हिंदी की दुर्दशा / चित्तरंजन गोप 'लुकाठी'
उन चारों का सिलेक्शन किसी ऊँचे पद पर दक्षिण भारत में हुआ था। वे योगदान करने हेतु जा रहे थे। भाषायी समस्या को लेकर चिंतित थे। इसी विषय पर बातचीत चल रही थी-- हिन्दी तो राष्ट्रभाषा ... दक्षिण भारत में इसका कोई कद्र ... अंग्रेज़ी से तो काम चल जाएगा पर सुदूर देहात ...हिंदी एक ऐसी भाषा है जो पूरे देश को ... सरकार को चाहिए कि देश में हिन्दी की पढ़ाई ... हिन्दी बहुत सरल भाषा ... इसका साहित्य काफ़ी समृद्ध ... अंग्रेज़ी माध्यम का ज़माना ... सच में हिन्दी की दुर्दशा देखकर...।
सामने की बर्थ पर बैठी एक महिला उनकी बातचीत में शरीक होते हुए बोली-- भैया, आपलोग हिंदी-प्रेमी और साहित्य-प्रेमी लग रहे हैं। क्यों न हमलोग कुछ साहित्यिक चर्चा करें?
"हाँ, हाँ, अवश्य।" चारों एक साथ बोल उठे।
"तो चलिए, पहले आप चारों एक-एक कविता सुनाइए। फिर, मैं भी सुनाऊँगी।"
"कविता ?" चारों एक दूसरे का मुंह ताकने लगे। "क्यों, कोई दिक्कत है क्या?"
"फिलहाल तो ...।"
उनकी इतस्ततः अवस्था देखकर महिला बीच में बोल उठी, "चलिए, मैं ही सुनाती हूँ।" और उसने एक-एक कर हिन्दी की चार कविताएँ सुनाईंं। वह बोली, "क्या, कुछ तमिल कविताएँ भी सुनाऊँ?"
चारों अवाक होकर उसे देखने लगे। एक साथ पूछ बैठे, "क्या आप तमिल है...?"
महिला की हल्की मुस्कान से उसके मोती-जैसे दांत चमक रहे थे। ट्रेन अपनी पटरी पर छुक छुक करती भागी जा रही थी !