन कर चाँटा मारते हैं-"लड़का भाषा भले ही अंग्रेज़ी पढ़ रहा था, पर उसकी निष्‍ठा सदियों-दर-सदियों के तपे संस्‍कारों ही की थी। प्रातःस्‍मरणीय महामना अपने समय में एक नहीं थे। उस काल में भारत के हर प्रदेश में उत्‍पन्‍न होने वाले राजनीतिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक महापुरुषों की जीवनियों में आपको यह निष्‍ठा तत्त्‍व किसी न किसी रूप में अवश्‍य मिलेगा। यही निष्‍ठा-तत्त्‍व तो भारत भर में फैलते-सिमटते सन 1884 ई. में राष्‍ट्रीय कांग्रेस बन गया।"

गदर के बाद वाले नए काल में जमाना दस-दस, बीस-बीस बरस में बड़ी तेजी से बदला है। अवध में गदर का अंतिम युद्ध 14 जनवरी 1859 को बहरामघाट पर लड़ा गया। लगभग दो वर्षों तक अर्थात सब से ज़्यादा दिनों तक जहाँ अंग्रेजों के प्रति सक्रिय विरोध रहा है, वहीं 1865-66 की सरकारी रिपोर्टों के अनुसार अंग्रेज़ी सरकार के तेरह सौ स्‍केलों में पाँच हजार लड़के अंग्रेज़ी भाषा पढ़ रहे थे। यह हमारे समाज की तीव्र प्रगति का प्रमाण है, कुछ अंग्रेज़ी की लैला पर मर-मिटने का नहीं। अंग्रेज़ी पढ़ने वालों में सरकारी, अफसर, वकील डॉक्‍टर, इंजीनियर, प्रोफेसर सभी हुए. अफसर के पास सत्ता थी, लेकिन वकील, प्रोफेसर, और संपादक आदि पढ़े-लिखों के साथ जन-बल था। पुराने भारतवासियों के समाज में उसके स्‍वजातीय अफसरों के रौब ने जो सुधार आंदोलन लादा, उस से कहीं अधिक स्‍वस्‍थ और स्‍वच्‍छ धरातल पर बौद्धिक वर्ग ने सुधार किया। यह आज की दुश्‍मन सांप्रदायिकता भी कुर्सी वालों ही की देन है। फलाँ मुसल्‍टे अफसर ने साहब की खुशामद करके इतने मुसलमानों को नौकरी दिला दी और अमुक हिंदू, धोतीप्रसाद ने सरकारी नौकरियों में इ‍तने हिंदू घुसा दिए, इस तरह की चकल्‍लस से हमारे समाज के दूसरे अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे बुद्धिवादी बुद्धिजीवी आरंभ में बिल्‍कुल अलग थे। मुहम्‍मद अली जिन्‍ना अनेक पढ़े लिखे मुसलमान कांग्रेस में शामिल थे।

वे सब पढ़े-लिखे हिंदू-मुसलमान अधिकतर थे? नामी खानदानी, अमीर उमरा के वंशज? नहीं। इनमें दरिद्र घरों में जन्‍म लेने वालों गोखले, मालवीय जैसे लोग ही अधिक थे। गांधी एक गुजराती ताल्‍लुकेदार के दीवान के बेटे थे; अधिक-से-अधिक कह लीजिए, खाता-पीता, खुश-परिवार था। इन्‍हीं औसत खाते-पीते, भले या दरिद्र, किंतु कुलीनों के तेजस्‍वी नैनिहाल अंग्रेज़ी पढ़-लिखकर देशी-प्रेमी, स्‍वभाषा-प्रेमी, संस्‍कृति-प्रेमी, उदार मानीवय दृष्टिकोण पाने वाले महापुरुष हुए. उन्‍होंने अंग्रेजी, संस्‍कृत और पाली आदि भाषाओं के अध्‍ययन से अपने देश की प्राचीन उपलब्धियों को फिर से उपलब्‍ध किया और अपनी-अपनी भाषाओं में प्रेम के द्वारा एक नई वैचारिक क्रांति उत्‍पन्‍न की। जो गीता, रामायण, पुराण, उपनिषद आदि प्राचीन साहित्‍य को धार्मिक ग्रंथ मात्र समझते हैं, उन्‍हें उस जमाने में भी यह देखकर बड़ा अचरज हुआ था कि गीता पढ़कर हमारे यहाँ लोग बमबाज क्रांतिकारी भी बने और तिलक, गांधी अरविंद भी बने। शायद आज यह बात आश्‍चर्यजनक लगे, किंतु दिन के उजाले की तरह सच है कि राष्‍ट्रीय आंदोलन के दिनों में एक सीताराम बाबा ने तुलसीकृत रामयण की चौपाइयों से उत्तर प्रदेश और मध्‍य प्रदेश के बहुत से गाँवों में क्रांति की चिलगारियाँ मूसलाधार बरसाई थीं। संध्‍या के एक नित्‍य पाठ वाले संकल्‍प के मंत्र में 'राज्‍यम् वैराज्‍यम् गण-राज्‍यम् साम्राज्‍यम्' आदि शब्‍दों पर ध्‍यान देकर इन की खोज में जुटते ही बैरिस्‍टर काशीप्रसाद जायसवाल को हमारे देश का वह अनूठा इतिहास मिला, जो हिंदू पालिटी नामक पुस्‍तक में उनकी तथा उनके देश की कीर्ति को सदा अमर रखेगा। उपनिषद-पुराणों का उद्देश्‍य एल.एम.बी. मार्गियों ने चाहे जैसे भी सिद्ध किया हो, लेकिन उससे यह तो सिद्ध नहीं होता कि वे भारतीय दर्शन और कला की उच्‍चतम सिद्धियाँ नहीं हैं या उन्‍हें पढ़ने से आदमी सांप्रदायिक बन जाता है? जब हम यह सत्‍य जान लेते हैं कि अपने ऊँचे संस्‍कारों वाले मन की इच्‍छाओं को ज्ञान-सधी बौद्धिक शक्ति और शारीरिक स्‍वास्‍थ्‍य-सधी क्रिया-शक्ति रूपी पंखों के सहारे मनुष्‍य को हर दिशा और हर ऊँचाई पर उड़ने का अधिकार मिल जाता है। चाहे वह साहित्‍य में प्रवेश करे या राजनीति, दर्शन योग या शिक्षा आदि के क्षेत्रों में, तो धर्मों से जुड़कर भी हमें संस्‍कृति की स्‍वतंत्रता सत्ता का पता लग जाता है।

