हिंदी ग़ज़ल में प्रकृति और पर्यावरण / भावना
आज का दौर पर्यावरण की सुरक्षा का आपातकाल कहा जाता है। धरती की हरियाली के साथ जो हमने खिलवाड़ किया है उसका खामियाजा सभी को भुगतने के लिए तैयार रहना होगा। हमारा देश हमेशा बाढ़, सूखा या ओलावृष्टि जैसी गंभीर समस्याओं से जूझता रहता है। नदियों में प्रदूषण की समस्या भी दिनोंदिन गंभीर रूप लेती जा रही है। अगर हमें इन परिस्थितियों से मुक्ति चाहिए तो प्रकृति का सम्मान करना होगा। प्रकृति को सर्वोपरि मानते हुए हमें वही मान-सम्मान देना होगा जो हमारी पुरातन संस्कृति ने सिखाया है। चारों वेद में से एक अथर्ववेद में प्रकृति के बारे में विस्तार से बताया गया है। हमारे पूर्वज वृक्ष की पूजा किया करते थे। आज भी पीपल में देव का वास माना जाता है। नीम और आंवले को अपने दरवाजे पर लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है। वैज्ञानिक दावा करते हैं कि पीपल सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन देने वाला पौधा है, वहीं नीम कई रोगों के उपचार हेतु औषधीय पौधे के रूप में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। आज भी बिहार के शादी समारोहों में आम-महुआ ब्याहने की रस्म अदा की जाती है। इस तरह की परंपरा निश्चित रूप से प्रकृति के संरक्षण को ध्यान में रखकर चलायी गई होगी। घर-घर में तुलसी के पौधे का होना और उसमें पूरी श्रद्धा से स्त्रियों का जल देना भले ही 'अहिबात' यानी कि सुहाग बढ़ाने के लिए अनिवार्य हो पर आज वैज्ञानिक तुलसी के पौधे के औषधीय गुणों को न सिर्फ़ मानते हैं अपितु इसके आंगन में होने भर से कई रोगों की रक्षा की बात करते हैं।
विकास की अंधी दौड़ में हमने अपनी सुख-सुविधाओं के लिए महलों का निर्माण किया। शहरों के विस्तार के नाम पर जहाँ खेती लायक जमीन बहुमंजिला इमारतों में बदल गईं, वहीं हरे-भरे पेड़ बेदर्दी से काट दिए गये। छल-छल करती नदियाँ शहरों से निकले कचरों का घर हो गईं। विकास के नाम पर हम कब झोला, ठोंगा से होते हुए प्लास्टिक पर पहुंच गए पता ही नहीं चला। झोला गंवार होने की निशानी मानी जाने लगी। अब जबकि धरती पॉलिथीन से पट गई है तो पर्यावरणविद भी इस बात की आशंका जताने लगे हैं कि अगर प्लास्टिक के प्रयोग को रोका नहीं गया तो शीघ्र ही इस धरती का बड़ा हिस्सा पॉलिथीन के पहाड़ में तब्दील हो जाएगा। इसके पीछे तर्क यह है कि पॉलिथीन का नष्ट होना संभव नहीं है। हमारी प्रकृति पंच तत्व जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश से बनी मानी जाती है। आज हम अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर इनसे ही छेड़छाड़ करने में लगे हैं।
ग़ज़ल अरबी-फारसी, उर्दू से होते हुए हिन्दी में आयी तब न केवल कहन बल्कि अपने अलग तेवर की वजह से भी अलग पहचान बनाने में कामयाब हुई. ग़ज़ल भले ही पूर्व में प्रेमिका से बातचीत का पर्याय मानी जाती हो पर, आज की ग़ज़लें विचारों की प्रखरता से परिपूर्ण ग़ज़लें हैं जिसकी चिंता में प्रकृति और पर्यावरण भी शामिल है। किसी भी साहित्य का विकास समाज से जुड़ा होता है। आज की ग़ज़लें सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक अंतर्विरोधों को प्रमुखता से अपने शेरो का विषय बना रही हैं। आज की ग़ज़लें प्रकृति और पर्यावरण जैसे अहम मुद्दों पर शेर कहते हुए न केवल पर्यावरण में हो रहे छेड़छाड़ एवं उसके दुष्परिणाम को व्यक्त करती है अपितु सावधान करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़तीं। आज की ग़ज़लें लोगों के मनोरंजन के लिए नहीं कही जातीं बल्कि गंभीर रचनात्मक उद्देश्य की पूर्ति के लिए कही जाती हैं। गोपाल दास नीरज ने बहुत पहले अपने शेर में कहा है कि-
कोई दरख्त मिले या किसी का घर आये
मैं थक गया हूँ कहीं छाँव अब नजर आये
यानी कि पेड़ न केवल हमारी रक्षा करते हैं बल्कि मुसाफिरों को आराम की ज़रूरत होने पर अपनी छाँव भी देते हैं।
भूमंडलीकरण, उदारीकरण के साथ उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमारे पर्यावरण को क्षत-विक्षत करने में अग्रणी भूमिका निभाई है।
गज़लकार डी एम मिश्र के ये शेर देखें-
रक्त का संचार है पर्यावरण
सांस की रफ्तार है पर्यावरण
पेड़ रोते हैं कुल्हाड़ा देखकर
किस कदर लाचार है पर्यावरण
पेड़ न केवल प्रकृति के संतुलन में अग्रणी भूमिका निभाते हैं अपितु हमें हमारे पूर्वजों से जोड़ने का काम भी बखूबी करते हैं। हम पूर्वजों द्वारा लगाए गए पेड़ से फल खाते हुए अपने बच्चों को यह बताते हैं कि फलां वृक्ष हमारे बाबा ने लगाया था तो...