अपनी संस्‍कृति की स्‍वतंत्र सत्ता पहचानने से हमारे नए मध्‍य वर्ग के पुरखों को हमारी पुरानी भावनात्‍मक एकता की पहचान हुई. यही एकसूत्रता वे भाषा और लिपि के रूप में भी चाहते थे। राम, कृष्‍ण, बुद्ध और महावीर के कारण हिन्दी की एक न एक बोली भी संस्‍कृत के साथ-साथ सारे भारत से जुड़ी रही और देवनागरी लिपि भी। इसलिए संस्‍कृत भाषा वाली एकसूत्रता उन्‍हें देवनागरी लिपी में लिखी जाने वाली संस्‍कृत छाप खड़ी बोली में भी मिल गई. खड़ी बोली की उर्दू शैली एक लिपी के साथ मुसलमानी शासनकाल में भरसक फैलाई गई थी; पर उससे हिंदी-भाषी पुराने देशवासियों या अहिंदी-भाषी पुरानी परंपरा के भारतीयों का काम नहीं चलता था। सन 1910 ई. में जस्टिस कृष्‍णस्‍वामी अय्यर ने कहा था-"अब जब उत्‍कृष्‍ट लेखक देशी भाषाओं के साहित्‍य की पूर्ति कर रहे हैं और उन सब देशी साहित्‍यों का उद्गम प्राचीन आर्य साहित्‍य है, तब क्‍या एक भाषा की संपत्ति को दूसरी के पास पहुँचाना आवश्‍यक नहीं? ...अब हम यदि किसी एक लिपी को ग्रहण करना चाहें तो... एक और अरबी लिपि है, जिसे यदि सब नहीं तो अधिकांश मुसलमान अपने संकीर्ण जातीय ममत्‍व के वशीभूत होकर अपनाए हुए हैं। कुछ लोग रोमन अक्षरों को उपयुक्‍त बतलाते हैं। फिर देवनागरी लिपी है जिसमें हिन्दी और प्रायः समस्‍त भारतीय भाषाओं की जड़ संस्‍कृत लिखी जाती है। अरबी लिपि तो इस तिरस्‍कृत है कि वह अपूर्ण भी है और उसमें व्‍यर्थ के अक्षरों की भरती है। ...मुझे इस विषय के अच्‍छे ज्ञाता श्री सैयदअली बिलग्रामी का यह निश्चित मत सुनाया गया है कि अरबी लिपि भारतीय लिपि होने के योग्‍य नहीं। रोमन अक्षरों के विषय में इतना निश्चित है कि लोगों के जातीय भाव को धक्‍का लगेगा। ऐसी स्थिति में क्‍या मेरी यह प्रार्थना निष्‍फल होगी कि देश के हित के लिए नागरी अक्षरों का व्‍यवहार स्‍वीकार करें।" (चंद्रवती पांडेय लिखित शासन में नागरी पुस्‍तक से।) जस्टिस कृष्‍णस्‍वामी अय्यर या बाबू शारदाचरण मित्र या राजर्षि टंडन 'नागरी फैनेटिक' नहीं, बल्कि देश और अपनी संस्‍कृति के प्रेमी थे। उनके पुरखे सौ से भी अधिक वर्षों से राष्‍ट्रीय एकता के लिए हिंदी-नागरी को बढ़ावा दे रहे थे। राजा राममोहन राय देश के सुधार के लिए अखबार निकालने बैठे तो केवल अंग्रेज़ी भाषा और रोमन अक्षरों ही से उनका मन न भरा। हिन्दी भाषा और नागरी अक्षरों को भी अपनाया। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्‍याय, दयानंद सरस्‍वती, लोकमान्‍य तिलक आदि भी अपनी भारतीय निष्‍ठा के कारण ही हिंदी-नागरी को बढ़ावा दे रहे थे। यही कारण है कि हिन्दी का विकास कई दिशाओं से हो रहा था; और भारतेंदु को अपने हिन्दी भाषा नामक ग्रंथ में संस्‍कृत, अंग्रेजी, फारसी शब्‍दों के न्‍यूनाधिक प्रयोग और उच्चारण विभेद से हिन्दी के बारह भाग करने पड़े। अधखिला फूल की भूमिका में हरिऔध जी ने इसका हवाला देते हुए 'अधिक संस्‍कृत शब्‍द युक्‍त हिंदी' , 'अल्‍प संस्‍कृत शबद प्रयुक्‍त हिंदी' , 'शुद्ध हिंदी' , 'अधिक फारसी शब्‍द युक्‍त हिंदी' , 'बंगालि‍यों की हिंदी' , 'अंग्रेजों की हिंदी' , आदि विभाग गिनाए हैं।