फलां वृक्ष हमारे परबाबा ने ... तथा यह वृक्ष मेरे पिताजी के लगाए हुए हैं। ये पौधे हमारे सबसे करीबी रिश्तेदार होते हैं जिनकी डोर हमारी साँसों से बँधी हुई है। उनके द्वारा प्रदत्त भोजन हमारी रगों में खून में तब्दील होकर दौड़ता है। जी हाँ! इन पौधों से हमारी संवेदना जुड़ी हुई है जिनकी वजह से इनसे हमारे रिश्ते बेहद भावनात्मक है।
सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा जी ने क्या खूब कहा है। शेर देखें-
हमारे घर के आंगन में खड़ा ये पेड़ रिश्तों का
मुहब्बत दोस्ती तख्लाक की पहचान लगता है
जहीर कुरेशी का ये शेर देखें-
जो पेड़, मेरे पिता ने कभी लगाया था
पिता के बाद, पिता-सा ही उसका साया था
वहीं अशोक अंजुम कहते हैं-
ये नदी, वो घटा, वो आसमान फूलों का
काश हो जाता ये सारा जहान फूलों का
सुप्रसिद्ध शायर शिव कुमार बिलगरामी कहते हैं-
महकते आम का एक पेड़ है जो गांव में अबतक
कभी जाता हूँ उस तक तो लड़कपन ढूंढता हूँ मैं
प्रकृति न केवल हमारी सुरक्षा करती है बल्कि हमें विषम परिस्थितियों में जीने की राह भी बताती है।
महेश अग्रवाल कहते हैं-
दान देने की कला तू सीख सूरज से
बाँटता है धूप पर निर्धन नहीं होता
वहीं शायर अशोक मिजाज का यह शेर देखें-
वही फ़िजा है वही पेड़ हैं वही मौसम
मगर वह पहले-सी दिलकश बहार अबके नहीं
प्रकृति असंतुलन का सबसे बड़ा जिम्मेदार पेड़ों का बेदर्दी से काटते जाना है। प्रकृति अपने दर्द भले ही शब्दों से बयाँ नहीं करती पर, अपने कार्य से ज़रूर बता देती है। प्रदूषण के बढ़ते प्रभाव ने पेड़ों की रौनक छीन ली है। फूलों से लदे पेड़ अब मटमैले ज़्यादा देखते हैं। इस विपरीत परिस्थिति में अश्वघोष के ये शेर देखें-
दूर तक कंक्रीट के जंगल
तू यहाँ अमराइयाँ मत ढूँढ
या
इक परिंदा भूल से क्या आ गया था एक दिन
अब परिंदों को मेरा घर घोंसला जैसा लगे
वहीं रामदरश मिश्र कहते हैं-
पूछते हैं पेड़ पेड़ों से सहमकर
क्या हवा में आज फैली सनसनी है
उनका एक और शेर देखें-
जमीं खेत के साथ लेकर चला था
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे
वहीं प्रसिद्ध शायर ज़हीर कुरेशी पौधे को कटते देख कर कहते हैं। शेर देखें-
जिसकी शीतल छाँव में बैठकर विश्राम कर लूँ
इस शहर में एक भी ऐसा कोई तरूवर नहीं है
धर्मेंद्र गुप्त साहिल कहते हैं-
शहर के वास्ते फिर
कोई जंगल कटा क्या
पेड़ों के कटने से न केवल मनुष्य प्रभावित होते हैं बल्कि चिड़ियों का ठिकाना भी छिन जाता है और पर्यावरण खतरे में पड़ जाता है।
रवि खंडेलवाल के शेर देखें-
छीना हमने ठौर ठिकाना बरगद, पीपल से
पंछी का कैसे कर यारो, मैं संताप लिखूं
वहीं जय कृष्ण राय तुषार कहते हैं-
परिन्दें जिसकी शाखों पर कभी नगमें नहीं गाते
भले ही खूबसूरत हो शज़र अच्छा नहीं लगता
शुद्ध हवा और पानी मनुष्य के लिए अति आवश्यक है। हवा और पानी के दूषित होते ही मनुष्य तरह-तरह की बीमारियों से घिर जाता है। सुप्रसिद्ध शायर प्रेम किरण कहते हैं-
शह्र में गांव की फ़िजा ही नहीं
सांस क्या लें कहीं हवा ही नहीं
वहीं सुप्रसिद्ध छंदशास्त्री दरवेश भारती इसी समस्या की ओर इशारा करते हुए कहते हैं-
गांव शहरों की तरफ कुछ इस कदर हैं बढ़ रहे
खत्म होके रह गई है शहरों की शिनाख्त भी
वहीं दिनेश प्रभात जी का यह शेर भी गौर करने लायक है-
उन परिन्दों से कहो दुबके रहें
आज मौसम की सही हालत नहीं
आज वायु प्रदूषण हमारे देश की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। बड़े-बड़े शहरों में अनगिनत जनरेटर धुआँ उगल रहे हैं, वहीं वाहनों से निकलने वाली गैसें, कारखाने और विद्युतगृह की चिमनियाँ तथा स्वचालित मोटर गाड़ियों में विभिन्न ईंधनों के पूर्ण और अपूर्ण दहन भी प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हैं, जो पर्यावरण के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। वातावरण में जहरीली गैसें जैसे-कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइ आक्साइड और अन्य गैसों सहित एस पी एम, आर पी एम, सीसा, बेंज़ीन और अन्य खतरनाक जहरीले तत्वों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है। हम अगर अब भी सतर्क नहीं हुए तो परिणाम बहुत ही खतरनाक होगा। दरवेश भारती जी ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए क्या खूब कहा है-
शोले उगलती धूप से जाना हो गर मफर
पास आओ मेरे, कहता है ये इक घना शज़र
वहीं दिनेश प्रभात जी का यह शेर देखें-
खेलने लग गया है धुएँ आग से
मोम का यह शहर चुप्पियाँ तोड़ दो
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। अतः आवश्यक है कि विकास की अंधी दौड़ में हम प्रकृति को न भूलते हुए बेवजह गाड़ियों के प्रयोग को रोकें। टीवी, फ्रिज और एसी जैसे अत्याधुनिक संसाधनों का प्रयोग यथासंभव कम कर दें तो प्रकृति पर एहसान होगा। अपने तात्कालिक लाभ के चक्कर में हम प्रकृति को बहुत नुकसान पहुँचाने लगते हैं। पर्यावरण सुरक्षा पर युवा ग़ज़लकार विकास का शेर देखें-
हम बनायें स्वच्छ निर्मल आज अपने गांव को
पेड़ घर-घर में लगा, दे निमंत्रण छांव को
वहीं राम मेश्राम कहते हैं-
कोई रात शीतल, कोई दिन गरम है
कि नौ रस हैं चौरस, ये क्या माजरा है
पेड़ों की अंधाधुंध कटाई ने बारिश को भी काफी नुकसान पहुंचाया है। जब धरती की हरियाली नष्ट होती है तो उसकी मिट्टी का कटाव बढ़ जाता है। कटाव बढ़ने के कारण मिट्टी की जलधारण क्षमता नष्ट होती है। इससे मिट्टी और धरती का स्वास्थ्य खराब होने लगता है। उसमें सुखाड़ से लड़ने की क्षमता नहीं रहती। बाढ़ और सुखाड़ दोनों मानव निर्मित समस्याएँ हैं। इससे बचने के लिए पौधारोपण के साथ-साथ नदियों को बचाने की दिशा में सार्थक प्रयास करना होगा। नदियों में कचरा विसर्जित करना बंद करना होगा।
जय कृष्ण राय तुषार का यह शेर देखें-
ये गंगा फिर बहेगी तोड़कर मजबूत चट्टानें
जो कचरा आपने फेंका हटाकर देखिए साहब
वहीं पर कमलेश भट्ट कमल कहते हैं-
इतनी मैली कर चुके हैं धार गंगा की हमीं खुद
उस तरफ से गुजरें तो झोंका हवा का काँपता है
वहीं डाॅ मधुर नज्मी कहते हैं-
पापियों के पाप को धो रही है सदियों से
गम लिए जमाने का है नदी मुसीबत में
वहीं वरिष्ठ ग़ज़लकार वशिष्ठ अनूप कहते हैं-