यह हिन्दी और देवनागरी लिपि नए भारतीय मध्‍य वर्ग के प्रयत्‍न से पुराने भारतवासियों के समाज में वैचारिक क्रांति ला रही थी। विधवा-विवाह हो, बाल-विवाह न हो, धर्मांधता से मुक्ति मिले, अपनी भाषा और संस्‍कृति के लिए प्रेम बढ़े, राजनीतिक और आर्थिक क्रांति लाई जा सकें-इसलिए हिन्दी को राष्‍ट्रभाषा के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा था, कुछ 'हिंदी फैनेटिसिज्म' बढ़ाने के लिए नहीं। जिस तरह से अहिंदी-भाषी बौद्धिकी लोग राष्‍ट्र की भावनात्‍मक एकसूत्रता के लिए हिंदी-नागरी की और बढ़ रहे थे, उसी तरह हिंदी-भाषी बुद्धिचेता जनता भी बँगला, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के नए साहित्‍य की ओर शुरू ही से उन्‍मुख हो रही थी। उत्तर भारत का देशवासी अपनी परंपराओं के प्रति आस्‍था पाने के लिए ही भारत की दूसरी भाषाओं के साहित्‍य से बँध रहा था। उसके क्षेत्र में फलने-फूलने वाला, उसकी अपनी ही एक बोली की विदेशी शैली साहित्‍य यानी उर्दू से उसे वह आस्‍था नहीं मिलती थी। यही कारण था कि लखनऊ रानी कटरा के निवासी पंडित रतननाथ दर 'सरशार' के मुहल्‍ले वाले होकर भी पंडित रूपनारायण पांडेय हिन्दी और बँगला भाषाओं के बीच की एक महान कड़ी बने; यही कारण है कि हिन्दी साहित्‍य सम्‍मेलन के अधिवेशन देश के हर भाषा-क्षेत्र में सफलतापूर्वक संपन्‍न होते रहे और यही कारण है कि दक्षिण में एक हिन्दी प्रचार सभा ने पिछले चालीस-पैंतालीस वर्षों में अपनी सफलता का एक चमत्‍कारिक इतिहास बनाया है। यह हिन्दी भला 'फैनेटिक' बना सकता? हाँ, यह हिन्दी अटूट लगन वाले राष्‍ट्र-प्रेमी, मानव-मात्र के सच्‍चे प्रेमियों का सुदृढ़ आस्‍था वाला समाज अवश्‍य बना सकती है; और यदि 'अटूट लगन' और सुदृढ़ आस्‍था 'फैनेटिसिज्म' शब्‍द की व्‍याख्‍या के अंतर्गत ही आते हों तो हम कुछ नेता बाबुओं के बाँधे हुए हुल्लड़ के अनुसार अवश्‍य ही 'हिंदी फैनेटिक' हैं और इसी में अपना गौरव-बोध करते रहेंगे, हमारी भाषा और समाज का विकास भी इस ढंग पर निर्भय-निःशंक होता रहेगा।

(1962, साहित्‍य और संस्‍कृति में संकलित)