समूचे विश्व की तो सारी बातें जान लेते हो
नदी गर माँ है तो माँ की रूलाई क्यों नहीं सुनते
वहीं राम मेश्राम कहते हैं-
रूठे तो सुखा दे मुई, टूटे तो डुबो दे
आषाढ़-ता-भादों की खुराफात झमाझम
नदियों में कचरा फैलाकर ही हम संतुष्ट नहीं होते बल्कि उसे भरकर घर बनाने से भी नहीं चूकते। नतीजा बाढ़ आने पर घर की छत और दीवारें टूट जाती हैं तथा जान-माल की क्षति अलग होती है। डाॅ भावना का यह शेर देखें-
नदी के द्वार पर जाकर बसेरा मत बना लेना
बचाती है जो जीवन तो सबकुछ भी डुबाती है
हमारे देश की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। स्वाभाविक है कि अनावृष्टि या अतिवृष्टि की स्थिति में किसान महंगाई की मार से दब जाते हैं। लोग आसमान की ओर ताकते हैं तथा बारिश देवता की गुहार लगाते हुए पइंद्र देव से प्रार्थना करने लगते हैं। पर, हम यह भूल जाते हैं कि इन परिस्थितियों के जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं हैं। श्याम सखा श्याम का ये शेर देखें-
नभ गर बिन बादल होगा
दोस्त कहाँ फिर जल होगा
वहीं सुप्रसिद्ध ग़ज़लकार ब्रम्हजीत गौतम कहते हैं-
खेत बेचैन है प्यास से
इन घटाओं को क्या हो गया
वहीं डाॅ भावना कहती हैं-
धूल जब धूंध बन निकलती हो
क्यों न बादल पर भी असर होता
वहीं अनिरूद्ध सिन्हा कहते हैं-
सुना है बाढ़ आई है पड़ोसी गांव में लेकिन
यहाँ तो धूप की बारिश है सावन के महीने में
पानी की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। मुंबई जैसे बड़े शहरों में रहने वालों का जीवन बारिश के पानी पर निर्भर है। उसी तरह राजस्थान समेत कई राज्यों में भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। जल का स्तर काफी नीचे चले जाने की वजह से गर्मी के दिनों में हैंडपंप के साथ-साथ बिजली चालित मोटर भी जवाब देने लगते हैं। ऐसी परिस्थिति में हमें पानी की बर्बादी को रोकने के लिए तन-मन-धन से कोशिश करनी चाहिए. अशोक मिजाज कहते हैं-
कतरे-कतरे की ज़रूरत है अभी गुलशन को
और सड़कों पर बहा करता है बेजा पानी
वहीं डॉ भावना का शेर देखें-
बर्बाद होते जब भी देखा है मैंने पानी
मुबंई की 'चाल' का फिर मुझको ख्याल आया
वहीं शिव कुमार बिलगरामी कहते हैं-
अगर नदियाँ न होती जो मेहरबाँ इस समुन्दर पर
हजारों साल पहले ही समन्दर सूख जाता ये
हिंदी शायरी में प्रकृति और पर्यावरण मुद्दा बनकर उभरा है। शेरों के शब्द भले मीठे हों, लेकिन खतरे को बड़ी बारीकी से रखा गया है। वर्तमान दौर के शायर अच्छी तरह जानते हैं कि प्रकृति को हम संतुलित नहीं रखे तो एक दिन यह पृथ्वी से जीवों का खात्मा कर देगा। अपने स्वार्थ के लिये जिस तरह हम प्राकृतिक संपदा का उपयोग कर रहे हैं, उसका परिणाम जीवन का अंत ही है। शायरों ने इस खतरे को भांप लिया है। शेर इस बात के गवाह हैं कि प्रकृति व पर्यावरण मानव के लिये कितना ज़रूरी है। आज ज़रूरत है कि हमें शेरों के अर्थ समझने की और शायरों की चिंताओं को समझते हुये उसके अनुकूल कार्य करने की। लेखकों ने अपना धर्म तो निभाया है, लोगों को भी जागरूक होकर पृथ्वी को बचाने की पहल करनी चाहिये।